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आज सिरहाने

 

रचनाकार
अनिलप्रभा कुमार
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प्रकाशक
 भावना प्रकाशन
१०९ - ए, पटपड़गंज, दिल्ली ११००९१
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पृष्ठ - १६६
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मूल्य : भारत में रु- ३००
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प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह

वेब पर दुनिया के हर कोने में

'बहता पानी (कहानी संग्रह)

अमेरिका के प्रवासी हिन्दी लेखकों में पिछले कुछ वर्षों में जिन साहित्यकारों ने अपनी गंभीर रचनात्मकता का परिचय दिया है, अनिल प्रभा कुमार उनमें एक नाम है। उन्होंने न केवल कहानी के क्षेत्र में बल्कि कविता के क्षेत्र में भी अपनी अलग पहचान बनाई है। उनकी कहानियाँ जीवनानुभूति की उस वास्तविकता से परिचित करवाती हैं जिनसे आमजन दिन-प्रतिदिन गुजरता, जूझता, टूटता और बिखरता है। उनकी कहानियों में पात्रों और परिस्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन प्रतिभासित है।

प्रवासी लेखकों के विषय में प्रायः कहा जाता है कि वे अतीत की यादों के शिकार होते हैं, लेकिन क्या यह बात यहाँ (यानी मुख्यभूमि भारत में) रहकर लेखन कार्य कर रहे लेखकों के संदर्भ में उतनी ही सच नहीं है? लेखक अपने अतीत से मुक्त कैसे हो सकता है! अनेकों वर्षों पूर्व महानगरों में आ बसा एक संवेदनशील लेखक अपने गाँव-गली, कस्बे-मोहल्ले, नगर को भुला नहीं सकता। वह उसकी साँसों में रचा-बसा होता है और किसी न किसी रूप में उसकी रचनात्मकता का हिस्सा बनता है। अनिल प्रभा कुमार की कुछ कहानियों में भी वह विषयानुकूल प्रभावकारी रूप में चित्रित हुआ है। उनका शिल्प उसे और अधिक प्रभावोत्पादक बनाता है।

हाल में अनिल प्रभा कुमार का कहानी संग्रह ‘बहता पानी’ दिल्ली के ’भावना प्रकाशन’ से प्रकाशित हुआ है। संग्रह में उनकी चौदह कहानियाँ संग्रहीत हैं। यद्यपि उनकी प्रत्येक कहानी अमेरिकी परिवेश पर आधारित है तथापि कुछेक में भारतीय परिवेश भी उद्भासित है। काल, परिवेश और वातावरण का निर्धारण रचना की विषयवस्तु पर आधृत होता है। अनिल प्रभा कुमार का कथाकार रचना की अंतर्वस्तु की माँग को बखूबी जानता-पहचानता है और उसे अपने सुगठित शिल्प और सारगर्भित भाषा में पाठकों से परिचित करवाता है. अनेक स्थलों पर उनके वाक्य-विन्यास विमुग्धकारी हैं। छोटे-वाक्यों में बड़ी बात कहने की कला लेखिका के शिल्प कौशल को उद्घाटित करती है। अन्य बात जो पाठक को आकर्षित करती है और पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी कहानी में जो छीजती दिखाई दे रही है वह है रचनाकार का प्रकृति प्रेम। ‘किसलिए’, ‘दीपावली की शाम’, ‘फिर से’ कहानियों में यह दृष्टव्य है। कहानियों की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति उन्हें मार्मिक और सशक्त बनाती है।
 

