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दूसरे दिन अशोक असोसिएट डीन से मिलने चला।
 
"डेविड, मुझे तुमसे और शायद पीटर से भी कुछ बात करनी है। बच्चे लेक्चर क्लास में खाना खाते हैं, उसके बारे में। मेरे ख्याल से समस्या हल नहीं हुई है। मेरे डिपार्टमेन्ट का चेयरपर्सन कहता है कि डेविड बहुत काम में रहता है, और ऐसी समस्याओं से डीन को परेशान करना ठीक नहीं। चेयरपर्सन ये भी कहता है कि नये कॉन्ट्रेक्ट के मुताबिक ऐसी समस्या हल करने की जिम्मेदारी डिपार्टमेन्ट के चेयरपर्सन की रहेगी। तो फिर ये बताओ डेविड, मुझसे बात करना चाहोगे?"

"काम में तो जरूर हूँ, मगर कौन नहीं? अशोक, तुम्हारे साथ मैं जब भी चाहो तब बात करूँगा" अशोक के मुँह पर स्मित छा गया। डेविड पहले मेथेमेटिक्स डिपार्टमेन्ट में प्रोफेसर था, अब इसी साल असोसिएट डीन बना है। पिछले कई सालों में अशोक और डेविड की मुलाकाते हो चुकी है, और दोनो को एक दूसरे के प्रति आदर है।

"अगले लेक्चर के पहले मेरे पास कुछ समय है। क्या तुम्हारे पास अभी समय है?"
"जरूर, अशोक! आ जाओ, अन्दर बैठो।"
"क्या मैं दरवाजा बंद कर सकता हूँ?"
"जरूर, हो जाये!"
"देखो, डेविड, ये हो सकता है कि तुम ने और पीटर ने सब चेयरपर्सन से कहा भी हो कि ऐसी वैसी समस्या वो लोग हल कर ले ताकि डीन को परेशानी कम हो, और हर प्रोफेसर से बात करने की जरूरत ना पड़े!"
"नहीं, अशोक, मैंने ऐसा कभी किसी चेयरपर्सन को कहा नहीं है!"
"मेरा चेयरपर्सन डिपार्टमेन्ट को हर हफ्ते इ-मेल्स भेजता है। कुछ कॉपी और पेस्ट करके तुम्हें भेज दूँगा। अगर और कुछ नहीं तो मनोरंजन तो जरूर हो जायेगा!
'ये पिज़ा वाली समस्या हल करने की है। मैं दो तीन दिन से पीटर को खोज रहा था। लगता है पीटर कहीं शहर से बाहर गया है। मुझे पीटर से भी बात करने की जरूरत पड़े। ये भी हो सकता है कि ये पिज़ा समस्या के बारे में तुम्हारा और मेरा मंतव्य कुछ अलग भी हो।"
"अशोक, तुम्हें मालूम तो है कि मेरा अहम का लेवल बहुत कम है। पीटर सब का वरिष्ठ है, तुम्हारा, मेरा और सब चेयरपर्सन का। मैं और चेयरपर्सन तो बीच में, अगर हो सके तो, मदद करने के लिये है। मैं समस्या सुनने के लिये तत्पर हूँ, और हो सके तो हल करने की कोशिश भी कर सकता हूँ," डेविड ने अपना प्रख्यात नोटपैड निकाला, नये पृष्ठ पर अशोक का नाम लिखा, और समस्या से जंग खेलने के लिये तैयार हो गया।
 
बातचीत अच्छी चली। डेविड बीच बीच में नोटपैड पर कुछ लिखता भी रहा, और समस्या को समाधान की ओर गति भी देता रहा। डेविड ने बताया कि वो भी अपनी क्लास में खाते हुए बच्चों से परेशान हो जाता था। अशोक ने कहा कि उसकी संवेदना दूसरे प्रोफेसर से अधिक तीव्र भी हो सकती है।

