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दीदी की वह स्नेहमयी और रागात्मक संभाषण-मुद्रा दरबारी के हृदय-पटल पर अंकित हो गयी।
अब वह प्राय: हर इतवार को वहाँ धमक जाने लगा। कभी रात में ठहर जाता, कभी खा-पीकर उसी दिन वापस हो जाता। दीदी बहुत खुश होती। इसी तरह आते-आते एक दिन उसने लक्ष्य किया कि दीदी का जेठ उसे कड़ी नजरों से घूरने लगा है और उसकी मुखाकृति पर एक रोष दिखाई पड़ने लगा है।
एक दिन दीदी ने उसे कुछ सामान से भरा एक थैला दिया और कहा, "इसे लेते जा मुन्ना, घर में काम आएगा।"

उस थैले में प्रचुर मात्रा में साबुन, तेल, बिस्कुट, चनाचूर आदि रखे थे। दीदी ने शायद अपने हिस्से की ये चीजें किफायत करके बचा ली थीं। जब इन्हें माँ ने देखा तो उसे डाँटने लगी, "यह अच्छा नहीं किया तुमने। बहन के यहाँ से भी कहीं कोई कुछ लेता है? तुम्हारी आदत बिगड़ती जा रही है। जरा सुधारो इसे।"

दरबारी हैरान रह गया - उसने तो सोचा था कि इन्हें लेकर माँ बहुत खुश होगी, पर पता नहीं किस धातु की बनी थी वह! आगे उसने देखा कि घर में साबुन-सर्फ के रहते हुए भी माँ-बाउजी दोनों सोड्डे या रेह से कपड़े धोते रहे और सिर में काली मिट्टी लगाकर नहाते रहें। दरबारी अकेले बहुत दिनों तक इनका इस्तेमाल करता रहा। साबुन से वह कुएँ पर नहाता तो लोग ताज्जुब से इस तरह देखते जैसे वह चोरी करके लाया हो।

यों चोरी करना भी दरबारी के लिए अब कोई वर्जित काम नहीं था। कई दिन तक जब भूख से आँतें ऐंठने लगतीं, चूँकि महाजनों से डयोढ़िया-सवाई पर कर्ज लेने की सीमा भी पार हो गयी रहती और आगे कोई उपाय नहीं दिखता, तो वह रात में बड़े जोतदारों के खेत से भुट्टे, चना, आलू, शकरकंद, चीनियाबादाम आदि उखाड़ लाता। माँ-बाउजी उसकी यह हरकत देखकर माथा पीट लेते। वे भूखे रह जाते पर इन चीजों को हाथ तक नहीं लगाते। दरबारी अफसोस करता अपने आप पर, खुद को कोसता और बरजता भी, मगर भूख उसे माँ-बाउजी की तरह ज्यादा बर्दाश्त नहीं होती थी। उसे लगने लगा था उन दिनों कि अगर यही स्थिति रही तो वह एक दिन कोई बड़ा डाकू नहीं तो एक शातिर चोर तो जरूर ही बन जायेगा। यों वह समझ सकता था कि भुखमरी और लाचारी न होती तो शायद वह कभी गलत काम की तरफ रूख नहीं करता।

जब से वह दीदी के यहाँ जाने लगा था, इस बुरी लत पर एक काबू बनने लगा था। चोरी-छिछोरी से बेहतर समझता था कि नवादा हो आया जाये। एक-दो शाम डटकर खा लेने के बाद चार-पाँच दिन तो जैसे-तैसे निकल ही जाते थे। मगर उसके जेठ की चढ़ी त्योरी से अब यह भी आसान नहीं रह गया।

इस बार दरबारी चला तो रास्ते में असमंजस के अलावा भी कई अन्य अवरोध बिछे थे। ट्रेन काफी लेट आयी और दीदी के घर पहुँचते-पहुँचते गर्मी की प्रचंड धूप जैसे ज्वाला बन गयी।

इतवार होने की वजह से दीदी को उसके आने का शायद पूर्वाभास था। खिड़की से वह रास्ते को निहार रही थी। उस पर नजर पड़ते ही वह घर से निकलकर कुछ आगे बढ़ आयी और उसे वहीं रोक लिया। एक दरख्त की छांव में ले गयी और कहा, "मैं तुम्हारी ही राह देख रही थी मुन्ना। तुम्हारे बार-बार आने को लेकर जेठ बहुत उल्टा-टेढ़ा बोल रहा था, इस बात को लेकर मुझसे कहा-सुनी भी हो गयी। तुम आज घर मत जाओ, तुमसे भी उसने कुछ कह दिया तो मुझसे सहा नहीं जायेगा।"

