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छुट्टी का दिन था, रात के नौ
बज रहे थे। निशा के बेटे छुटि्टयों में घर आए थे, सो दिन
भर के लिए दो तीन परिवार खेरान की और निकल पड़े। यों तो
कुवैत रेगिस्तान है पर कुछ जगहें ऐसी ज़रूर हैं जहाँ
हरियाली और फव्वारों के बीच मौजमस्ती से समय गुज़ारा जा
सकता हैं। एक तो
१३० किलोमीटर की ड्राइव, दूसरे वहाँ साइकिल रिक्शा का
मज़े-मज़े में चलाना पर वापस लौटे तो थक कर चूर, सभी सुस्त
हो रहे थे। रात का खाना हल्का-फुल्का किस तरह का हो इस पर
चर्चा चल रही थी। इतने में फ़ोन की घंटी बजी। निशा की
सहेली, नेहा का फोन था। उम्र में छोटी होने के नाते वह
निशा को दीदी कहती है। फ़ोन पर ही रोने लग गई। कहने लगी,
"दीदी, आप जल्दी से मेरे घर आ जाइए।" पल भर के लिए निशा
घबरा गई। हालाँकि ऐसे घबरा कर फ़ोन करके बुलाना और निशा का
वहाँ भागा-भागा जाना, यह कोई नई बात नहीं थी। लेकिन इस बार
के बुलाना निशा को कुछ दर्द का अहसास दे रहा था।
अब्बासिया की इस बिल्डिंग
में दोनों पास-पास रहती थीं। निशा तुरंत उसके घर पहुँच गई।
विदेश में रहने वालों को ऐसे ही एक दूसरे का सहारा बनना
पड़ता है। वह कह रही थी, "मुझे यहाँ नहीं रहना, वापस जाना
हैं।" |