"तो फिर ये समस्या कैसे हल करेंगे, अशोक? लंच का समय देने के लिये सोम और शुक्र का शेड्यूल बदलना तो बहुत भारी काम है!"
"हाँ, डेविड, मुझे मालूम है। बरसों पहले जब मैं चेयरपर्सन था, मैंने कुछ शेड्यूल बनाये थे। एक बार बन गया, फिर बदलने में बहुत सी तकलीफ जन्म ले सकती है। अशक्य सा है, मैं कुबूल करता हूँ। शायद डेविड या पीटर मेरी क्लास में आकर बच्चों से पाँच मिनट बात कर ले? बच्चों को ठीक से समझा दे कि शेड्यूल बदलना असंभव क्यों है? जिंदगी टिकाये रखने के लिये खाना जरूरी है मगर पढ़ाई के समय पिकनिक की तरह खाना ना खाये? अगर तुम्हारे पास या पीटर के पास समय नहीं हैं तो मुझे ऐसी कुछ चिठ्ठी लिख दो। मैं डीन की चिठ्ठी बच्चों के सामने पढ़ लूँगा।"
"हाँ, ऐसा तो हो सकता है, कोई तकलीफ नहीं उसमें। शेड्यूल बदलना तो बहुत मुश्किल है, फिर भी मैं देखना चाहता हूँ। और कोई तरकीब दिमाग में आ रही है, अशोक?"
"कोई भी रास्ता विघ्नमुक्त नहीं यहाँ। मैंने एक बात तो बता दी, हम कुछ भी ना करे, सिर्फ डीन बच्चों को ठीक से समझा दे। शायद वो सब से बेहतर है। हाँ, अभी अभी कुछ दिमाग में आ रहा है।"
"और वो क्या, अशोक?" डेविड ने कलम उठाई और नोटपैड पर लिखने को तैयार हो गया।
"आगे वाले लेक्चर में से पाँच या दस मिनट काट ले। मैं अपना लेक्चर पाँच या दस मिनट देरी से शुरू करूँ। दो लेक्चर के बीच में दस मिनट तो है ही। ये सब मिनट जोड़ दे तो बच्चों को खाने-पीने का समय मिल जाये।"
"वाह, ये सोच बुरी तो नहीं! मगर आगे वाला प्रोफेसर सहमत होना चाहिए और अगर पाँच मिनट लेक्चर में से निकाल दिया तो पढ़ाई में दस टके की कमी हो जायेगी!" डेविड ने अपनी गणित-विद्या का इस्तेमाल कर दिया।
"हाँ, संपूर्णता तो कहीं नहीं। बच्चे फरियाद भी करे कि उसकी पढ़ाई के पैसे वसूल नहीं हो रहे हैं! मुख्य फायदा यहाँ ये है कि कोई शेड्यूल बदलना नहीं होगा।"
"ठीक है, अशोक। छोड़ दो मुझ पर। देख लूँगा मैं। कुछ ना कुछ रास्ता निकल जायेगा।"
"बहुत अच्छा, डेविड। अच्छे इन्सान हो। बड़ी खुशी हुई बात कर के। मिलाओ हाथ।" अशोक और डेविड ने हाथ मिला लिये और अशोक अपने अगले लेक्चर की ओर चल पड़ा।
 
