गांधी की तलाश
दुनिया के जिस किसी भी मंच पर महात्मा गांधी की बात होती तो
'पहला गिरमिटिया' की बात ज़रूर होती है। गांधी जी के जीवन
चरित्र पर आधारित इस प्रसिद्ध उपन्यास के लेखक गिरिराज किशोर
से गांधी विषयक कुछ सवाल पूछे हमारे सहयोगी
अनूप शुक्ला ने।
यहाँ प्रस्तुत हैं गिरिराज किशोर के उत्तर
सन १९३७ में
मुज़फ़्फ़रनगर में जन्मे गिरिराज जी ने 'मास्टर्स इन सोसल
वेलफेयर' की शिक्षा प्राप्त की। आई आ़ई ट़ी क़ानपुर में
रजिस्ट्रार तथा रचनात्मक लेखन एवं प्रकाशन केंद्र के अध्यक्ष
के पद पर रहे। ग्यारह उपन्यासों के अतिरिक्त दस कहानी संग्रह,
सात नाटक, एक एकांकी संग्रह, चार निबंध संग्रह तथा 'पहला
गिरमिटिया' प्रकाशित। उत्तर प्रदेश के भारतेंदु पुरस्कार,
'परिशिष्ट' उपन्यास पर मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के वीरसिंह
देव पुरस्कार, साहित्य अकादेमी पुरस्कार (१९९२), उत्तर प्रदेश
हिंदी सम्मेलन के वासुदेव सिंह स्वर्ण पदक तथा 'ढाई घर' के लिए
उ प्र ह़िंदी संस्थान के साहित्य भूषण से सम्मानित
गिरिराज जी आजकल स्वतंत्र लेखन तथा कानपुर से निकलने वाली
हिंदी त्रैमासिक पत्रिका 'अकार' त्रैमासिक के संपादन में
संलग्न हैं।
पहला गिरमिटिया लिखने के पहले और गांधी के बारे में आठ साल शोध
करके इसे लिखने के बाद आपने अपने में कितना अंतर महसूस किया?
देखिए मैं आपको एक बात सच बताऊं कि अगर मैं आई आई
टी न गया
होता तो शायद 'पहला गिरमिटिया' न लिख
पाता। वहाँ मैंने जिस
अपमान व कठिनाइयों का सामना किया उससे कहीं न कहीं मुझे
गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में जो अनुभव किए होंगे (हालाँकि न
मेरी गांधी से कोई बराबरी है न मैं वैसी स्थिति में हूँ) उनके
बारे में सोचने की मानसिकता बनी। मुझे लगा कि हमें इस बात को
समझना चाहिए कि ऐसी कौन सी शक्ति थी जिसने इस आदमी को महात्मा
गांधी बनाया।
एक आम, डरपोक किस्म का आदमी जो बहुत अच्छा बोलने वाला भी नहीं
था। वकालत में भी असफल। इतना फैशनेबल आदमी। वह इतना त्यागी और
देश के लिए काम करने वाला बना। मुझे हमेशा लगता रहा कि ज़रूर
उसने अपने तिरस्कार से ऊर्जा ग्रहण की जिसके कारण वह अपने को
इतना क़ाबिल बना पाया। इससे मुझे भी अपने को प्रेरित करने की
ज़रूरत महसूस हुई।
दक्षिण अफ्रीका में लोग गांधी को किस रूप में देखते हैं?
मैंने पहले भारत के गांधी के बारे में लिखना शुरू किया था।
जब मैं दक्षिण अफ्रीका गया तो वहाँ हासिम सीदात नाम के एक
सज्जन ने मुझसे कहा- देखिए गांधी हमारे यहाँ तो जैसे खान से
निकले अनगढ़ हीरे की तरह आया था जिसे हमने तराशकर आपको दिया।
आपको तो हमारा शुक्रिया अदा करना चाहिए। अगर आपको लिखना है तो
इस गांधी पर लिखिए। उनकी बात ने मुझे प्रेरित किया तथा मैंने
उस पर लिखा।
लोग कहते हैं गांधीजी अपने लोगों के लिए डिक्टेटर की तरह थे।
अपनी बात मनवा के रहते थे। आपने क्या पाया?
