बस इसी बलवान वाली बात पर सूबेदार को खीमसिंह के साथ चुपचाप उठ
जाना पड़ा कि कहीं 'जम्बू बोले यह गत भई, तू क्या बोले कागा?'
वाली बात न हो जाय। बद अच्छा, बदनामी बुरी।
तब का व्यतीत, अब तक साथ है ।
अड्डे तक सचमुच दस बजे से भी कुछ पहले ही पहुँच दिया था
खीमसिंह ने। सुबह-सुबह चम्पावत से लोहाघाट तक कितनी गहरी और
गझिन धुंध थी ।
ट्रक-समेत कहीं अदृश्य लोक में प्रवेश करते होने की भी अनुभूति
होती थी और भय। सारा ध्यान इसी बात पर टँगा रहता कि क्या सचमुच
इसी जनम में फिर रूक्मा सूबेदारनी होंगी और उनके साथ का तालाब
में की मछली का-सा इस कोने से उस कोने तक उजाड़ना? घर पहुँचने
के बाद, थोड़ा एकान्त पाते ही सूबेदारनी एकाएक दोनों पाँव जकड़
लेंगी और सोते-से फूट पड़ेंगे धरती में। जन्म-जन्मांतरों की-सी
व्याकुलता में, उनकी पीठ तक हिलती होगी। तब, दोनों हाथ काखों
में डाले, ऊपर उठाएँगे सूबेदार और सात्वंना देने में, एकाकार
हो जाएँगे। तब ट्रक की यात्रा में ही जाने कितनी बार हुआ कि
परमात्मा तो अंतर्यामी है, उससे क्या छिपा है, मगर बगल में
ड्रायवर की सीट पर बैठा खीमसिंह भी न देख रहा हो। जब कोई जागता
है हर क्षण आदमी की स्मृतियों में, पशु-पक्षी भी भीतर तक
झाँकते गोचर होते है।
सूबेदारनी साहिबा से क्या कहा था उस पहली रात ही कि "एक आँख से
हम देख रहे हैं, एक से तुम। वह भगवती पराठा सेंकती जाती है और
मंजीरा-सा बजाती है कि 'एक पराठा तो और लो सूबेदार, साहब!' --
और हमें आप ही सेंकती-खिलाती नजर आती हो। ये तो आपने अब बताया
कि कल रात का व्रत रखा था। देखिए कि हम बिना खबर हुए ही दो
जनों का भोजन कर गए।"
क्या रखा है स्साले किसी आदमी की जिंदगी में, अगर कहीं पाँवों
से लेकर, सिर से ऊपर तक का, गहरे तालाब-जैसा प्रेम नहीं रखा
है। कहाँ तो एकमूकता का-सा आलम था प्रारम्भ में। फिर शब्द फूटा
एकाएक, तो सचमुच एक सृष्टि होती चली गई। जीभ में लपटा तागे का
गुच्छा हट गया और वाणी झरना होती गई। जाने कब, कहाँ रात बीती।
सूबेदारनी साहिबा ने नहीं टोका एक बार भी, सिर्फ इतना कहती, उठ
खड़ी हुई कि विहानतारा निकल आया है। सूबेदार को भी यही हुआ कि
माता भगवती, तू नहीं, तो और कौन है। कौन जागता है, दिन-रात
हमारे लिए। कौन देता है इतना ध्यान। किसे पड़ी है हमारी इतनी
चिन्ता।
वह गाँव पहुँचने की पहली ही रात थी। किंतु डोंगरे बालामृत वाले
कलेंडर में माँ हाट की कालिका के पांवों के नीचे आ पड़े
शिवशंकर की सी जो दशा अनुभव हुई थी, वह अब तक साथ है। फर्क
इतना कि शंकर अनजाने आ गए, पाँवों के नीचे, नैना सूबेदार
अंत:प्रेरणा से। सूबेदारनी 'विहानतारा निकल आया' कहती खड़ी हुई
ही थी कि बिस्तर से पाँव बाहर रखते तक में, नैना सूबेदारनी ने
सब सुन लिया।
छुटि्टयों के लिए अर्जी लगाने के दिन से लेकर, यहाँ पहुँचने के
दिन तक की सारी व्याकुलता पर कैसे अपने ही रक्त में से बार-बार
अवतरित होती, रोम-रोम में छा जाती रही सूबेदारनी। बाजार
निकलते, सो कैसे साक्षात् उपस्थित होती-सी खुद ही ध्यान दिलाती
रहती पग-पग पर कि उनके लिए क्या-क्या वस्तुएँ लेनी है, और क्या
बच्चों और बाबू के लिए, इनका जाने कब, कहाँ से अचानक छाया की
तरह का प्रकट होना और सारा ध्यान अपनी ओर खींच लेना, बस, गाँव
पहुँचकर ही थमा है।
पाँव छूते ही मिट्टी के घड़े की तरह का फूट पड़ना और सारा जल
सूबेदार पर उँडेल देना किया था सूबेदारनी ने, तब कहीं खुद के
पूर्णांग हुए होने की-सी तृप्ति हुई थी।
कल और भी क्या हुआ था। उधर बाबू देवी-जागरण में हैं और इधर
सूबेदारनी के साथ का एक-एक दिन बाइस्कोप के चित्रों की तरह
आँखों के सामने हुआ जा रहा है कि कौन-सा सूबेदारनी के साथ
कितना बीता और कितना खेतों, कितना जंगल और नदी-बावड़ी में।
कितना एक बगल सूबेदारनी है, दुसरी बगल भिमुवा या रमुवा!
