विकास ने विमानों के पुर्जे बनाने की
छोटी सी फैक्ट्री डाल रखी है...जहाँ रोबोट काम करते हैं...वह हफ्ते में एकाध बार वहाँ जाकर प्रगति का जायजा लेता है,
वर्ना दिन में चार घंटे 'पावडा' के सामने बैठकर फैक्टरी की
रिपोर्ट लेता है...फैक्टरी का सारा दृश्य और वहाँ के आँकड़े
उसे घर बैठे प्राप्त हो जाते हैं –– उनके आधार पर ही वह जरूरी
पत्राचार 'इंटरनेट' से करता है और अपने ग्राहकों से
कारोबार भी। उसके ग्राहक इंटरनेट के माध्यम से उसके माल का
भुगतान कर देते हैं और वह स्वतः
विकास के 'मेन मिनट्स'
अकाउन्ट में जमा हो जाता है।
फैक्टरी सम्बन्धी कामों को यथासंभव निपटाकर विकास अपनी रुचि के
दूसरे काम में लग जाता है –– साहित्यिक पठन–पाठन में 'पावडा'
के माध्यम से वह शहर की केन्द्रीय लाइब्रेरी से जुड़ जाता।
स्क्रीन पर ही किताबों की सूची आ जाती और उनमें से चुनाव करके
वह वांछित पुस्तक के पृष्ठों को स्क्रीन पर ही पलटने लगता।
उसके पिता पिछली सदी के प्रतिष्ठित कवि थे –– उनकी रचनाओं को
उसने 'पावडा' के 'केनो फाइल सिस्टम' में स्टोर कर रखा है और जब
तब उन कविताओं को पढ़ता रहता है –– उसकी इच्छा है कि पिताजी की
रचनाओं को 'इंटरनेट' के सेन्ट्रल पब्लिशिंग पूल में रजिस्टर
करवा दे ताकि और भी लोग पढ़ सकें। उसकी इस योजना को विभा का
समर्थन था, सिर्फ इसलिए कि उनकी बिक्री से उन्हें कई मिलयिन
मेन मिनट्स मिल जाएँ। जब विकास ने बताया कि कोई इतने 'मेन
मिनट्स' (एम.एम.) देने को राजी नहीं है, बल्कि उल्टे उससे
कुछ 'मेन मिनट्स' वसूलना चाहता है तो विभा की प्रवृत्ति एकदम
बदल गई –– 'तब तो बेकार है ये रचनाएँ...तुम अब ज्यादा
मार्केटिंग रिसर्च करके अपने 'एम.एम.' जाया न करो...क्या
फायदा...?
'क्या सब कुछ सिर्फ फायदे के लिए ही किया जाता है?' –– विकास
अंदर ही अंदर आंदोलित हो जाता। क्या हमारी मानवीय भावनाओं और
मूल्यों की कोई कीमत नहीं...?
'कीमत जरूरत की होती है...जिस चीज में जरूरतों को पूरा करने
की क्षमता नहीं, उनकी कोई कीमत भी नहीं हैं। अब समय बदल रहा है...प्राथमिकताएँ भी...किसके पास समय है कि पैसे देकर
कविताएँ वगैरेह पढ़े...?
'पर मुझे तो मनुष्य बने रहना है...'
'देखो विकास...अपने सिद्धांत अपने तक रखो। मैं देख रही हूँ
कि अपने ज्वाइंट मेन मिनट्स अकाउण्ट में काफी खर्च तुम्हारी इस
रिसर्च पर हो रहा है। लाइब्रेरी में ही घुसे रहते हो...'
'तुम्हारी शापिंग से तो कम है...'
'ताना मत दो। शापिंग मैं घर के लिए करती हूँ...फिर पावड़ा
मुझे फ्री कितना मिलता है...अक्सर तुम ही जमे रहते हो...'
'वाह, माह में चार–पाँच साड़ियाँ...नई ड्रेसेस...आधुनिक
उपकरण...खाने–पीने का उच्च वर्गीय सामान...'
'तो उसमें क्या हर्ज हैं। तुमसे बहस करना बेकार है। तुम
निकम्मे ही नहीं मूर्ख भी हो। हम अपने लिए नहीं सोचेंगे तो कौन
सोचेगा। हमारे बच्चे होंगे...उनके लिए 'पावडा' चाहिए...दूसरे के यहाँ देखो, बीबी का अलग 'पावडा'... बच्चों का अलग...अपने यहं बस एक ही...मुझे भी शेयर करना पड़ता है...'
