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दो पल

साहूकार
अश्विन गाँधी

 पच्छिम की दुनिया से निवृत्ति ले कर मैं भारत वापिस लौटा। प्रकृति के सान्निध्य में एक घर बनाया। मेरा घर बड़े शहरों से दूर है। आसपास की प्रजा आदिवासी है और ज्यादातर खेती करती है। प्रजा अनपढ़ है, गरीब है, मगर छलकपट की मात्रा काफी कम-सी है।

शंकर कोई तीस साल का होगा। खास कुछ पढ़ा लिखा हुआ नहीं है मगर छोटे मोटे काफी काम करना जानता है। बीबी है, तीन बच्चे है, माँ-बाप है, बड़ा परिवार है। परिवार में तीन एकड़ की जमीन है। शंकर खेती संभालता है और साथ साथ में बंगलों को चारों ओर से घेरती बाड़ लगाने के काम का ठेका भी लेता है। जब से मैं यहाँ आया तब से मैं शंकर को पहचानता हूँ। बड़ा नेक और धार्मिक इंसान है। पूजा-पाठ ध्यान-धरम सब करता है। मालूम नहीं कितना समझता होगा मगर पुराने ग्रंथों के श्लोक इत्यादि भी रट लेता है। सन्यासी की तरह प्रातः प्रातः नदी के ठंडे पानी में स्नान करता है, और साल मे एक बार कहीं दूर कोई मंदिर में पद-यात्रा कर के दर्शन करने जाता है।

एक बार मेरी साइकिल खराब हो गई। पंक्चर होगा और टायर बदलना भी जरूरी था। शंकर सब सामान ले के आया और साइकिल को दुरस्त करना शुरू कर दिया। बातों ही बातों में, कहने लगा,
“मुझे अब जिंदा नहीं रहना है ! ”
मैं तो अवाक् रह गया, भला तीस साल का युवा ऐसा क्यों कहेगा ?
“क्या हुआ शंकर ? ”

शंकर ने अपनी दास्तान सुनानी शुरू की। “ चाचा की बेटी की शादी थी। कोई एक साल पहले की बात है। पैसों की जरूरत थी। न चाचा के पास पैसे थे, न पिताजी के पास। मैने छाती ठोक के कहा, मैं दस हज़ार रुपैए दूँगा। पैसे तो मेरे पास भी नहीं थे। नज़दीकी एक बड़े गाँव के साहूकार के पास पहुँचा। कुछ दस्तखत करवाए। पैसे ले के आया। महीने महीने बीस प्रतिशत सूद देना होगा। शादी के लिये पैसे कम पड़े। और पाँच हज़ार ले के आया। शादी अच्छी तरह हो गयी। मेरी काफी सराहना हुयी। मैं महीना महीना ठीक से सूद दे नहीं पाया। आज वो पन्द्रह हज़ार के बीस हज़ार बन गए है, और मुझे हर महीने चार हज़ार का सूद देना होता है जो मेरे बस के बाहर है। रात को सो नही सकता हूँ, और खाने को मन
नहीं करता है।”

बहुत सारी सोचे आने लगी मेरे दिमाग में। “अरे, तू पागल है क्या? बैंक में क्यों नहीं गया? बीस प्रतिशत सूद तो बैंक साल भर का भी नहीं लेती!”
“बैंक जाना बेकार था। खेती के और जमीं के कागज़ात माँगते। बहुत समय लेते और कोई पक्की बात नहीं कि वो पैसा देते।”
“गाँव मे क्या एक ही साहूकार है ? इधर उधर कुछ पूछा नहीं?”
“है कुछ और भी। दूसरे जो लायसंस वाले है, वो कानून के हिसाब से इतना सूद नहीं लेते, मगर वो इतनी छोटी रकम का धंधा नहीं करते। मुझे और कोई चारा नहीं था।”
“तो आज तक कितना सूद दे दिया होगा तुम ने?”
करीबन बीस हज़ार तो दे दिया होगा।”

मैं तो ताज्जुब रह गया ! बीस हज़ार की मूड़ी पर बीस हज़ार का सूद, और वो भी चंद महीनो में ! अमीरी –गरीबी, पश्चिमी-पूरबी, सामाजिक-नैतिक-राजनैतिक, कई बातों का दिमाग मे संघर्ष होने लगा। खैर, अभी तो शंकर को मदद करनी चाहिये, साहूकार के पंजों से छुड़ाना चाहिये।

“शंकर, मैं तुम्हारे बीबी-बच्चो को जानता हूँ। तुम परिवार के साथ मेरे घर दो तीन बार भी आए हो। मेरे माँ-बाप से भी कई बार मिले हो। तुम ने मेरे घर का और कंपाउंड का भी छोटा मोटा काम किया है। तुम एक नेक इंसान हो। मैं तुम्हारी मदद करुँगा, मगर मेरे तरीक़े से।”

शंकर मूक रहा, और मेरे सामने ताकता रहा। “ कर्ज़मुक्त होने के लिये कितने पैसे ज़रूरी होंगे?”

