"तो फिर?"
"जयपुर से था।"
"किसका, ब्रिज भैया का?"
"हूँ।"
"ख़ैरियत?"
"पूरा कर लो फिर बताती हूँ।"
"ऐनीथिंग सीरियस?"
"कहा न, पूरा कर लो फिर आराम से बात करेंगे।"
"ओके।" कहकर वह अंतिम स्लाइड का सार लिखने लगा। लिख चुका तो अपनी नोट बुक बंद करके
एक संतोष की साँस लेते हुए बोला- "आह! फाइनली ईट्स ओवर।"
मीरा के चेहरे पर चिंता झलक
रही थी।
चंदर बोला- "क्या बात हुई डियर? मुझे कुछ गड़बड़ लगती है।"
"हाँ है कुछ।" वह नाखून कुरेदती हुई बोली, "चलो, पहले खाना खा लेते हैं।"
"ऐसे कैसे यार, पहले बताओ तो बात क्या है।"
"बात सचमुच बहुत सीरियस है चंदर।"
"क्या?"
"कंचन का एक्सीडेंट हुआ है।"
"ओह गॉड! तो?"
"वह हास्पीटलाइज़्ड है।"
"माई गॉड!" वह सिर पकड़ कर बैठ गया।
"इसका मतलब," वह बोला, "हमें कल सेमीनार के बाद फ़ौरन निकलना पड़ेगा।"
"उससे पहले नहीं निकल सकते?"
"क्या बात करती हो? इतना इम्पार्टेंट सेमीनार है और मेरा यह प्रेजेंटेशन साल भर से
ऊपर हो गया है इसकी तैयारी में।"
"सो तो ठीक है, लेकिन. . ."
"लेकिन क्या?"
"भैया ने कहा है कुछ भी हो सकता है, ऐनी मोमेंट. . ."
"उफ्फ!" उसने सिर पर हाथ मारा। बोला, "जब मैंने पूछा था ऐनीथिंग सीरियस तब क्यों
नहीं बताया।"
"मैं चाहती थी तुम काम पूरा कर लो।"
"और अब कहती हो उस काम को छोड़कर चल पडूँ?"
"बिगड़ते क्यों हो? तुम्हारी मर्ज़ी है चलो, नहीं है न चलो।"
"क्या कहा भैया ने? कितना सीरियस है?"
"बोले, चांसेस फार्टी-सिक्स्टी है।"
कंचन चंदर के छोटे भाई की पत्नी है। खूब
स्मार्ट तेज़, जीन्स पर खादी का कुर्ता पहनकर स्कूटर पर घूमने वाली फ्री लांस
जर्नलिस्ट। नाम मात्र की गृहस्थी। एक बच्ची है उसकी जो होस्टल में हैं। कंचन अपने
स्कूटर पर जा रही थी कि एक गाड़ी से टकरा गई और यह एक्सीडेंट इतना भयंकर हुआ कि
बचने की उम्मीद केवल चालीस प्रतिशत बताई गई।
"कैसे होगा?" चंदर ने एक लंबी साँस ली।
"चलो पहले कुछ खा लेते हैं।" कंचन ने उसका हाथ पकड़कर उठाते हुए कहा, "फिर सोचेंगे
क्या करना है।"
"यह भी ठीक कहती हो। ऐसे सिर पकड़ कर बैठने से तो कोई हल नहीं निकलने वाला।"
अभी
कुछ क्षण पहले तक चंदर कल सुबह से शुरू होने वाले सेमीनार को लेकर उत्साह से भरा
हुआ था। बहुत सारे डेलिगेट्स के पत्र उसके पास पहुँच चुके थे जो इस सेमीनार में
पेपर पढ़ने आ रहे थे। बहुत सारे विषयों पर उसके मन में प्रश्न थे जिन्हें पूछने का
मौका उसे कल मिलने वाला था। कितना उन सबके संग मिलकर बैठने का उसका मन था। सेमीनार
के बाद शाम को कॉकटेल डिनर होना है। बहुत सारे पुराने साथी-साथिन मिलते। दिल खोलकर
बातें होतीं। लेकिन अब, अब क्या हो सकता है। वह ज़्यादा से ज़्यादा अपने पेपर की
प्रस्तुति तक रुक सकेगा। उसके बाद तो निकलना ही पड़ेगा। जितनी जल्दी निकल सकें उतना
अच्छा। अगर ग्यारह बजे तक निपट सके तो बस पकड़ कर शाम तक जयपुर पहुँच सकते हैं।
खाने की मेज़ पर बैठा वह खाने के साथ-साथ आने वाले कल का कार्यक्रम बनाने में लगा
था। सुबह उठकर वह बॉस को फ़ोन करेगा कि ऐसी-ऐसी बात हो गई है, हो सके तो उसका
प्रेजेंटेशन पहले करवा दें ताकि वह जल्दी से जल्दी निकल सके।
"बच्चों का क्या करें।" उसने मीरा को पूछा।
"मेहरा साहब के यहाँ छोड़ जाएँगे।"
मेहरा लोग उनके पड़ोसी थे। जब कभी बाहर जाना हो, ये लोग अपने-अपने बच्चों को एक
दूसरे के पास छोड़ जाया करते थे।
"छुट्टी कितनी एप्लाई करूँ?"
