असल में तो पहले वाला कोई भी नहीं
रहता मेरा अपराध ही यह है कि मैं पहले वाला व्यक्ति ही रह गया हूँ। मन ने तर्क़
किया।
पहले वाला होता तो आज भी होने
वाला वाणिज-व्यापार उसी दिन न समझ जाता। मुंडी भाषा आती तो थी तुझे। वही खाता लिखना
सिखाया तो था मुनीम जी ने। बाईस साल पहले भी तो पिता के एक आदर्श की पूर्ति के लिए
दूसरे आदर्श की बलि दी जा रही थी वैसे भी ऐसी बलि, यदि ज़रूरत हो तो दी जा सकती
हैं, दी जानी चाहिए यह समझ में आता तो हैं। पर उस समय इस व्यापारिक बुद्धि की समझ
ही कहाँ थी पर आज आज भी अगर न समझे तो नाटक ही तो होगा, या फिर नकारा मूर्ख ही कहा
जाएगा न!
'लड़का डागदरी करै हैं। और इत्ती
गँवार, अनपढ़ छोरी। कैस्से तो निभैगी दोन्नों में 'बुआ को बोलते सुनकर हमेशा गाँव
के फिल्मों का विज्ञापन करने वाले भोंपू याद आते थे, पर उस दिन तो भोंपू की आवाज़
सुन ही न पड़ रही थी। बुआ पैरवी करती रहीं थीं, दादी ने तो कुछ बोलना, अपना मत देना
दादा की मौत के पाश्चात ही छोड़ दिया था। उसके लिए यह बात हमेशा आश्चर्य का विषय
बनी रही थी कि इतनी दबंग और साफगो दादी अचानक चुप क्यों और कैसे हो गई थी हालाँकि
अब समझ में आता हैं पिता जी भी चुप थे। असल में तो चुप्पी पिता जी का एकमात्र
हथियार था जब वह किसी बात पर तर्क़ न करना चाहते थे, तब भी जब अपनी बात बिना
तर्क़-वितर्क़ के मनवा लेना चाहते थे - तब वह एक अभेद्य दीवार बन जाते थे, गोली,
पथराव, धक्का-मुक्की कुछ भी प्रभाव न डालता, बोलने वाला उस दीवार से सिर फोड सकता
था, लहूलुहान हो सकता था उत्तर तब भी न मिलता, भला दीवार क्या उत्तर देती? फिर इस
स्थिति में तो कहते भी क्या और कैसे कहते?
कैसे कहते कि एक क्लर्क का दिमाग
और सोच भी क्या सकता है या फिर यह कि जीवनभर अभावों की ज़िन्दगी जीने के बाद
व्यक्ति के मन में जाने-अनजाने अपने बच्चों के भविष्य को लेकर जो आकांक्षा जाग उठती
है, उसे पूरा करने को वांछित-अवांछित शर्तों को मान लेने के पीछे कोई तर्क़ नहीं
होता, हो ही नहीं सकता।
कैसे कहते कि उनका बड़ा पुत्र, जो
मात्र एक क्लर्क इसलिए बन पाया कि पिता क्लर्क बनकर उसके लिए उच्च शिक्षा का जुगाड़
नहीं कर पाये थे, अब दूसरों बेटों के लिए उन्हें यह करना ही था।
कैसे कहते कि पढ़ने में अव्वल,
खेलकूद में तेज़, स्कूल में तेज़ दिमाग़ बच्चा अपने जीवन में मात्र क्लर्क बन पाया
था केवल इसलिए कि तीन लड़कियों और चार लड़कों की पूरी ज़मात का जानलेवा बोझा सँभाल
सकने में असमर्थ व असमय टूटती रीढ़ की हड्डी को थोड़ा-सा सहारा दे सकने की गुंजाइश
मात्र उस पुत्र के दसवीं क्लास के पश्चात् नौकरी पाना भी किसी एवरेस्ट को चढ़ने से
कम न था, तो भला क्लर्की का मिल जाना क्यों सौभाग्य न माना जाता।
कैसे बताते कि इस क्लर्की के लिए
भी उन्होंने जाने किस-किसके जूते पालिश किए थे, किस-किसके आगे नाक रगड़ी थीं,
कहाँ-कहाँ गिड़गिड़ाये थे, कभी दाम-कभी साम जाने किस-किस प्रकार की नीतियों का
प्रयोग किया था।
और यह भी कैसे बताते कि समस्त
जीवन बल्कि बहुत-सी ज़िन्दगियों की बलि देने से अच्छा है - एक आदर्श की बलि दे
