जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उसका चचेरा भाई जिसका
ब्याह उसके घर हुआ, उसकी सुरत मुझे
लगी रहती है। मैं फूला अपने आप में नहीं समाता, और जितने
उनके लड़के वाले हैं, उन्हीं को मेरे जी में चाह
है। और कोई कुछ हो, मुझे नहीं भाता। मुझको उम्र घराने छूट
किसी चोर ठग से क्या पड़ी! जीते और मरते
आसरा उन्हीं सभों का और उनके घराने का रखता हूँ तीसों
घड़ी।
डौल डाल एक अनोखी बात का
एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी
ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदवी छुट और किसी
बोली का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप
में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके
बीच में न हो। अपने मिलने वालों में से एक कोई पढ़े-लिखे,
पुराने-धुराने, डाँग, बूढ़े धाग यह खटराग लाए। सिर
हिलाकर, मुँह थुथाकर, नाक भी चढ़ाकर, आँखें फिराकर लगे
कहने - यह बात होते दिखाई नहीं देती। हिंदवीपन
भी न निकले और भाखापन भी न हो। बस जैसे भले लोग अच्छे आपस
में बोलते चालते हैं, ज्यों का त्यों वही
सब डौल रहे और छाँह किसी की न हो, यह नही होने का। मैंने
उनकी ठंडी साँस का टहोका खाकर झुँझलाकर
कहा - मैं कुछ ऐसा बड़बोला नहीं जो राई को परबत कर
दिखाऊँ और झूठ सच बोलकर उँगलियाँ नचाऊँ,
और बे-सिर बे-ठिकाने की उलझी-सुलझी बातें सुनाऊँ, जो मुझ
से न हो सकता तो यह बात मुँह से क्यों
निकालता? जिस ढब से होता, इस बखेड़े को टालता।
इस कहानी का कहनेवाला यहाँ आपको जताता है और जैसा कुछ उसे
लोग पुकारते हैं, कह सुनाता है। दहना
हाथ मुँह पर फेरकर आपको जताता हूँ, जो मेरे दाता ने चाहा
तो यह ताव-भाव, राव-चाव और कूद-फाँद,
लपट झपट दिखाऊँ जो देखते ही आप के ध्यान का घोड़ा, जो
बिजली से भी बहुत चंचल अल्हड़पन में है, हिरन
के रूप में अपनी चौकड़ी भूल जाय।
टुक घोड़े पर चढ़ के अपने आता हूँ मैं।
करतब जो कुछ है, कर दिखता हूँ मैं।।
उस चाहनेवाले ने जो चाहा तो अभी।
कहता जो कुछ हूँ, कर दिखाता हूँ मैं।।
अब आप कान रख के, आँखें मिला के, सन्मुख होके टुक इधर
देखिए, किस ढंग से बढ़ चलता हूँ और अपने
फूल के पंखड़ी जैसे होठों से किस किस रूप के फूल उगलता
हूँ।
कहानी के जीवन का उभार और बोलचाल की दुलहिन का सिंगार
किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था। उसे उसके
माँ-बाप और सब घर के लोग कुँवर उदैभान करके
पुकारते थे। सचमुच उसके जीवन की जोत में सूरज की एक स्रोत
आ मिली थी। उसका अच्छापन और भला
लगना कुछ ऐसा न था जो किसी के लिखने और कहने में आ सके।
पंद्रह बरस भरके उसने सोलहवें में पाँव
रक्खा था। कुछ यों ही सी मसें भीनती चली थीं। पर किसी बात
के सोच का घर-घाट न पाया था और चाह की
नदी का पाट उसने देखा न था। एक दिन हरियाली देखने को अपने
घोड़े पर चढ़के अठखेल और अल्हड़पन के
साथ देखता भालता चला जाता था। इतने में जो एक हिरनी उसके
सामने आई, तो उसका जी लोट पोट हुआ।
उस हिरनी के पीछे सब छोड़ छाड़कर घोड़ा फेंका। कोई घोड़ा
उसको पा सकता था? जब सूरज छिप गया और
हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो कुँवर उदैभान भूखा, प्यासा,
उनींदा, जँभाइयाँ, अँगड़ाइयाँ लेता, हक्का
