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सलमा मेरी क्लास में आती है और कभी कभी मुझसे बात करती है। बातें करते करते उसकी आंखों से हज़ार हज़ार आंसू निकलते हैं। उस दिन सलमा बहुत उदास थी जब सब लड़कियां चली गई तो वह कभी सामान रखती, कभी मेज़ साफ करती, मेरे आसपास मंडरा रही थी, मुझे महसूस हुआ, सलमा कुछ कहना चाहती है, बार बार बैठ जाती है लेकिन जैसे हिम्मत नहीं जुटा पाती है। मैं ही पूछती हूं, सलमा क्या बात है आज घर नहीं जाना है? वह हड़बड़ा जाती है पूछती है, आपा आपको देर हो रही है क्या? वह जानती है, कि मैं दूर से आती हूं। शाम को जल्दी ही जाना चाहती हूं, बच्चों को अकेले घर पर छोड़ना मुझे पसन्द नहीं है। मैंने कहा, अभी देर नहीं हो रही है। तुम बोलो क्या कहना चाहती हो। सलमा मेज़ पर सिर रख फफक कर रो पड़ी, "आपा मैं क्या करूं?" मैं पास जा कर खड़ी हो जाती हूं, कहती हूं, "क्या बात है? बात तो बताओ!" सलमा की बड़ी बड़ी आंखों में जैसे सागर फैल रहा हो। एक अतृप्त प्यास आंखों में लहरा रही है। आपा वे तो मुझसे बोलते ही नहीं, उसी गोरी के पीछे पागल रहते हैं। आज मुझसे कहा है, अपनी शकल न दिखाना। मैं क्या करूं?

बेसाख्ता मेरे मुंह से निकल पड़ता है, "तुम्हारी सास क्या कहती है? "
मेरी सास कहती है, "तुम्हें तीन साल बाद भी बच्चे नहीं हुए इसीलिये वह तुमसे खुश नहीं है।" पर आपा वह रात घर पर कभी रहते ही नहीं है। सलमा की खाला सलमा को पाकिस्तान से लाई थी। बड़ी बहन से उन्होंने कहा था, "बाजी इसे मेरे घर भेज दो, मैं इसकी शादी करा दूंगी। यह बड़े आराम से रहेगी।" 
सलमा भी विदेश के तमाम किस्से सुनती थी। एक सपना उसकी आंखों में था कि शायद मेरे मां बाप की गरीबी भी दूर हो जाये! अम्मी और अब्बा ने भी काफी झंझटों के बाद कह ही दिया। अम्मी को बहन पर पूरा भरोसा था जो करेगी ठीक ही करेगी। किसे मालूम था कि किस्मत खेल खेल रही है। तमीना भांजी को लाने का इरादा जाहिर कर के मन ही मन बेहद खुश थी। उसकी आंखों में सहेली का लड़का बस गया था, अभी इसी साल इसने डॉक्टरी पास की है। देखने में सजीला जवान, उम्र वगैरह भी सलमा के लिये बिलकुल ठीक! चार पांच साल का अन्तर ठीक रहता है; उम्र का ख्याल आते ही तमीना का मन अजीब अजीब हो आया। सलमा के खालू उससे नौ साल बड़े हैं उम्र में, इतना अन्तर दोनों के सोचने समझने का तरीका ही बिलकुल अलग। अनजाने ही एक ठंडी सांस निकल गई। फिर उसने सोचा "चलो अब क्या उसकी उमर भी तो अब चालीस पार कर रही है और फिर सलमा भी तो कोई कम नहीं, सब तरह से अनवर के लायक है। पासपोर्ट बनवाते, सामान लाते सहेलियों से मिलते, महीने भर का समय कपूर ही तरह उड़ गया। चलते समय सलमा सबसे लिपट कर बहुत रोई, छोटे भाई बहनों को कितना प्यार किया। मन में बहुत कुछ सोच कर अपने को एक अजन्मे सुख में बह जाने को छोड़ दिया।

टैक्सी बाहर आ गई थी, खाला के साथ वह भी आकर बैठ गई और फिर बेपनाह रूलाई का सैलाब। सलमा को लगा कि कुछ बहुत जरूरी, कुछ बहुत अपना, यही छूटा जा रहा है। घर की तरफ से मुंह मोड़ कर वह दूसरी तरफ देखने लगी लेकिन इस तरह मन को मना लेना आसान नहीं होता। इतने में खाला बोलीं, "सलमा अपना सामान देख लो।" खिड़की से झांक कर देखा सामान तो सब डिक्की में चला गया था। टैक्सी भाग रही थी और सलमा का मन अजीब उधेड़बुन में पड़ा था। क्या हो रहा है यह सब? क्या उसका सपना सच होगा?