पल भर के लिए दरबारी को लगा कि दीदी ने पिछली बार जो सामान दिये थे उसे, कहीं घोंचू को इसकी जानकारी तो नहीं हो गयी? दीदी की बेचारगी को कुछ पल पढ़ता रहा दरबारी, फिर कहा, "ठीक हैं दीदी, मैं लौट जाता हूँ यहीं से कोई बात नहीं। लेकिन तुम मेरे कारण अपने जेठ से संबँध को कड़वा न करों। इन्हीं लोगों के साथ तुम्हें रहना हैं, जीजा अक्लमंद और तेज होते तो बात दूसरी थी। तुम जाओ, मैं जरा सामनेवाले घर से माँगकर एक लोटा पानी पी लूँ।"
"दीदी ने कहा, "यहाँ से क्यों माँगोगे, मैं अपने घर से पानी ले आती हूँ। अभी कोई देखेगा नहीं, सभी सोये हैं।"

दीदी ने झट पानी में चीनी घोलकर ला दिया। इसे दरख्त के नीचे खड़े-खड़े ही उसने गटागट पी लिया और पैर को ठंडा करने के लिए उस पर पानी डालने लगा। दीदी ने देखा - तवे की तरह तपती जमीन पर दरबारी नंगे पाँव चलकर आया था और उसके तलवे में फफोले उठ आए थे। भूख क्या-क्या करवा देती हैं। बेचारे को फिर इसी तरह इन्हीं जले पैरों से अंगारों पर चलकर वापस होना होगा।

दीदी कराह उठी जैसे तलवों के सारे छाले (फफोले) दीदी के हृदय पर स्थानांतरित हो गये। भरे गले से उसने कहा, "मुन्ना, मुझे माफ कर देना कि मैं तुम्हें रास्ते से ही वापस कर रही हूँ। इस गरमी में झुलसकर आए तुम और मैं तुम्हें एक पहर आराम करने की भी जगह नहीं दे पा रही। कितना जुल्म कर रही हूँ मैं तुम पर मैं मर भी जाऊँ तो तुम मुझे देखने मत आना।"

दरबारी ने देखा कि दीदी के चेहरे पर, उस वक्त की तुलना में, जब उसने कहा था 'हर इतवार को आया करो मुन्ना', इस वक्त यह कहते हुए कि 'अब मत आना मुन्ना', कहीं ज्यादा सान्निध्य और घनिष्ठता के भाव छलक आए हैं।
दरबारी ने पूरे आदर के साथ कहा, "अच्छा दीदी, अब मैं नहीं आऊँगा, लेकिन तुम भगवान के लिए मरने की बात मत करो।"

दीदी की आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे। एक अपराध-बोध से दरबारी का हृदय हाहाकार कर उठा, "तुम रो रही हो दीदी? मैंने तुम्हें रूलाया, कसूरवार हूँ मैं मत रोओ दीदी। सचमुच तुम्हारा यह भाई कितना पेटू हो गया था कि तुम्हारी इज्जत की बिना परवाह किये खाने चला आया करता था। तुम्हारे जेठ की आपत्ति वाजिब है, दीदी।"

दीदी ने उसके माथे पर हाथ फिराते हुए कहा, "मैं कितना लाचार हूँ मुन्ना कि अपने घर में तुम्हें खाने तक की छूट नहीं दे सकती। सच मेरे भाई, विधाता अगर मुझे सामर्थ्यवान और आत्मनिर्भर बना दे तो मैं पूरी जिंदगी तुझे खिलाते हुए और खाते देखते हुए गुजार दूँ। सच दरबारी, तूँ खाते हुए मुझे बहुत अच्छा लगता है रे जब तुम खाते हो तो लगता है जैसे अन्न पूजित और प्रतिष्ठित हो रहे हों।"

दरबारी दीदी के पाँव छूकर अपने फफोलेदार तलवों से चलकर वापस हो गया। दीदी ने उसकी जेब में दस रूपये डाल दिये और कहा, "किसी दुकान में कुछ खा लेना और सुनो दरबारी, इस भूख को अगर पछाड़ना है तो पढ़ाई में कोई कोताही न करना।"