बक्का होके लगा आसरा ढूँढने। इतने में कुछ एक अमराइयाँ
देख पड़ी, तो उधर चल निकला; तो देखता है वो चालीस-पचास
रंडियाँ एक से एक जोबन में अगली झूला डाले पड़ी झूल रही है और
सावन गातियाँ हैं।
ज्यों ही उन्होंने उसको देखा - तू कौन? तू कौन? की चिंघाड़
सी पड़ गई। उन सभों में एक के साथ उसकी
आँख लग गई।
कोई कहती थी यह उचक्का है।
कोई कहती थी एक पक्का है।
वही झूलेवाली लाल जोड़ा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी
कहते थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर
किया। पर कहने-सुनने को बहुत सी नाँह-नूह की और कहा -
"इस लग चलने को भला क्या कहते हैं! हक न धक, जो तुम झट से
टहक पड़े। यह न जाना, यह रंडियाँ अपने
झूल रही हैं। अजी तुम तो इस रूप के साथ इस रव बेधड़क चले
आए हो, ठंडे ठंडे चले जाओ।"
तब कुँवर ने मसोस के मलीला खाके कहा - "इतनी रूखाइयाँ न
कीजिए। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड़
की छाँह में ओस का बचाव करके पड़ा रहूँगा। बड़े तड़के
धुँधलके में उठकर जिधर को मुँह पड़ेगा चला
जाऊँगा। कुछ किसी का लेता देता नहीं। एक हिरनी के पीछे सब
लोगों को छोड़ छाड़कर घोड़ा फेंका था। कोई
घोड़ा उसको पा सकता था? जब तलक उजाला रहा उसके ध्यान में
था। जब अँधेरा छा गया और जी बहुत
घबरा गया, इन अमराइयों का आसरा ढूँढकर यहाँ चला आया
हूँ।
कुछ रोक टोक तो इतनी न थी जो माथा
ठनक जाता और रूका रहता। सिर उठाए हाँपता चला आया। क्या
जानता था - वहाँ पदि्मिनियाँ पड़ी झूलती पेगै
चढ़ा रही हैं। पर यों बदी थी, बरसों मैं भी झूल करूँगा।"
यह बात सुनकर वह जो लाल जोड़ेवाली सब की सिरधरी थी, उसने
कहा -
"हाँ जी, बोलियाँ ठोलियाँ न मारो और इनको कह दो जहाँ जी
चाहे, अपने पड़ रहें, और जो कुछ खाने को माँगे,
इन्हें पहुँचा दो। घर आए को आज तक किसी ने मार नहीं डाला।
इनके मुँह का डौल, गाल तमतमाए, और
होंठ पपड़ाए, और घोड़े का हाँपना, और जी का काँपना, और
ठंडी साँसें भरना, और निढाल हो गिरे पड़ना इनको
सच्चा करता है। बात बनाई हुई और सचौटी की कोई छिपती नहीं।
पर हमारे इनके बीच कुछ ओट कपड़े लत्ते
की कर दो।"
इतना आसरा पाके सबसे परे जो कोने में पाँच सात पौदे थे,
उनकी छाँव में कुँवर उदैभान ने अपना बिछौना
किया और कुछ सिरहाने धरकर चाहता था कि सो रहें, पर नींद
कोई चाहत की लगावट में आती थी? पड़ा पड़ा
अपने जी से बातें कर रहा था। जब रात साँय-साँय बोलने लगी
और साथवालियाँ सब सो रहीं, रानी केतकी ने अपनी सहेली
मदनबान को जगाकर यों कहा
- "अरी ओ, तूने कुछ
सुना है? मेरा जी उसपर आ गया है; और
किसी डौल से थम नहीं सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है।
अब होनी जो हो सो हो; सिर रहता रहे, जाता
जाय। मैं उसके पास जाती हूँ। तू मेरे साथ चल। पर तेरे
पाँवों पड़ती हूँ, कोई सुनने न पाए। अरी यह मेरा
जोड़ा मेरे और उसके बनानेवाले ने मिला दिया। मैं इसी जी
में इस अमराइयों में आई थी।"
रानी केतकी मदनबान का हाथ पकड़े हुए वहाँ आन पहुँची, जहाँ
कुँवर उदैभान लेटे हुए कुछ कुछ सोच में
बड़बड़ा रहे थे।
मदनबान आगे बढ़के कहने लगी - "तुम्हें अकेला जानकर रानी जी
आप आई हैं।"
कुँवर उदैभान यह सुनकर उठ बैठे और यह कहा - "क्यों न हो,
जी को जी से मिलाप है?"