'धीरे–धीरे हम भी अपना एम.एम. टर्न ओवर बढ़ा लेंगे...फिर तुम
अपना पावडा ले लेना...'
'तो क्या तुम्हारे भरोसे बैठी हूँ? तुमसे कुछ नहीं होगा,
क्योंकि तुम और तुम्हारी सोच पिछड़ी है। मैंने जेनेटिक्स किया
है...दूसरों के लिए बच्चों का डिजाइन बनाना जानती हैं...बनाऊँगी भी और अपना एम.एम. अकाउण्ट अलग रखूँगी तुमसे...वर्ना मेरी कमाई भी झोंक दोगे, अपनी साहित्यिक फिजूलखर्ची में...'
'जैसी तुम्हारी
मर्जी, मेरा दिमाग मत खाओ...'
'मैं दिमाग ही तो खाती हूँ...वाह क्या कहने? अपना अस्तित्व
अलग से बनाना चाहती हूँ तो ईर्ष्या होने लगी...बर्दाश्त
नहीं होता...'
'अपने आप अपने पैरों पर खड़ा होना अच्छी बात है...पाजीटिव
थिंकिंग...लेकिन उसके बूते पर अहंकार जताना...दूसरों पर
हावी होने का सुख महसूस करना...दूसरों को नीचा दिखाना
निगेटिव एप्रोच है...ठीक नहीं...ये घटिया 'फेमेनिस्ट'
सोच से मैं सहमत नहीं...'
'जो खुद ही नीच हो, उसको क्या नीचा दिखाऊँगी...?
'होल्ड...देखो, तुम अपने को कितना भी महान समझो मुझे एतराज
नहीं, पर दूसरों का अपमान करना तुम्हारा अधिकार नहीं। यों भी
अब हर व्यक्ति अपने आप में एक स्वतंत्र 'कास्ट' यह कहना चाहिए
'प्राफिट' सेन्टर है। उसे अपनी योग्यता के अनुसार ही सुविधाएँ
और अधिकार मिलेंगे...बच्चे पहले 'कास्ट' सेन्टर होने हैं...जहाँ मां–बाप उन पर खर्च का अकाउण्ट रखते हैं...फिर
स्वतंत्र होकर वे 'प्राफिट' सेन्टर बन जाते हैं...किसी
व्यवसायिक संस्थान की तरह...तुम विवाह के एम.ओ.यू. (मेमोरेण्डम आफ अण्डरस्टैंडिंग) के तहत मुझसे 'ज्वाइंट
वेंचर' में जुड़ी हो...पर अब अलग होना चाहती हो...तो मैं
क्यों रोकूँ...'
'अलग नहीं होना चाहती
हूँ पर एम.ओ.यू. की टर्मस की व्याख्या कर
रही हूँ। विवाह का मतलब पुरुष की अधीनता या गुलामी नहीं...'
'ये शब्द तुम्हारी अति नारीवादिता की देन है...मेरा ऐसा कोई
अभिप्राय नहीं...'
'कहते हो बस...पर चाहते हो औरत पर रूढ़िवादी ढंग से हुकूमत
करना...।'
दोनों का मन एक दूसरे को लेकर कटु हो रहा था –– तभी पावडा के
स्क्रीन पर मेसेज आने लगा –– पढ़कर विकास ने कहा –– 'फार यू...'
विभा ने मैसेज डिकोड किया – 'वण्डरफुल... मुझे जॉब मिल गया
है...'
'तुमने अप्लाई किया था?'
'हाँ, क्या गलत था। मुझे आभास हो गया था कि इसकी जरूरत पड़ेगी।
मुझे अपना स्वतंत्र अस्तित्व और व्यक्तित्व बनाना है...'
'तो अब तुम दूसरों के लिए बच्चों का डिजाइन बनाओगी...'
'हाँ बिलकुल।'
'और अपना खुद का बच्चा...।'
'उसका सुपर डिजाइन बनाऊँगी। जब तसल्ली हो जाएगी तब ही तुम्हें
अपने पास आने दूँगी।
अर्थात् तब तक हम शारीरिक तौर पर अलग रहेंगे, सेक्स क्या सिर्फ
इसीलिए होता है...?'
'...पर इसलिए भी नहीं होता कि पुरुष मनमानी से स्त्री का
शोषण करे...'
'क्या यौन इच्छाओं की पूर्ति किसी का शोषण है?'
'अगर मर्जी के विरुद्ध हो तो अवश्य .. . .'
'और तुम्हारी मर्जी, तुम्हारी मर्जी पर निर्भर है...वह कब
होगी...।'
'जब होगी तो होगी...प्रयास करते रहो...'