इसके बाद दरबारी सिर्फ खाने की लालसा लेकर दीदी के पास कभी नहीं गया। जब लगभग एक साल गुजर गया तब वह मिलने आया मगर एक खास मकसद लेकर। आते ही उसने स्पष्ट कर दिया, "दीदी मैं खाने नहीं आया। तुमसे मिलने आया हूँ और तुरंत ही चला जाऊँगा। तुमने कहा था पढ़ाई ठीक से करना, तो मैं दिखाने आया हूँ कि मैं पढ़ाई ठीक से कर रहा हूँ और मैं मैट्रिक पास कर गया हूँ देखो, यह मार्कशीट है।"

दीदी उसे तनिक विस्मय से, तनिक हर्ष से और तनिक गर्व से अपलक निहारती रह गयी। दरबारी झट मुड़ गया, "अच्छा दीदी, चलता हूँ।"
"दरबारी!" राग दरबारी जैसे सुर में दीदी ने दरबारी को पुकारा। लपककर उसके हाथ से मार्कशीट ले ली। एक नजर कुलयोग पर डाला। फिर उसके भोलेपन पर रीझती हुई उसे गले से लगा लिया और कहा, "तूने आज इतनी बड़ी खुशखबरी सुनायी है और मैं तुम्हें यों ही बिना मुँह मीठा कराये ही चली जाने दूँ? इतना बड़ा अपराध करायेगा तू अपनी दीदी से!"
"तो ऐसा कर दीदी, जल्दी से मुझे तू एक चम्मच चीनी खिला दे, कहीं तेरे जेठ ने मुझे देख लिया।"
"देखने दे, आज में किसी से नहीं डरूँगी आज तू विजेता बनकर आया है। हाँ दरबारी, भूख पर तूने एक चौथाई जीत हासिल कर ली हैं।"

दीदी उसे बिठाकर घर में जो कुछ भी अच्छा उपलब्ध था, खिलाने-पिलाने लगी। दरबारी ने तय किया था कि घोंचू के इस क्वार्टर में वह कभी फिर से खाने की गलती नहीं करेगा। मगर दीदी के स्नेह के आगे भला दरबारी का कुछ भी तय किया हुआ कहाँ टिक सकता था! उसने सब बिसरा दिया आखिर भूख भी तो उसे लगी ही थी।

वह खा ही रहा था कि दीदी का जेठ प्रकट हो गया। उसके साथ दरबारी का ही हमउम्र एक लड़का था - जेठ का सबसे छोटा भाई। पहले तो दरबारी सहम गया। लगा कि कौर उसके गले में ही अब अटककर रह जायेगा। मगर उसकी आँखों में आज गुर्राहट नहीं थी। अच्छे मूड में वह दिख रहा था। आराम से बैठते हुए उसने दरबारी को संबोधित किया, "पहचानते हो इसे यह मेरा छोटा भाई है मैट्रिक की परीक्षा दी थी इसने सेकेण्ड डिविजन से पास कर गया। एक तुम हो, एक नंबर के पेटू स्साले सिर्फ खाने के चक्कर में रहते हो आवारगर्दी करते हो। पढ़ाई-लिखाई तो नहीं करते होगे। करते भी तो क्या फायदा बिना पढ़े तो पास करते नहीं। मेरे इस भाई को देखो और जरा शर्म करो।"

दरबारी ने जल्दी-जल्दी बचे हुए को खाकर खत्म कर दिया। हाथ धोकर बहुत देर तक यों ही बैठा रहा। मन में यह विचार करता रहा कि इस आदमी को अपनी मार्कशीट दिखाये या इसे यों ही एक भुलावे में पड़े रहने दे। दीदी ने जेठ के भाषण अंदर से ही सुन लिये थे। दरबारी को जब इसका कोई जवाब देते नहीं सुना तो द्वार पर आकर आवाज लगायी, "मुन्ना, भैया को जरा अपना अंकपत्र दिखा दो।"

दरबारी ने जेब से निकालकर अंकपत्र दिखा दिया। जेठ की आँखें ताज्जुब से फटी की फटी रह गयीं। दरबारी ने सेकेण्ड नहीं फर्स्ट डिविजन से पास किया था सिर्फ फर्स्ट डिविजन नहीं बल्कि हाई फर्स्ट डिविजन।