जब आदमी कुछ सिद्धांत बना लेता है तो उनका पालन करना चाहता है।
जैसे किसी ने त्याग को आदर्श बनाया तो उपभोग की प्रवृत्ति पर
अंकुश लगाना चाहता है। गांधीजी तानाशाह नहीं थे। हाँ उनके
तरीके अलग थे। एक घटना बताता हूँ :
गांधी एक बार इटली के तानाशाह मुसोलिनी से मिलने गए। साथ में
उनके सचिव महादेव देसाई तथा मीराबेन और मुसोलिनी का एक जनरल था
जिससे मुसोलिनी नाराज़ था। गांधीजी उसी जनरल के घर स्र्के थे।
मुसोलिनी ने गांधी का स्वागत किया और सब लोग एक कमरे में गए
जहाँ केवल दो कुर्सियां थीं। मुसोलिनी ने गांधी सेे बैठने को
कहा। गांधी ने तीनों सेे बैठने को कहा। तो ये कैसे बैठें?
मुसोलिनी ने फिर गांधी को बैठने को कहा। गांधी ने फिर तीनों से
बैठने को कहा। तीन बार ऐसा हुआ। आख़िरकार तीन कुर्सियां और
मंगानी पड़ीं। तब सब लोग बैठे। तो यह गांधी का विरोध का तरीका
था। कुछ लोग इसे डिक्टेटरशिप कह सकते हैं।
इसी तरह दूसरे विश्वयुद्ध में उन्होनें हिटलर को लिखा था : आप
युद्ध के लिए ज़िम्मेदार हैं और आपको इसे बंद करना होगा। मैंने
इस पर हिटलर का जवाब भी देखा। उसने लिखा था : नहीं, ये लोग मुझ
पर अकारण दोषारोपण कर रहे हैं। सच तो यह है कि वही लोग युद्ध
के लिए ज़िम्मेदार हैं और आपको उनसे बात करनी चाहिए।
गिरिराज किशोर की दक्षिण अफ्रीका डायरी के अंश
पहला गिरमिटिया उपन्यास लिखने के सिलसिले में सामग्री जुटाने
तथा विषयगत पृष्ठभूमि से परिचित होने के लिए दक्षिन अफ्रीका की
लंबी यात्रा पर गए। लेखक का कहना है कि दक्षिण अफ्रीका में ऐसी
बहुत सी सामग्री मिली जिससे दृष्टिकोण में बदलाव आना स्वाभाविक
था। प्रस्तुत हैं उनकी डायरी के कुछ अंश
५ अप्रैल :
आज मैं यहाँ दक्षिण अफ्रीका के समयानुसार २ बजकर २० मिनट पर
डरबन पहंुचा हंू। आनंद जयराझ मुझे लेने हवाई अड्डे पर पहंुच गए
थे। वह एक कार्ड पर मेरा नाम लिखे खड़े थे। उन्हें देखकर बहुत
राहत मिली। एक बेगाना देश जिसके बारे में लोग कहते हैं कि यहाँ
दिन में भी कोई सुरक्षित नहीं है व़हाँ अपना पूछनहार भी कोई
है! अभी रात के ९ बजे हैं।
६ अप्रैल :
आज मेरी मुलाक़ात लता रेड्डी से हुई। गांधी और जवाहर लाल उनके
हीरो रहे हैं। उनका कार्यालय उसी भवन में है जहाँ पहले रेलवे
स्टेशन था। वहाँ से स्टेशन हटा दिया गया। केवल उस भवन को
सुरक्षित रखा गया है। वह भवन चार मंज़िला है। उसी भवन में
भारतीय काउंसलेट जनरल का कार्यालय है। श्रीमती रेड्डी यहाँ की
पहली काउंसलर जनरल हैं। उन्होंने उसी स्टेशन के भवन में अपना
कार्यालय रखा। दरअसल गांधीजी सबसे पहले इसी स्टेशन पर उतरे थे।
श्रीमती रेड्डी ने वहाँ पर उस भवन में मालिकों से कहकर इश आशय
की पट्टी लगवाई।
उसके बाद हाशिम सीदात से भेंट हुई। वह गांधीजी के बारे में
काफ़ी जानकारी रखते हैं। उन्होंने मुझे बीचग्रोव पर वह स्थान
