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                    वापस लौटते ही उसने ऐलान कर दिया 
					कि वह उस दमघोंटू एपार्टमेंट में नहीं रह सकती और अभी दो-तीन 
					वर्ष तक घर खरीदने का उसका कोई विचार नहीं है। इतने समय में तो 
					उसका स्वास्थ्य ही चौपट हो जाएगा। जनार्दन एवं ललिता का मुँह 
					खुला-का-खुला रह गया। किसी काम में मन नहीं लग रहा था। सोफे 
					में धँस गए और सिर पर हाथ फेरा। जहाँ कभी संकरी-सी माँग नामक 
					गली होती थी, वहाँ आजकल काफी चौड़ी सड़क बन चुकी थी। काफी बाल 
					तो अमरीकी "बाथ टब" ने निगल लिए थे एवं बचे-खुचे रीना की शादी 
					की चिन्ता ने। आधे मन से जनार्दन ने टी.वी. खोला तो समाचार आ 
					रहा था। "माऊंटेन व्यू की कम्पनी 'फिक्स साफ्टवेयर' पब्लिक 
					घोषित हो गई है एवं इसका स्टॉक, स्टॉक मार्केट के सारे रिकॉर्ड 
					तोड़ गया है।"
 जनार्दन चिल्लाए, "रीना, ललिता!" सुधाकर की कम्पनी बहुत अच्छी 
					चल निकली। सुधाकर करोड़पति बन गया है।"
 "वो तो बड़ा अच्छा लड़का है," ललिता ने खुशी से कहा।
 "रीना देखो, तुमने बिना मतलब ही मना कर दिया। अब भी कुछ नहीं 
					बिगड़ा है। मैं बात करता हूँ।" जनार्दन ने कहा।
 "पैसा रहे तो भारत अमरीका सब बराबर है। मैंने मना थोड़ी ही 
					किया था। अब कोई लड़की अपने मुँह से कैसे हाँ बोल दे?" रीना ने 
					शर्माने का प्रयास किया।
 
 जनार्दन खिजला गए कि चित भी मेरी, पट भी मेरी। वैसे उन्हें 
					खुशी भी हो रही थी कि चलो, रीना ने हामी तो भरी! भावी दामाद के 
					रूप में सुधाकर तो उन्हें पसंद था ही। जनार्दन ने सोचा कि 
					सुधाकर आजकल भारत गया है, उसके लौटते ही बात करेंगे।
 उनकी बेसब्री बढ़ती जा रही थी। बाहर निकल कर देखा तो डाकिया 
					पत्र डाल रहा था। पत्र-पेटी से जनार्दन ने पत्र निकाले और 
					सरसरी दृष्टि से सारे पत्रों को देखा। उनकी दृष्टि एक 
					विवाह-निमंत्रण पर पड़ी। ऊपर ही लिखा था 'सुधाकर नमिता परिणय'।
 काँपते हाथों से निमंत्रण खोलकर पढ़ा। पढ़ते ही उन्हें लगा, 
					जैसे हाथों के तोते उड़ गए हों।
 "ललिता, रीना! यह कार्ड देखो" जनार्दन वाक्य पूरा न कर सके।
 ललिता व रीना ने कार्ड पढ़कर सारा दोष जनार्दन के सिर मढ़ 
					दिया।
 
 जनार्दन धीरे-धीरे पुन: अपने-आपको अपने काम में व्यस्त रखने 
					लगे।
 एक दिन रीना ने ऐलान किया, "मैं प्रतीक को आप लोगों से मिलवाने 
					ला रही हूँ। कल का दिन ठीक रहेगा क्या?"
 "कौन प्रतीक? ललीता ने पूछा।
 "अरे वही, जिसका म्यूजिक का बड़ा सा शोरूम है," रीना ने कहा।
 "कौन? वो जो बालों की चोटी बाँधता है और एक कान में बुंदा 
					पहनता है," जनार्दन सोफे से उछलते हुए बोले। उछलने वाली बात ही 
					थी।
 "हाँ-हाँ, वही," रीना बोली।
 "वह तो एक नम्बर का गुंडा लगता है।" जनार्दन बोले।
 "हाँ बेटी, वह तो एकदम लफंगा लगता है। दुकान पर जाओ तो कैसे 
					देखता है," ललिता बोली।
 "अरे कितना मॉडर्न है। सफल व्यापारी है," रीना ने तर्क दिया।
 "ठीक से पता लगाया है कि दुकान उसकी ही है या वह वहाँ नौकर 
					है।"
 "डैड, काफी बोल दिया। अब वो कल आ रहा है। उसके सामने कुछ ऐसा 
					वैसा मत बोलिएगा," रीना ने जैसे एल्टीमेटम दे दिया।
 
