लगभग
अंधेरा हो चुका था। एक जगह मेन रोड से पतली-सी गली मुड़ती थी।
मैंने चलते-चलते देखा, वहीं एक रिक्शा खड़ा था जिस पर बैठा एक
आदमी नशे में धुत था जो रिक्शे वाले से झक लड़ा रहा था। मैंने
सोचा, आखिर माजरा क्या है, तो नजदीक के एक पेड़ की आड़ लेकर
उसकी बातें सुनने लगा।
नशे में झूमता वह आदमी अपनी मुट्ठी में कुछ लिए रिक्शे वाले को
देने पर आमादा था। रिक्शा वाला लेने से डर रहा था। नशेड़ी बोला
-'रुपए तो तुझे लेने ही पड़ेंगे, साले! नहीं लेगा तो पटक-पटककर
तेरी सारी हड्डियाँ तोड़ ड़ालूँगा!'
उसकी बात सुनकर मुझे हँसी आ गई
कि वह सींकिया पहलवान उस हट्टे-कट्टे रिक्शे वाले की हड्डियाँ
तोड़ने को कहता है।
रिक्शे वाले ने उसे सहारा देकर किसी तरह रिक्शे से नीचे उतारा,
उसके बढ़े हाथों से कुछ लेकर अपनी जेब में डाला, फिर चोर
निगाहों से इधर-उधर ताकता हुआ पैडिल पर पाँव रखकर तेज़ी से
भागने लगा।
पर मैं तो उसी की ताक में था।
जैसे ही वह मेरे सामने से गुज़रा, उछलकर मैं उसके रिक्शे पर जा
बैठा और कड़ककर बोला - 'रिक्शा रोको!'
उसने रिक्शा रोक दिया था। सहमा-सा बोला -'बात क्या है?'
'रुपए निकालो!' मैंने कड़ककर कहा तो वह बोला - 'कैसे रुपए?'
मैंने उसका कालर पकड़ा और उसे धमकाते हुए कहा - 'वही रुपए, जो
तुमने उसे शराबी से ऐंठे हैं। वह मेरा भाई है। निकालते हो कि
उतारूँ !'
मेरा वाक्य पूरा भी न हो पाया कि उसने जेब में हाथ डालकर
मुट्ठी भर रुपए निकालकर मेरे हवाले कर दिए।
मैंने विजयी मुद्रा में गरजते हुए कहा - 'आज तो छोड़े देता हूँ,
आइंदा से कभी ऐसा करते देखा, तो...
वह जा चुका था।
मैं भागा-भागा उसी गली के मुहाने तक आया, गली में निगाह दौड़ाई
तो देखा, वह शराबी अभी दस कदम भी आगे न बढ़ पाया था। वह झूमता
हुआ कभी गली के एक किनारे आ जाता तो कभी पेंडुलम जैसा
लड़खड़ाता दूसरे किनारे पर पहुँच जाता। लगा, अब गिरा, तब गिरा।
पर अभी तक वह गिरा न था। उसकी रकम मेरे पास थी, इसलिए उसका
मकान देखना मेरे लिए बहुत ज़रूरी हो गया था। अब वक्त की कोई
परवाह न थी और मैं उसके पीछे लग गया था। अचानक वह लड़खड़ाकर
गिर गया।
मैंने सोचा, अभी उठ जाएगा, पर
कुछ देर तक जब कोई हरकत न हुई तो मैं उसके नज़दीक जा पहुँचा और
बोला - 'उठो भाई, यहाँ क्यों पड़े हो?'
उसने लड़खड़ाती आवाज़ में कहा - 'कौन है बे?'
मैंने कहा - 'तुम पहचाने नहीं! तुम्हारा दोस्त हूँ!'
'तो एक पाउच ले आओ, तुम्हें दारू पिलाऊँगा।' इतना कहते-कहते वह
उठने को हुआ, पर उठते-उठते फिर गिर गया।
मैंने उसे गिरते देखा तो सहारा देकर किसी तरह खड़ा किया और
टिकाते हुए आगे बढ़ने लगा। मैंने पूछा - 'तुम्हारा मकान कहाँ
है?'
वह बोला -'मकान?'
मैंने कहा - 'तुम्हारा मकान!'
तो उसने कहा - 'मेरा कोई मकान नहीं, मैं तुम्हारे घर चलूँगा।'
मैंने कहा - 'पहले अपने घर चलो।'
वह जाने क्या बड़बड़ाया! तब
तक उधर से एक लड़का गुज़रा। बोला - 'वाह, शर्मा जी! खूब लगी
है।'
मैंने उसे रोका और पूछा - 'बेटा, ये रहते कहाँ है?'