"क्या बताऊँ फ़िलहाल तो संडे तक की सोचो।"
और अगर कुछ हो गया तो? चंदर सोच-सोचकर
परेशान था क्यों कि ठीक तेरह दिन बाद उसे विदेश जाना था और उसका एअर टिकट बुक हो
चुका था। उधर मीरा जाने की तैयारी के लिए हिसाब लगा रही थी कितने दिन के लिए कपड़े रखे और
कैसे-कैसे कपड़े रखे। अगर सब ठीक-ठाक रहता है तो कुछ ढंग के कपड़े रखने होंगे और
अगर कुछ ऐसी वैसी बात हो जाती है तो मातम वाले जोड़े ही रखना ठीक होगा। तेरहवीं के
दिन के लिए एक सफ़ेद जोड़ा भी रख लेना चाहिए। लेकिन ऐसा करने से कहीं यह तो नहीं
लगेगा कि पहले से ही तैयारी करके आए हैं। यों भी उसके पास ढंग की कोई सफ़ेद साड़ी
नहीं। छोड़ो, काली छींटदार तो एक है, वही चलेगी, उसने सोचा। ऊपर से सफ़ेद शाल ले
लेगी। अपनी चाची की तेरहवीं पर उसने उसकी बहू को सफ़ेद सिल्क की साड़ी पर सफ़ेद शाल
ओढ़े देखा था। बहुत प्रभावी लग रही थी। हालाँकि उसकी शाल बहुत कीमती थी लेकिन मीरा
के पास जो शाल है वह भी कोई ऐसी वैसी नहीं।
मीरा के लिए जयपुर में एक विशेष आकर्षण
है उसके बड़े भैया का घर। ब्रिज भैया। डाक्टर ब्रिज मोहन, जिन्होंने उसे फ़ोन किया
था। चंदर भी अपने बड़े साले साहब से मिलने का इच्छुक रहता था। खूब पटती है दोनों में।
डॉ.ब्रिजमोहन एक ऐयाशी पसंद आदमी हैं। जमकर ऐयाशी करते और करवाते हैं। लेकिन यह समय
ऐसी बातें सोचने का नहीं। यह तो चिंता की घड़ी है। वह अपने छोटे भाई के पास उसका
दु:ख बाँटने जा रहा है। खाना खाने के बाद मीरा ने सुझाव दिया कि पहले पैकिंग कर ली
जाए।"
ऐसा है कि तुम बड़े सूटकेस में अपने कपड़े रख लो। जो जगह बचे उसमें मेरा एक
पैंट और कुछ शर्टस और अंडर गार्मेंटस वगैरह फिट कर लेना। तब तक मैं सुबह के
प्रेजेंटेशन की तैयारी पूरी करके आता हूँ।" सब कुछ बड़े कायदे से होता गया। सुबह फ़ोन पर बॉस से बात हो गई। बॉस उसका पेपर
जल्दी पढ़वाने के लिए मान गए। छुट्टी के लिए भी मान गए। सेमीनार में उसके पेपर की
प्रस्तुति भी खूब ज़ोरदार हुई। बहुत प्रशंसा मिली। वहाँ से निकलकर वह मीरा को साथ
लेकर साढ़े ग्यारह की डीलक्स से जयपुर के लिए रवाना हो गया।
बड़ी आरामदेह यात्रा रही। बस एकदम नई थी शायद। सीटें साफ़-सुथरी, गद्देदार। कोई शोर
या खटर-खटर नहीं, झटके नहीं। बस एकदम तैर रही हो जैसे। रास्ते में 'मिड-वे' में बैठकर डोसे खाए। वाह! क्या डोसे थे। इतने बढ़िया तो पहले
कभी नहीं लगे। एक के बाद एक सब बातें अच्छी होती जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि अब
आगे भी अच्छी ही ख़बर मिलेगी।
बस ठीक समय पर जयपुर पहुँच गई। ब्रिज भैया ने जो पता
नोट करवाया था उस पर अस्पताल पहुँचने में कोई असुविधा नहीं हुई। रात होने से पहले
ही वे पहुँच गए। अस्पताल के बाहर लाल टोयोटा खड़ी थी। इसका मतलब ब्रिज भैया वहाँ पहले से मौजूद थे।
लेकिन वे नज़र नहीं आए। इमर्जेंसी वार्ड के बाहर खड़े मिले कंचन के पति करन। बड़े