'एक अनिश्चितकालीन ऊबाऊ प्रतीक्षा। इसे पुरुष का शोषण नहीं
कहोगी...'
'छोड़ो, बड़ी ईमानदारी जताते हो...जानती हूँ...चुपचाप
पावडा से पार्नोग्राफी का आनन्द लेकर कितने ही एम.एम. खर्च
करते होगे...'
'अपने एम.एम. का मैं जो चाहे करूँ...फिर इसके लिए जिम्मेदार
तुम्हारा फूहड़ अहंकार ही है...'
'मेरा या तुम्हारा?'
'ठीक, हम सहमत हैं कि
हम असहमत है...यह प्रसंग बंद करें...' –– विकास ने मन की
कटुता को थामने की पहल की।
दोनों मुँह मोड़कर अपने–अपने कमरे में चले गए। जॉब मिलते ही
विभा ने अपने लिए एक अलग 'पावडा' किश्तों में लेकर अपने कमरे
में लगवा लिया और अपना एम.एम. अकाउण्ट अलग खोल लिया। फ्लैट के
मुख्य द्वार का 'पासवर्ड' कामन था, जो विकास और विभा को ही
मालूम था...। घर आने पर से 'पास कोड' की सहायता से द्वार
खोलकर अन्दर आते...अपने–अपने कमरे में चले जाते। विभा ने
अपने कमरे के द्वार का 'पास कोड' बदल लिया था ताकि विकास वहाँ
न जा सके। अहंकार का शीत युद्ध दोनों के बीच चरम पर था। विकास
कभी सुलझाने की पहल करता भी तो विभा नकार देती और पिछले कई
हिसाब उसे याद दिलाती कि वह कितना टुच्चा है। लगातार अपनी
उपेक्षा और अपमान से विकास तिलमिला जाता –– आखिर कब तक
बर्दाश्त करे वह।
हारकर उसने विभा को चेतावनी दी और इंटरनेट की डायरेक्टरी से
देह व्यापार के सेक्टर की जानकारी ली और विभा की शक्ल से
मिलती–जुलती एक 'सेक्स डॉल' का आर्डर दे दिया। तत्काल ही उसके
घर रबर की एक औरत भेज दी गई, जिसकी कद काठी और शक्ल विभा से
मिलती–जुलती थी। रबर की वह औरत सिर्फ पुतला नहीं थी, उसके
अन्दर विप से नियंत्रित प्रणाली थी –– जिसकी प्रोग्रामिंग करके
विकास मनचाहे हाव–भाव उस औरत में पैदा कर सकता था और कृत्रिम
तौर पर इच्छाओं की वांछित पूर्ति भी। 'बुद्धिमान ईमारतों की
तरह 'बुद्धिमान औरतें' भी देह व्यापार के सेक्टर में उपलब्ध
थीं। 'आर्टीफिशियल इंजेलीजेंस' वाली इमारतों का तापमान और
रोशनी स्वतः मौसम के अनुसार नियंत्रित होता था, उसी तरह
कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले व्यक्ति भी क्लोन पद्धति के अंतर्गत
बनाए जा सकते थे, उनकी माँग भी बहुत थी। पेचीदा मनोविज्ञान था
यह – एक रोग भी...जिसके वायरस फैल रहे थे...पर उनके
विरुद्ध प्रचार अभियान भी प्रशासन द्वारा चलाया जा रहा था ––
कुछ लोग गैर–कानूनी होने के बावजूद इस व्यापार में माफिया की
तरह लगे हुए थे। किसी व्यक्ति का 'क्लो–पुतला' बनाकर उसमें
मनमानी करवाना गलत था, पर कुछ शर्तों के साथ उसमें छूट भी थी
–– इसके लिए लाइसेंस भी दिए गए थे। उस दिन शायद भूल से विभा का
दरवाजा खुला रह गया था। विकास ने देखा कि विभा के कमरे में भी
उसकी शक्ल का एक 'पुरुष–क्लोन' है। उसे समझते देर न लगी कि
उसके द्वारा लाई गई 'स्त्री–क्लोन' के जवाब में विभा ने यह कदम
उठाया है। मन ही मन जैसे विभा उससे कह रही थी –– क्या समझते हो
अपने आपको...क्या सिर्फ तुम ही मनमानी करना जानते हो? अगर
तुम मुझे कुछ नहीं समझते तो मैं भी अपना महत्व जता
सकती हूँ...।'
अहंकार के शीत युद्ध से विकास दुखी हो जाता। अपना परिवार और