सूबेदार कह रहे हैं -- 'भिमुवा की अम्मा!' -- सूबेदारनी --
'रमुवा के बाबू!' -- और यह कि 'इजा की जगह' अम्मा क्यों कहने
लगे हो?'
सूबेदार एकाएक अपनी फौजी अंग्रेजी ठोंक दे रहे हैं -- 'एव्हरी
डे एण्ड एव्हरी नाइट -- माई डियर सूबेदारनी, यू वॉज ऑन माई
ड्रीम!' -- और सूबेदारनी पालिएस्टर की नई साड़ी का छोर मुँह
में दबा ले रही, "आग लगे तुम्हारी इस लालपोकिया बानरों की जैसी
बोली को।"
अंग्रेजी का अ-आ नहीं जानती है, लेकिन अंग्रजी का रंग गुलाबी
होता है, इतना उन्हें पता है। सूबेदार समझा देते है कि 'इतना
तो, माई डियर, बिल्कुल करेक्ट पकड़ लिया आपने कि यह लालपोकिया
अंग्रेजी की लैंग्विज है।"
रातों को काफी ठंड है और छोटे रमुवा ने सोए-सोए ही लघुशंका
निबटा दी है, तो सूबेदारनी मजाक कर रही है, "वहाँ फौज में भी
ऐसा ही कर देते हो क्या?" सूबेदार बदले में कुछ और गहरा मजाक
करने की सेाच ही रहे हैं कि सूबेदारनी की आँखें एकाएक आर्द्रा
नक्षत्र में हो जाती है, "मेरे लिए रमुवा में तुममें क्या अंतर
हुआ!"
इसीलिए कहने और मानने को मन करता है कि देवी मइया, तू नहीं, तो
कौन है। दो-तीन साल बलि के बकरे की तरह का टंगा होना होता है
वहाँ और कौन है वहाँ, जिससे बातें करते खुद के ऊँचे-ऊँचे
पर्वतशिखरों पर आसीन होने और साथ में किसी के अपने में से ही
झरने की तरह फूट, या नीचे नदी की तरह बह रहे होने की प्रतीति
हो। जहाँ सिर के ऊपर जाने ससुरे कितने कप्तान-कर्नल-जर्नल लढ़े
रहते हैं, वहाँ सूबेदार की औकात क्या होती है। लेकिन यहाँ --
और स्मृति की मानो, तो वहाँ भी -- एक तेरा स्पर्श होता है कि
शरीर में वनस्पतियाँ-सी फूट पड़ती है।
हाट की कालिका मइया के दरबार में जाने का दिन सिर पर आ रहा है
और तत्पश्चात् ही सामने होगी -- विदा हेाने की घड़ी। सूबेदारनी
के साथ बीते एक-एक दिन के पुष्प अँधेरे में बिखेर देने को मन
करता है और टॉर्च हाथ में लेकर, ढूँढ़ने को। आज भी सूबेदारनी
अभी-अभी, रोज की तरह, विहानतारे को गोद में लेकर दूध पिलाने को
उतावली, छाती पर पाँव रखती-सी निकल गई है, लेकिन झाँवरों की
आवाज अभी भी मधुमक्खियों का सा छत्ता डाले हुए है।
"चहा तैयार है, बाबू!" कहता भिमुवा देहली पर खड़ा दिखाई दिया,
तब हुआ कि सुबह हो गई होगी। आज का दिन बीच में है, कल ही हाट
की जात्रा पर जाना है। सूबेदारनी कल कह रही थी कि "हंहो, रमुवा
के बाबू, तुम कह रहे थे इस बार बाँज की पाल्यों कैसी हो रही
है?"
जंगल गाँव के उत्तरी छोर में है। एक सिलसिला-सा है, जो सात-आठ
गाँवों के सिरहाने के सधन हरीतिमा की तरह, आर-से-पार तक चला
गया है। नीचे-नीचे तक कई बार हो आए हैं, सूबेदार, लेकिन चूँकि
शिकार खेलने को मना कर देती रही है सूबेदारनी कि, "हंहो, यह
अपनी भड़ाम-भड़ाम यहाँ अपनी मिलेटरी में ही किया करो। हमको
नहीं लगरी अच्छी हत्या " -- इसलिए सूबेदार भी, बस, राइफल को
कंधे पर सैर-भर करवा के लौट आते रहे हैं -- लेकिन दो-दो
तन-तनाते बकरे हाट की कालिका के मन्दिर में काटे जाने हैं, एक
भिमुवा की बधाई का भाखा हुआ है, दूसरा रमुवा की-- देवी मइया
नहीं कहती होगी कि हमें नहीं अच्छी लगती हत्या? -- खैर, वो
क्या है कि बाबू देवी-जागरण में कैसे बताते हैं कि एक हाथ में
खड्ग लिया, दूसरे में गदा, एक हाथ में -- सोलह हाथों में मइया
कालिका ने आयुध धारण किये और दो हाथों में खप्पर
इससे ज्यादा दूर तक मस्तिष्क जा नहीं पाता है। क्यों कि वह तो
जब तक दो हाथों वाली है, तब तक हमारी पहुँच में है। आगे का रूप
ऋषि-मुनियों के ज्ञान की वस्तु हुई।
चाय पीने को बाहर आँगन में निकल आए सूबेदार, तो अब तक का सारा
मायालोक जैसे कमरे में ही छूट गया। भीतर चित्त का विस्तार था,
बाहर प्रकृति उपस्थित है। गाँव में बाखलियों (घरों की
श्रृंखला) से नीचे घाटी में, नदी के किनारे तक खेतों का
सिलसिला चला गया है। लगता है; सुबह-सुबह -- विशेष तौर पर
सर्दियों की ऋतु में। नदी में स्नान करके, कोई सीढ़ियों पर
पाँव, रखती-सी, वो ऊपर जंगल में निकल गई। दो-चार दिन घट
(पनचक्की) की ओर निकल गए थे, सूबेदारनी कपड़े धोती रही थी और
वो भी देखते रहे, तालाब में मछलियों का खेल। जीवन का खेल
जल-थल, सब जगह एक है।
आजकल गेहूँ खेतों में अन्नप्राशन के बाद के बच्चों-जितना सयाना