भाई को सामने देखकर करन के चेहरे पर एक फीकी-सी मुस्कराहट तैर गई। उसने बताया कि
हालत पहले से बेहतर है। डाक्टरों की उम्मीद बढ़ गई हैं। अब फार्टी-सिक्स्टी की जगह
सिक्स्टी-फार्टी कह रहे हैं। यह बहुत बड़ी सांत्वना थी। जितना अँधेरे वाली तरफ़
झुके थे उतना रोशनी की तरफ़ उठ रहे थे। करन ने बड़े भाई से कहा, "इतनी तकलीफ़ करने
की क्या ज़रूरत थी। सारे काम बीच में ही छोड़कर आना पड़ा होगा। यहाँ तो पता नहीं
अभी कितना समय और इसी तरह लगना है।"
उसने बारी-बारी से चंदर और मीरा को भीतर ले
जाकर इमर्जेंसी में पड़ी कंचन की झलक दिखलाई।
"उफ्फ! देखी नहीं जाती कंचन की यह हालत।" चंदर ने आकर मीरा के कान में कहा। कंचन के
शरीर में कितनी ही नलियाँ, कितने ही तारों का जाल फैला हुआ था, कितने आले फिट किए
हुए थे। उसका चेहरा तो जैसे पूरी तरह प्लास्टर की खोल में बंद था।
मीरा ने करन से पूछा, "ब्रिज भैया आए हुए हैं क्या? उनके जैसी एक गाड़ी बाहर. . ."
"हाँ, वे यहीं चाय लेने गए हैं, आते ही होंगे।"
थोड़ी देर में लंबे-चौड़े ब्रिज
भैया एक हाथ में थर्मस और दूसरे हाथ की उँगलियों में चार प्याले फँसाए प्रकट हुए।
"हलो, हलो! आ गए तुम लोग। दैट्स ग्रेट। मैंने तुम लोगों को एंटर होते देख लिया था
इसलिए चार कप लाया हूँ।
थर्मस और कप एक तरफ़ रखते हुए वे बारी-बारी से बहन-बहनोई दोनों के गले मिले। खुद
बहुत बड़े डाक्टर होने के नाते बड़े आत्मविश्वास से दिलासा देते हुए बोले, "फ़िक्र
मत करो। उसकी हालत सुधर रही है।"
फिर उन्होंने चाय प्यालों में उड़ेली। तीनों को
एक-एक कप पकड़ाया और चौथा अपने हाथ में पकड़े एक लंबी चुस्की लेते हुए बोले, "बुरी
नहीं है।"
"नहीं, अच्छी है, गरम है।'' चंदर ने समर्थन में कहा।
फिर ब्रिज भैया ने पूछना शुरू किया। कब चले थे, सफ़र कैसा रहा, जगह ढूँढ़ने में खास
परेशानी तो नहीं हुई, वगैरह वगैरह।
करन ने पूछा, ''आप लोगों ने दिन में खाना खाया कि नहीं, थके होंगे, थोड़ा फ्रेश हो
लें।''
चंदर ने करन से पूछा कि एक्सीडेंट कैसे हुआ। उसके पीछे कोई साज़िश तो नहीं थी
क्यों कि कंचन बहुत बोल्ड पत्रकार है।"
ऐसा नहीं लगता भैया कंचन ड्राइविंग में बहुत
रैश है, छोटे-मोटे एक्सीडेंट तो अक्सर ही मारती रहती है।"
"अभी बिटिया को ख़बर है कि नहीं?" मीरा ने पूछा।
"ऐसा है भाभी अभी तो बैठा हूँ विद फिंगर्स क्रास्ड। अगर ऊपर वाले की नज़र सीधी रही
तो शायद बिट्टू को बताने की ज़रूरत ही न पड़े।"
"भगवान ने चाहा तो शायद नहीं ही पड़ेगी, हम सबकी दुआएँ कुछ तो काम करेंगी।"
"बस शायद यह दुआओं की ही बदौलत है कि इतना इम्प्रूवमेंट हो रहा है।" कहते हुए करन
ने एक लंबी साँस ली।
तभी डाक्टरों की एक टोली राउंड पर आई और ब्रिज भैया उनके साथ भीतर चले गए। करन भी
उनके पीछे-पीछे भीतर गया।
वे लोग बाहर आए तो चंदर ने करन से पूछा, "क्या कहते हैं डॉक्टर?"
