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पाँच बजे मुहर्रम का जुलूस निकलने वाला था। पल भर में चौराहे पर सैंकडों मनुष्यों की भीड़ इकट्ठी हो गई। सावित्री का ध्यान कभी काले-हरे रंग-बिरंगे वस्त्र पहने जनसमूह की ओर और कभी जुलूस के कारण रुकी हुई मोटरगाड़ियों में बैठे हुए व्यक्तियों की ओर अनायास ही खिंच रहा था। और इधर बालिका निर्मला के होश-हवास एकाएक गुम से हो गए। जब उसे सारे घर में कमल की परछाईं तक नज़र न आई तब व्याकुल-सी हो वह एक कमरे से दूसरे कमरे में और फिर बरामदे में पंखहीन पक्षी की नाईं फड़फड़ाती हुई दौड़ने लगी। उसके बाल-नेत्रों के आगे अंधेरा-सा छा गया। उसे सबकुछ सुनसान-सा प्रतीत होने लगा। वह माँ से कई बार छोटे बच्चों का भीड़भाड़ में खो जाने का हाल सुन चुकी है। आह! उसका भैया... कमल... वह क्या करे?

नीचे की सड़क पर भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे खिलौने, नए-नए ढंग के गुब्बारे, काग़ज़ के पंखे, पतंग और भिन्न-भिन्न प्रकार के सुर निकलते हुए बाजे लाकर बेचनेवालों ने बाल-जगत के प्रति एक सम्मोहन जाल-सा बिछा रखा है। कुछ दूर से नेपथ्य में से ढमाढम ढोल-बाजों की ध्वनि बढ़ती आ रही है। निर्मला इन सब चित्ताकर्षक चीज़ों को बिना देखे-सुने ही भीड़भाड़ को चीरती हुई वेगपूर्वक भागती-भागती सीता के घर से भी हो आई, पर कमल तो वहाँ भी नहीं है! रोते-रोते निर्मला की आँखें सूज गईं। चेहरे का रंग सफ़ेद पड़ गया। आखिर हिचकियाँ लेते हुए रूँधे गले से माँ के पास जाकर कहा, ''कमल... कमल तो सीता के घर भी नहीं है!''

सावित्री का तन-बदन एक बार सहसा काँप उठा। क्षण भर में भीड़, मोटर और गाड़ियों के भय से कई अनिष्ट आशंकाएँ उसकी आँखों के आगे घूम-सी गईं, किंतु वह अपने भीरु लड़के की नस-नस से परिचित थी। उसे पूरा विश्वास था कि कमल ज़रूर ही कहीं-न-कहीं किसी दूकान पर खड़ा होकर अथवा किसी नौकर के साथ जुलूस देख रहा होगा, फिर भी उसने फूट-फूटकर रोती हुई निर्मला को ह्रदय से नहीं लगाया औऱ न उसे धीरज बँधाया, बल्कि वह आश्चर्यचकित-सी हो मानो अपनी लड़की की रुलाई को समझने का प्रयत्न कर रही थी। रह-रहकर एक संदेह-सा उसके मन में उठने लगा- 'मुझसे भी अधिक- भला माँ के दिल से भी ज़्यादा- किसी और को दर्द-चिंता हो सकती है, और यह निर्मला तो दिन-रात कमल को सताया करती है!''

जुलूस समाप्त हो गया। क्रमशः दर्शकों के झुंड भी छिन्न-भिन्न होने लगे। मोटरगाड़ियों का धड़ाधड़ आना-जाना पूर्ववत जारी है गया। और सामने कमीज़ पहने पड़ोसी ड़ॉक्टर साहब के नौकर के हाथ में हाथ लटकाए कमलकिशोर घर आता हुआ दिखाई दिया।

सीढ़ियों में से फिर सिसकने की आवाज़ सुनकर सावित्री ने देखा तो मंत्रमुग्ध-सी हो गई। कमल को दृढ़ पाश में बाँधे निर्मला दुगुने वेग से रो रही है। उसके कोमल गुलाबी गाल मोटे-मोटे आँसुओं से भीगे जा रहे हैं और वह बार-बार कमल का मुख चूम-चूमकर कह रही है, ''पगला!  तू कहाँ चला गया था? गधा! तू क्यों चला गया था?''

सावित्री का ह्रदय उमड़ आया। पुनीत प्रेम के इस दृश्य को देखकर एक आनंद की धारा-सी उसके अंतस्तल में बहने लगी। झरते हुए आँसुओं के साथ उसने कमल की जगह निर्मला को छाती से लगाकर उसका मुँह चूम लिया और कहा, ''बेटा, बहन को प्यार करो। देखो, वह तुम्हारी खातिर कितना रोई है! तुम बिना कहे क्यों चले जाते हो?''
निर्मला का इतना आदर होते देख कमल बोल उठा, '' तो क्या मैं वहाँ नहीं रोया था?''
''तुम क्यों रोए थे जी?'' माँ ने कुतुहलवश पूछा।
''मुझे गुब्बारा लेना था, पैसा नहीं था।''

निर्मला ने दौड़कर अपनी जमा की हुई चवन्नी के पैसे से दो गुब्बारे और दो काग़ज़ के खिलौने कमल को लाकर दिए और एक बार फिर उसे भुजाओं में जकड़कर कहा, ''गधा! तू अकेला क्यों चला गया था?''

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१९ अक्तूबर २००९

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