देना। ये सब न पिता बता सकते थे, न उस समय कोई समझ सकता था।
उस दिन बेहद अमीर माता-पिता की
अनपढ़, गँवार, भद्दी-सी शक्लवाली एकमात्र पुत्री से एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के
डॉक्टर लड़के का विवाह, विवाह संबंध की दृष्टि से चाहे अनमेल रहा हो, पर घर की
चरमराती, टूटती तथा बिखरती स्थिति के लिए अत्यन्त उपादेय था,
'लड़की तो चौखी हैगी।'
'ठीक-ठीक हैगी बनिया के घरों की जैस्सी हौवे वैस्सी ही।'
'लड़की को छोड़ द्यो। सामान देक्खो घर भर गया हैगा।'
'हाँ, ये तो हैगा। पर, छोरा इत्ता पढ्वा-लिख्या और छोरी खटके तो हैगा ना।'
'छोरियों को पढ़ा-लिखा के कै होगा? छोरियाँ तो लछमी होवैं। बड़ा भागवान है छोरा।
बाप के दलि र दूर कर दये। छोरों का बाप होन का यही तो फैदा हैगा।'
'यई तो। बड्डे ने सब कुछ छोड़-छाड़के सोलह बरस की उमर में नौकरी कर ली बाप की सोटी
बन गया। दूसरे बेट्टे ने तो अग्गे की सारी सड़क ही धो-पोंछ कर साफ़ कर दी हैगी।'
'छोरियों की किस्मत भी तो निखर जागी। अब अच्छे घर पा जावेंगी।'
अनेक आने वालियाँ, अनेक बातें,
अनेक चर्चे, अनेक तमगे और सबके बीच बैठी फूलों रानी। रानी ही तो थी। बाप के घर की
रानी इसलिए कि बुढ़ापे की एकमात्र सन्तान इतने पैसे की एकमात्र वारिस जो पहले इसलिए
जुड़ता रहा कि खर्च किस पर करें, फिर इसलिए कि इतना जुड़ा पैसा सिफ़ पैसा ही
ब्याज-दर-ब्याज इतना कमा रहा था कि खर्च करते-करते भी मिलोय की लतर-सा बढ़ता चला
जाए। परिणामत: फूलवंती फूलों रानी बन गई। पिता के घर की रानी यहाँ भी रानी ही बनी।
ज़ाहिर था पिछले सैंकड़ों वर्षों के दलिद्दर एक दिन में निकाल बाहर करने वाली को
रानी कहने में किसे एतराज़ होता या फिर ऐसी हिमाकत कौन करता और क्यों करता?
पता नहीं, धन और धोखे में कोई तो
संबंध होगा ही। दोनों की राशि एक ही है। धन-प्राप्ति के साथ ही प्राप्त अक्ल की धार
तीखी हो जाती है, शायद प्राप्ति शब्द का प्रभाव होता होगा। और उस दिन लक्ष्मी
पुत्री फूलों रानी तथा सरस्वती पुत्र विद्यानन्द इस प्रकार दोनों परिणय-बन्धन में
बँध गए थे। फूलों रानी की लक्ष्मी पाकर विद्यानन्द धनवान हो गए थे और विद्यानन्द
नामक डॉक्टर से ब्याह कर फूलों रानी डॉक्टरनी हो गईं थीं। एक ही घर में मैं भी
रानी, तू भी रानी की स्थिति तो चल ही नहीं सकती थी, परिणामत: फूलों रानी रानी बनकर
घर पर राज्य करती रहीं और वह यानी विद्यानन्द रानी के धन से निर्मित एक बहुत-बहुत
बड़ा-सा अस्पताल खोलकर अपने डॉक्टरी पेशे को समर्पित हो गए और इस प्रकार ज़िन्दगी
चल निकली और चलती रही लक्ष्मी के औरस पुत्र तथा फूलों रानी के जायज़ किन्तु नाजायज़
पति की तरह वह भी चल निकला।
एक मणि है फूलों रानी और दूसरे
हैं माणिक लाला जी की सुमति यानी सुम्मो। फूलों रानी फूल की तरह सुन्दरी तो न थी पर
गन्धहीन फूल तो था ही; और सुमति वह तो मतिहीन भी और गन्धहीन भी। उधर फूलों रानी का
जायज़ पुत्र एक अमीर पिता की पुत्री, जिसका पति भी उसी सम्पत्ति से धनवान बन गया था
- का पुत्र मतिहीन कैसे हो सकता है गन्धहीन भी कैसे कहा जाए?