टैक्सी से उतर कर फिर वही भागमभाग सामान तौलवाना। हैन्ड बैगेज ठीक करना, सलमा को सब कुछ भूल गया खाला के साथ वह आकर जहाज़ में बैठ गई। शुरू में तो उसे बड़ी घबड़ाहट हुई लेकिन थोड़ी देर में सब कुछ व्यवस्थित हो गया। वह अपनी सीट पर निढाल सी बैठ गई। और फिर एक एक करके तमाम तस्वीरें खिसकने लगीं, छोटा भाई रोज़ आकर "बाजी मेरे लिये एक बिजली की गाड़ी भेजना" कभी "बाजी मेरे लिये एक अच्छी सी मोटर भेजना" बहुत से खिलौने, अलबम, स्वीट कितनी ख्वाहिशें लेकिन जाने वाली रात वह आकर लिपट गया "बाजी मुझे कुछ नहीं चाहिये तुम कहीं मत जाओ।" 
उसे लगा वह उसे कस कर झकझोर रहा है लेकिन खाला उसे उठा रही थी, ऐयर होस्टेस खाना ले कर आ गई थी। खाने की तरफ देखने का भी उसका मन नहीं हुआ। उसने धीरे से मना कर दिया। खाला ने सोचा शायद पहली बार हवाईजहाज पर आने की वजह से सलमा को कुछ चक्कर आ रहे हैं, उन्होंने कुछ ज़ोर नहीं दिया। सलमा फिर अपनी दुनिया में लौट गई। कभी सहेलियों की आवाज़ें उससे चुहल करती लगती, "सलमा तू तो जा रही है, मुझे भी बुला लेना।" लगा अम्मी खड़ी है, कह रही है, "सलमा उठो! देखो कितना दिन निकल आया, तेरे अब्बू चाय के लिये खड़े हैं।" 
वह हड़बड़ा कर उठ गई! आंख मल कर देखा, कहीं कोई नहीं। खाला बोली, "चलो तुम्हारी नींद खुल गई, अच्छा हुआ। अब हम लन्दन पहुंचने वाले हैं।"

खाला के घर जब उतरी तो उसे लगा यह तो एक नई दुनिया है। न कहीं बहते नाले, न गन्दा पानी, सब कुछ चमकता हुआ साफ शफ्फाक, सब कुछ इतने करीने से था कि उसे डर लगता कहीं कुछ खराब न हो जाये। हर कदम सम्हाल कर रखती अपने में एकदम संकुचित, कभी सोचती, हबीबपुर का घर; क्या करते होंगे? अब्बा शायद घर आ गये हों, "सलमा चाय लोगी?" आवाज सुनते ही सपने टूट गये। वह उठी, बोली, खाला मैं चाय बना लूं और धीरे से आकर किचन में खड़ी हो गई। अभी वह देख ही रही थी कि देखे कहां क्या रक्खा है कि खाला ने चाय का कप थमाते हुए कहा "चलो देखें" फ्रीज में क्या रक्खा है? फ्रीज में से थोड़े से कबाब निकाल कर गर्म होने को रख देती है, सलमा चाय का कप लेकर बैठी रही। 

उसे याद ही नहीं रहा कि वह खाला के घर, पाकिस्तान से हज़ारो मील दूर बैठी है। उसे लगा शाम हो गई है और अब्बा फल की दुकान बंद कर के थके थके उदास घर आये हैं, कहते हैं "ला सलमा बेटी, जरा वजू के लिये पानी दे दे।" वह एकाएक उठी तो चाय का प्याला छलक गया, खाला बोलीं, " कोई बात नहीं, मैं साफ कर दूंगी।" क्या कहेंगी खाला कारपेट गंदी कर दी। जैसे तैसे चाय पीकर खतम की, उस रात कबाब रोटी खाकर सलमा सोने चली गई। हवाई जहाज की थकावट एक जगह बैठे बैठे सारा जिस्म जकड़ गया था। वह लेट गई। आंखों में कितनी परछाइयां मचलने लगीं उन सब से बातें करते करते वह सो गई। सुबह फिर जल्दी ही नींद खुल गई, वह हड़बड़ा कर उठ बैठी। फिर खयाल आया, वह सात समुद्र पार बैठी है खाला के घर परदेश में। सुबह धूप की रोशनी में मन कुछ शांत हो गया।

धीरे धीरे काई की परत की तरह मन में भी कुछ फट रहा था। चाय पीकर बैठी तो खाला बताने लगी, "यहीं पास में छोटा बाज़ार है वहां सब कुछ मिल जाता है। एक कार्नर शॉप है वहां दूध, अंडा, अखबार, चाय, रोजमर्रा की छोटी मोटी चीजें मिल जाती हैं।" फिर तमाम फोन के नम्बर, यहां किस किस कपड़े की ज़रूरत होगी, उसे लेकर जायेंगी नये कोट कार्डिगन वगैरह लाने का प्रोग्राम बना लिया। ताला चाबी सब कुछ समझाया क्यों कि उसे घर में अकेले यही कोई चार पांच घंटे रहना होगा। तमीना जानती थी, बड़ी बहन के घर दो जून की रोटी किसी तरह चल रही थी। फलों की छोटी सी दुकान थी। आधे फल सड़ जाते फिर महंगे फलों को कौन खरीदता। पाकिस्तान में पैसा तो बहुत हुआ, पर क्या सबकी गरीबी चली गई। मजबूर आम आदमी अभी भी दवा–इलाज और दुनिया की तमाम बुनियादी जरूरतों के लिये परेशान ही रहता है। उनकी दिली ख्वाहिश थी कि सलमा का निकाह किसी अच्छे घर में कर दें तो फिर घर की हालत अपने आप ही सुधर जायेगी। यही सब सोच कर वह सलमा को लाई थीं।