कुँवर और रानी दोनों चुपचाप बैठे; पर मदनबान दोनों को
गुदगुदा रही थी। होते होते रानी का वह पता खुला
कि राजा जगतपरकास की बेटी है और उनकी माँ रानी कामलता
कहलाती है। "उनको उनके माँ बाप ने कह
दिया है - एक महीने पीछे अमराइयों में जाकर झूल आया करो।
आज वही दिन था; सो तुम से मुठभेड़ हो गई।
बहुत महाराजों के कुँवरों से बातें आईं, पर किसी पर इनका
ध्यान न चढ़ा। तुम्हारे धन भाग जो तुम्हारे पास
सबसे छुपके, मैं जो उनके लड़कपन की गोइयाँ
हूँ, मुझे अपने
साथ लेके आई है। अब तुम अपनी बीती कहानी
कहो - तुम किस देस के कौन हो।"
उन्होंने कहा - "मेरा बाप राजा सूरजभान और माँ रानी
लछमीबास हैं। आपस में जो गँठजोड हो जाय तो कुछ
अनोखी, अचरज और अचंभे की बात नहीं। योंही आगे से होता चला
आया है। जैसा मुँह वैसा थप्पड़। जोड़ तोड़
टटोल लेते हैं। दोनों महाराजों को यह चितचाही बात अच्छी
लगेगी, पर हम तुम दोनों के जी का गँठजोड़ा
चाहिए।"
इसी में मदनबान बोल उठी - "सो तो हुआ। अपनी अपनी अँगूठियाँ
हेर फेर कर लो और आपस में लिखौती
लिख दो। फिर कुछ हिचर मिचर न रहे।"
कुँवर उदैभान ने अपनी अँगूठी रानी केतकी को पहना दी; और
रानी ने भी अपनी अँगूठी कुँवर की उँगली में
डाल दी; और एक धीमी सी चुटकी भी ले ली।
इसमें मदनबाल बोली - "जो सच पूछा तो इतनी भी बहुत हुई।
मेरे सिर चोट है। इतना बढ़ चलना अच्छा नहीं।
अब उठ चलो और इनको सोने दो; और रोएं तो पड़े रोने दो।
बातचीत तो ठीक हो चुकी।" पिछले पहर से रानी
तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आई थी, उधर को चली गई और
कुँवर उदैभान अपने घोड़े को पीठ
लगाकर अपने लोगों से मिलके अपने घर पहुँचे।
पर कुँवर जी का रूप क्या कहूँ। कुछ कहने में नहीं आता। न
खाना, न पीना, न मग चलना, न किसी से कुछ कहना, न सुनना।
जिस स्थान में थे उसी में गुथे रहना और घड़ी घड़ी कुछ सोच सोच
कर सिर धुनना।
होते होते लोगों में इस बात का चरचा फैल गई।
किसी किसी ने महाराज और महारानी से कहा - "कुछ दाल में
काला है। वह कुँवर बुरे तेंवर और बेडौल आँखें
दिखाई देती हैं। घर से बाहर पाँव नहीं धरना। घरवालियाँ जो
किसी डौल से बहलातियाँ हैं, तो और कुछ नहीं
करना, ठंडी ठंडी साँसें भरता है। और बहुत किसी ने छेड़ा तो
छपरखट पर जाके अपना मुंह लपेट के आठ आठ
आँसू पड़ा रोता है।"
यह सुनते ही कुँवर उदैभान के माँ-बाप दोनों दौड़े आए। गले
लगाया, मुँह चूम पाँव पर बेटे के गिर पड़े, हाथ
जोड़े और कहा - 'जो अपने जी की बात है, सो कहते क्यों
नहीं? क्या दुखड़ा है जो पड़े पड़े कराहते हो?
राज-पाट जिसको चाहो, दे डालो। कहो तो, क्या चाहते हो?