अमीर नाना का दोहता,अमीर माँ का
पुत्र एक अव्यावहारिक तथा गावदू किस्म के पिता (फूलों रानी के मायके वालों के
अनुसार), जिसने पिता होने का सुख शायद ही कभी अनुभव किया हो, का पुत्र यदि बचपन से
लेकर आज तक खिलौने से लेकर किसी गलत काम करने तक के लिए मचल उठे तो क्या कारण कि
पूरा न किया जाये-इसी नियम के तहत पलकर बड़ा हो रहा था। परिणाम उसके लिए सभी सही
गलत थे और सभी गलत सही, बल्कि सही और गलत के बीच शायद कोई रेखा ही नहीं थीं।
उसमें और उसके पुत्र में सभी कुछ
भिन्न था। उसका बचपन, जिसमें हर वस्तु अप्राप्य या नकार में आती थी, पुत्र के लिए
प्राप्य और स्वीकार की कोटि में थी। जीवन में ना ग्रहण की आदत डालना भी आवश्यक हो
सकता है, यह फूलों रानी क्या उसके पिता-माता भी न समझ पाते थे। बैलेन्स के लिए हाँ
और ना दोनों के मेल की आवश्यकता को समझना-समझाना केवल मुश्किल ही न था, नामुमकिन
था। पाने, लेने, देने के बीच के तालमेल का महत्व उस घर में उसके अतिरिक्त बाकी सबके
लिए था ही नहीं। उसके लिए तो था ही।
कॉलेज का ज़माना खास तौर पर
मेडिकल कॉलेज का, कभी-कभी बेहद तनाव-भरा भी हो जाता था। थर्ड यर सिन्ड्रोम जैसा एक
तनावग्रस्त समय था जब उसे लगता कि किताबों की सारी बीमारियाँ धीरे-धीरे पन्नों से
निकलकर उसे अपने पंजों में जकड़ती जा रही है। एक-एक अक्षर आक्टोपस सा अपने हाथ
बढ़ाता और उसे जकड़ता। अजीब वक्त था। भयभीत, असुरक्षित-सा वह अपने कमरे में नींद की
गोली खाकर पड़ा रहता, घण्टों नहीं दिनों वहाँ किसी और को फर्क़ भी क्या पड़ता कि
किसी ने क्लास क्यों बंक कर दी, वह कमरे में हैं या कहीं और। वह तो किस्मत अच्छी थी
कि वेणुगोपाल बराबर के कमरे में रहने वाला, दो वर्ष सीनियर, इन्टर्नशिप ख़त्म कर
एम.डी. की परीक्षा की तैयारी में जुटा हुआ, शायद भुक्तभोगी रहा हो, अत: एक दिन उसने
दरवाज़ा खटखटाया और उसे कुएँ से बाहर निकालने का काम अनेक खिड़कियों, दरवाज़ों व
रोशनदानों को खोलकर करना शुरू कर दिया। आचार्य जी से मुलाक़ात भी उसी ने करवाई थी।
आचार्य जी के वाक्य जीवन के सफर में मोड़ों, गहराइयों और ऊँचाइयों के साथी बनकर हाथ
थामते रहे थे, जो उसकी अपनी गृहस्थी की गाड़ी के पहिए के नीचे दबकर नुच-खुस गए थे,
पर उस दिन याद आ रहे थे -
'हम सब नियति की डोर से बँधे हैं।
डोर हैं इसलिए, इसलिए तो गिर नहीं जाते। नियति ने सब कुछ निश्चित कर दिया हैं हँसी
भी, आँसू भी, प्राप्ति भी, असफलताएँ भी। जीवन में यदि चार वस्तुएँ प्राप्त होनी
हैं, परन्तु व्यक्ति की ज़िद कुछ और पाँचवीं पाने की है तो मिल तो जाएगी पर पहली
चार में से कोई एक छिन अवश्य जाएगी। बलि तो देनी ही पड़ेगी।'
आज ये शब्द कानों में गूँजे तो
गूँजते ही चले गए, बाकी सब धँुधला गया था, सिर्फ ये शब्द रौशन थे। अजीब है समय भी ।
अजीब हैं शब्दों के अर्थ भी। एक ही शब्द के अर्थ वक्त के साथ बदल क्यों जाते हैं?
