अपनी बर्थ पर मैंने सब सामान सहेज लिया है। सामान कुछ ख़ास नहीं
हैं। बस एक एयर बैग और एक चाची का दिया छोटा बैग जिसमें अचार
और देसी घी के डब्बे हैं।
ट्रेन चल पड़ी है। अटेंडेंट खाने के लिए पूछ गया है। मैंने मना
कर दिया। सामने वाले बर्थ पर एक दंपति हैं। अपना खाना साथ लाए
हैं। बड़े सलीके से पैक किया हुआ है‚ प्लेट‚ नैपकिन्स काँटे‚
चम्मच। मेरी ओर भी बढ़ाते हैं। मैं धन्यवाद कह कर मना कर देती
हूँ। मन बेहद उदास है। तकिए पर सर टिकाकर‚ पैरों पर कंबल डाल
कर आँखे बंद कर लेती हूँ।
कंपार्टमेंट में सन्नाटा छा गया है। नाइट लाइट की नीली रौशनी
फैल गई है। पर्दे खींच कर बराबर कर दिए गए हैं। सब सो रहे हैं
पर मेरी आँखों से नींद मीलों दूर है। बार–बार विनी भाभी का
चेहरा तैर रहा है।
कैसा अजब संयोग था। इस बार मैं आई थी अकेले‚ पापा के पुराने घर
का हिसाब किताब करने। घर में रुकी भी थी। पापा के अभिन्न मित्र
और पड़ोसी शर्मा जी ने ही सब सरंजाम कर दिया था। ज़ोर डालते रहे
अपने घर रुकने के लिए‚ पर मन नहीं माना था। जिस घर में बचपन की
इतनी सुहानी यादें बसी थीं‚ वहाँ रहकर‚ उन
भूली बिसरी यादों को सूँघने‚ चखने का अंतिम मौका मैं कैसे चूक जाती।
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