तुम्हारा जी क्यों नहीं लगता? भला वह क्या है जो
हो नहीं सकता? मुँह से बोलो, जी को खोलो। जो कुछ कहने से
सोच करते हो, अभी लिख भेजो। जो कुछ
लिखोगे, ज्यों की त्यों करने में आएगी। जो तुम कहो कूएँ
में गिर पड़ो, तो हम दोनों अभी गिर पड़ते हैं। कहो
- सिर काट डालो, तो सिर अपने अभी काट डालते हैं।"
कुँवर उदैभान, जो बोलते ही न थे, लिख भेजने का आसरा पाकर
इतना बोले - "अच्छा आप सिधारिए, मैं
लिख भेजता हूँ। पर मेरे उस लिखे को मेरे मुँह पर किसी ढब
से न लाना। इसीलिए मैं मारे लाज के मुखपाट
होके पड़ा था और आप से कुछ न कहना था।"
यह सुनकर दोनों महाराज और महारानी अपने स्थान को सिधारे।
तब कुँवर ने यह लिख भेजा - "अब जो मेरा
जी होठों पर आ गया और किसी डौल न रहा गया और आपने मुझे सौ
सौ रूप से खोल और बहुत सा टटोला,
तब तो लाज छोड़ के हाथ जोड़ के मुँह फाड़ के घिघिया के यह
लिखता हूँ -
चाह के हाथों किसी को सुख नहीं।
है भला वह कौन जिसको दुख नहीं।।
उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, एक हिरनी मेरे
सामने कनौतियाँ उठाए आ गई। उसके पीछे मैंने
घोड़ा बगछुट फेंका। जब तक उजाला रहा, उसकी धुन में बहका
किया। जब सूरज डूबा मेरा जी बहुत ऊबा।
सुहानी सी अमराइयाँ ताड़ के मैं उनमें गया, तो उन अमराइयों
का पत्ता पत्ता मेरे जी का गाहक हुआ। वहाँ का
यह सौहिला है। कुछ रंडियाँ झूला डाले झूल रही थीं। उनकी
सिरधरी कोई रानी केतकी महाराज जगतपरकास की
बेटी हैं। उन्होंने यह अँगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अँगूठी
उन्होंने ले ली और लिखौट भी लिख दी। सो यह
अँगूठी उनकी लिखौट समेत मेरे लिखे हुए के साथ पहुँचती है।
अब आप पढ़ लीजिए। जिसमें बेटे का जी रह
जाय, सो कीजिए।"
महाराज और महारानी ने अपने बेटे के लिखे हुए पर सोने के
पानी से यों लिखा - "हम दोनों ने इस अँगूठी और लिखौट को अपनी
आँखों से मला। अब तुम इतने कुछ कुढ़ो पचो मत। जो रानी केतकी के
माँ बाप तुम्हारी बात मानते हैं, तो हमारे समधी और समधिन हैं।
दोनों राज एक हो जायेंगे। और जो कुछ नाँह-नूँह ठहरेगी तो जिस
डौल से बन आवेगा, ढाल तलवार के बल तुम्हारी दुल्हन हम तुमसे
मिला देंगे। आज से उदास मत रहा करो। खेलो, कूदो, बोलो चालो,
आनंदें करो। अच्छी घड़ी, सुभ मुहूरत सोच के तुम्हारी ससुराल
में किसी ब्राह्मन को भेजते हैं; जो बात चीतचाही ठीक कर लावे।'
और सुभ घड़ी सुभ मुहूरत देख के रानी केतकी के माँ-बाप के पास
भेजा।
ब्राह्मन जो सुभ मुहूरत देखकर हड़बड़ी से गया था, उस पर बुरी
घड़ी पड़ी। सुनते ही रानी केतकी के माँ-बाप ने कहा - "हमारे
उनके नाता नहीं होने का! उनके बाप-दादे हमारे बापदादे के आगे
सदा हाथ जोड़कर बातें किया करते थे और टुक जो तेवरी चढ़ी देखते
थे, बहुत डरते थे। क्या हुआ, जो अब वह बढ़ गए, ऊँचे पर चढ़ गए।
जिनके माथे हम बाएँ पाँव के अँगूठे से टीका लगावें, वह
महाराजों का राजा हो जावे। किसी का मुँह जो यह बात हमारे मुँह
पर लावे!" ब्राह्मण ने जल-भुन के कहा - "अगले भी बिचारे ऐसे ही
कुछ हुए हैं।
राजा सूरजभान भी भरी सभा में कहते थे - हममें उनमें कुछ गोत का
तो मेल नहीं। यह कुँवर की हठ से