अनिल प्रभा कुमार के पात्र पाठक में विचलन पैदा करते हैं और उसके अंतर्मन को आप्लावित कर एक अमिट छाप छोड़ते हैं। उनकी एक भी कहानी ऐसी नहीं जो सोचने के लिए विवश नहीं करती और उस सबका कारण उनमें रेखांकित जीवन की विडंबना और विशृंखलता है। ‘उसका इंतजार’ अंदर तक हिला देने वाली एक ऐसी युवती की कहानी है जो मनपसंद युवक की प्रतीक्षा में अपनी आयु की सीढ़ियाँ चढ़ती चालीस तक पहुँच जाती है। यह आज का कटु सच है जो न केवल अमेरिका के किसी प्रवासी भारतीय की बेटी का सच है बल्कि भारत की हर उस दूसरी-तीसरी पढ़ी-लिखी लड़की का सच है जो नौकरी करते हुए अपने पैरों पर खड़ी है। कल, यानी नानी-दादी के कल, की भाँति वह समझौते के लिए तैयार नहीं, क्योंकि जीवन के निर्णय अब वह स्वयं लेती है, भले ही उस निर्णय में चूक हो जाती है। ‘उसका इंतजार’ की विधु के साथ भी यही हुआ। अपनी माँ से विधु का कथन दृष्टव्य है—“माँ, तुम भी यहाँ आकर इन सबसे मिल गई हो? मुझे बछिया की तरह एक अनजाने खूँटे से बाँधने को तैयार हो गईं?” अंत में उसका कथन उसके आत्मविश्वास को दर्शाता है—“जब मैंने इतना इंतजार किया है तो थोड़ा और सही—मैं सिर्फ शादी करने के लिए अपने दिल से समझौता नहीं करूँगी। इतनी हताश नहीं हुई अभी मैं।” लेकिन अनिल प्रभा कुमार यहीं नहीं रुकतीं। एक मनोवैज्ञानिक की भाँति वह विधु के अंतर्मन में झाँकती हैं और विधु का यह कथन पाठक को छील जाता है—“माँ, तुम देखना, एक दिन जरूर आएगा वह। छह फुट लंबा, सुन्दर, आकर्षक, गठीला शरीर, बेहद पढ़ा-लिखा, अमीर, खानदानी, हँसमुख, मुझपर जान छिड़कने वाला, हाजिर जवाब, दिलचस्प, गंभीर, उदार विचारोंवाला, बिल्कुल अमेरिकी मॉडल लगेगा पर मूल्य बिलकुल भारतीय होंगे। मैं उसे देखते ही पहचान लूँगी और वह----.” विधु के होठ बुदबुदा रहे थे लेकिन गाल पर ढुलक आए आँसू का उसे पता ही नहीं चला।

अनिल प्रभा कुमार की कहानियों के अंत उन्हें सिद्धहस्त रचनाकार सिद्ध करते हैं।
‘किसलिए’ कहानी उस व्यक्ति की कहानी है, जो नौकरी से अवकाश प्राप्तकर घर में अपनी बेटी ईशा के ‘पेपे’ (कुत्ता) के साथ रहता है। पत्नी बानी नौकरी के चलते हफ्ते में एक या दो दिन आती है और ईशा बाहर रहती है। ‘पेपे’ उस व्यक्ति के जीवन का इतना अहम हिस्सा बन जाता है कि वह उसके बिना रह नहीं सकता। यह एक जीवंत और वास्तविक कहानी है और ऐसी कहानी वही लिख सकता है जिसने ऐसे क्षण जिए हों। इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे जैक लंडन के ‘काल ऑफ दि वाइल्ड’ की याद आती रही। वह कुत्तों पर ही आधारित है, जिसमें लंडन ने उनका मानवीकरण किया है। यद्यपि अनिल प्रभा की कहानी में ऐसा नहीं है, लेकिन ‘पेपे’ की गतिविधियाँ और मालिक के संकेतों को समझने व कार्यान्वित करने की उसकी क्षमता आकर्षित करती है। वह व्यक्ति उसे बेटे की भाँति प्यार करता है। ढाई हजार डालर खर्च कर उसका ऑपरेशन करवाता है, लेकिन वह उसे बचा फिर भी नहीं पाता। ‘पेपे’ और उस व्यक्ति का जो मनोवैज्ञानिक चित्रण लेखिका ने किया है वह कहानी को अविस्मरणीय बनाता है।

‘गोद भराई’ किसी स्त्री के संतान न होने की पीड़ा और भारत से किसी बच्ची को गोद ले आने को केन्द्र में रखकर लिखी गई है। ‘घर’ अमेरिकी संस्कृति, सभ्यता, और वातावरण को रेखांकित करती है। यह मात्र सलिल और सलीम की कहानी नहीं, उस पूरे समाज की कहानी है जहाँ पति-पत्नी के विलगाव का दुष्प्रभाव बच्चों को झेलना पड़ता है। अकस्मात सलीम की माँ अपने पिता की सिफारिश पर उसके यहाँ आकर रहने वाले महेश के साथ जाकर जब अलग रहने का निर्णय करती है, सलीम इस पीड़ा को बाँट किसी से नहीं पाता लेकिन वह उसे अंदर ही अंदर कुतरती रहती है। मेडिकल में जाने की क्षमता रखने वाला सलीम चिड़ियाघर की छोटी नौकरी करने के लिए अभिशप्त हो जाता है, क्योंकि पिता भी दूसरी शादी करके कनाडा में बस जाते हैं और डाक्टरों ने उसे सलाह दी कि उसे प्रकृति के नजदीक रहना चाहिए। कहानी का अंत बेहद मार्मिक है—“रात की कालिमा खत्म हो चुकी थी। आकाश का रंग ऐसा हो गया, जैसे रात जाने से पहले राख बिखेर गई हो। सलिल वहीं कार में बैठा देखता रहा। सलीम धीरे-धीरे पैर घसीटता हुआ, उस राख के शामियाने के नीचे जा रहा था—अपने घर।” यानी चिड़ियाघर जो अब सलीम का घर था।