तमीना के जाने के बाद सलमा चुपचाप सोफे पर बैठ गई, उसका मन होता कि वह फोन करे लेकिन उसे तो कुछ मालूम नहीं कैसे करते हैं, और फिर उसके घर में तो फोन है ही नहीं। देखा बाहर आसमान में बादल घिर गये हैं, उसके अंदर भी कुछ घिरता जा रहा है, एक घुटन है, उसका मन छटपटा रहा है, अभी तो थकावट पूरी तरह से उतरी नहीं थी, वह फिर नींद के आगोश में बेसुध होने लगी। दरवाजे पर घंटी सुन कर उसकी नींद खुल गई। वह करीब करीब दौड़ती हुई भागी पर याद आया खाला ने कहा था कि दरवाज़ा न खोलना। वह वही चुपचाप खड़ी रही! कोई एक कागज़ छोड़ कर चला गया।

शाम को जब खाला आई तो उसे लगा कि जैसे कुछ गुमसुम है। कहीं उसकी वजह से तो नहीं। पर खाना बनाने में, बरतन साफ करने में समय निकल गया। शाम कब घिर आई। कुछ देर में घंटी बजी! खाला किसी से फोन पर बात कर रही थी। जाने क्यों उसे लगा कहीं कुछ गड़बड़ है। खाला कुछ ऊंचा ऊंचा बोलने लगीं। उसने सुना मैंने तो तुम्हारे कहने से लड़की बुला ली अब तुम क्यों पीछे हट रही हो? उधर की कोई बात उसे सुनाई नहीं दी। मनमें एक फिकर सी हो गई। सुना था खाला की सहेली का लड़का है, इस से ज़्यादा वह कुछ नहीं जानती थी। फिर हफ्ते भर उसने कुछ नहीं सुना। लेकिन उसे यह अहसास होता जा रहा था कि कहीं कुछ है जो खाला को अन्दर ही अन्दर परेशान कर रहा है। वह चाहती तो है कि खाला उसे बता दे किन्तु उसकी पूछने की हिम्मत नहीं होती।

उसके बाद तो सब कुछ इतनी तेज़ी से गुजरा कि सलमा को लगा कि उसकी दुनियां घूम रही है। उसके हाथ पैर ठंडे पड़ने लगे! अब क्या होगा? उसके अपने दिल में पनपता अनजाना प्यार का पौधा भाई बहन अम्मी अब्बू सब कुछ गडमड होने लगे। खाला की सहेली कहती है कि उसका लड़का बिना साथ रहे शादी नहीं करेगा, तुम मेरी मजबूरी भी तो समझो। वह साथ रहने के बाद ही तय करेगा। खाला मुझसे भी पूछती है! मैं क्या जानती हूं यहां के रीत रिवाज का यह कैसा ढंग है। दो चार दिन की परेशानी के बाद खाला ने खुद ही कह दिया कि वह तो इसकी इज़ाज़त नहीं दे सकती। बाद में अगर अनवर ने मना कर दिया तो सलमा का क्या होगा। वह सोचती है कि सभी तो इतने समझदार नहीं होते। देखना हो, सिनेमा जाना हो या थोड़ी देर बातचीत करनी हो तो ठीक है। लेकिन यह साथ रहने की बात उसकी समझ में नहीं आती। 

सलमा के मन में एक कसक सी उठती है शायद वह देखने में यहां की लड़कियों की तरह नहीं होगी। वह जा कर शीशे के सामने खड़ी हो जाती है! साथ रहने पर मुझे देख ही तो सकते है, बाकी तो मैं जितना चाहूं अपने को छिपा सकती हूं! कौन जानेगा इसे जो प्यार करते हैं वे तो साथ रहें या न रहे, अपनी सारी आदतें भी बदल डालते हैं, अपना सब कुछ दे देने की तमन्ना रखते हैं, शायद मगरिब के लोगों को यह अजीब लगे लेकिन मशरिक में हम औरतें अपनी अलग शख्सियत बनाती कब है? उसे याद है कि उसकी एक सहेली थी उसके शौहर को सिर ढकना एकदम पसन्द नहीं था उसने मजलिस में जाना छोड़ दिया, जब कि वह इतने स्वर में कुरान पढ़ती थी। सबने कितना कहा, इसमें क्या है! तू आकर यहीं सर ढक लिया कर। लेकिन उसने तो साफ इन्कार कर दिया।

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