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दो पल

भीतर का अंधेरा
-अश्विन गांधी


बरसों बीत जाते हैं सुंदर बगीचा जीवन में बनाते , क्षण भर लगता है भस्मीभूत होने में। भगवान की इस दुनियाँ में एक ही इन्सान जो बगीचा बनाता है और जो जला भी देता है।
दुनियाँ में कहीं झोपड़े हैं कहीं महल हैं, कहीं जगमगाहट है कहीं अंधेरा है। अंधेरे को हमेशा जगमगाहट की चाहत रही। इंसान के भीतर का अंधेरा कभी कभी इतना घना रहा कि महल की तृषा में बने हुए महल को गिरा दिया।
भगवान ने इन्सान को दिमाग दिया साथ साथ भावनाएं दीं। इन्सान ने भावनाओं की अनुभूति की... सुख, दुख, संतोष, ईष्र्या, लालच . . .एक ऐसा भावनाओं का समूह जिसकी भिन्नता पहचानने में, अच्छे बुरे का फर्क समझने में इन्सान कभी कभी असमर्थ रहा।
आज मनुष्य फिर पागल हो गया। कहीं किसी महल को खंडहर बना दिया। मनुष्य ने मनुष्य की जान ली।भावनाओं की अभिव्यक्ति की मगर ऐसे जहाँ किसी ने जगमगाहट न पायी, अंधेरा और घना हो के रह गया।
चलो हम धर्म से ऊपर उठें। चलो हम धर्म को ऐसे समझें जो इन्सान को इन्सान बनाए।
पीड़ित और घायल से सहानुभुति दिखाए।
चलो भीतर का अंधेरा दूर करने की कोशिश करें,
रोशनी की तलाश में . . .

—अश्विन गांधी

 
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