उसे अपार खुशी हुई पहली बार वह दरबारी को देखकर इतना खुश हुआ था। कहा, "अरे तूने तो कमाल कर दिया, मैं तो तुम्हें एक नंबर का नकारा और पेटू समझता था मगर तुम तो बहुत तेज निकले!" उसने अपनी जेब से बीस रूपये निकाले और अपने भाई को देते हुए कहा, "जाओ, सरस्वती टॉकिज में दरबारी के साथ सिनेमा देखना और फिर मिठाई खा लेना।"

पहले तो दरबारी को लगा कि उसे गरीब जानकर कोसने-धिक्कारने और अंडरइस्टीमेट करनेवाले इस अहमक आदमी के ऑफर को वह ठुकरा दे, मगर सिनेमा देखने की उसकी एक चिरसंचित आकांक्षा अब तक अधूरी थी अत: वह इंकार नहीं कर सका। उसने सोचा कि इसे अच्छी पढ़ाई का एक पुरस्कार के रूप में लिया जाये। उसके छोटे भाई के साथ चला गया वह। हॉल में बैठकर सिनेमा देखने की उसकी साध पूरी हो गयी।

आगे की स्थितियाँ बहुत तेजी से उलट-पलट हो गयी थीं। जीजा की निष्क्रियता और निखट्टूपन के कारण घोंचू ने बदनीयती से जमीन के चंद टुकड़े देकर दीदी को अलग कर दिया जिससे उसकी हालत डगमग और बदतर होती चली गयी। दरबारी ने अभावों और मुश्किलों में भी अपनी पढ़ाई जारी रखी और उसे एक स्टील कंपनी में नौकरी मिल गयी। दीदी ने अभाव के बावजूद कभी हाथ नहीं पसारे मेहनत-मजूरी करके गुजारा चलाती रही। ये और बात है कि दरबारी खुद से किसी न किसी बहाने, जब तक उसका चला, अपनी मदद उपलब्ध कराता रहा।

आज शायद जीवन को दाँव पर लगा देख पूरे जीवन में पहली बार दीदी ने मुँह खोलकर उससे पाँच हजार रूपये माँगे थे। कुछ भी नहीं थी यह रकम दरबारी अपनी पूरी कमाई भी दीदी के लिए न्याछावर कर देता फिर भी बुरे दिन की उसकी जालिम भूख पर जो रहमोकरम उसने किये हैं, उसकी भरपाई नहीं हो सकती। हैरत है कि दरबारी के बेटे ऐसी ममतामयी दीदी को बचाने के लिए मामूली से पाँच हजार भी देने के तैयार नहीं हैं।
वे एकदम खिन्न और उद्विग्न हो गये। तनिक तैश में आकर जवाबतलब कर लिया, "कालीन, पर्दे, टीवी, बाइक आदि के लिए पैसे हैं तुम लोगों के पास, लेकिन मेरी अपनी उस बहन की जान बचाने के लिए एक तुच्छ सी पाँच हजार की रकम नहीं दे सकते, जिसने मेरे सुखाड़ के दिनों में मुझपर अगाध प्यार बरसा कर मुझे हरा बनाये रखा। उस जमाने में पाँच-दस करके ही जितने रूपये मुझे दिये हैं उसने, उसका सूद हम जोड़ना भी चाहें तो गणित फेल हो जायेगा।" कहते-कहते एकदम भावुक हो गये दरबारी प्रसाद।

भुक्खन को उनकी यह भावुकता जरा भी अच्छी नहीं लगी। वह चिड़चिड़ा उठा, "आप यों ही बकबक करते हैं मगर आप जानते भी हैं कि इन चीजों का इंतजाम हम कैसे करते हैं?बाउजी, आप यह मत समझिए कि बैंक में इफरात पैसा पड़ा है जिससे हम बेमतलब की चीजें खरीद रहे हैं। दरअसल जो सर्किल और स्टेटस हैं हमारे, उसे मेंटेन करने के लिए यह सब करना पड़ता हैं। सच यह है बाउजी कि हम बहुत तंगी से गुजर रहे हैं और स्टैंडर्ड को मेंटेन करने में हमारी आमदनी बहुत कम पड़ रही हैं।"

दरबारी ठगे रह गये - एक नया रहस्य खुल रहा था उनके सामने। एक तो रिटायर होने के बाद उनके पैसे भी घर बनाने और इसे सजाने-सँवारने में ही खर्च हो गये, ऊपर से दो-दो नौकरी के पैसे आ रहे हैं।