कुछ हमारी नहीं चलती। नहीं तो ऐसी ओछी बात कब हमारे मुँह से
निकलती।" यह सुनते ही उन महाराज ने ब्राह्मन के सिर पर फूलों
की चँगेर फेंक मारी और कहा - "जो ब्राह्मण की हत्या का धड़का न
होता तो तुझको अभी चक्की में दलवा डालता।" और अपने लोगों से
कहा - "इसको ले जाओ और ऊपर एक अँधेरी कोठरी में मँूद रक्खो।"
जो इस ब्राह्मन पर बीती सो सब उदैभान के माँ-बाप ने सुनी।
सुनते ही लड़ने के लिये अपना ठाठ बाँध के भादों के दल बादल
जैसे घिर आते हैं, चढ़ आया। जब दोनों महाराजों में लड़ाई होने
लगी, रानी केतकी सावन-भादों के रूप रोने लगी; और दोनों के जी
में यह आ गई - यह कैसी चाहत जिसमें लोह बरसने लगा और अच्छी
बातों को जी तरसने लगा।
कुँवर ने चुपके से यह कहला भेजा - "अब मेरा कलेजा टुकड़े
टुकड़े हुआ जाता है। दोनों महाराजाओं को
आपस में लड़ने दो। किसी डौल से जो हो सके, तो मुझे अपने पास
बुला लो। हम तुम मिलके किसी और देस निकल चलें; होनी हो सो हो,
सिर रहता रहे, जाता जाय।"
एक मालिन, जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे, उसने उस कुँवर की
चिट्ठी किसी फूल की पंखड़ी में लपेट
लपेट कर रानी केतकी तक पहुँचा दी। रानी ने उस चिट्ठी को अपनी
आँखों लगाया और मालिन को एक थाल भर के मोती दिए; और उस चिट्ठी
की पीठ पर अपने मुँह की पीक से यह लिखा - "ऐ मेरे जी के
ग्राहक, जो तू मुझे बोटी बोटी कर के चील-कौंवों को दे डाले, तो
भी मेरी आँखों चैन और कलेजे सुख हो। पर यह बात भाग चलने की
अच्छी नहीं। इसमें एक बाप-दादे के चिट लग जाती है; और जब तक
माँ-बाप जैसा कुछ होता चला आता है उसी डौल से बेटे-बेटी को
किसी पर पटक न मारें और सिर से किसी के चेपक न दें, तब तक यह
एक जो तो क्या, जो करोड़ जी जाते रहें तो कोई बात हमें रूचती
नहीं।"
वह चिठ्ठी जो बिस भरी कुँवर तक जा पहुँची, उस पर कई एक थाल
सोने के हीरे, मोती, पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा
देता है। और जितनी उसे बेचैनी थी, उससे चौगुनी पचगुनी हो जाती
है। और उस चिठ्ठी को अपने उस गोरे डंड पर बाँध लेता है।
आना जोगी महेंदर गिर का कैलास पहाड़ पर से और कुँवर
उदैभान और उसके माँ-बाप को हिरनी हिरन कर डालना
जगतपरकास अपने गुरू को जो कैलास पहाड़ पर रहता था, लिख भेजता
है - कुछ हमारी सहाय कीजिए।
महाकठिन बिपताभार हम पर आ पड़ी है। राजा सूरजभान को अब यहाँ तक
वाव बँहक ने लिया है, जो उन्होंने हम से महाराजों से डौल किया
है।
सराहना जोगी जी के स्थान का
कैलास पहाड़ जो एक डौल चाँदी का
है, उस पर राजा जगतपरकास का गुरू, जिसको महेंदर गिर सब इंदरलोक
के लोग कहते थे, ध्यान ज्ञान में कोई ९० लाख अतीतों के साथ
ठाकुर के भजन में दिन रात लगा रहता था।
सोना, रूपा, ताँबे, राँगे का बनाना तो क्या और गुटका मुँह में
लेकर उड़ना परे रहे, उसको और बातें इस इस
ढब की ध्यान में थीं जो कहने सुनने से बाहर हैं। मेंह सोने
रूपे का बरसा देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके
आगे खेल था। गाने बजाने में महादेव जी छूट सब उसके आगे कान
पकड़ते थे। सरस्वती जिसकी सब लोग कहते थे, उनने भी कुछ कुछ
गुनगुनाना उसी से सीखा था।
उसके सामने छ: राग छत्तीस रागिनियाँ
