लेखक
गिरिराज किशोर
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प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ
१८ इंडस्टि्रयल एरिया, लोदी रोड
नयी दिल्ली ११०००३
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पृष्ठ ९०३
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मूल्य : ३५० रूपये
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पहला
गिरमिटिया (उपन्यास)
सूरज के दूसरे पहर की
यात्रा का पल–पल छायांकन, जिसमें पहले प्रहर के
संदर्भ–चित्र भी अंतर्निहित हों, यदि पुस्तकाकार प्रकाशित
किया जाए, तो जैसा प्रभाव दर्शक पर पड़ेगा प्राय: वही
प्रभाव पाठक पाता है 'पहला गिरमिटिया' से, जो पोरबंदर
राजकोट के मोनिया को मोहनदास के नाम से १८९३ में दक्षिण
अफ्रीका में नेटाल के एर्डिंगटन पतन पर उतारता है और १९१४
में केपटाउन पतन से वापस लंदन होते भारत भेजता है गांधीभाई
बनाकर, तीसरे पहर के सूरज रूप में महात्मा गांधी बनने तथा
चौथा पहर देखे बिना, अस्त होने की नियति के साथ। उपन्यास
किंतु सीमित है द्वितीय प्रहर अवधिभर।
सुगठित कथावस्तु, तीव्र–तीक्ष्ण दृश्यबंध, गतिमान वर्णन,
दृष्टिगत का चित्रण, मनोविचार निरूपण, अंतर्मन से वार्ता,
बुद्धि को झकझोरने वाले तर्क, स्थानीय तथा वैश्विक व्यक्ति
विशेष एवं समाज को प्रभावित सक्रिय करने तथा निर्णायक
स्थिति तक ले जाने वाले घटनाक्रम, दंतकथाओं की सी रोमांचक
विस्मयकारी अनुभूति भरे निष्कर्र्ष जिसने इतिहास रचा, जो
स्वयं इतिहास ही है, जो आगत सुदूरकाल में पुराण गाथा का
स्थान लेगा, ऐसा महाग्रंथ है 'पहला गिरमिटिया', जिसे लिखने
के लिए गिरिराज किशोर जैसा ही कोई वांछित था, जैसे संजीवनी
लाने को हनुमान अथवा गोवर्धन धारण के लिए गिरिधरगोपाल।
वक्ता चाहिय ज्ञाननिधि, कथा राम कै गूढ़!
समय के चाक पर दैवीय अंतः
प्रवृतियों वाला एक बालक कच्ची मिट्टी का मोनिया (अथवा
मोहनिया बचपन का नाम) बन कर बैठा, जिसे परिवारिक, देशज
संस्कारों ने मोहनदास नामक युवक बनाया तथा बाह्य
परिस्थितियों के हाथों धीरे–धीरे वयस्क बनते–बनते जो
तप–त्याग की आंच में पकता रहा, अध्यात्मिक चिंतन के सहारे
गांधी भाई नाम से पूजापात्र बनने, जिसके महात्मा
व्यक्तित्व के अभिमंत्रित पवित्र जल–कणों से समकालीन आधा
विश्व उन्नत हुआ, कई देशों के भाग्य बदले, जिसने कितनी
शिलाओं को अहिल्या बनाकर उद्धारित किया, कितने
सुग्रीव–विभीषण जिसके हाथों राज्यभिषेक पा सके, जो पारस बन
कर कितनों को स्वर्णाभा दे गया, यही उपन्यास 'पहला
गिरमिटिया' चित्रित करता है। सिद्धहस्त लेखक इसे रोचकता
सहित सुपाठ्य एवं सुग्राह्य बनाने में शतप्रतिशत सफल रहा
है।
किंतु उपन्यास 'पहला
गिरमिटिया' एक ग्रंथ भी है, उपन्यास से थोड़ा आगे। मन रंजन
और बौद्धिक तुष्टि से आगे, यह विचार–मंथन, चिंतन तथा
सिद्धांत स्थापना का लेखन भी है। इस नाते, जागरूक पाठक
इसके प्रथम वाचन से ही तृप्त नहीं होंगे। शास्त्र
सुचिन्तित पुनि–पुनि देखिए।
कुछ पारिवारिक सूचनाएं
ग्रंथ का यह खंड देता है, यथा,