वह आठ-दस मकान के बाद के एक पीले दरवाज़े की ओर इशारा करके चला
गया।
मैं किसी तरह उन शर्मा जी को उस दरवाज़े तक ले आया और आगे
बढ़कर कुंडी खटका दी।
दरवाज़े के पीछे से जनानी आवाज़ आई - 'आप कौन है?'
मैंने कहा - 'शर्मा जी होश में नहीं हैं, आप दरवाज़ा खोलिए।'
इतने में ही धड़ाम से दरवाज़ा
खुला और वह महिला बाहर आ गई। इसी बीच शर्मा जी गली के किनारे
नाली पर जा लुढ़के थे। वह लंबे कदमों से शर्मा जी तक जा
पहुँचीं। झुंझलाती हुई बोलीं - 'इतना मना किया था, बच्चे की
कसम तक दिला दी थी, फिर भी पी आए! भाई साहब, ज़रा सहारा देकर
इन्हें कमरे तक पहुँचा दीजिए।'
मैं उन्हें कमरे में ले आया। एक तख्त पड़ा था, उसी पर लिटा
दिया।
मिसेज शर्मा दुख में डूबती
हुई बोलीं - 'भाई साहब, ये आज सुबह दस बजे के निकले हैं। पूरी
लिस्ट थी। होली का सारा सामान था। मैं पूरे दिन इनकी राह तकती
रही। कल तनख्वाह मिली थी, पूरी की पूरी साथ लेते गए थे। मैंने
अलमारी देखी, तो वह खाली थी। अब आए भी तो खाली हाथ!'
इतना कहते-कहते उन्होंने शर्मा जी की सारी जेबें टटोल डालीं। न
रुपए थे, न लिस्ट! वह फूट-फूटकर रोने लगीं।
दो बच्चे थे, सात-आठ वर्ष के - एक लड़का और उससे तनिक छोटी
लड़की। वे दोनों भी माँ से लिपटकर रोने लगे। मैंने उनका विलाप
सुना तो लगा, होली मोहर्रम में बदल गई हैं। मैं ठगा-सा सारा
तमाशा देखता रह गया।
मिसेज शर्मा बोलीं - 'भाई साहब, आप खड़े क्यों हैं, बैठिए न! ये
कहाँ मिले आपको?'
मैंने कहा - 'गली के नुक्कड़ पर! लड़खड़ाते आ रहे थे कि गिर
गए। मैं देखा तो सोचा, घर तक छोड़ दूँ।'
वह भर्राए गले से बोलीं - ये गिरे तो इन्हें चोट तो नहीं आई
थी?'
उनके इस सवाल का भला मैं क्या जवाब दे पाता! फिर भी उनकी
मनोदशा भाँपते हुए मैंने इतना ही कहा - 'चोट तो नहीं आई थी,
मैंने सँभाल लिया था।'
उनकी आँखों से टप-टप आँसू
गिरने लगे। पल्लू से आँखें पोंछती हुई बोलीं - 'आपने मुझ पर और
इन बच्चों पर बड़ा अहसान किया भाई साहब, वरना ये बहकते हुए जाने
किधर चले गए होते और मैं बच्चों के लिए इनकी तलाश में गली-गली
सारी रात भटकती फिरती! पहले भी ये मुझे कई बार ऐसे ही तड़पाते
रहे हैं। आप तो इनके दोस्त होंगे, पर आपने तो बिल्कुल नहीं
पी!'
मैंने कहा - 'मैं शराब नहीं पीता! वैसे मेरी इनकी कोई पहचान भी
नहीं।'
वह बोलीं - 'आप कितने भाग्यशाली हैं - और आपकी पत्नी और बच्चे
तो आपसे भी ज़्यादा, जो आप शराब नहीं पीते!'
इसी बीच बच्चे अपनी माँ से चिपककर मचलने लगे - 'मम्मी मेरी,
पिचकारी, रंग, मेरे कपड़े! कल होली है। दूकाने बंद रहेंगी। कल
हम लोग क्या खेलेंगे, क्या पहनेंगे?'
माँ उनकी अनसुनी कर रही थी पर
बच्चे बढ़ते जा रहे थे। जब वे ज़्यादा पीछे पड़ गए तो वह
उन्हें समझाती हुई बोलीं - 'सब आ जाएगा, अपने पापा को जगने दो।
ये भी तो हो सकता है कि सारा सामान खरीदकर कहीं रख आए हों। फिर
मैं कहीं मर गई हूँ! क्यों रोते हो?' इतना कहते-कहते उन्होंने
अपना मुँह आँचल से ढक लिया और फफक पड़ीं।
उन माँ-बेटों को रोता देख,
जाने क्यों रोना मुझे भी आ गया था। पहले मन में आया कि रिक्शे
वाले से छीने रुपए उन्हें वापस करके सारी राम-कहानी उन्हें बता
दूँ, फिर अपना रास्ता पकडूँ पर दूसरे मन ने कहा, आज का नशा कल
उतर जाएगा। रुपए दे भी दोगे, पर होली तो कल ही है। शर्मा जी
मानने वाले नहीं। शराब से दोस्ती और रूपयों से दुश्मनी अदा
करके ही मानेंगे और झेलेंगे ये मासूम बच्चे और उनकी वफ़ादार
पत्नी!