आठ पहर रूप बँदियों का सा धरे हुए उसकी सेवा में सदा हाथ जोड़े
खड़ी रहती थीं। और वहाँ अतीतों को गिर कहकर पुकारते थे -
भैरोगिर, विभासगिर, हिंडोलगिर, मेघनाथ, केदारनाथ, दीपकसेन,
जोतिसरूप सारंगरूप। और अतीतिनें उस ढब से कहलाती थीं - गुजरी,
टोड़ी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली। जब चाहता, अधर में
सिधासन पर बैठकर उड़ाए फिरता था और नब्बें लाख अतीत
गुटके अपने मुँह में लिए, गेरूए वस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके
साथ होते थे। जिस घड़ी रानी केतकी के बाप की चिठ्ठी एक बगला
उसके घर पहुँचा देता है, गुरू महेंदर गिर एक चिग्घाड़ मारकर दल
बादलों को ढलका देता है।
बघंबर पर बैठे भभूत अपने मुँह से मल कुछ कुछ पढंत़ करता हुआ
बाव के घोड़े भी पीठ लगा और सब अतीत मृगछालों पर बैठे हुए
गुटके मुँह में लिए हुए बोल उठे - गोरख जागा और मुंछदर भागा।
एक आँख की झपक में वहाँ आ पहुँचता है जहाँ दोनों महाराजों में
लड़ाई हो रही थी। पहले तो एक काली आँधी आई; फिर ओले बरसे; फिर
टिड्डी आई। किसी को अपनी सुध न रही। राजा सूरजभान के जितने
हाथी घोड़े और जितने लोग और भीड़ भाड़ थी, कुछ न समझा कि क्या
किधर गई और उन्हें कौन उठा ले गया। राजा जगत परकास के लोगों पर
और रानी केतकी के लोगों पर क्योड़े की बँूदों की नन्हीं-नन्हीं
फुहार सी पड़ने लगी। जब यह सब कुछ हो चुका, तो गुरूजी ने
अतीतियों से कहा - "उदैभान, सूरजभान, लछमीबास
इन तीनों को हिरनी हिरन बना के किसी बन में छोड़ दो; और जो
उनके साथी हों, उन सभों को तोड़ फोड़ दो।"
जैसा गुरूजी ने कहा, झटपट वही किया। विपत का मारा कुँवर उदैभान
और उसका बाप वह राजा सूरजभान
और उसकी माँ लछमीबास हिरन हिरनी वन गए। हरी घास कई बरस तक चरते
रहे; और उस भीड़ भाड़ का तो कुछ थल बेड़ा न मिला, किधर गए और
कहाँ थे बस यहाँ की यहीं रहने दो। फिर सुनो। अब रानी केतकी के
बाप महाराजा जगतपरकास की सुनिए। उनके घर का घर गुरूजी के पाँव
पर गिरा और सबने सिर झुकाकर कहा - "महाराज, यह आपने बड़ा काम
किया। हम सबको रख लिया। जो आज आप न पहुँचते तो क्या रहा था। सब
ने मर मिटने की ठान ली थी।
इन पापियों से कुछ न चलेगी, यह जानते थे। राज पाट हमारा अब
निछावर करके जिसको चाहिए, दे डालिए; राज हम से नहीं थम सकता।
सूरजभान के हाथ से आपने बचाया। अब कोई उनका चचा चंद्रभान चढ़
आवेगा तो क्योंकर बचना होगा? अपने आप में तो सकत नहीं। फिर ऐसे
राज का फिट्टे मुँह कहाँ तक आपको सताया करें।" जोगी महेंदर गिर
ने यह सुनकर कहा - "तुम हमारे बेटा बेटी हो, अनंदे करो,
दनदनाओ, सुख चैन से रहों। अब वह कौन है जो तुम्हें आँख भरकर और
ढब से देख सके। वह बघंबर और यह भभूत हमने तुमको दिया। जो कुछ
ऐसी गाढ़ पड़े तो इसमें से एक रोंगटा तोड़ आग में फूंक दीजियो।
वह रोंगटा फुकने न पावेगा जो बात की बात में हम आ पहुँचेंगे।
रहा भभूत, सो इसलिये है जो कोई इसे अंजन करै, वह सबको देखै और
उसे कोई न देखै, जो चाहै सो करै।"
जाना गुरूजी का राजा के घर
गुरू महेंदर गिर के पाँव पूजे और धनधन महाराज कहे। उनसे तो कुछ
छिपाव न था। महाराज जगतपरकास उनको मुर्छल करते हुए अपनी