दो दिन बीत गये। अशोक ने पीटर को फेकल्टी लाउंज में देखा। सुबह का पहला कॉफी का कप तैयार कर रहा था। पीटर कोई दस साल से डीन है, और दो साल से रिसर्च के वाइस प्रेसिडेन्ट की उपाधि भी उसे मिली है। पीटर एक प्र्रतिभाशाली सौम्य सज्जन है।
"अरे, पीटर, आज कल दिखते नहीं? कहीं बाहर गये थे?"
"हाँ, अभी अभी वॉशिंगट्न से आ रहा हूँ।"
"अच्छा? किस मिनिस्टर का खजाना खाली कर दिया?" पीटर हँस दिया और अशोक अपनी चाय लेकर सुबह के लेक्चर क्लास की ओर जाने लगा, अचानक उसे कुछ याद आ गया।
"पीटर, डेविड ने कोई 'पिज़ा' वाली बात की? वो आप से मशविरा करनेवाला था।"
"हाँ, लगता है थियेटर में पिकनिक हो रही है," पीटर ने हँसते हुए जवाब दिया।
"बिलकुल सही! हर किस्म का खाना, मगर 'पिज़ा' जीत रहा है! बड़ी बड़ी स्लाइस, रंगीन, वजन में भारी, गरम गरम! जनता खाती है, चाटती है, निगलती है, और मुँह पोंछती है! मेला है मेला, पीटर!" पीटर जोरों से हँसने लगा।
"वैसे तो कोई भी लेक्चर क्लास में खाने की मनाही है। वो हमारी पॉलिसी है, मगर उसको लागू करना सरल नहीं। ये थियेटर की अंदर की पिकनिक का पता अगर केम्पस की सफाई रखने वाले डिपार्टमेन्ट को लग गया तो वो लोग गुस्से से पागल हो जाएँगे!"
"हाँ, मगर सफाई से ज्यादा मैं पढ़ाई की सोच रहा था। ये 'पिज़ा' बीच में आ रहा है, पढ़ाई में रूकावट कर रहा है "
"हाँ, हाँ, मुझे मालूम है तुम क्या कह रहे हो, और में पूरा सहमत हूँ। डेविड शेड्यूल देख रहा है। अगर हमने यहाँ शेड्यूल बदला तो कुछ बच्चे फरियाद करते आयेंगे कि दिन बहुत लंबा हो गया!"
"हम जहाँ रहते हैं वहाँ हर प्रकार की स्वतंत्रता है। फरियाद करने की भी स्वतंत्रता है। कौन कहता है स्वतंत्रता की कीमत नहीं? देखो, ये शेड्यूल बदलने का रास्ता इतना अच्छा नहीं। मैंने डेविड को और कुछ भी बताया है।"
"लेक्चर में से पाँच मिनट कम कर देने का? वो दूसरा प्रोफेसर सहमत नहीं होगा। उसको तो पाँच मिनट कम के बजाय ज्यादा चाहिये!"
"सब से सरल रास्ता ये है, पीटर, कि डीन एक दफे मेरी क्लास में आ जाये, और बच्चों को ठीक से समझा दे। शेड्यूल की जो तकलीफे है उसका थोड़ा वर्णन कर दे। बता दे कि खाना जरूरी तो है मगर पढ़ाई के माहौल का खयाल रखना जरूरी है।"
"हाँ, वो तो मैं कर सकता हूँ। डेविड को थोडा समय दे दो, वो अभी शेड्यूल देख रहा है।"
"मुझे माफ कर देना, पीटर। मुझे मालूम है कि आप लोग दूसरी कई समस्याओं से घिरे हुए हैं। अगर चाहो तो हम ये 'पिज़ा' प्रकरण यही खत्म कर दे। भूल जाएँ। कोई आकाश नहीं गिरनेवाला।"
"कोई फिक्र की बात नहीं, अशोक। हम कुछ रास्ता ढूँढ निकालेंगे।"

बात पूरी हुई, और अशोक को बातचीत से अच्छा लगा।

अगले कुछ दिनों तक अशोक इंतजार करता रहा, मगर डीन के ऑफिस से कोई आवाज़ नहीं आयी। कभी कभी अशोक ने दूर से दोनों डीनों को व्यस्त देखा, और 'पिज़ा' की याद दिलाने की इच्छा नहीं हुई।

दिन बहते चले, और हफ्ते पर हफ्ते बनते चले।

कोई आकाश नहीं गिरा।
दोनो डीन शायद दूसरी कठिन समस्याओं में डूब गये। भूल गये कि एक 'पिज़ा' था, एक 'पिज़ा' वाली समस्या थी!

अशोक?

अशोक के कानों में गूँजती रही-

"पिज़ा" की पुकार !!

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