 जनार्दन को ललिता पर चीखने का मन हो रहा था कि आधुनिकता की 
					होड़ में बेटी ही हाथ से निकल गई। पच्चीस साल बीत गए, मजाल है 
					कि कभी जनार्दन ने ललिता से ऊँची आवाज में कुछ कहा हो। अब मोटा 
					दहेज लेकर शादी करने में यह तो होता ही है।
 एक पूरा दिन पूरे युग की तरह बीता। शाम को रीना प्रतीक के साथ 
					आई। प्रतीक च्यूइंगम चबाते, चोटी पर हाथ फेरते हुए जनार्दन के 
					सारे प्रश्नों का गोल-मोल उत्तर देता रहा।
 
 ललिता ने खाना लगा दिया। प्रतीक ने छककर खाना खाया। फिर रीना 
					उसे घर
 दिखलाने ले गई। ऊपर जाकर प्रतीक ने कहा, "तुम्हारा घर बहुत 
					बड़ा व अच्छा है। शादी के बाद यहीं ऊपर रहेंगे।"
 "नहीं-नहीं, यहाँ नहीं। अलग रहेंगे।" रीना ने कहा।
 "क्यों, यहाँ क्यों नहीं? ऊपर पूरी प्राइवेसी रहेगी और 
					तुम्हारी मम्मी रोज बढ़िया खाना बना दिया करेंगी, नो 
					प्रॉब्लम," प्रतीक ने कहा।
 "अच्छा, बाद में सोचेंगे," रीना ने धीरे से कहा।
 
 कुछ समय बाद प्रतीक वापस चला गया। रीना का प्रतीक से मेल-जोल 
					बढ़ता गया एवं जनार्दन का रक्तचाप।
 एक दिन रीना कार्यालय से घर आई। मुँह लटका हुआ था।
 "क्यों बेटी, क्या बात है?" ललिता ने पूछा।
 "मेरा ग्रुप बंद हो रहा है। मुझे नौकरी से निकाल दिया गया।" 
					रीना ने रोना आरम्भ कर दिया।
 "अरे, यह नौकरी नहीं तो और सही। इसमें रोने की कौन-सी बात है," 
					ललिता ने उसके आँसू पोंछे।
 
 रीना प्रतीक को बतलाने उसके घर चली गई। वापस आते ही चुपचाप ऊपर 
					जाने लगी तो जनार्दन ने टोका, "बेटी, कुछ खा लो।"
 "मेरा मन नहीं है। जब पता चला कि मेरी नौकरी चली गई है तो 
					प्रतीक ने मुझसे सीधे मुँह बात तक नहीं की।"
 
 जनार्दन अन्दर-ही-अन्दर खुशी से 
					फूले न समाए परन्तु ऊपर से गंभीरता का मुखौटा लगाए हुए बोले, 
					ये कामचोर लड़के बस अमीर बाप की इकलौती, भोली-भाली लड़की को 
					फँसाकर ज़िन्दगी भर मौज करना चाहते हैं। तुम चिन्ता मत करो, सब 
					ठीक हो जाएगा।"
 रीना थोड़ी शांत हुई। जनार्दन ने चुपके से पूजा के कमरे में 
					जाकर भगवान के सामने दंडवत किया कि भगवान उस गुंडे से मुक्ति 
					मिली।
 