हो आया है। घुटनों के बल खड़ा होने की कोशिश करता हुआ-सा --
लेकिन अभी कोहरे में धोती से पल्ले के नीचे दुबका पड़ा-सा
अंतर्धान है। कहीं आठ-नौ बजे तक कुहासा ठीक से छंट पाएगा। अभी
तो भूमिया देवता के कमर से नीचे के परिधान की तरह व्याप्त है।
गाँव भी तो कितना छोटा है यह। पहाड़ का बच्चा मालूम देता है।
दस बजे तक में सबको खिला-पिलाकर, सूबेदारनी ने सीढ़ी के पत्थर
पर दराती को धार लगाना शूरू किया, तो सूबेदार भी वर्दी में हो
लिये। खूँटी पर से उतारकर, राइफल कंधे पर रखी। हवाई बैग में
टेपरिकार्डर, कैमरा और सिगरेट का डिब्बा रखा और चल पड़े।
आँगन से लेकर, जंगल की तरफ वाली पगडंडी में परिचितों-बिरादरों
से 'राम-राम पायलागों -- जीते रहो' निबटाते हुए, पूर्ण एकान्त
होते में ही सिगरेट का एक जोरों का कश लिया। फिर थोड़ा रूककर,
पीछे-पीछे आती सूबेदारनी को बराबरी पर रोकते हुए, कंधे पर हाथ
रख दिया, "आज आपको बहुत जी-जान से गाकर सुना देती है, न्योली,
माई डियर! घर में और खेतों में 'भोइस' दबवा दी थी आपने। अब तो
चलाचली का वक्त है। कल पूजा हो जानी है। बस, दो-चार दिन और
बासा मानिए। फिर वहीं, आफ्टर मिनीमम टू और थ्री एयर्स वाली बात
गई। आप उस न्यौली को जरूर गाना आज अपने फूल भौल्यूम में --
काटते-काटते फिर पाल्योंता जाता है बांज का जंगल-- दि फारेस्ट
ऑफ मिरकिल्स!"
सूबेदारनी कुछ नहीं बोलीं, प्रकृति बनी रही। लगभग एक मील के
बाद अरण्य का सम्पूर्ण वृत्त, वनस्पतियों से भरी झील हो गया।
दूर-दूर गाय-बकरियाँ चरती दिखाई दे रही थीं और कुछ औरतें।
बांज-फल्या के पल्लव बटोरती। सूबेदारनी को इतना संकोच तो था कि
पहले साथ-साथ जाने वाली औरतें, जहाँ और जब आमना-सामना होगा,
मजाक जरूर उड़ाएँगी, लेकिन इनका संग तो सदैव का है, सूबेदार का
कहाँ। ये तो फूल की तरह खिले और वो भी दो-तीन बरसों में एक
बार। एकाध महिना अपने संग-संग हमें भी खिलाए रहे और फिर अचानक
एक दिन, आँख-ओझल।
अब जंगल तो रेशा-रेशा जाना हुआ है। एकान्त ढूँढने में ज्यादा
समय नहीं लगा। सूबेदार बच्चा हो गए कि पाल्यों कटे न कटे,
न्योली पहले निबटानी है। चौरस जगह टोहकर, सूबेदारनी अपने नए,
रंगीन घाघरे को ठीक से फैलाती बैठ गई। हरी क्रेप के घाघरे में
लाल रंग की गोट है। कमर में धोती का पीताम्बरी फेंटा है।
पिठां-अक्षत माथे पर ऐसे हैं, जैसे गर्भ से ही साथ हों। नाक
में चंदकों वाली, तीन तोले की बाएँ कान के पास तक का स्थान
घेरती नथ है -- कानों में सोने की मुद्रिकाएँ।
गले में मोतीमाला काला चरेवा और गुलुबन्द है। हाथों में
पहुँचियाँ और पाँवों में झांवर। पूरे आभूषण धारण किये है आज
नैना सूबेदार के आग्रह पर। एक हाथ में दराती है। दूसरे में अभी
तक बांज-फल्यांट के पल्लव रखने का जाल था, अब उसमें रंग-बिरंगे
फूलोंवाला घमेला है। क्या रूप है। क्या रंग है।
सूबेदार एकाएक उठे अपनी जगह से सूबेदारनी साहिबा के सिर पर हाथ
फेरते हुए 'ओक्के' कहा और जंगली मृग होते, कुलाँच मारते-से,
कुछ फासले पर हो गए। कभी कहें - माई डियर, जरा-सा दाएँ। कभी
बाएँ। कभी मुस्कुराओ, कभी खिलखिलाओ और कभी न्योली गाने की, फिर
कभी जंगल में किसी खोए हुए को ढूँढ़ने की सी मुद्रा में हो जाओ
-- सूबेदारनी साहिबा को भी जाने क्या हुआ कि जैसा कहा, तैसी
होती गई। बीच में सिर्फ इतना ही बोली, "देखो, जैसे तुम्हारा मन
अचाता है, तैसा कर कर लो। -- मगर इस वक्त फाटू मिलेटरी में
चाहे अपने दोस्तों-दोस्तानियों को दिखाते फिरना, यहाँ रमुवा के
बूबू (दादा) और दूसरे लोगों की नजर में नहीं पड़ने चाहिए --
बहुत मजाक उड़ाएँगे लोग! कहेंगे, घर में जगहा नहीं मिली --"
सूबेदारनी साहिबा का खिलखिलना हिलाँस पक्षी के चंद्राकार
झुंड-सा उड़ता हुआ, जाने हिमालयों के शिखरों तक कहाँ-कहाँ चला
गया। सारा अरण्य डूब गया। नैना सूबेदार के मुँह से इतना ही
निकला -- "हमको तो आप ही देवी है --"
सूबेदारनी में सारा संकोच पतझर के समय का पत्तों-सा झरता, और
ऋतु वसंत के पल्लवों-सा उगता चला गया। कहाँ फोटो में गाता
दिखाई पड़ने-भर को न्योली शुरू की थी, कहाँ एक लड़ी-सी बँधती
चली गईं।
काटते-काटते सिर पल्लवित हो जाता है
बांज का वन
समुद्र भर जाता है, मेरे प्राण,
नहीं भरता मन!