परिस्थितियों के साथ जुड़कर अर्थ समझ में आने लगते हैं। संदर्भहीन शब्दों का क्या
कोई अर्थ ही नही होता सब समझ आ रहा था। सब समझ पा रहा था पर आज चुप बैठे रहना ही
नियति थी।
उस दिन प्रिन्सिपल साहब ने बुलाया
था - 'माफ कीजिएगा, डॉक्टर साहब! चाहता तो नहीं था पर क्या करूँ, मजबूर था।'
वह चुपचाप बैठा था ऊपर से, भीतर धमाके थे। फूलों रानी आतुर तो थीं पर निश्चिंत भी,
जैसा कि वह हमेशा हुआ करती थीं। पुत्र की गलतियों के साथ - मृत्यु जैसी बात छोड़कर,
अन्य किसी की गलती पर वह चिन्तित होने वाली हस्ती न थीं। पर व्यावहारिक तो थीं ही,
बोलीं - 'के हुआ, साहब! जल्दी बताइये। मेरा तो दिल घबराये हैं, के हो गया? बच्चा
है, प्रिन्सिपल साहब, थोड़ा-बहुत गलत-सलत तो हो ही जावे हैं।'
'तुम' गुस्से को पीते हुए शब्दों
को चबाकर उसने कहा था, 'चुप भी तो रहो तनिक।' आवाज़ की सख्ती प्रिन्सिपल साहब के
लिए आश्चर्य का विषय थी। उन्होंने उसे एक मधुरभाषी डॉक्टर के रूप में देखा था जो
अपने काम में दक्ष था। पति, पिता या अन्य रूपों से तो आज सामना हो रहा था, 'जी
प्रिन्सिपल साहब! कहिए।'
'क्या कहूँ, डॉक्टर साहब। वो बात यह हो कि ' उन्होंने कुछ देर के लिए मौन धारण कर
लिया। माथे की लकीरें बता रही थीं कि वह या तो सोच रहे हैं कि कितना बताएँ, या कि
कहाँ से शुरू करें, या फिर कैसे बताएँ, या शायद हिचक रहे थे। जितना अधिक उनकी हिचक
थी, उससे उसकी आशंका बढ़ रही थी।
यों तो हर पिता को अपने पुत्र की
हद जानना चाहिए। बच्चों के क्रिया-कलापों से अनभिज्ञ रहना यह एक कसौटी पर खरे उतरे
पिता का प्रतीक नहीं हैं। इस मामले में वह खोटा सिक्का कहा जा सकता था। अपने पुत्र
के अच्छे-बुरे कार्यों की हद तक उसे पता न थीं।
वह दिन भुलाये नहीं भूलता था, जिसके बाद उसने अपने पुत्र को मन और आत्मा से अपना
बेटा मानने से इंकार कर दिया था। कुछ घटनाएँ आँखों के आगे का अक्स बन जाती हैं
जिसके पीछे बहुत-सा सुखद-खुशनुमा तलक छिप जाता है।
'क्यों इतना लाल-पीले हो रहे हो?
कुछ काँच की चीज़ें ही तो थीं, फिर आ जाएँगी उसके नाना में इतना दम-खम है अभी, फिर
भिजवा देंगे। वैसे भी तो घर का सभी समान वहीं से तो आया हैं' - लैब के समस्त सामान,
प्रयोग के बीकर, पाइप आदि को काँच के खिलौने समझकर चूरा-चूरा हुआ पाकर जब वह अपने
को रोक नहीं पाया था और पुत्र पर उसका क्रोध बरस पड़ा था, तब यह बात अपनी मधुर
ध्वनि में फूलों रानी ने कह दी थी।
फूलों रानी, विधि-विधान से पत्नी
के रूप में मन में कभी बसी ही न थी, पर उस दिन पता नहीं किस गुमनाम तरीके से उसका
पुत्र, जिसके लिए मन में कुछ-कुछ कभी उमड़ जाया करता था, भी उसे भीतर के तन्तुओं से
कटकर अलग जा पड़ा था।
उस दिन उसे लग उठा था कि समस्त
अहसासों के पंख नोच लिए जाने पर किस प्रकार वह मात्र एक डॉक्टर, हृदयहीन हृदयरोग
विशेषज्ञ मात्र बन गया था। विरोधाभास बनी ज़िन्दगी बिना किसी विरोधों-अवरोधों के तब
से आज तक चलती चली आ रही है, इसे ही गति कहते हैं।
'कहिए, प्रिन्सिपल साहब! जो भी
कहना है, स्पष्ट व बिना किसी हिचक के कहिए। मैं सीधे-स्पष्ट शब्दों में बिना भूमिका
के सब कुछ सुनने के लिए तैयार हूँ।'