"कुछ ख़ास नहीं। एक ही बात दोहराते हैं कीप होप।"
"ठीक ही तो कहते हैं भाई।" ब्रिज भैया उसका कंधा थपथपाते हुए बोले, "उम्मीद पर ही
तो दुनिया कायम है दोस्त।"
"करन भैया।" मीरा बोली, "अब मैं आ गई हूँ न, अब रात मैं ही यहाँ रहूँगी। तुम घर
जाकर थोड़ा आराम कर लो।" फिर पूछा, "घर में कोई है?"
"हाँ वो कंचन के भैया भाभी आए हुए हैं। अभी थोड़ी देर पहले ही यहाँ से गए हैं।"
थोड़ा रुक कर बोला, "ऐसा है भाभी, मेरा कंचन के पास रहना हर हालत में ज़रूरी है,
बेटर है आप लोग, क्यों कि सफ़र से थक कर आए हो आप ब्रिज भैया के साथ चले जाओ वहाँ आप
लोगों की बेहतर देखभाल हो सकेगी।"
मीरा रुकने के लिए इसरार करती रही लेकिन करन नहीं
माना। इस बीच ब्रिज भैया उनका सूटकेस अपने टोयोटा की डिकी में फिट कर आए थे। आधे
घंटे तक टोयोटा की सुखद आरामदेह यात्रा के बाद वे लोग ब्रिज भैया के घर पहुँचे।
ब्रिज भैया की पत्नी यानी मीरा की भाभी भी डाक्टर हैं। डाक्टर सुधा। खूब तगड़ी
रोबीली और बेहद खुश-दिल महिला। पहले उसने अपनी ननद रानी को बाहों में भींचा, फिर उसी अंदाज़ में चंदर की ओर बढ़ते हुए बोली, "हाय स्वीट हार्ट। बड़े दुबले नज़र आ
रहे हो।"
चंदर अक्सर सुधा के इस संबोधन से झेंप जाता है हालाँकि इस ममतामय आलिंगन
से भीतर वह खिल भी उठता है।
मीरा ने पूछा, "और भाभी, आपकी प्रेक्टिस कैसी चल रही है?"
"अरे पूछो नहीं," ब्रिज भैया बोले, "आजकल तो इसने मुझे भी पछाड़ रखा है।"
फिर घर गृहस्थी और बाल-बच्चों के हालचाल पूछने जैसी औपचारिकताओं का लंबा सिलसिला
चलता रहा। सुधा ने कहा, "अच्छा अब आप लोग फ्रेश हो लो, मैं चाय लेकर आती हूँ।"
"अरे यह कोई चाय का टाइम है?" ब्रिज ने टोका।
"क्यों नहीं! सफ़र की थकान तो चाय से ही मिटती है।"
"वो सफ़र की थकान वाली चाय तो हो चुकी, क्यों चंदर।"
"क्या, कहना क्या चाहते हो?" सुधा ने पूछा।
"यही कि तुम्हारे प्यारे नंदोई जी आए हैं, क्या कहते हैं - यहाँ, हाँ, कुँवर जी। तो
कुँवर जी बरसों बाद आए हैं इनकी थकावट क्या चाय से ही दूर की जाएगी?"
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