आश्विन मास की नदी में चमकती है
असेला मछली
अब जाते हो
कौन जानता है, फिर कब होगी भेंट!
वो देखो, उधर हिमालय की द्रोणियों में
कैसी चादर-सी बिछ गई है बर्फ
पक्षी होती मैं, मेरे प्राण,
उड़ती, बस उड़ती ही चली जाती
तुम्हारी दिशा में!
'टेप' की गई
न्योलियों को खुद सूबेदारनी ने सुना, तो पहले मुग्ध हुई और फिर
फूट-फूटकर रो पड़ी। कल रात से अब तक में एकत्र सारा सुख, जैसे
अपने सारे आचरण पृथक करता हुआ-सा, एक साथ प्रकट हो गया।
लौटते-लौटते शरद ऋतु का दिन और छोटा पड़ता गया। सूबेदारनी के
पाँव भारी हो गए हैं। एक गट्ठर सिर पर लदा है बांज और फल्यांट
के पल्लवों का। एक भीतर इकट्ठा है। पाल्यों उतारने और जाल भर
लेने के बाद के विश्राम में, सिर सूबेदारनी साहिबा के गोद में
था और जूँ ढूँढ़ने की प्रक्रिया में उनके अँगूठों के नाखून आपस
में जुड़ते थे, तो लगता था आवाज मीलों दूर तक जा रही होगी। तब
याद आया था, अचानक, फिर वहीं खीमा के साथ की ट्रक-यात्रा में
एकाएक उपस्थित होकर, सफर समाप्त होने तक लगातार विद्यमान रहा
मृत्यु-भय! सुख अकेले कहाँ आता है।
रात के सन्नाटे में, नीचे घाटी की दिशा से, सियारों का समवेत
आता है। और याद आता है, सूबेदारनी का आँचल ओठों में दबाकर, यह
बताना कि इसी बर्ष जुलाई में गाँव के तीन घरों में तार आए।
सुना, उधर अमृतसर में कोई लड़ाई हो गई एक साया फौजियों के घर
मँडराता फिरता रहा है महिने भर।
किसी भी दिन हो सकता है, अघटित का घटित होना। फौजी गुजरता है,
तो सिर्फ तार ही देखने को मिलता है। रूप, आकार -- उसी में सब
कुछ देख लो। अच्छा ही है कि जीवन का अन्त जब भी हो, सूबेदारनी
साहिबा से कहीं बहुत दूर हो। हाट की कालिका के मन्दिर में
देवदार के जुड़वाँ पेड़ है। सैंकड़ो वर्ष पुराने। जाना कल है,
पेड़ आज ही क्यों याद आ पड़े? दोनों को देखो, तो एक में से ही
दो किये हुए-से दिखाई पड़ते हैं। लगभग बराबर ऊँचे, बादलों को
छुने की बढ़ते हुए-से। बराबर सधन। धूप छतरी पर ही अटक जाती है।
नीचे कितनी गहरी छाया। इनमें से एक को काट दीजिए, तो दूसरा सिर
धुनता दिखाई पड़ेगा।
माता तू ही रक्षा करना!
सूबेदारनी देवी का चोला सिल चुकी
हैं। चढ़ावे की अन्य सामग्रियों के साथ दोनों घंटे भी एक कोने
में रख दिए गए थे। भीमू और रामू, लाख मना करते भी, कभी-कभी बजा
देते हैं, सो घंटे के वृत्त में खुले अक्षर उनका नाम पुकारते
मालूम देते हैं -- श्री भीमसिंह, आत्मज ठाकुर, श्री नैनसिंह,
आत्मज ठाकुर, श्री नैनसिंह, आत्मज श्रीमान
हर बार इन छुटि्टयों-भर का उत्सव है। दोनों छोरों पर। इस बार
मइया की कालिका के दरबार में बधाइयाँ जानी हैं, तो यही रंग
सबसे ऊपर है। बच्चे अपने दादा की नकल में देवी-जागरण लगाते
हैं। भिमवा ने क्या कहा था कि अगर कोई बहन होती, तो उसमें देवी
का अवतार कराते?
