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कहानियाँ  

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
विनीता अग्रवाल की कहानी— सलाखों वाली खिड़की


ज़ाहिरा को अदालत आज फैसला सुनाएगी। उसे मालूम है, अच्छी तरह से मालूम है कि आज कयामत का दिन है। ज्यादा नहीं तो उम्रकैद या फिर फाँसी की हद। क्या कर लेगी वह जी कर?
मर तो उसी दिन गई थी जब भाई जान से इन्तकाम लेने की आग उसे उनके परोसे शोरबे में जहर देने के लिए मजबूर कर गई थी। खून की ज़बरदस्त कै हुई और धड़ाधड़ आँखों की धारदार पुतलियाँ उलट गईं। मातमपुर्सी करने वालों का मजमा जमा था और वह छाती पीट कर रो रही थी, पछाड़ खा कर कटी टहनी सी जमीन पर लोट रही थी,
"भाईजान बेवा बहिन को छोड़कर कहाँ चले गए, मेरा ख्याल न रहा आप को, कैसे जिऊँगी, किस का सहारा देख कर जिन्दा रहूँगी . . . आप ने मुझे दोज़ख में रहने के लिए छोड़ दिया मेरी फिक्र अब कौन करेगा . . ."
मजमा जमानेवाले जनाजा ले कर जा चुके थे और वह सोचती रही थी कि असलियत का अन्दाज़ा किसी को न होगा। पर रिश्तेदारों की पैनी नज़र उसके बदहवासी में काँपते बदन को छेद कर गई थी। उस रात खुद ज़ाहिरा ने ही अपने हाथों से मक्की मछली का शोरबा पका कर भाईजान को परोसा था और पड़ोसिन नूर के घर छिप कर बैठ गई थी इस गल्तख्याली से कि लोग भाईजान की मौत को खुदकुशी मान लेंगे। वह कैसे किसी से कहती कि महमूद मियाँ बेवजह उसे पीटते और इलजाम धरते थे कि वह उनपर बोझ है और अपनी तीन बरस की दुधमुँही बच्ची के साथ उनकी ज़िन्दगी को खस्ताहाल बना रही है।

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