मैं कुछ सोच में पड़ गया, फिर
बोला - 'भाभी जी, मैं आपकी इतनी मदद कर सकता हूँ कि जो बहुत
ज़रूरी सामान हो, मुझे बता दें। मैं ला दूँगा। रुपए आप बाद में
देती रहना।'
वे बोलीं - 'तनख्वाह से महीना पार हो पाना मुश्किल होता है फिर
इनका पीना-पिलाना अलग से। तो आप ही बताओ, रुपए मैं ले भी लूँ,
पर वापस कहाँ से करूँगी? मेरी किस्मत ही फूटी है तो आप मेरा
क्या-क्या जोड़ दोगे? रात बढ़ रही है। मेरे लिए नाहक न परेशान
होओ! आप जाओ, भाई साहब!'
मेरा पासा उल्टा पड़ गया था। पर उसे सीधा कर दिया बच्चों ने।
लड़की बोल पड़ी - 'मम्मी, मेरी फ्राक और चप्पल!'
तब तक लड़के ने उसकी बात काटते हुए कहा - 'मेरा नया सूट,
पिचकारी, एक डिब्बा रंग, लाल और हरा और हाँ, गुब्बारे का एक
पैकेट! गुब्बारे में रंग भरकर सबको मारूँगा तो बड़ा मज़ा आएगा,
मम्मी!'
पर मां ने उन्हें बुरी तरह डपट दिया था और दोनों खामोश हो गए
थे।
उसी खामोशी का फ़ायदा उठाकर मैं वहाँ से धीरे से खिसक गया।
पैर बढ़े जा रहे थे। अब अपने
घर जाने की कोई जल्दी न थी। जल्दी थी तो यही कि कितनी जल्दी
बच्चों का सामान खरीदूँ और लेकर पास जा पहुँचूँ। बच्चों के
आँसुओं ने मन की ममता को भिगो डाला था। वह भीगती हुई बोली थी -
यदि संसार में सबसे ज़्यादा हँसाने वाले बच्चे हैं, तो सबसे
ज़्यादा रुलाने वाले भी वही अबोध हैं जो न हड्डी देखते हैं न
मांस, घुसते हुए सीधे दिल तक उतर आते हैं। अच्छे-भले बाप के दो
फूल जैसे कोमल बच्चे, शराब ने जिन्हें बेसहारा बनाकर कुम्हला
दिया था।
दिमाग के साथ-साथ पैर भी भागे
जा रहे थे और भागते-भागते जाने कब बाजार आ पहुँचे थे। मैंने वे
रुपए निकाले, गिना तो सौ-सौ के बाइस नोट थे साथ में काग़ज़ के
एक टुकड़े की शक्ल में वह लिस्ट भी थी जिसे देखा तो उस पर
शर्मा जी की बदनसीब पत्नी का मायूस चेहरा चमक गया था।
मेरी खुशी का ठिकाना न था।
रुपए भी थे और लिस्ट भी, जैसे प्यासे को लोटा भी मिल गया हो और
डोर भी। फिर तो कुआँ सामने था। मैंने एक-एक करके पूरी लिस्ट का
सामान खरीद डाला, और रिक्शे पर लादे चल पड़ा शर्मा जी के घर की
ओर।
एक-एक सामान का अपना मूल्य
रहा था और दिमाग उसे जोड़ने में लगा था। कुल योग आकर बारह सौ
पर ठहर गया। मैंने रुपए गिने, एक हज़ार अब भी बचे थे। मन
रिक्शे के आगे-आगे भाग रहा था। बच्चे अपनी मनचाही मुराद पाकर
फूले न समाएँगे और उनकी खुशी व सारा सामान देखकर माँ निहाल हो
जाएगी। मिसेज शर्मा सामान लेने में कहीं संकोच न करने लगें।
कहीं उन्होंने यह सामान लेने से इंकार कर दिया तब...! तब क्या,
साफ़-साफ़ बता दूँगा कि यह सब कुछ आप ही के पति के रुपए का है।
मगर जब यही करना था तो अभी तक अंधेरे में क्यों रखा? सच्चाई शक
में भी बदल सकती है।
तब तक वह गली आ चुकी थी।
मैंने रिक्शे वाले से मुड़ने को कहा। |