‘दीपावली की शाम’ एक ऐसे परिवार की कहानी है जिसके पास अपार संपत्ति है, लेकिन घर का बड़ा लड़का चवालीस साल का और छोटा छत्तीस का…तीन बेटों में कोई भी विवाविह नहीं, और तीन भाइयों के बीच एक बहन भी अविवाहित…। घर का स्वामी अपने घर की तुलना ताजमहल से करता नहीं अघाता लेकिन उसी ताजमहल में दीपावली के दिन सन्नाटा उसे परेशान अवश्य करता है। घर में न कहीं रोशनी न उत्साह। अपनी परेशानी को गृहस्वामी यह कहकर छुपाता है—“अगली दीपावली हिंदुस्तान में मनाएँगे। सभी जाएँगे। बस, पास रोकड़ा होना चाहिए।”

‘फिर से’ कहानी पारिवारिक विघटन को व्याख्यायित करती है। केशी और तिया की कहानी। केशी सेना में युद्धभूमि में और तिया उसकी अनुपस्थिति में उसकी मान मर्यादाओं की सीमाएँ तोड़ती है। लौटकर वह फिर भी बच्चों की खातिर उसके साथ रहने को तैयार हो जाता है, लेकिन तिया को उसका उपकार नहीं चाहिए था। दोनों अलग हो जाते हैं। केशी बच्चों को लेकर अमेरिका जा बसता है। वही तिया जिस क्षण बच्चों से मिलने अमेरिका पहुँचती है उस क्षण को बहुत ही सधे भाव से लेखिका ने कहानी में चित्रित किया है। पुनः मिलकर भी दोनों के अहं टकराते हैं और केशी बेटी संजना के घर से जाने का निर्णय कर लेता है। उस क्षण को कहानी में जिस प्रकार अनिल प्रभा कुमार ने बिम्बायित किया है वह आकर्षक है—“खाली कमरे के बीचों-बीच खड़े वह बाढ़ में सब-कुछ जल-ग्रस्त हो जाने के बाद खड़े एकाकी पेड़ जैसे लग रहे थे। नितांत अकेला, उदास वृक्ष। प्रकृति जैसे उसे पीटने के बाद, रहम खाकर, जिन्दा रहने के लिए छोड़ गई हो।”

‘बरसों बाद’ दो सहेलियों की मिलन गाथा है, जो तीस वर्षों बाद मिलती हैं। अपनी बेटी के प्रसव के लिए अमेरिका पहुँची सहेली, जिसका पति प्रोफेसर था, अपनी पीड़ा जब इन शब्दों में बयान करती है—“नौकरी करती रही न! ऊपर से बीमारियों-तनाव की वजह से। एहसास—बस कौरव महारथियों के बीच अभिमन्यु के घिर जाने जैसा। यूँ ही घर-गृहस्थी के रोज-रोज के ताने, व्यंग्य, आरोप। मुझे लगता है कि जैसे मैं दुनिया की सबसे बुरी औरत हूँ।” वह काँप रही थी। एक आम भारतीय नारी, वह पढ़ी-लिखी नौकरी पेशा है तो क्या, की स्थिति का वास्तविक आख्यान करती यह कहानी कितने ही विचारणीय प्रश्न उत्पन्न करती है।

संग्रह की शीर्षक कहानी ‘बहता पानी’ अमेरिका से भारत आयी एक महिला की कहानी है, जिसके दिल-दिमाग में घर और स्थानों की वही छवि अंकित है जिसे छोड़कर वह प्रवास में गयी थी। उसकी सहेली माधवी का प्रश्न है—“तू पुरानी जगहों से इतनी चिपकी हुई क्यों है?”