दिखाया जहाँ पर गांधीजी का दुमंज़िला मकान था। अब वहाँ
कार-पार्किंग है। उसके सामने ही तत्कालीन प्रधानमंत्री का घर
था। वह वहाँ से गांधीजी को देखा करते थे।
सब कुछ बदल गया। केवल एक जगह है - हार्वे ग्रीन एक्का। यह एक
फर्म थी। वहीं पर ज़मीन में उसके नाम का एक पत्थर लगा है। इसी
कंपनी का गांधीजी ने सबसे पहले मुकदमा लड़ा। वह मुझे अपने घर
ले गए।
७ अप्रैल :
आज सवैरे हाशिम सीदात अपने बेटे इमरान के साथ मुझे होटल लेने आ
गए। सवा सात बजे थे। उन्होंने साढ़े सात बजे के लिए कहा था।
मुझे तैयार होने में कुछ देर लगी। हम उनके कार्यालय लगभग साढ़े
आठ तक पहंुच गए। उनका घर मेरे होटल से लगभग २२ मील है।
उसके साथ सबसे पहले हम गांधीजी का विला देखने गए। जहाँ अब भवन
बने हैं वहाँ मैदान था। गांधीजी का मकान हार्वे ग्रीन एक्का के
भवन के पीछे बीच ग्रोव लेन में था। ग्रीन हार्वे का जहाँ भवन
है उसके बराबर में दादा अब्दुल्ला की बिल्डिंग थी। गांधीजी
अपने घर से चलकर अब्दुल्ला के घर आते थे। वहाँ से वह जब कभी
नेटाल इंडियन कांग्रेस की मीटिंग होती थी तो ग्रे-स्ट्रीट से
होते हुए पाइन स्ट्रीट जाते थे। वहाँ पर कांग्रेस का ऑफ़िस था।
तब इतनी सड़कें नहीं थीं। मैदान के बीच से होकर जाते रहे
होंगे। अब तो पूरी सड़क तय करके लंबा चक्कर लगाना पड़ता है।
ब्रुक स्ट्रीट सिमेट्री भी देखी जहाँ गांधीजी के बचपन के दोस्त
शेरू मेहताब की कब्र है। लौटते हुए अबुबकर के पड़पोते से मिले।
अबुबकर एन आ़ई स़ी क़े प्रेसीडेंट रहे थे और एक बड़े व्यवसाई
थे। वहाँ की जामा मस्जिद उन्हीं की बनवाई हुई हैं।
लगभग २ ३़० बजे लंच लेकर हम गांधीजी की दूसरी यात्रा का अंदाज़
लगाने के लिए निकले। लंच क्या, हाशिम सीदात के दफ़्तर के पास
एक रेस्त्रां 'आंगन' है। वहाँ हिंदुस्तानी निरामिष भोजन है।
मैंने और सीदात ने एक-एक परांठा, आलू-मेथी की सब्ज़ी और लस्सी
(नमकीन दही की) बंधवाई और सीदात के कमरे में खाया। सीदात के
पास कुछ चित्र थे। उन्हें दिखाया। उस ज़माने के मजदूरों के
वस्त्रों व रहन-सहन का पता चलता है। गांधीजी स्वयं उन लोगों के
बीच कुर्ता और लंुगी पहनते थे। वहाँ से हम लोग पहले बीच ग्रोव
से चले, वेस्ट स्ट्रीट से होते हुए मर्क्युरी स्ट्रीट तक गए।
वहाँ गांधीजी का दफ़्तर था। अब वहाँ उस भवन को गिराकर
बहुमंज़िली इमारत बन रही थी। वैसे ही जैसे उनके घर के गिर जाने
पर वहाँ पार्किंग क्षेत्र बन गया है। वहाँ गांधीजी का दफ़्तर
था। वहीं वे मुकदमों की तैयारी करते थे। वहाँ से वे कोर्ट रूम
जाते थे। कोर्ट रूम, सिटी हाल (जहाँ मेयर बैठते हैं) और थाना
लगभग बराबर है। कोर्ट रूम में अब हिस्ट्री म्यूज़ियम है। जहाँ
थाना था वहाँ वुडवेड गार्डेंस हैं। इसी थाने में गांधीजी दो
दिन रहे थे। जब वे दोबारा परिवार के साथ डरबन वापस लौटे थे और
