वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों
बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर
कि चौधरी आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। उनकी
अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से
अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं।
महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं।
मोहनसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं
अनगिनत पैसों में अनगिनत चीज़ें लाएँगे— खिलौने, मिठाइयाँ,
बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या।
और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पाँच साल का गरीब
सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैज़े की भेंट हो
गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को
पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ
बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया,. तो संसार
से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में
सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रुपये कमाने गए
हैं। बहुत-सी थैलियाँ लेकर आएँगे। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर
से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीज़ें लाने गई हैं, इसलिए हामिद
प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी
कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हे। हामिद के पाँव में जूते
नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला
पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ
और अम्मीजान नियामतें लेकर आएँगी, तो वह दिल से अरमान निकाल
लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे
निकालेंगे।
अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन,
उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती
ओर चली जाती! इस अन्धकार और निराशा में वह डूबी जा रही है।
किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं,
लेकिन
हामिद! उसे किसी के मरने-जीने के क्या मतल? उसके अन्दर प्रकाश
है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आये, हामिद की
आनंद-भरी चितबन उसका विध्वसं कर देगी।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है—तुम डरना नहीं अम्मॉँ, मै
सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।
अमीना का दिल कचोट रहा है। गॉँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ
जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे केसे
अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाए तो
क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन
कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जाएँगे। जूते भी तो नहीं
हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहाँ
सेवैयाँ कोन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते-लोटते सब सामग्री जमा
करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे।
मॉँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ
आने पेसे मिले थे। उस उठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी
इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या
करती? हामिद के लिए कुछ नहीं हे, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए
ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब
में, पांच अमीना के बटुवें में। यही तो बिसात है और ईद का
त्यौहार, अल्ला ही बेड़ा पर लगाए। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और
चुड़िहारिन सभी तो आएँगी। सभी को सेवेयाँ चाहिए और थोड़ा किसी
को ऑंखों नहीं लगता। किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों
चुराए? साल-भर का त्योंहार हैं। जिन्दगी खैरियत से रहैं, उनकी
तकदीर भी तो उसी के साथ है: बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन
भी कट जाएँगे।
गॉँव से मेला चला। ओर बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी
सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नींचे खड़े
होकर साथ वालों का इंतजार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे
चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी
थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के
बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और
लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर
निशान लगाता हे। माली अंदर से गाली देता हुआ निंलता है। लड़के
वहाँ से एक फलॉँग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को केसा उल्लू
बनाया है।
बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह
क्लब घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब
लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी
मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं। न जाने कब
तक पढ़ेंगे ओर क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में
दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार
खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग
होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहाँ
मुर्दो की खोपड़ियां दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हैं,
पर किसी कोअंदर नहीं जाने देते। और वहाँ शाम को साहब लोग खेलते
हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूँछो-दाढ़ी वाले। और मेमें भी
खेलती हैं, सच! हमारी अम्मॉँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट,
तो उसे पकड़ ही न सके। घुमाते ही लुढ़क जाएँ।
महमूद ने कहा—हमारी अम्मीजान का तो हाथ कॉँपने लगे, अल्ला कसम।
मोहसिन बोल—चलों, मनों आटा पीस डालती हैं। जरा-सा बैट पकड़
लेगी, तो हाथ कॉँपने लगेंगे! सौकड़ों घड़े पानी रोज निकालती
हैं। पॉँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा
पानी भरना पड़े, तो ऑंखों तक अँधेरी आ जाए।
महमूद—लेकिन दौड़तीं तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।
मोहसिन—हाँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल
गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्मॉँ इतना तेज दौड़ी
कि में उन्हें न पा सका, सच।
आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुई। आज खूब सजी हुई थीं।
इतनी मिठाइयाँ कौन खाता? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी।
सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थें
कि आधी रात को एक आदमी हर दूकान पर जाता है और जितना माल बचा
होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल
ऐसे ही रूपये।
हामिद को यकीन न आया—ऐसे रूपये जिन्नात को कहाँ से मिल जाएँगी?
मोहसिन ने कहा—जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में
चाहैं चले जाएँ। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब,
आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे
खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हैं,
पॉँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जाएँ।
हामिद ने फिर पूछा—जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?
