पद्मा उसी तरह खड़ी सीधे ताकती रही।
"तू राजेन को प्यार नहीं करती?" आँख उठाकर रामेश्वरजी ने
पूछा।
"प्यार? करती हूँ।"
"करती है?"
"हाँ, करती हूँ।"
"बस, और क्या?"
"पिता!"
पद्मा की आबदार आँखों से आँसुओं के मोती टूटने लगे, जो
उसके हृदय की कीमत थे, जिनका मूल्य समझनेवाला वहाँ कोई न था।
माता ने ठोढ़ी पर एक उँगली रख रामेश्वरजी की तरफ देखकर
कहा, "प्यार भी करती है, मानती भी नहीं, अजीब लड़की है।"
"चुप रहो।" पद्मा की सजल आँखें भौंहों से सट गयीं, "विवाह
और प्यार एक बात है? विवाह करने से होता है, प्यार आप होता है।
कोई किसी को प्यार करता है, तो वह उससे विवाह भी करता है?
पिताजी जज साहब को प्यार करते हैं, तो क्या इन्होंने उनसे
विवाह भी कर लिया है?"
रामेश्वरजी हँस पड़े।
रामेश्वरजी ने शंका की दृष्टि से डॉक्टर से पूछा, "क्या
देखा आपने डॉक्टर साहब?"
"बुखार बड़े जोर का है, अभी तो कुछ कहा नहीं जा सकता।
जिस्म की हालत अच्छी नहीं, पूछने से कोई जवाब भी नहीं
देती। कल तक अच्छी थी, आज एकाएक इतने जोर का बुखार, क्या सबब
है?" डॉक्टर ने प्रश्न की दृष्टि से रामेश्वरजी की तरफ देखा।
रामेश्वरजी पत्नी की तरफ देखने लगे।
डाक्टर ने कहा, "अच्छा, मैं एक नुस्खा लिखे देता हूँ, इससे
जिस्म की हालत अच्छी रहेगी। थोड़ी-सी बर्फ मँगा लीजिएगा।
आइस-बैग तो क्यों होगा आपके यहाँ? एक नौकर मेरे साथ भेज दीजिए,
मैं दे दँूगा। इस वक्त एक सौ चार डिग्री बुखार है। बर्फ डालकर
सिर पर रखिएगा। एक सौ एक तक आ जाय, तब जरूरत नहीं।"
डॉक्टर चले गये। रामेश्वरजी ने अपनी पत्नी से कहा, "यह एक
दूसरा फसाद खड़ा हुआ। न तो कुछ कहते बनता है, न करते। मैं कौम
की भलाई चाहता था, अब खुद ही नकटों का सिरताज हो रहा हूँ। हम
लोगों में अभी तक यह बात न थी कि ब्राह्मण की लड़की का किसी
क्षत्रिय लड़के से विवाह होता। हाँ, ऊँचे कुल की लड़कियाँ
ब्राह्मणों के नीचे कुलों में गयी हैं। लेकिन, यह सब आखिर कौम
ही में हुआ है।"
"तो क्या किया जाय?" स्फारित, स्फुरित आँखें, पत्नी ने
पूछा।
"जज साहब से ही इसकी बचत पूछंूगा। मेरी अक्ल अब और नहीं
पहँुचती। अरे छीटा!"
"जी!" छीटा चिलम रखकर दौड़ा।
"जज साहब से मेरा नाम लेकर कहना, जल्द बुलाया है।"
"और भैया बाबू को भी बुला लाऊँ?"
"नहीं-नहीं।" रामेश्वरजी की पत्नी ने डाँट दिया।
जज साहब पुत्र के साथ बैठे हुए वार्तालाप कर रहे थे।
इंग्लैंड के मार्ग, रहन-सहन, भोजन-पान, अदब-कायदे का बयान कर
रहे थे। इसी समय छीटा बँगले पर हाजिर हुआ, और झुककर सलाम किया।
जज साहब ने आँख उठाकर पूछा, "कैसे आये छीटाराम?"
"हुजूर को सरकार ने बुलाया है, और कहा है, बहुत जल्द आने
के लिए कहना।"
"क्यों?"
"बीबी रानी बीमार हैं, डाक्टर साहब आये थे, और हुजूर "
बाकी छीटा ने कह ही डाला था।
"और क्या?"
"हुजूर " छीटा ने हाथ जोड़ लिये। उसकी आँखें डबडबा आयीं।
जज साहब बीमारी कड़ी समझकर घबरा गये! ड्राइवर को बुलाया।
छीटा चल दिया। ड्राइवर नहीं था। जज साहब ने राजेन्द्र से कहा,
"जाओ, मोटर ले आओ। चलें, देखें, क्या बात है।"
राजेन्द्र को देखकर रामेश्वरजी सूख गये। टालने की कोई बात
न सूझी। कहा, "बेटा, पद्मा को बुखार आ गया है, चलो, देखो, तब
तक मैं जज साहब से कुछ बातें करता हूँ।"
राजेन्द्र उठ गया। पद्मा के कमरे में एक नौकर सिर पर
आइस-बैग रक्खे खड़ा था। राजेन्द्र को देखकर एक कुर्सी पलंग के
नजदीक रख दी।
"पद्मा!"
"राजेन!"
