महिला की वह
मुस्कान ऐसी थी जैसे पीड़ा को दबा कर कर्तव्य पूरा किया गया
हो। महिला के साधारणत: दुबले हाथ-पाँवों पर लगभग एक शरीर का
बोझ पेट पर बँध जाने के कारण उसे मोटर से उतरने में भी कष्ट हो
रहा था। बिखरे जाते अपने शरीर को सँभालने में उसे ही असुविधा
हो रही थी जैसे सफर में बिस्तर के बन्द टूट जाने पर उसे सँभलना
कठिन हो जाता है। महिला लँगड़ाती हुई कुछ ही कदम चल पायी कि
जयराज ने एक डाँडी (डोली) को पुकार उसे चार आदमियों के कंधों
पर लदवा दिया।
सौजन्य के
नाते उसे डाँडी के साथ चलना चाहिए था परन्तु उस शिथिल और विरूप
आकृति के समीप रहने में जयराज को उबकाई और ग्लानि अनुभव हो रही
थी।
नीता बंगले
पर पहुँच कर एक अलग कमरे में पलंग पर लेट गई। जयराज के कानों
में उस कमरे से निरन्तर 'आह! ऊँह!' की दबी कराहट पहुँच रही थी।
उसने दोनों कानों में उँगलियाँ दबा कर कराहट सुनने से बचना
चाहा परन्तु उसे शरीर के रोम-रोम से वह कराहट सुनाई दे रही थी।
वह नीता की विरूप आकृति, रोग और बोझ से शिथिल, लंगड़ा-लंगड़ा
कर चलते शरीर को अपनी स्मृति के पट से पोंछ डालना चाहता था
परन्तु वह बरबस आकर उसके सामने खड़ा हो जाता। नीता जयराज को उस
मकान के पूरे वातावरण में समा गई अनुभव हो रही थी। जयराज का मन
चाह रहा था, बंगले से कहीं दूर भाग जाए।
दूसरे दिन
सुबह सूर्य की प्रथम किरणें बरामदे में आ रही थीं। सुबह की हवा
में कुछ खुश्की थी। जयराज नीता के कमरे से दूर, बरामदे में
आरामकुर्सी पर बैठ गया। नीता भी लगातार लेटने से ऊब कर कुछ
ताजी हवा पाने के लिए अपने शरीर को सँभाले, लँगड़ाती-लँगड़ाती
बरामदे में दूसरी कुर्सी पर आ बैठी। उसने कराहट को गले में
दबा, जयराज को नमस्कार कर हाल-चाल पूछ कर कहा, ''मुझे तो शायद
सफर की थकावट या नई जगह के कारण रात नींद नहीं आ सकी।''
जयराज के लिए
वहाँ बैठे रहना असम्भव हो गया। वह उठ खड़ा हुआ और कुछ देर में
लौटने की बात कह बँगले से निकल गया। परेशानी में वह इस सड़क से
उस सड़क पर मीलों घूमता इस संकट से मुक्ति का उपाय सोचता रहा।
छुटकारे के लिए उसका मन वैसे ही तड़प रहा था जैसे चिड़िमार के
हाथ में फँस गई चिड़िया फड़फड़ाती है। उसे उपाय सूझा। वह तेज
कदमों से डाकखाने पहुँचा। एक तार उसने सोम को दे दिया, ''अभी
बनारस से तार मिला है कि रोग-शैया पर पड़ी माँ मुझे देखने के
लिए छटपटा रही हैं। इसी समय बनारस जाना अनिवार्य है। मकान का
किराया छ: महीने का पेशगी दे दिया है। नौकर यहीं रहेगा। हो सके
तो तुम आकर पत्नी के पास रहो।''
यह तार दे वह
बंगले पर लौटा। नौकर को इशारे से बुलाया। एक सूटकेस में आवश्यक
कपड़े ले उसने नौकर को विश्वास दिलाया कि दो दिन के लिए बाहर
जा रहा है। सोम को दी हुई तार की नकल अपने जाने के बाद नीता को
दिखाने के लिए दे दी और हिदायत की, ''बीबी जी को किसी तरह का
भी कष्ट न हो।''
बनारस में
जयराज को रानीखेत से लिखा सोम का पत्र मिला। सोम ने मित्र की
माता के स्वास्थ्य के लिए चिन्ता प्रकट की थी और लिखा था कि
हाईकोर्ट में अवकाश हो गया है। वह रानीखेत पहुँच गया है। वह और
नीता उसके लौट आने की प्रतीक्षा उत्सुकता से कर रहे हैं।
जयराज ने
उत्तर में सोम को धन्यवाद देकर लिखा कि वह मकान और नौकर को
अपना ही समझ कर निस्संकोच वहाँ रहे। वह स्वयं अनेक कारणों से
जल्दी नहीं लौट सकेगा। सोम बार-बार पत्र लिखकर जयराज को बुलाता