पिता दिवंगत हुए थे, मां भी। चले जब अफ्रीका हेतु, तो
धर्मपत्नी कस्तूर और दो बच्चों से विदा मांगी। दो मित्र
थे, एक, उका, जिससे मिलकर घर लौटने पर नहाना होता था,
दूसरा शेख मेहताब जो गलत शिक्षाएं देने में लगा रहता था।
बड़े भाई राजकोट में दीवान थे पूरा परिवार पालते थे।
कस्तूर के आभूषण बेच कर लंदन गए, बैरिस्टर बन कर लौटे।
शाकाहारी थे, मां को वचन दे गए थे विदेश में भी मांस,
मदिरा और परस्त्री सेवन नहीं करेंगे, निभाया। जीविका की
खोज ही मोहनदास को अफ्रीका लाई। एक वर्ष के
अनुबंध–ऐग्रीमेंट–पर आए सो, लेखक ने गिरमिटिया कहा।
मोहनदास अफ्रीका १८९३ में
पहुंचे। १८९४ की २३ मई को उनका गिरमिट पूरा हुआ। एक वर्ष
का ही तो था। उपरिलिखित क्रांति, चमत्कार, सुधार, चिंतन,
आचरण की उपलब्धिवश वे सबके आत्मीय तथा श्रद्धेय हुए।
इक्कीस वर्ष की व्यक्त क्रांति–कथा प्रमुखतः, तथा इससे कुछ
अधिक वर्षों का व्यतीत–दर्शन (फ्लैश बैक), प्रायः आधी
शताब्दी का लेखन केवल ९०४ पृष्ठों में कल्पना की जा सकती
है कि कितने सीमित शब्दों में असीमित को अंकित किया गया
होगा। कथानक की विराटता का अनुमान करने हेतु बताना सार्थक
होगा कि लेखक 7४० अनुच्छेद से कम में घटनाक्रम नहीं समेट
पाया। शब्दों और कथ्य की कृपणता इसी से प्रकट है कि एक
घटना को सामान्य गणनानुसार एक पृष्ठ से तनिक ही अधिक कलेवर
में बांधना पड़ा। अंततः, कम करते–करते भी, कथा में १7८
संदर्भ संज्ञाओं का उल्लेख है जिनमें स्थान, संस्थायें,
साधन सम्मिलित हैं, १०० संदर्भ तिथियां हैं, प्रायः ३००
व्यक्तियों का उल्लेख है जिसमें से १६३ विदेशी श्वेत हैं,
शेष अश्वेत। लेखक ने भूमिका में सत्य ही कहा है कि जन्म से
कथा प्रारम्भ करता, तो सात सागर तैरने जैसा होता, अतः एक
सागर चुना– अफ्रीका प्रवास।
सर्वोपरि है, उपन्यास तत्व
का संरक्षण, रूचि का संवर्धन, प्रवाह का पालन, रस का
उद्रेक, विवाद का निषेध। नर से नारायण बनते युग–नायक का
पल–पल स्पष्ट चित्रांकन। व्यक्तित्व की विराटता के कारणभूत
तथ्यों–तर्कों का निरूपण। एक दिग्गज लेखक की सिद्धहस्त
प्रतिभा अपरिहार्य थी और परिश्रमी कथाकार ने समस्त
अपेक्षाएं संपूर्ण फलित कीं।
१९९५ में तथ्य संकलन का
प्रयास, जिसमें देशी–विदेशी स्थलों की आंखों देखी साक्षी
वांछित थी, विद्वान लेखक ने प्रारंभ किया शोध। अनेक
बाधा–विवादों सहित आवश्यक अर्थसंग्रह, तब यात्रा, वहां
स्थल दर्शन, संदर्भ साहित्य मंथन, संबद्ध व्यक्तित्वों से
वार्ता, तब लेखन, इस प्रक्रिया ने ३ वर्ष लिए। एक वर्ष लगा
पाठशुद्धि तथा प्रकाशन में। १९९९ में यह गं्रथ लोकार्पित
हुआ।
आश्चर्य नहीं कि चार वर्षों
में संवेदनशील लेखक स्वयं मोहनदास बन गया हो, ऐसा ही हुआ
लगता है जो ग्रंथ के समर्पण वाचन में झलकता है। प्रथम पूजा
उन प्रवासी जनों की, जो समुद्र की भेंट हुए, पर समाचार
शून्यतावश जिनके परिचित उन्हें अमर मानते रहे। और अंततः,
लेखक की अपनी से तीसरी पीढ़ी, जिनके लिए लेखक के अनुसार,
जानना आवश्यक है कि भारत की माटी युगपुरूष कैसे उगा लेती