सूबेदारनी साहिबा की प्रतिच्छवि और उतर भी किसमें पाएगी? आधी
सृष्टि उसी पक्ष में हैं। आधी उससे बाहर।
घर तो, घर है, ऊपर दो मंजिले पर व्यतीत होते जीवन में नीचे गोठ
के पशुओं तक का साझा जान पड़ता है। कुछ ही दिनों को आए है, तो
भी भैंस दुहने, नहलाने, उधर धार में के पेड़ों पर स्तूप की तरह
चिनी गई घास की पुल्लियों को उतरवाने तथा लकड़ी फाड़ने, नाना
प्रकार के छोटे-छोटे घरेलू काम है। यहाँ आकर समझ में आता है कि
एक सूबेदारनी के सिर पर कितने काम। भाई कोई संग आया नहीं।
बहनें थीं, एक आसाम गई है अपने परिवार के साथ, दूसरी चार दिनों
को आई, वनखरी वासी दीदी, हवा के साथ,साथ लौट गई। सबके
अपने-अपने कारोबार हैं।
कहो कि बुढ्ढे जी अभी भी छोटे-मोटे कई काम निबटा लेते हैं। इस
बार यहीं तो समझ रहे थे कि आधी पेंशन पर ही चले आओ। सूबेदारनी
भी यही चाहती है, मगर अभी और चार-पाँच साल खींच लेना ही ठीक
है। फौज के रहे को फिर यहाँ कौन-सी नौकरी-दुकानदारी करनी। पूरी
पेंशन लेकर घर बैठना है। यहीं खेती-बाड़ी सँभालनी है और बच्चों
को आगे बढ़ाना है।
सोचते जाओ, तो जीवन के तर्क पीठ पर सवार होते जाते हैं।
सूबेदारनी से कुछ छिपा नहीं रहता। कभी अड़ोस-पड़ोस घूमने में
लगा देती हैं। कभी नमकीन और प्याज सामने लगा देती है।
खाने-पीने की चीजों में कुछ छूट जाए। दो-चार दिन घरेलू
व्यंजनों की हौंस। कभी भट-मदिरा का जोजा और लहसुन, हरी धनिया
का नमक है। कभी चौमास से रखी करड़ी ककड़ी का रायता, गड़ेरी का
भंग पड़ा रसदार साग और पूरियाँ। कभी मुट्ठी-भर लहसुन पड़ी और
घी में जम्बू से छोंकी मसूर की दाल है, हरी पालक-लाही का
टपकिया और ताजे-ताजे ऊखलकुटे घर के चावलों का भात।
कभी घर में ही बकरा कट गया। सान-सून, भुटुवे से लेकर
सिरी-मणुओं का शोरबा! -- घर में न हुआ, कभी कभी पास-पड़ोस से आ
गया शिकार। कभी शहर से खाने-पीने, फसक-फराल; हर चीज की बहार।
यही सब धूप-छाँव ठहरी आदमी के जीवन में, बाकी क्या रखा ठहरा।
कैलाश का देवता भी आदमी के आँगन में उतरा, तो उसे भी आखिर
नाच-कूद के चल ही देना हुआ। बाबू बड़े गिदार हुए, कितनी
कहावतें हुई उनके पास। कभी तरंग में हुए तो नातियों के
साथ-साथ, बहू को भी बिठा लिया। बाप-बेटे, दोनों के सामने रम के
पेग हुए। बाबू कभी 'और मेरे रंगीले, झुमाझुमी नाच।' की मस्ती
में, तो कभी 'सदा न फूले तोरई, सदा न साचन होय,' को बैराग में।
बाद के दिन तो भारी होते गए। हाटे के देवी-मंदिर से लाया गया
लालवस्त्र आँगन-किनारे के खुबानी के पेड़ की टहनी में बँधा हुआ
है, लेकिन नैना सूबेदार देखते हैं, तो रेलगाड़ी के गार्ड के
हाथ में थमी हरी झंडी मालूम देता है। हवा में हिलता है, तो
'चलो, चल पड़ो' कहता सुनाई पड़ता है। और इस वक्त हाल यह है कि
सारा सामान बँधा पड़ा है, लेकिन कुली अभी तक कहीं नहीं दिखाई
पड़ा। कल शहर स्कूल जाने वाले बच्चों से कहलावा भेजा था कि
किसी भट को भिजवा दे हिमालया होटल का बची सिंह, मगर कहीं कोई
चिन्ह ही नहीं है।
गाँव का हाल है यह कि कुली का काम पी.डब्लू.डी. या जंगलार के
ठेकों पर करने वाले अनेक हैं, लेकिन बिरादरों का बोझ उठाना
गुनाह है। माया-मोह में रह भी गए अंतिम गुंजाइश तक। अब अगर कल
सुबह तक टनकपुर ही नहीं पहुँच पाए, तो अम्बाला छावनी कहाँ समय
पर पहुँचना हो पाएगा। कई बार जी में आता है कि खुद ही लादें और
ले चलें। वापसी का सामान है, बहुत भारी नहीं, मगर जो देखेगा,
सो ही हँसेगा। सारी सूबेदार साहबी मिट्टी में मिल जाएगी।
सूबेदार बार-बार सिगरेट सुलगा रहे थे और बार-बार घड़ी पर आँखें
जाती थीं बाबू बूढ़े और कमजोर हैं। बच्चे कच्चे। डेढ़-दो-घंटे
से कम का रास्ता नहीं बस-अड्डे तक का और दोपहर बाद तो आखिरी बस
क्या, ट्रक मिलना भी कठिन हो जाएगा। नैना सूबेदार अभी हताशा और