रानियों के पास ले गए। सोने रूपे के फूल गोद भर-भर सबने निछावर
किए और माथे रगड़े। उन्होंने सबकी पीठें ठोंकी।
रानी केतकी ने भी गुरूजी को दंडवत की; पर जी में बहुत सी गुरू
जी को गालियाँ दी। गुरूजी सात दिन सात रात यहाँ रह कर जगतपरकास
को सिंघासन पर बैठाकर अपने बघंबर पर बैठ उसी डौल से कैलाश पर आ
धमके और राजा जगतपरकास अपने अगले ढब से राज करने लगा।
रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना और पिछली बातों का ध्यान कर
जान से हाथ धोना।
दोहरा
(अपनी बोली की धुन में)
रानी को बहुत सी बेकली थी।
कब सूझती कुछ बुरी भली थी।।
चुपके चुपके कराहती थी।
जीना अपना न चाहती थी।।
कहती थी कभी अरी मदनबान।
है आठ पर मुझे वही ध्यान।।
याँ प्यास किसे किसे भला भूख।
देखूँ वही फिर हरे हरे रूख।।
टपके का डर है अब यह कहिए।
चाहत का घर है अब यह कहिए।।
अमराइयों में उनका वह उतरना।
और रात का साँय साँय करना।।
और चुपके से उठके मेरा जाना।
और तेरा वह चाह का जताना।।
उनकी वह उतार अँगूठी लेनी।
और अपनी अँगूठी उनको देनी।।
आँखों में मेरे वह फिर रही है।
जी का जो रूप था वही है।।
क्योंकर उन्हें भूलूँ क्या करूँ मैं।
माँ बाप से कब तक डरूँ मैं।।
अब मैंने सुना है ऐ मदनबान।
बन बन के हिरन हुए उदयभान।।
चरते होंगे हरी हरी दूब।
कुछ तू भी पसीज सोच में डूब।।
मैं अपनी गई हूँ चौकड़ी भूल।
मत मुझको संुघा यह डहडहे फूल।।
फूलों को उठाके यहाँ से लेजा।
सौ टुकड़े हुआ मेरा कलेजा।।
बिखरे जी को न कर इकट्ठा।
एक घास का ला के रख दे गट्ठा।।
हरियाली उसी की देख लूँ मैं।
कुछ और तो तुझको क्या कहूँ मैं।।
इन आँखों में हैं फड़क हिरन की।
पलकें हुई जैसे घासवन की।।
जब देखिए डब-डबा रही है।
ओसें आंसू की छा रही हैं।।
यह बात जो जी में गड़ गई है।
एक ओस-सी मुझ पै पड़ गई है।
इसी डौल जब अकेली होती तो मदनवान के साथ ऐसे कुछ मोती पिरोती।
रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदनवान का साथ देने से
नाहीं करना और लेना उसी भभूत का, जो गुरूजी दे गए थे,
आँख-मिचौबल के बहाने अपनी माँ रानी कामलता से।
एक रात रानी केतकी ने अपनी माँ रानी कामलता को भुलावे में
डालकर यों कहा और पूछा - "गुरूजी गुसाई महेंदर गिर ने जो भभूत
मेरे बाप को दिया है, वह कहाँ रक्खा है और उससे क्या होता है?"
रानी कामलता बोल उठी - आँख-मिचौवल खेलने के लिये चाहती हूँ। जब
अपनी सहेलियों के साथ खेलूँ और चोर बनूँ तो मुझको कोई पकड़ न
सके।"
महारानी ने कहा - "वह खेलने के लिये नहीं हैं। ऐसे लटके किसी
बुरे दिन के सँभालने को डाल रखते हैं। क्या जाने कोई घड़ी कैसी
है, कैसी नहीं।"
रानी केतकी अपनी माँ की इस बात पर अपना मुँह थुथा कर उठ गई और
दिन भर खाना न खाया। महाराज ने जो बुलाया तो कहा मुझे रूच
नहीं। तब रानी कामलता बोल उठीं- "अजी तुमने सुना भी, बेटी तुम्हारी आँख मिचौवल खेलने क लिये
वह भभूत गुरूजी का दिया माँगती थी।
मैंने न दिया और कहा, लड़की यह लड़कपन की बातें अच्छी नहीं।
किसी बुरे दिन के लिये गुरूजी गए हैं। इसी पर मुझ से रूठी है।
बहुतेरा बहलाती हूँ, मानती नहीं।"
महाराज ने कहा - "भभूत तो क्या, मुझे अपना जी भी उससे प्यारा
नहीं। मुझे उसके एक पहर के बहल जाने पर एक जी तो क्या, जो करोर