रहा परन्तु जयराज रानीखेत न लौटा। आखिर सोम मकान और सामान नौकर
को सहेज, नीता के साथ इलाहाबाद लौट गया। यह समाचार मिलने पर
जयराज ने नौकर को सामान सहित बनारस बुलवा लिया।
जयराज के
जीवन में सूनेपन की शिकायत का स्थान अब सौन्दर्य के धोखे के
प्रति ग्लानि ने ले लिया। जीवन की विरूपता और वीभत्सता का आतंक
उसके मन पर छा गया। नीता का रोग से पीड़ित, बोझिल कराहता हुआ
रूप उसकी आँखों के सामने से कभी न हटने की जिद कर रहा था।
मस्तिष्क में समायी हुई ग्लानि से छुटकारा पाने का दृढ़ निश्चय
कर वह सीधा कश्मीर पहुँचा। फिर बरफानी चोटियों क बीच कमल के
फूलों से घिरी नीली डल झील में शिकारे पर बैठ उसने सौन्दर्य के
प्रति अनुराग पैदा करना चाहा। पुरी और केरल में समुद्र के
किनारे जा उसने चाँदनी रात में ज्वार-भाटे का दृश्य देखा। जीवन
के संघर्ष से गूँजते नगरों में उसने अपने-आप को भुला देना चाहा
परन्तु मस्तिष्क में भरे हुए नारी की विरूपता के यथार्थ ने
उसका पीछा न छोड़ा। वह बनारस लौट आया और अपने ऊपर किए गए
अत्याचार का बदला लेने के लिए रंग और कूची लेकर कैनवेस के
सामने जा खड़ा हुआ।
जयराज ने एक
चित्र बनाया, पलंग पर लेटी हुई नीता का। उसका पेट फूला हुआ था,
चेहरे पर रोग का पीलापन, पीड़ा से फैली हुई आँखें, कराहट में
खुल कर मुड़े हुए होंठ, हाथ-पाँव पीड़ा से ऐंठे हुए।
जयराज यह
चित्र पूरा कर ही रहा था कि उसे सोम का पत्र मिला। सोम ने अपने
पुत्र के नामकरण की तारीख बता कर बहुत ही प्रबल अनुरोध किया था
कि उस अवसर पर उसे अवश्य ही इलाहाबाद आना पड़ेगा। जयराज ने
झुंझलाहट में पत्र को मोड़ कर फेंक दिया, फिर औचित्य के विचार
से एक पोस्टकार्ड लिख डाला, धन्यवाद, शुभकामना और बधाई। आता तो
जरूर परन्तु इस समय स्वयं मेरी तबियत ठीक नहीं। शिशु को
आशीर्वाद।
सोम और नीता
को अपने सम्मानित और कृपालु मित्र का पोस्टकार्ड शनिवार को
मिला। रविवार वे दोनों सुबह की गाड़ी से बनारस जयराज के मकान
पर जा पहुँचे। नौकर उन्हें सीधे जयराज के चित्र बनाने की
टिकटिकी पर ही चढ़ा हुआ था। सोम और नीता की आँखें उस चित्र पर
पड़ी और वहीं जम गई।
जयराज अपराध
की लज्जा से गड़ा जा रहा था। बहुत देर तक उसे अपने अतिथियों की
ओर देखने का साहस ही न हुआ और जब देखा ते नीता गोद में किलकते
बच्चे को एक हाथ से कठिनता से सँभाले, दूसरे हाथ से साड़ी का
आँचल होठों पर रखे अपनी मुस्कराहट छिपाने की चेष्टा कर रही थी।
उसकी आँखें गर्व और हँसी से तारों की तरह चमक रही थीं। लज्जा
और पुलक की मिलवट से उसका चेहरा सिंदूरी हो रहा था।
जयराज के
सामने खड़ी नीता, रानीखेत में नीता को देखने से पहले और उसके
सम्बन्ध में बताई कल्पनाओं से कहीं अधिक सुन्दर थी। जयराज के
मन को एक धक्का लगा, ओह धोखा! और उसका मन फिर धोखे की ग्लानि
से भर गया।
जयराज ने उस
चित्र को नष्ट कर देने के लिए समीप पड़ी छुरी हाथ में उठा ली।
उसी समय नीता का पुलक भरा शब्द सुनाई दिया, ''इस चित्र का
शीर्षक आप क्या रखेंगे?''
जयराज का हाथ रुक गया। वह नीता के चेहरे पर गर्व और अभिमान के
भाव को देखता स्तब्ध खड़ा था।
कलाकार को
अपने इस बहुत ही उत्कृष्ट चित्र के लिए कोई शीर्षक न खोज सकते
देख नीता ने अपने बालक को अभिमान से आगे बढ़ा, मुस्कुराकर
सुझाया, ''इस चित्र का शीर्षक रखिए 'सृजन की पीड़ा'।'' |