मोहसिन—एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो
जाए तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस
जाए।
हामिद—लोग उन्हें केसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता
दे तो एक जिनन को खुश कर लूँ।
मोहसिन—अब यह तो न जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में
बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाए चौधरी साहब उसका पता
लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देगें। जुमराती का बछवा उस दिन खो
गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के
पास गए। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं
मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और
क्यों उनका इतना सम्मान है।
आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते
हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं,
नहीं चोरियाँ हो जाएँ। मोहसिन ने प्रतिवाद किया—यह कानिसटिबिल
पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हों अजी हजरत, यह चोरी करते
हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मुहल्ले में जाकर
‘जागते रहो! जाते रहो!’ पुकारते हैं। तभी इन लोगों के पास इतने
रूपये आते हैं। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हैं। बरस
रूपया महीना पाते हैं, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हैं। अल्ला
कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहाँ से
पाते हैं? हँसकर कहने लगे—बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही
बोले—हम लोग चाहैं तो एक दिन में लाखों मार लाएँ। हम तो इतना
ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए।
हामिद ने पूछा—यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता
नहीं?
मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला..अरे, पागल! इन्हें कौन
पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें
सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही
दिन हुए, मामू के घर में आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई। एक
बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोए, अल्ला कसम, पेड़ के
नीचे! फिरन जाने कहाँ से एक सौ कर्ज लाए तो बरतन-भॉँड़े आए।
हामिद—एक सौ तो पचार से ज्यादा होते है?
‘कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो
थैलियों में भी न आएँ?
अब बस्ती घनी होने लगी। ईइगाह जाने वालो की टोलियाँ नजर आने
लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-तॉँगे पर
सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग।
ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर
धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें
अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से
आर्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे
जाते-जाते बचा।
सहसा ईदगाह नजर आई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया हे। नाचे
पक्का फर्श है, जिस पर जाजम ढिछा हुआ है। और रोजेदारों की
पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ वक चली गई हैं, पक्की जगत
के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की
कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं हे। यहाँ कोई धन और
पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन
ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गए।
कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक
साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते
हैं, एक साथ झुकते हैं, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ
खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं, और एक साथ खड़े हो जाते
हैं, कई बार यही क्रिया होती हे, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ
एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ, और यही ग्रम चलता,
रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार
और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं,
मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में
पिरोए हुए हैं।
[edit] 2
नमाज खत्म हो गई। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और
खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय
में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला हैं एक
पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी
जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट,
छड़ो में लटके हुए हैं। एक पेसा देकर बैठ जाओं और पच्चीस
चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन
घोड़ों ओर ऊँटो पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे
तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के
लिए नहीं दे सकता।
सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। अधर दूकानों की
कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं—सिपाही और गुजरिया,
राज ओर वकी, भिश्ती और धोबिन और साधु। वह! कत्ते सुन्दर खिलोने
हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता हे, खाकी वर्दी
और लाल पगड़ीवाला, कंधें पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता हे, अभी
कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी
हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए
है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से
पानी अड़ेला ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम हे। कैसी
विद्वत्ता हे उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के
सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का
पौथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस
किए चले आ रहे है। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के
पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौन वह केसे ले? खिलौना
कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए। जरा पानी पड़े तो
सारा रंग घुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के!
मोहसिन कहता है—मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा सॉँझ-सबेरे
महमूद—और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आएगा, तो फौरन
बंदूक से फैर कर देगा।
नूरे—ओर मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।
सम्मी—ओर मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी।
हामिद खिलौनों की निंदा करता है—मिट्टी ही के तो हैं, गिरे तो
चकनाचूर हो जाएँ, लेकिन ललचाई हुई ऑंखों से खिलौनों को देख रहा
है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता।
उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं
होते हैं, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचता रह जाता है।
खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं,
किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं।
हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों
नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई आँखों से सबक ओर देखता है।
मोहसिन कहता है—हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!
हामिद को संदेह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद है मोहसिन इतना उदार
नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने
से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता
है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद नूरे ओर
सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है। |