पद्मा की आँखों से टप-टप गर्म आँसू गिरने लगे। पद्मा को
एकटक प्रश्न की दृष्टि से देखते हुए राजेन्द्र ने रूमाल से
उसके आँसू पोंछ दिये।
सिर पर हाथ रक्खा, बड़े जोर से धड़क रही थी।
पद्मा ने पलकें मंूद ली, नौकर ने फिर सिर पर आइस-बैग रख
दिया।
सिरहाने थरमामीटर रक्खा था। झाड़कर, राजेन्द्र ने आहिस्ते
से बगल में लगा दिया। उसका हाथ बगल से सटाकर पकड़े रहा। नज़र
कमरे की घड़ी की तरफ थी।
निकालकर देखा, बुखार एक सौ तीन डिग्री था।
अपलक चिन्ता की दृष्टि से देखते हुए राजेन्द्र ने पूछा,
"पद्मा, तुम कल तो अच्छी थीं, आज एकाएक बुखार कैसे आ गया?"
पद्मा ने राजेन्द्र की तरफ करवट ली, कुछ न कहा।
"पद्मा, मैं अब जाता हूँ।"
ज्वर से उभरी हुई बड़ी-बड़ी आँखों ने एक बार देखा, और फिर
पलकों के पर्दे में मौन हो गयीं।
अब जज साहब और रामेश्वरजी भी कमरे में आ गये।
जज साहब ने पद्मा के सिर पर हाथ रखकर देखा, फिर लड़के की
तरफ निगाह फेरकर पूछा, "क्या तुमने बुखार देखा है?"
"जी हाँ, देखा है।"
"कितना है?"
"एक सौ तीन डिग्री।"
"मैंने रामेश्वरजी से कह दिया है, तुम़ आज यही रहोगे।
तुम्हें यहाँ से कब जाना है? - परसों न?"
"जी।"
"कल सुबह बतलाना घर आकर, पद्मा की हालत-कैसी रहती है। और
रामेश्वरजी, डॉक्टर की दवा करने की मेरे खयाल से कोई जरूरत
नहीं।"
"जैसा आप कहें।" सम्प्रदान-स्वर से रामेश्वरजी बोले।
जज साहब चलने लगे। दरवाजे तक रामेश्वरजी भी गये। राजेन्द्र
वहीं रह गया। जज साहब ने पीछे फिरकर कहा, "आप घबराइए मत, आप पर
समाज का भूत सवार है।" मन-ही-मन कहा, "कैसा बाप और कैसी लड़की!
तीन साल बीत गये। पद्मा के जीवन में वैसा ही प्रभात, वैसा
ही आलोक भरा हुआ है। वह रूप, गुण, विद्या और ऐश्वर्य की भरी
नदी, वैसी ही अपनी पूर्णता से अदृश्य की ओर, वेग से बहती जा
रही है। सौन्दर्य की वह ज्योति-राशि स्नेह-शिखाओं से वैसी ही
अम्लान स्थिर है। अब पद्मा एम.ए. क्लास में पढ़ती है।
वह सभी कुछ है, पर वह रामेश्वरजी नहीं हैं। मृत्यु के कुछ
समय पहले उन्होंने पद्मा को एक पत्र में लिखा था, "मैंने
तुम्हारी सभी इच्छाएँ पूरी की हैं, पर अभी तक मेरी एक भी इच्छा
तुमने पूरी नहीं की। शायद मेरा शरीर न रहे, तुम मेरी सिर्फ एक
बात मानकर चलो- राजेन्द्र या किसी अपर जाति के लड़के से विवाह
न करना। बस।"
इसके बाद से पद्मा के जीवन में आश्चर्यकर परिवर्तन हो गया।
जीवन की धारा ही पलट गयी। एक अद्भुत स्थिरता उसमें आ गयी। जिस
गति के विचार ने उसके पिता को इतना दुर्बल कर दिया था, उसी
जाति की बालिकाओं को अपने ढंग पर शिक्षित कर, अपने आदर्श पर
लाकर पिता की दुर्बलता से प्रतिशोध लेने का उसने निश्चय कर
लिया।
राजेन्द्र बैरिस्टर होकर विलायत से आ गया। पिता ने कहा,
"बेटा, अब अपना काम देखो।" राजेन्द्र ने कहा, "जरा और सोच लँू,
देश की परिस्थिति ठीक नहीं।"
"पद्मा!" राजेन्द्र ने पद्मा को पकड़कर कहा।
पद्मा हँस दी। "तुम यहाँ कैसे राजेन?" पूछा।
"बैरिस्टरी में जी नहीं लगता पद्मा, बड़ा नीरस व्यवसाय है,
बड़ा बेदर्द। मैंने देश की सेवा का व्रत ग्रहण कर लिया है, और
तुम?"
"मैं भी लड़कियाँ पढ़ाती हूँ - तुमने विवाह तो किया होगा?"
"हाँ, किया तो है।" हँसकर राजेन्द्र ने कहा।
पद्मा के हृदय पर जैसे बिजली टूट पड़ी, जैसे तुषार की
प्रहत पदि्मनी क्षण भर में स्याह पड़ गयी। होश में आ, अपने को
सँभालकर कृत्रिम हँसी रँगकर पूछा,
"किसके साथ किया?"
"लिली के साथ।" उसी तरह हँसकर राजेन्द्र बोला।
"लिली के साथ!" पद्मा स्वर में काँप गयी।
"तुम्हीं ने तो कहा था-विलायत जान और मेम लाना।"
पद्मा की आँखें भर आयीं।
हँसकर राजेन्द्र ने कहा, "यही तुम अंगेजी की एम.ए. हो?
लिली के मानी?" |