है अथवा युगपुरूष की रचना प्रक्रिया कैसे चलती है तिल–तिल।
स्वाभाविक है कि उपन्यास के अनुच्छेद किसी चलचित्र कथा के
कसे गतिमान दृश्यबंध के समान लिखे हैं। कई बार कथोपकथन हैं
बोलने वालों के नाम पाठक स्वयं समझ लेता है। परिणामतः
उपन्यास में गति, प्रवाह तीव्र है।
उपरोक्त अपरिहार्यताओं ने
'पहला गिरमिटिया' के पाठन का प्रभाव अतीत के पुराण पाठन
जैसा बना दिया है 'एकदा नैमिषरण्ये . . . करके ग्रंथ
प्रारंभ होता है, उपकथाएं आती जाती हैं, न क्रम की
औपचारिकता, न पूर्वापर प्रसंगों परिचयों की वांछा, न
तिथियों का सत्यापन। लेखक एक व्यक्तित्व की कथा उभारता है,
पाठक भी उतने से ही संबद्ध है, संतुष्ट भी शेष तो
औपचारिकता है, जितनी निभे, उतनी पर्याप्त।
गतिमान लेखन व्यंजक शब्दों
से भरा होता है न्यूनतम अक्षर, विराट अभिव्यक्ति। पाठकों
को ऐसे प्रयोग सुख देते हैं। दिग्गज लेखक से प्रमाणन पा कर
ऐसे शब्द नवोदित लेखकों को मार्ग सुझाते हैं। प्रस्तुत
रचना में भरपूर प्रयोग हैं, यथा— आलपताल, धीपौ–धीपौ, लौंक,
महारनी, काबकनुमा, गुलमुंडी, हिजो, छीड़, निवाच, तिरमिरों,
चकरडंड, ताने–तिश्ने, अजसरेनौ, झुलसी, फल–फलुंगा,
झोला–मौला, हंडा, कोठी–कुठला, खरीता, जगुआया, अफा–जफाओं।
उपन्यास की भाषा पर चर्चा
तो करनी ही होगी, भले ही यह लेखक की प्रतिबद्धता तथा पाठक
की आवश्यकता के बीच समन्वय का विषय है। वर्तमान काल
वैश्विक आधार पर सभी भाषाओं के लिए संक्रमण–काल है।
निर्भरताएं विवश करती हैं। सूचना–तकनीक के उद्गम स्थलों
तथा यांत्रिकी–निर्माताओं की भाषा स्वीकारनी ही है।
प्रसार–प्रकाशन का अपना पृथक अर्थशास्त्र है। लेखन भी एक
वाणिज्यिक क्रिया है। स्वान्तः सुखाय या लोकहिताय अब
प्राथमिकता में नहीं रहा। पुनरपि, उपभोक्ता की स्वीकृति,
भाषा की विवशता का दूसरा छोर है। प्रत्येक पंक्ति ऐसे शब्द
सजाए है जो भाषा को उपभोक्ता–वस्तु मानने की मानसिकता का
प्रमाण है। पश्चिमी एशिया की भाषाएं इस ग्रंथ के अनुवाद
हेतु अधिकांश शब्दों का प्रयोग यथावत कर लेंगीं। केवल लिपि
मात्र परिवर्तित करनी होगी। सता उन्मुख जनरूचि के कारण
भाषा एक संवेदनशील विवाद का विषय भी बन गई है। निष्कर्षः,
भाषा पर चर्चा सदैव प्रभावहीन रहेगी, अंतिम निर्णय पाठक ही
देगा, जो नितांत वैयक्तिक विषय है।
उपन्यास शिल्प के लगभग
समस्त बिंदु यहां पूरे हुए। ग्रंथ, यतः, उपन्यास से अधिक
भी है महापुरूष की जीवन गाथा। इस नाते विचार करने से ग्रंथ
की रचना संपूर्णतया तटस्थभाव से की गई मिलती है। पूरे
ग्रंथ के पारायण का प्रभाव, सकारात्मक तक पूर्ण तथ्यात्मक
व्यक्तित्व के विकास की निष्पक्ष प्रस्तुति है। कुछ भी
दैवीय नहीं, चमत्कार नहीं, अतिमानवीय नहीं। ग्रंथ में
प्रसंग है कि त्रस्त अफ्रीका राष्ट्रपति स्वयं मोहनदास से
ही पूछता है कि गांधी को निष्प्रभावी करने के समस्त तंत्र
वह कर चुका, अब गांधी ही बताए कि गांधी को कैसे परास्त
किया जाए! और, गांधी का तर्कपूर्ण मानवीय तथ्यात्मक उतर
आता है 'प्रेम से'। विश्व को यह चमत्कार लगा, लगेगा भी पर