उन पर गोरों का आक्रमण हुआ था तो एलेकजेंडर नाम के पुलिस अफ़सर
ने बचाया था। तब दो रोज़ थाने में ही सुरक्षा हेतु रखा गया था।
८ अप्रैल :
आज लगभग दो बजे आनंद जयराझ के साथ मैं और हाशिम सीदात पीटर
मैरिट्जवर्ग गए वहाँ पर गांधीजी की एक मूर्ति लगा है। उसका
फ़ोटो लिया। उसके बाद हम लोग मैरिट्जबर्ग स्टेशन गए। वहीं पर
गांधीजी को ट्रेन से फेंका गया था। संभावना यही है कि जो बेंच
प्रवेश द्वार के सामने गड़ी हुई है उसी के पास उन्हें फेंका
गया होगा। क्योंकि फर्स्ट क्लास वहीं आता है। वहाँ से उतरकर
कुछ देर तक गांधीजी उसी बैंच पर बैठे रहे थे। उस बेंच पर सीदात
के साथ बैठकर फ़ोटो खिंचवाया। स्टेशन पर एक तख्त़ी भी लगी है।
फ़ोटो उसका भी लिया गया। वहाँ से लौटते हुए स्टेशन के सामने
वाली सड़क से गुज़रे। वहाँ पर अमोद बयात का भवन है। वह एक बड़े
मर्चेंट थे। बाद में वे नेटाल इंडियन कांग्रेस के वाइस
प्रेसीडेंट भी रहे। उस घर को भी देखा। १९३७ में वह घर और दुकान
रिमाडल किया गया। गांधीजी जब जाते थे उसी घर में ठहरते थे।
सीदात की छोटी-छोटी तफ़सील मालूम है। वहाँ से हम सुप्रीम कोर्ट
के भवन गए। वह पुराना सुप्रीम कोर्ट का भवन है। वहाँ से हम
सुप्रीम कोर्ट दूसरी जगह चला गया है। अब उसमें एक म्यूज़ियम
है, ख़ासतौर से हाथ के काम का। उसी के सामने सिटी हाल है।
बताया जाता है कि वह दुनिया का सबसे संुदर भवन है। उसका फ़ोटो
भी लिया। सुप्रीम कोर्ट की इसी बिल्डिंग में गांधी को एडवोकेसी
में प्रविष्ट किया गया था।
९ अप्रैल :
मेवाराम गोविन के साथ फीनिक्स सेटिलमेंट गया। वहाँ फीनिक्स
सेटिलमेंट की मीटिंग थी। उसमें ज़्यादातर लोग सेटिलमेंट के ही
निवासी थे। सब काले। मेवाराम गोविन उस ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं।
काफ़ी दबदबे वाले आदमी। इला गांधी भी वहीं आ गई थीं।
इला जी गांधीजी की पौत्री और मणिलाल गांधी की बेटी हैं। वहाँ
उनका बहुत सम्मान है। फीनिक्स सेटिलमेंट में चारों तरफ़ 'काले'
बसे हुए हैं। गांधीजी की कुटिया तोड़ डाली गई हैं। प्रेस की
बिल्डिंग भी टूट गई है। जो कुआं वहाँ था उसे बनाने का प्रयत्न
किया जा रहा है। वह कुआं गांधीजी ने बनवाया था। फीनिक्स
सेटिलमेंट अब उसका पुनर्निमाण करना चाहता था। वहाँ पर दो ग्रुप
हैं, जो फीनिक्स सेटिलमेंट पर अधिकार जताना चाहते हैं। एक आई
ए़फ व़ी क़े नेता, दूसरे ए ए़न स़ी क़े नेता। उन्हीं के आपसी
झगड़ों के कारण वहाँ सब तोड़-फोड़ हुई।
१० अप्रैल :
कल दिन भर सीदात की लाइब्रेरी में काम किया। मैंने दिन में
इंडियन ओपीनियन के दो वाल्यूम ख़त्म कर दिए। उसमें ज़्यादातर
गांधीजी मर्चेंट्स के मामले ही लड़ते रहे। इतने कम वक्त में
इतने इशू समाप्त करने मुश्किल होंगे। शाम को खाना खाकर होटल
लौट आया। होटल के मालिक भारतीय मूल के हैं।
१ अक्तूबर २००५ |