भुक्खन ने आगे कहा, "जिन चीजों के नाम आपने गिनाये हैं, आप जानना चाहते हैं न कि वे कैसे लाये गये? तो सुनिये, माइक्रोवेव ओवन हमने दुकान से छत्तीस किस्तों में लिये हैं टीवी और ऑडियो सिस्टम बहुत कम पैसे देकर एक्चेंज ऑफर में खरीदे गये हैं। चूँकि ये बहुत पुराने और आउट डेटेड हो गये थे। कालीन हमने क्रेडिट कार्ड से लिये हैं। बाइक भी दुक्खन भैया ने इम्प्लॉय टेम्परेरी एडवांस लेकर लिया है, चूँकि उनका पुराना बाइक बहुत पेट्रोल पी रहा था। नया बाइक जापानी टेक्नॉलॉजी से बना है और पेट्रोल के मामले में बहुत एकोनॉमी हैं। आज-कल में हमें कार भी खरीदनी हैं, चूँकि पास-पड़ोस में सबके पास कार हो गयी हैं। सब टोकते रहते हैं। बैंक से लोन लेना होगा इ़स तरह घर की एक सैलेरी लगभग किस्त चुकाने में ही खप जाती हैं। अब आप खुद ही निर्णय कर लीजिये कि हमारी हालत क्या है। आप चिन्तामुक्त रहें इसीलिये घर के अफेयर्स से हम आपको अलग रखते रहे, जिसका आपने शायद गलत अर्थ निकाल लिया, लेकिन ऐसा नहीं है, बाउजी।"

दरबारी प्रसाद का माथा घूम गया बुरी तरह। उन्हें याद आ गयी गाँव की महाजनी प्रथा। उन्हें लगा कि आज वही प्रथा दूसरे रूप में उनके सामने आ गयी हैं जिनके व्यूह में फँसकर दो अच्छी तनख्वाह के बाद भी उनका घर पूरी तरह कर्जदार हो गया है। उनके बाउजी भी गाँव के साहुकार या बड़े किसानों से अनाज ड्योढिया-सवाई पर लाते थे और अगली फसल में मूल नहीं तो सूद चुका देते थे। मगर तब कर्ज लेने का मकसद सिर्फ पेट भरना होता था। आज स्टैंडर्ड मेंटेन करने के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है, कुछ इस तरह कि ऊपर से वह लगता ही नहीं कि कर्ज हैं। क्या पहले से भी शातिर और खतरनाक खेल नहीं बन गया है यह? बाजार ने अपने तिलिस्म इस तरह फैला रखे हैं कि आप में क्रय-शक्ति न भी हो तो भी वे लुभावने स्कीम जैसी कर्ज की एक अदृश्य फाँस में लेकर विलासिता के उपकरण खरीदने के लिए आपको आतुर बना देते हैं। एक्सचेंज ऑफर, क्रेडित कार्ड, कंज्यूमर लोन, परचेजिंग बाई इन्स्टॉलमेंट ये सारे अलग-अलग नाम कर्ज में घसीटने के लिए बाजारवाद और उपभोक्तावाद का व्यूहपाश ही तो हैं जिनमें उनके बेटे फँस गये हैं बुरी तरह।

मतलब तय हो गया कि दीदी को यहाँ से किडनी निकलवाने के लिए और रूपये नहीं भेजे जा सकते।
एक महीने बाद खबर मिली कि दीदी मर गयी। दरबारी प्रसाद को लगा कि वे फिर अपने उन भूखे दिनों में लौट गये हैं और दीदी कह रही हैं, "विधाता अगर मुझे सामर्थ्यवान और आत्मनिर्भर बना दें तो मैं पूरी जिंदगी तुझे खिलाते हुए और खाते देखते हुए गुजार दूँ। सच दरबारी, तू खाते हुए मुझे बहुत अच्छा लगता है रे जब तुम खाते हो तो लगता है जैसे अन्न पूजित और प्रतिष्ठित हो रहे हों।"

बच्चे की तरह खूब बिलख-बिलखकर रोये दरबारी प्रसाद। मन में वे सोचते रहे कि दीदी की मौत का जिम्मेवार वे किसे ठहराएँ दीदी की गरीबी को, खुद को, अपने बेटों को या फिर बाजार के तिलिस्म को?

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२ नवंबर २००९

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