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टिकटघर से आखिरी
बस जा चुकने की सूचना दो बार दी जा चुकने के बावजूद नैनसिंह के
पाँव अपनी ही जगह जमे रह गए। सामान आँखों की पहुँच में, सामने
अहाते की दीवार पर रखा था। नज़र पड़ते ही, सामान भी जैसे यही
पूछता मालूम देता था, कितनी देर है चल पड़ने में? नैनसिंह की
उतावली और खीझ को दीवार पर रखा पड़ा सामान भी जैसे ठीक नैनसिंह
की ही तरह अनुभव कर रहा था। एकाएक उसमे एक हल्का-सा कम्पन हुए
होने का भ्रम बार-बार होता था, जबकि लोहे के ट्रंक, वी.आई.पी.
बैग और बिस्तर-झोले में कुछ भी ऐसा न था कि हवा से प्रभावित
होता।
सारा बंटाढार गाड़ी ने किया
था, नहीं तो दीया जलने के वक्त तक गाँव के ग्वैठे में पाँव
होते। ट्रेन में ही अनुमान लगा लिया था कि हो सकता है, गोधूली
में घर लौटती गाय-बकरियों के साथ-साथ ही खेत-जंगल से वापस होते
घर के लोग भी दूर से देखते ही किये नैनसिंह सुबेदार-जैसे चले आ
रहे हैं? ख़ास तौर पर भिमुवा की माँ तो सिर्फ़ धुँधली-सी
आभा-मात्र से पकड़ लेती कि कहीं रमुवा के बाबू तो नहीं?
'सरप्राइज भिजिट' मारने के चक्कर में ठीक-ठाक तारीख भले ही
नहीं लिखी'' मगर महीना तो यही दिसंबर का लिख दिया था? तारीख न
लिखने का मतलब तो हुआ कि वह कृष्णपक्ष, शुक्लपक्ष -- सब देखे। |