इस महीने के चार हज़ार के सूद में से सिर्फ दो हज़ार दे पाया हूँ। कुल मिला के बाइस हज़ार देने होंगे।”
“ तुम्हारी कोई बचत है ? कुछ कहीं जमा किया है जो इस्तेमाल कर सको ?”
“ हाँ, बैंक में कोई दस हज़ार जमा किये हुए है जो मैं इस्तेमाल कर सकता हूँ।”
“ ठीक है, वो पैसे मेरे पास ले के आ, फिर आगे हम कैसे क्या करना है वो सोचते हैं।”
दो दिन के बाद शंकर आया। उस के पास दस हज़ार रुपए थे। मैंने अपनी सोच बताना शुरू किया। “ तुम्हारे दस हज़ार और मेरे बारह हज़ार मिला के बाइस हज़ार बनेंगे। तुम कल ही सुबह साहूकार के पास जाओगे, और सब कर्ज चुका दोगे। सब कागज़ात ले कर आओगे और मुझे दिखाओगे। अब तुम्हारा बारह हज़ार का कर्ज मुझसे हुआ। बारह हज़ार मैं तुम्हें भेंट नहीं दे रहा हूँ। वो तुम्हें मुझे लौटाने होंगे। मैं कोई सूद नहीं लूँगा। जो भी सूद तुम वहाँ देते थे वो अब नहीं देना होगा। उसे तुम मेरी भेंट समझ सकते हो। हर महीने की आखरी तारीख को मुझे दो हज़ार रुपैए लौटाना होगा। छ: महीने में तुम कर्जमुक्त हो जाओगे। मेरे पैसे वापिस करने में गरबड़ी हुई तो मुझे दर्द होगा। मेरा इंसानियत पर भरोसा कम हो जाएगा, और कहीं ओर जगह मदद करने में मैं झिझक जाऊँगा। समय पर तुम मुझे मिलने नहीं आए और महीने का
हिस्सा मुझे वापिस नहीं आया तो मुझे अशांति हो जाएगी। क्या ये सब तुम्हें मंज़ूर है, शंकर ? ”

शंकर की आँखें गीली थी। मेरे पाँव छुए, और कहने लगा, “ आप मेरे लिये भगवान है। मुझे सब मंज़ूर है। आप को शिकायत का कोई मौका नहीं दूँगा। ”
दूसरे दिन शंकर मुझे कागज़ात दिखाने आया। सब ठीक था। शंकर की सूदवाली उधारी ख़तम हो गयी और सूदमुक्त उधारी शुरू हुई। अगर वो हर महीने के अंत में दो हज़ार लौटाने आया तो छ: महीने में उसकी दुनिया ही बदल जाएगी। ऋणमुक्त जीवन जीना शुरू करेगा। महीने की आखिरी तारीख समीप आई और चली भी गई। शंकर के दर्शन नहीं हुए। कुछ और दिन गुज़र गए। शंकर का कोई फोन नहीं, कोई समाचार नहीं। वैसे तो यहाँ पढ़े-लिखे और अनपढ़ में कोई फर्क नहीं, सब वादा करते हैं और आसानी से भूल जाते हैं। फिर भी सोचा, मुझे फोन करना चाहिये, कहीं शंकर मुसीबत में ना हो। “ शंकर, कुछ दिनों से मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था। महीने की आखिरी तारीख जो चली गयी ! ”
“ मैं आने वाला ही था। मेरे पास पैसे नहीं थे। मेरी नानी चल बसी, उसमें खर्चा हो गया। ”
“ तो फिर मुझे फोन करना चाहिये ना ? मैं खामखां शंका-कुशंका के चक्कर में डूबता रहा ! ”
“ मैं माँफी चाहता हूँ। आगे ऐसी गलती नहीं होंगी। ”
“ तो फिर अब कब आएगा ? ”
जैसे ही दो हज़ार बच जाते हैं, मै आता हूँ। इस महीने के अंत तक ज़रूर हो जाएगा। ”

कोई पाँच महीने हो गए। अब तक शंकर ने दो बार दर्शन दिये और चार हज़ार लौटाए हैं। मुझे मेरे छ: महीने वाले प्लान पर गर्व था। मैं शंकर को आर्थिक व्यवस्था के सबक सिखाने की भी इच्छा रखता था। मेरे लिये पैसो से ज्यादा इंसानियत पर भरोसा, शब्द और वचन की कीमत ज्यादा थी। मैं आगे किसी ओर को मदद करने के लिये झिझकना नहीं चाहता था। इस दरम्यान मैं काफी चिंतित रहा।

एक दोस्त ने एक बार बताया, “तुम जो कर रहे हो वो बहुत अच्छा कर रहे हो। चिंतित होना अच्छी बात नहीं है। किसी को मदद कर ने से खुशी बढनी चाहिये, चिंता नहीं। अगर तुम्हें पैसे के वापसी की ज़रा भी फिक्र है तो वो निकाल दो। अगर इंसान अच्छा है तो पैसे ज़रूर वापिस आएँगे। अगर ना भी आए तो समझ लो कि तुम ने पैसे भेंट दे दिये। अब रही सबक सिखाने की बात। उसमें थोड़ा आहिस्ता और हल्का चलो। बस, आगे बढ़ जाओ, खुशियाँ तुम्हारा इंतज़ार कर रही है ! ”

मैं चिंतामुक्त हो गया, और आगे की सोचने लगा !

 

२५ जुलाई २०११

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