बचपन याद आता, जब घर के सदस्य भावनात्मक सम्बन्धों में जुड़े थे
–– एक दूसरे की कमजोरियों और ज्यादतियों के बावजूद इनमें स्नेह
और सम्मान था –– बड़ों के लिए लिहाज और उदारता थी –– अब उन्नति
के साथ लोग कितना संकुचित और संकीर्ण हो गए हैं? दूसरों के लिए
नपा–तुला सिर्फ उतना ही लगाव या सम्मान जिससे बदले में अपना
मतलब निकलता हो –– एक इंच इधर–उधर नहीं...कोई घाटे में नहीं
रह सकता, बल्कि अपना मुनाफा ही चाहता है, और जहाँ अपनी चवन्नी
आठ आने में न चलती हो, वहाँ से विरक्त हो जाना, रूखापन जताना
–– यही चलता है।
घर जैसे कोई आफिस या होटल हो गया था। दोनों अपने–अपने काम में
लगे रहते। जब बाहर जाना होता जाते, नहीं तो अपने–अपने 'पावडा'
से अपनी जरूरतें पूरी करते, खाने के लिए मनपसंद मेनू की
प्रोग्रामिंग करके रख देते...थोड़ी देर में खाना बन जाता और
बगैर एक दूसरे की परवाह किए वे अपना–अपना पेट भर लेते।
ड्राइंग रूम कॉमन था, जहाँ कभी वे आमने–सामने आते तो एक दूसरे
पर ठण्डी निगाह डाल मुँह फेर लेते। कभी विकास सद्भाव से पहल
करता तो विभा जली–कटी बात सुना देती –– उलाहने से विकास
तिलमिला कर क्षुब्ध हो जाता और मौन धारण कर लेता...फिर
दोनों ही ढंग से क्लोन पर मनमानी करके बदला निकालते –– गुस्से
में विकास विभा की 'क्लोन–स्त्री' को तमाचे भी जड़ देता, जबकि
उसे आभास था कि ऐसा ही कुछ विभा भी उसके 'क्लोन' के साथ कर रही
होगी।
एक बार संयोग से दोनों ही एक साथ घर में घुसे। एक दूसरे पर
तिरस्कार तथा अभिमानपूर्ण दृष्टि डालकर सोफे पर बैठ गए। दोनों
की निगाह विकास के कमरे पर पड़ी जिसका दरवाजा खुला था। एकाएक
विकास के मुँह से निकला –– 'अरे...दरवाजा किसने खोला? मेरी
'क्लोन–स्त्री' कहाँ गई...'
वहाँ रबर की औरत नहीं थी। तटस्थता का भाव जताते हुए विभा ने
अपने कमरे की ओर देखा –– उसका दरवाजा बंद था।
आशंका के साथ वह
उठी और दरवाजे के पास आकर ठिठक गई। वहाँ पुरुष क्लोन नहीं था।
किसी अनिष्ट की शंका से चौकन्ना विकास भी उठकर दरवाजे के पास
गया –– विभा में इमरजेंसी लेजर टार्च को दरवाजे के 'की होल'
में फोकस किया –– वहाँ पुरुष क्लोन नहीं था। उनकी निगाह गैलरी
पर पड़ी। उन्होंने देखा दोनों क्लोन पास–पास खड़े फुसफुसा रहे
थे।
'अरे तुम कितने अच्छे हो...वर्ना उस विकास की हरकतों से तो
मैं तंग आ गई थी...मेरी अपनी कोई मर्जी नहीं...। इसलिए
पास कोड चोरी करके तुम्हारे पास आ गई...।
'मैं भी...' पुरुष स्वर गूँजा –– 'कब से मौके की तलाश में
था कि तुम्हारे पास आ सकूँ। यह विभा भी कम दुष्ट नहीं...मुझ
पर हेकड़ी जताती हैं...तंग आ गया हूँ उससे...।'
फिर उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला –– तुम्हारी बात ही और
है! सचमुच यू आर ग्रेट...।
'तुम भी।'
विभा और विकास का आक्रोश ढह गया। दोनों एक दूसरे को घूरने लगे।
उनकी निगाहों में परम्परागत अहंकार और ठण्डापन नहीं था...पर
लज्जा और ग्लानि का भीगापन था। रहस्यमयी अज्ञात प्रोग्रामिंग
से नियंत्रित विभा ने आँखें चुरानी चाही तो विकास ने स्नेह से
हाथ बढ़ाकर उसकी बाँह पकड़ ली। विभा ने कोई विरोध नहीं किया...।
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