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सुशील के आने की जब भी खबर होती, घर में एक उत्सव सा माहौल हो
जाता। पास–पडोस, नाते–रिश्तेदार भी इस खबर से आह्लादित हुये
बिना नहीं रहते। उनका कमरा खास तौर से रंग रोगन करा दिया जाता।
साफ सफाई का भारतीय ढँग उन्हे कभी पसन्द नहीं आया। जब वह भारत
में थे तो उन्हें यहाँ का रहन सहन व्यवस्था वृत्तियों में
खामियाँ ही खामियाँ नजर आतीं, 'ऐसी व्यवस्था मानसिकता में कोई कैसे 'सरवाइव' कर सकता है।
यहाँ बुनियादी जागरूकताएँ भी आवश्यक नहीं समझी जाती और
प्राथमिक आवश्यकताओं के लिये भी जद्दोज़हद करनी पडती है। जब तक
अमेरिका नहीं जाऊँगा मेरा यहाँ कुछ हो नहीं सकता।"
उनका मकान अल्लापुर की संभ्रान्त बस्ती में था जहाँ नम्बर दो
की कमाई को, नम्बर दो की ज़मीन में खपाना सफेदपोशों के लिये
सबसे अच्छा और ईमानदार ज़रिया बना हुआ था। जहाँ बरसात का एक
लहरा पड़ा नहीं कि मय कूड़ा कीचड़ पानी अन्दर। जमादारों ने दो दिन
हडताल कर दी तो नालियाँ पॉलीथीन की पन्नियों से चोक हो गयीं और
गंदगी घर के अन्दर, सडकों पर पानी बहते रहना आए दिन का किस्सा
होता। जरा सी तेज बयार चली नहीं कि मुहल्ले भर की चिन्दियाँ और
कागज के टुकडे बरास्ते गेट से लॉन में। खीझ खिसियाहट में उनकी
लवें सुर्ख–लाल हो जातीं। गुस्सा अपनी माँ पर उतारते। कॉलोनियों
को छोड़ दें तो भी कमोबेश हर मुहल्ले की ऐसी ही स्थिति से सुशील
इतना भन्नाते कि लोग उन्हे बेवकूफ कहने से भी नहीं चूकते.।
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