ग्रंथ बताता है कि यही परिस्थिति का सच है, एकमात्र सच।
लेखक की निर्लिप्तता ही उसके श्रेष्ठ लेखन की कसौटी है,
प्रमाण भी।
लेखक की सफलता ही है कि
ग्रंथ के अप्रिय पात्र, नायक के व्यक्तिव के निष्कंप उजाले
में, अपनी न्यूनताओं को स्पष्ट देख लेते हैं, स्वीकारोक्ति
भी करते हैं—जानाम्यधर्मं; न च मे निवृतिः। पाठक को
अतिरिक्त कुछ बताना आवश्यक ही नहीं रहता। अचूक लेखन।
समापन तनिक करूण याचना के
साथ। पाठशुद्धि के विषय में। लेखक ने अपनी अलिप्तता
पूर्णतया स्पष्ट कर दी पृष्ठ १४ पर यह बता कर कि ३१–7–९7
तक के आलेख लिखे–काटे–संवारे गए। आई आई टी परिसर में उनके
निज–कार्यालय के कर्मचारियों द्वारा कमलेश जी ने परवर्ती
आलेख टंकित किए। श्री गुप्त ने भी इसमें सहायता की। यह भी
कि लेखक की लिपि उन्हीं को स्पष्ट होती है। अगले पृष्ठ पर
यह दायित्व मीरा जी तथा अनीश जी पर उल्लिखित होता है।
प्रकाशक पाठशुद्धि के लिए अपने कर्मचारी पर आरोप मढ़ेगा।
परंतु, इस भरे संसार में, पाठक किस से पूछे कि सही क्या
है? ध्यान रखिएगा कि यात्राएं लेखक ने कीं, प्रदेश सरकार,
राजदूत, स्वायत संस्थाओं ने वित–पोषण किया, हासिम सीदात जी
ने अपना साहित्यभण्डार उपलब्ध कराया जो भारत के किसी भी
ग्रंथागार से श्रेष्ठ है, पर पाठक तक जो प्रकाशित होकर आया
उसमें, ग्रंथ के भीतर ही अंतर्विरोधी पाठ हैं, कुछ दुविधा
जनक पाठ भी। इनमें, महत्वपूर्ण ग्रंथ के नाते, प्रामाणिकता
पाठक चाहेगा अवश्य। किससे कहा जाए?
उद्धरणः
. . .कस्तूर एक दूसरे स्तर पर लड़ाई लड़ रही थीं। मोहनदास के
व्यवहार से वे चकित थीं। कुछ दिन तो वह उस परिवर्तन की
कुंजी खोजती रहीं लेकिन जब मोहनदास की वह डोर खिंचती गई तो
कस्तूर ने पूछा, "मुझे भी तो कुछ बताओ, आखिर ये सब क्या
है? मैं हर बात में तुम्हारे साथ हूं लेकिन यह तुम्हारा
सोना, रात को थककर देर से लौटना, तुम्हारा यह व्यवहार किस
वजह से है? इसका कारण मैं हूं या कोई और?"
मोहनदास ने एक मिनट सोचा, फिर कहा, "तुम नहीं, मैं स्वयं
हूं। मैं तुमसे कहना चाहता था लेकिन व्यस्तता के कारण इतना
समय नहीं मिला है कि मैं तुम्हें यह सब बता सकूं।" . . .
(पृष्ठ ४६०)
. . . "संकल्प–वंकल्प मैं नहीं जानती, न समझती हूं। मैं तो
यह जानती हूं जब तुमने चाहा, दूर चले गए। जब चाहा, पास आ
गए। उसमें मेरी कोई भूमिका नहीं। हमारा इस तरह साथ रहना
शायद पहली बार हो रहा है। एक बार मुंबई में हुआ था। तब साथ
रहने का अवसर मिला था। वे कड़की के दिन थे। घर ही बदलते
रहे गए थे।" . . .
"कस्तूर, तुम ग़लत समझ रही हो।"
"नहीं, मैं तुम्हें बहुत अच्छी तरह समझती हूं। तुम दर्जी की
तरह निर्णय सिलते हो। दर्जी कपड़ा सिलता है और दूसरे को
पहना देता है। चाहे वह तंग हो या ढीला–ढाला। तुम निर्णय
लेते हो और मुझे पहनाते रहे हो। जिस संकल्प की तुम बात कर
रहे हो क्या उसके लिए विश्वास ज़रूरी नहीं। जबकि उसके एक
किनारे पर तुम हो और दूसरे पर तुम्हारी पत्नी।" . . .
(पृष्ठ ४६०–४६१)
—शरण
स्वरूप पाण्डेय
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