बेचैनी में ही डूबे थे कि देखा, सूबेदारनी बाबू से कुछ कहती,
नजदीक पहुँची है और जब तक में वो कुछ ठीक से समझें, सूटकेस
उठाकर सिर पर रख लिया और कह क्या रही है कि "बिस्तरबंद इसके
ऊपर रख दो।"
सूबेदारनी के कहने में कुछ ऐसी दृढ़ता थी, और परिस्थिति का
दबाव कि सूबेदार की पाँवों से सिर तक एक झुरझुरी-सी तो जरूर
हुई, मगर इस तर्क का कोई जवाब सूझा नहीं कि 'मुँह ताकते तो दिन
निकल जाएगा। थोड़ी दूर तक तो चले चलते हैं, रास्ते में कुली
जहाँ भी मिल जाएगा --"
नई बात इसमें कुछ नहीं। छुट्टी पर आते में कुली साथ आता है,
वापसी में घर के लोग पहुँचा देते हैं। सिपाही-लांसनायक तक तो
अपना सामान खुद नहीं उठाते, हवालदार-सूबेदार की तो नाक ही कटी
समझिए।
गाँव की सरहद के समाप्त होते-होते, चित्त काफी-कुछ व्यवस्थित
हो गया। बाबू और बच्चों की आकृतियाँ धुँधली पड़ती गई। गाय-भैस
बकरियों तक की स्मृति कुछ दूर तक साथ चलती आती है। सरहद तक तो
खेत तक साथ चलते मालूम पड़ते हैं। दरवाजे के ऊपर चिपकाया गया
दशहरे का छापा भी। दशहरे के हरेले दिन सावन के रक्षाबंधन की
सहेज रखी रक्षा बाँधते और हरेला सिर पर रखते हुए क्या कहा था,
ठीक माँ की तरह -- जीते रहना, जागते रहना। यों ही बार-बार
भेंटते रहना। सियार की जैसी बुद्धि हो, सिंह का सा बल! चातकों
का-सा हठ हो -- योगियों का सा ज्ञान!
७७७
रक्षा का मंत्र तो खुद सूबेदार को भी याद ठहरा -- 'येन बद्धो
बली राजा। दानवेन्द्रो महाबल ' ये तागे ऐसे ही हुए।
दानवेन्द्रों से भी नहीं। तोड़े से भी नहीं तोडे जा सके, हम
नर-वानर किस गिनती में। माँ जब तक हुई, ठीक यहीं, इस गधेरे तक
आती रही छोड़ने। यही रोककर स्फटिक स्वच्छ गंगाजल अंजुलि में भर
लाती थीं और सूबेदार के माथे पर छिड़कती, बाहों में बाँध लेती
थीं। तागों का एक पूरा जाल हुआ। घर पहुँची, तो अदृश्य हो जाने
वाला ठहरा। वापस लौटते में लोहे के तारों का गड़ना। यह सब जीवन
का सामान्य प्रवाह हुआ। किसने पार पाया, कौन पा सकेगा। मुखसार
की ऋतु में बैल खुले हैं, जुलाई के वक्त कहाँ। एक के बाद,
दूसरा सिगरेट जलाते हुए, यही गाने का मन हो रहा कि -- चल, उड़
जारे पंछी -- ई-ई-ई
टेपरिकार्डर, कैमरा हवाई बैग में हैं। इसके अलावा टिफिन भी
सूबेदार के हाथ में। रूल कभी -कभी उन्हीं से टकरा कर बज उठता
है। सूटकेस और सफारी होल्डाल सूबेदारनी साहिबा के सिर पर है।
यों तो अनेक का यही सिलसिला है। हवालदार साहब ट्रांजिस्टर
लटकाए, रूल हिलाते, घड़ी बार बात देखते और सिगरेट पीते आगे-आगे
चल रहे हैं और पीछे-पीछे घरवाली -- सामान, सिर पर लादे हुए
--मगर नैना सूबेदार के साथ यह पहला अवसर है। कभी भी, अपने से
दो अंगुल कम करके तो देखा ही नहीं।
एकाएक बोले "सूबेदारनी, आप जरा रूकिये। ये बैग और टिफिन आप
पकड़ लीजिये अब। थोड़ी दूर तक अटैची-होल्डाल मैं ले चलता हूँ।"
सूबेदारनी पीछे को मुड़ी, हौले से मुस्कुराई, तेजी से आगे बढ़
गईं। जैसे गंध प्रकट करती जाती हो अपनी। बोलती गईं -- "मेरा तो
यह रोज का अभ्यास हुआ, रमुआ के बाबू! बेकार के संकोच में पड़
रहे हो। खेतों में पर्सा नहीं ढ़ोती कि घास-अनाज के गट्ठर
नहीं। उस दिन भी तुम्हारे पीछे-पीछे पाल्यों का जाल लिये चल
रही थी --"
"वो घर का- रोजदारी काम हुआ -- मगर ये तो -- "
"एक प्रकार की कुलीगिरी हुई," को सूबेदार ने अपने भीतर ही
अंतर्धान कर कर लिया।
"आज बात करने में तुम 'माई डियर !' नहीं कर रहे हो -- इतना
उदास पड़ जाना भी क्या ठहरा --"
अब सूबेदार कैसे बताएँ कि अग्निपथ बीत गया, राख रह गई। यहाँ से
यहाँ तक बुझा-बुझापन-सा व्याप्त हुआ पड़ा है।
"इज्जत तो भीतर की भावना हुई। हम निगोड़ी तुम-तुम ही तुमड़ाती
रही जिंदगी भर। तुमसे 'आप-आप' से नीचे नहीं उतरा गया। दुर्गा