 रीना को दूसरी नौकरी मिल गई थी, परन्तु उसकी उदासी 
					ज्यों-की-त्यों थी। यह देखकर जनार्दन व ललिता बहुत चिन्तित थे।
 "क्यों न रीना के लिए भारत में कोई लड़का देखें?"
 "नहीं-नहीं, इतनी दूर मैं अपनी बच्ची को नहीं भेज सकती।"
 "अरे, कोई साधारण परिवार का अच्छा लड़का देखते हैं। यहीं बुला 
					लेंगे। जो माँगेंगे दे दिया जाएगा।"
 "तो ऐसा क्यों नहीं कहते कि धन का लोभ देंगे।"
 "अब जैसा सोचो।"
 "नहीं, बिल्कुल नहीं। मेरी तो ऐसे परिवार में शादी होकर 
					ज़िन्दगी ही चौपट हो गई। शादी के बाद नए-नए शौक रहते हैं। मैं 
					तो कोई भी शौक पूरा नहीं कर पाई। अब पापा बेचारे कितना करते 
					हैं। मैं नहीं चाहती कि रीना की भी वैसी स्थिति हो।"
 "तुम्हारे कौन से शौक पूरे नहीं हुए। कौन-सा तुम्हारे पिता ने 
					खजाना लुटा दिया!" जनार्दन को अब क्रोध आने लगा था।
 "रहने दो, मुँह न खुलवाओ। बाजा-बत्ती समेत बारात का पूरा खर्चा 
					दिया था। बहू-भोज भी तो मेरे मायके के पैसों से ही हुआ था। 
					तुम्हारे सारे परिवार की तो जैसे सारी दरिद्रता मेरे दहेज से 
					ही दूर हुई थी।" ललिता ऊंची आवाज़ में बोली।
 "अच्छा, और 
					तुम जो यहाँ से चुपके से अपने भाई के कैपिटेशन वाले 
					इंजीनियरिंग कॉलेज के लिए पैसे भेजती थीं, सो कुछ नहीं।" जनार्दन ने पहली बार ललिता को ऊंची आवाज़ में जवाब दिया।
 ललिता ने सोचा कि आज तक तो जनार्दन को ऐसा बोलते तो कभी नहीं 
					सुना। सचमुच स्प्रिंग को आवश्यकता से अधिक दबाओ तो उछलकर अपने 
					को ही लगती है।
 तू-तू मैं-मैं होने लगी कि सीढ़ी पर सूटकेस उतारने की आवाज़ से 
					दोनों चौंके।
 वाह भई वाह! मेरी शादी की बात करते-करते आपस में ही लड़ने 
					लगे।" रीना नीचे आते हुए बोली।
 "बेटी, कहाँ जा रही हो सामान लेकर?" जनार्दन ने पूछा।
 "मैं घर छोड़कर जा रही हूँ। कहीं और रहूँगी जिससे आप लोग भी 
					शांतिपूर्वक रहें और मैं भी।"
 "पर बेटी..." ललिता रुआँसी हो गई।
 
 जनार्दन की छाती में दर्द हुआ। छूकर देखा कि कहीं 'हार्ट अटैक' 
					तो नहीं है लेकिन फिर महसूस हुआ कि गैस का दर्द है। रीना 
					दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गई। ललिता रो पड़ी एवं जनार्दन को 
					अपने बाबूजी व माताजी की याद आ गई कि एक दिन उन्हें भी ऐसा ही 
					लगा होगा।
 
 जनार्दन दरवाजा बन्द करने के लिए आगे बढ़े तो देखा कि रीना एक 
					गोरे युवक के साथ आलिंगनबद्ध होकर चुंबनरत थी। आज बिन ब्याहे 
					बेटी की डोली उठ रही थी, बचपन में सुने विदाई के गीत कानों में 
					बेसुरे बज उठे।
 "काहे को ब्याही विदेश।" जनार्दन को लगा कि जैसे बिना मौत के 
					उनकी अर्थी उठ रही हो।
 
 जनार्दन सोफे पर बैठ गए एवं आँखों को बंद कर लिया। ध्यान में 
					भगवान श्रीकृष्ण आए और बोले, "हे वत्स! व्यर्थ चिन्ता करते हो। 
					आत्मा अजर-अमर है। तुम्हीं बताओ, कभी विदेशी मुर्गी से कोई 
					देसी बोल बुलवा पाया है? फिर तुम किस खेत की मूली हो।"
 जनार्दन ने आँखें खोल दीं। भगवान अन्तर्ध्यान हो चुके थे। 
					जनार्दन ने खुशी-खुशी अपनी नियति स्वीकार कर ली।
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