जी हों तो दे डालें।"
रानी केतकी को डिबिया में से थोड़ा सा भभूत दिया। कई दिन तलक
आँख मिचौवल अपने माँ-बाप के सामने सहेलियों के साथ खेलती सबको
हँसाती रही, जो सौ सौ थाल मोतियों के निछावर हुआ किए, क्या
कहूँ, एक चुहल थी जो कहिए तो करोड़ों पोथियों में ज्यों की
त्यों न आ सके।
रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदन बान का
साथ देने से नहीं करना
एक रात रानी केतकी उसी ध्यान में मदनबान
से यों बोल उठी - "अब मैं निगोडी लाज से कुट करती हूँ, तू मेरा
साथ दे।" मदनबान ने कहा - क्यों कर? रानी केतकी ने वह भभूत का
लेना उसे बताया और यह सुनाया -
"यह सब आँख-मिचौवल के झाई झप्पे मैंने इसी दिन के लिये कर
रक्खे थे।"
मदनबान बोली - "मेरा कलेजा थरथराने लगा। अरी यह माना जो तुम
अपनी आँखों में उस भभूत का अंजन कर लोगी और मेरे भी लगा दोगी
तो हमें तुम्हें कोई न देखेगा। और हम तुम सब को देखेंगी। पर
ऐसी हम कहाँ जी चली हैं। जो बिन साथ, जोबन लिए, बन-बन में पड़ी
भटका करें और हिरनों की सींगों पर दोनों हाथ डालकर लटका करें,
और जिसके लिए यह सब कुछ है, सो वह कहाँ? और होय तो क्या जाने
जो यह रानी केतकी है और यह मदनबान निगोड़ी नोची खसोटी उजड़ी
उनकी सहेली है। चूल्हे और भाड़ में जाय यह चाहत जिसके लिए आपकी
माँ-बाप का राज-पाट सुख नींद लाज छोड़कर नदियों के कछारों में
फिरना पड़े, सो भी बेडौल। जो वह अपने रूप में होते तो भला
थोड़ा बहुत आसरा था।
ना जी यह तो हमसे न हो सकेगा। जो महाराज जगतपरकास और महारानी
कामलता का हम जान-बूझकर घर उजाड़ें और इनकी जो इकलौती लाडली
बेटी है, उसको भगा ले जायें और जहाँ तहाँ उसे भटकावें और
बनासपत्ति खिलावें और अपने घोड़ें को हिलावें। जब तुम्हारे और
उसके माँ बाप में लड़ाई हो रही थी और उनने उस मालिन के हाथ
तुम्हें लिख भेजा था जो मुझे अपने पास बुला लो, महाराजों को
आपस में लड़ने दो, जो होनी हो सो हो; हम तुम मिलके किसी देश को
निकल चलें; उस दिन न समझीं। तब तो वह ताव भाव दिखाया। अब जो वह
कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप तीनों जी हिरनी हिरन बन गए। क्या
जाने किधर होंगे। उनके ध्यान पर इतनी कर बैठिए जो किसी ने
तुम्हारे घराने में न की, अच्छी नहीं। इस बात पर पानी डाल दो;
नहीं तो बहुत पछताओगी और अपना किया पाओगी। मुझसे कुछ न हो
सकेगा। तुम्हारी जो कुछ अच्छी बात होती, तो मेरे मुँह से जीते
जी न निकलता। पर यह बात मेरे पेट में नहीं पच सकती। तुम अभी
अल्हड़ हो। तुमने अभी कुछ देखा नहीं। जो ऐसी बात पर सचमुच ढलाव
देखूँगी तो तुम्हारे बाप से कहकर यह भभूत जो बह गया निगोड़ा
भूत मुछंदर का पूत अवधूत दे गया है, हाथ मुरकवाकर छिनवा लूँगी।"
रानी केतकी ने यह रूखाइयाँ मदनबान की सुनकर हँसकर टाल दिया और
कहा - "जिसका जी हाथ में न हो, उसे ऐसी लाखों सूझती है; पर
कहने और करने में बहुत सा फेर है। भला यह कोई अँधेर है जो माँ
बाप, रावपाट, लाज छोड़कर हिरन के पीछे दौड़ती करछालें मारती
फिरूँ। पर अरी तू तो बड़ी बावली चिड़िया है जो यह बात सच जानी
और मुझसे लड़ने लगी।"
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