सासू कह रही थी, घरवाली को प्रतिष्ठा देना कोई इसके सूबेदार से
सीखे। तुम जब वहाँ रात-दिन हम लोगों की चिंता में घुलते रहने
वाले हुए, तब कुछ नहीं -- एक दिन को तुम्हारा बोझ हमारे सिर पर
आ गया- तो क्या पर्वत आ गया ठहरा? सिर के ताज तो आखिर तुम ही
हुए -- "
सूबेदार को लगा कि सूबेदारनी का बोलना फिर कानों तक आते चला
गया और सूबेदार को लगा, जैसे कलम से शरीर पर लिखे दे रही है कि
अगली छुटि्टयों में क्या-क्या लेते आना है।
फिर स्मृति में स्पर्श उभरते ही गए कि गाँव पहुँचने के दिन
एक-एक वस्तु को कैसे हजार आँखों से देखती-सी मुग्ध होती जाती
थीं सूबेदारनी। सिंथाल की बट्टी को जब इन्होंने सूँघा, तब उससे
सुगंध फूटनी शुरू हुई थी। लोभ नहीं हैं, लाए हुए को सार्थक कर
देना है। इस वक्त 'यह मत भूलना, वह जरूर लेते आना' की सारी रट
सिर्फ सूबेदार की उत्साह और गरिमा बढ़ा देने के लिए है।
गाँव से शहर तक की इस सड़क पर , यह कोई पहली बार का चलना तो
नहीं इन्हीं छुटि्टयों में दो बार जा चुके हैं। एक बार शहर
घूमा, कुछ खरीदारी की - मैटिनी शो देखा और हिमालया होटल में ही
ठहर गए। हाँ, प्रसंग बदल गया है, तो सड़क भी पाँव थामे ले रही
है।
पिथौरागढ़-झूलाबार वाली मुख्य सड़क अब थोड़े ही फासले पर है।
इस गाँव वाली सड़क के दोनों ओर पत्थरों की चिनाई हुई है। समतल
नहीं, ऊबड़-खाबड़ हैं। बूटों की आवाज कानों को स्पर्श करती
मालूम पड़ती है। नजर नीचे चली जाय, तो खेतों में घास बीनती
औरतें या इनारे-किनारे की भूमि पर चरते पशु दिखाई पड़ जाते
हैं। ऊपर आसमान की तरफ देखो, ये ही सब पक्षी बनकर उड़ते-से जान
पड़ते हैं। जहाँ तक यह गाँव वाली कच्ची सड़क जाती है, सब एक
है, पक्की डामरवाली सड़क आते ही, पृथक हो गए होने का आभास होता
है।
दूर खड़ा भराड़ी का जंगल 'याद रखना, भूलना मत' पुकारता-सा आगे
को आ रहा है और प्रकृति सूबेदारनी की ही भाँति घाघरा फैलाए
बैठी मालूम पड़ती है। मुसन्यौले ज्यादा लम्बे नहीं उड़ते,
सिर्फ एक से दूसरी झाड़ी तक फूदकते है और चीं-चीं-चीं मचाए
रहते हैं। याद आता है कि इस बार कन्या की कामना इतनी क्यों रही
होगी, तो वहाँ अम्बाला छावनी में साथ के एक फौजी अधिकारी के
यहाँ आँखों में छा गई छोटी-सी बच्ची की आकृति स्मृति में उभरती
जाती है।
याद आता है उसका 'अंकल-अंकल' कहना और कंधे पर चढ़ने की जिद
करना। और यह कि बाबू की वृद्धावस्था और घर के वीरान पड़ जाने
के डर में परिवार को साथ रखने का अवसर नहीं।
कल यों ही पूछ लिया कि सूबेदारनी साथ चलोगी? जवाब क्या आया कि
किस बार नहीं चली हैं। जब छाया न रहे, तब समझो कि साथ नहीं
हैं। और इस वक्त साथ चल रही हैं, तो छाया से ज्यादा कहाँ हैं।
प्रकृति की ही भांति, सूबेदारनी भी तो ज्यों-ज्यों ओझल,
त्यों-त्यों और प्रत्यक्ष होती जाती है। हर बार यही होता आया
है। बस में बैठते ही स्मृतियाँ पक्षियों के झुँडों का तरह उदित
हो जाती है भीतर। कौन दिन कौन क्षण कैसा बीता सूबेदारनी के
साथ, जंगल में हवा की तरह बजने लगता है भीतर। यहाँ से कैम्प
पहुँचने तक नदी की यात्रा है।
अचानक रूकी और 'दो मिनट ठहरना' -- कहते-कहते, सूबेदारनी ने सिर
पर का सामान दीवार पर रखवा देने का इंगित किया। सूबेदार को
लगा, चढ़ाई चढ़ते थक गई हैं। सामान ठीक से रखाते, कुछ कहने को
हुए कि संकोच और शरारत में मुस्कुराती, सूबेदारनी तेजी से नीचे
खेतों की दिशा में उतर गईं। जब तक में वो लौटी, नैना सूबेदार
को अचानक ही भराड़ी के जंगल में की वह जलधारा स्मरण हो आई,
जिसे उद्गम में देखते, उन्होंने सूबेदारनी से मजाक किया था--
यह नहीं शरमाती। सूबेदारनी क्या बोली -- धरती तो माता हुई। उसे
सभी समान हुए।
शादी के बाद का एक बरसों लंबा सिलसिला है, जो सूबेदारनी को
सयानी करता चला। आने के साल से अब तक में क्या से क्या है।
भराड़ी के जंगल में से प्रकट हुई पतली-सी जलधारा, दूर तक क्या
जाइए, नीचे घाटी तक में पनचक्की के पाट घुमाती नदी हो गई है।
जाने कितने स्त्रोतों से जल इकट्ठा होता गया।
रोेकते-रोकते भी, फिर सामान उठा लिया चल पड़ने से पहले, बोलीं,
"आप जाने लगते हो, तो जाने क्या होता है भीतर-भीतर ठंड-सी
मालूम पड़ती है। इस बार तो दूर तक का साथ हुआ। पिछली बार आँगन
में ही खड़ी थी। आप आँखों से ओझल हुए कि -- तब भी -- "
जब तक में नैना सूबेदार कुछ बोलने की कोशिश करें, वो चल पड़ीं।
दो कदम पीछे चलते, साफ-साफ दिखती हैं। सिर पर के बोझ और असमतल
रास्ते के कारण, कमर दाएँ-बाएँ लचकती है, तो सुबहला-सा गोरा
रंग नजर थाम लेता है। पिंडलियों पर से घाघरे का पाट उठता है,
तो मछली के पानी में करवट मारते होने की सी झिलमिल। जाते समय
सूबेदारनी, हर बार, ऐसी हो आती है कि नदी का छूटना है। सफर
करते में घंटों बाद कोई नदी आती है रास्ते में, तो कैसे उसकी
आब ऊपर तक आती मालूम पड़ती है। यह आद्रा कभी नहीं छूटती। बाहर
ओझल होते ही, भीतर बहने लगती है।
बिलकुल चुपके आस्तीन से आँखें पोंछी, तो भी कुछ आवाज-सी आती
सुनाई पड़ी। नैना सूबेदार ने जर्सी की जेब में से निकाल कर,
चश्मा लगा लिया। सूबेदारनी चली जा रही थीं। उनका तेज चलना हाथ
में बंधी घड़ी पर वजन डालता मालूम पड़ रहा था। दोनों हाथ ऊपर
को उठाए चल रही है, तो औरत होना अपनी भाषा बोलता-सा सुनाई
पड़ता है। नदी में नहाकर, किनारे जाइए। कपड़े बदलिए, वापस लौट
चलिए। थोड़ा स्मृति पर जोर देने की कोशिश करिए कि नदी को बहते
होने की आवाज -- खास तौर पर पहाड़ में -- कितनी दूर-दूर तक साथ
आती है।
मुख्य सड़क तक पहुँचने से पहले ही, कुछ कुली कंधे पर रस्से
डाले शहर की तरफ जाते दिख गए, तो सूबेदार ने जोरों से पुकार
लिया। वो ठिठके, तो आने का संकेत किया। तब तक में सूबेदारनी ने
सिर पर से सामान उतार, दीवाल पर रख दिया।
एक-एक रूपये के नोटों की एक नई गड्डी जर्सी से निकाल कर,
सूबेदारनी के हाथों में थमाई नैना सूबेदार ने। कहा कुछ नहीं।
हाथों को कुछ क्षण यों ही थामे रहे। सूबेदारनी ही हँस पड़ी,
"इतनी ज्यादा रकम दे रहे हो मजदूरी में -- अगली बार भी हम ही
लाएँगी साहब का सामान --"
सूबेदारनी हँस रही थीं। हाथों को अलग करना कठिन हो गया। बेल
लिपटी जान पडती है। एकएक भराड़ी के जंगल में न्योली गाते समय
का परिदृश्य छा गया। भीतर कोई फूट-सा पड़ा-छोड़ो यार, सूबेदार
! सारा बोरा-बिस्तर भूल जाओ यहीं सड़क पर। यों ही हाथ फँसाए,
सूबेदारनी को ले उड़ो। खेत, घाटी, जंगल, नदी -- सबको उलँघते
चले जाओ, जब थक जाओ, सूबेदारनी की गोद में सिर रखे, आँचल ऊपर
उठा दो और पड़े रहो।
इस हिमशिखर के पार का झरना साफ दिखाई देता है। झाँको तो खुद के
प्रतिबिम्ब झलकते है।
कुली ने सामान लाद लिया, तो सूबेदारनी ने पाँवों को स्पर्श
किया और सिर तक समा गई उनकी उंगलियों की छुअन, बूटों तक के
भीतर ही नहीं, पूरे स्मृति जगत में व्याप्त हो गई। कुछ समझ
नहीं पाए कि पाँवों पर झुकी सूबेदारनी को 'जीती रहो, जगती रहो'
कैसे कहें। सूबेदारनी अब विदा लेने को खड़ी हुई, तो
पिठाँ-अक्षत जैसे एकाएक प्रकट हुए हों माथे पर। जाने कितनी
गहरी रेखाएँ उभर आई, आँखों के बीच की जगह अंतर्धान हो गई।
दोनों ऊपर तक डबडबा उठीं थी अब। नैना सूबेदार को लगा, पक्षी
योनी से पहले इस झील का पार कठिन है। सूबेदार को हुआ, पंख होते
हुए तो एक ही उड़ान में बोझिल हो जाते।
ऊपर पक्की सड़क तक पहुँचते में सूबेदार मुड़े नही। गाँव की
कच्ची सड़क का मुहाना मुख्य सड़क में समा गया, तब पलट कर देखा।
सूबेदारनी इसी ओर टकटकी लगाए खड़ी थीं। ओझल होते, तो उन्हें ही
देखना है। |