“पता नहीं. शायद वह मेरी स्मृतियों के स्थल हैं.” वह आगे कहती है, “शायद मैं उसी पुरानेपन, उन्हीं बिछुड़े सुखों की तलाश में लौटती हूँ। वह मेरा कंफर्ट जोन है। इस नयेपन में मेरी पहचान खो जाती है और मैं अपने को गँवाना नहीं चाहती।” वह भाई से विशेषरूप से अनुरोध कर अपने घर के उन हिस्सों को देखती है जहाँ उसके पिता लेटते थे, जहाँ वह पढ़ती थी। और जब वापस लौटती है, वह मुड़कर उस खिड़की की ओर देखना चाहती है जहाँ खड़े होकर अशक्त पिता उसे विदा करते थे। अपनी पुरानी यादों में जीती यह एक स्त्री की प्रभुविष्णु कहानी है।

‘बेटे हैं न!’ एक वृद्ध माँ की दारुण कथा है, जो पति की आकस्मिक मृत्यु के बाद अपने तीन बेटों में अपना भविष्य सुखी और सुरक्षित देखती है। उसके तीनों बेटे अमेरिका में जा बसते हैं। वह भी अपने सबसे चहेते बेटे प्रकाश के साथ चली जाती है। प्रकाश के बच्चे जब तक छोटे होते हैं सत्या के प्रति प्रकाश की पत्नी अमला का व्यवहार ठीक रहता है, लेकिन जरूरत समाप्त होते ही सत्या उसे बर्दाश्त से बाहर हो जाती है—“तो क्या हमने आपका ठेका ले रखा है?” अपना आपा खो बैठी अमला कहती है। अंततः अमला द्वारा प्रताड़ित-अपमानित सत्या को प्रकाश भारत भेज देता है, जहाँ सत्या की छोटी बहन दमयंती उसे एयरपोर्ट पर रिसीव करती है। दमयंती के पूछने पर, “बहन जी, क्या हो गया?” सत्या फूट पड़ती है, ‘दमी, उस दिन नहीं, पर आज मैं सचमुच विधवा हो गयी हूँ।” कहानी की मार्मिकता पाठक में उद्वेलन उत्पन्न करती है।

‘मैं रमा नहीं’, अमेरिका निवासी एक अपाहिज पति के लिए समर्पित रमा, एक प्रोफेसर और ऐसी आधुनिका युवती की कहानी है जो भारत से शोध और नौकरी के लिए अमेरिका जाती है। एक ओर रमा है जो दूसरों के लिए भोजन पकाकर अपना और अपने उस पति का पोषण कर रही है जो कभी इंजीनियर के रूप में वहाँ गया था, लेकिन एक दुर्घटना के कारण अशक्त जीवन जी रहा था। दूसरी ओर वह युवती है जो अपने पति को छोड़कर टोरटों में रह रहे अपने भाई के मित्र अर्जुन के साथ लिव-इन रिलेशन में रहती है। प्रोफेसर के यह पूछने पर कि, “तुम अर्जुन से विवाह क्यों नहीं कर लेतीं? बाकी सब-कुछ तो वैसा ही है।” वह उत्तर देती है, “विवाह करने से प्रेम के सारे आयाम बदल जाते हैं।” और अंत में वह प्रोफेसर को एक और झटका देती है, “मैं आपको एक बात और बता देना चाहती हूँ…” उसने होंठों को भींचा, “---कि मैं रमा नहीं हूँ।” यह कहानी पीढ़ियों के अंतर को बखूबी दर्शाती है।

‘ये औरतें, वे औरतें’ एक ऐसे सच से पर्दा उठाती है,जहाँ नमिता के घर की नौकरानी तीबा यदि अपने पति से प्रताड़ित है तो वहीं आभिजात्य सिम्मी और नमिता भी हैं। तीबा का पति मामूली-सी बातों में उसे पीटता है, गर्म प्रेशर कुकर से जला देता है तो नमिता का पति जया के साथ अँधेरे का लाभ उठाने पर नमिता के प्रश्न पर उसे थप्पड़ रसीद कर देता है। कहानी अपरिवर्तित सामंती पुरुष मानसिकता, उसकी लंपटता और शोषित-प्रताड़ित नारी जीवन की विडंबना को अत्यंत सार्थकता से अभिव्यक्त करती है। ‘रीती हुई’ , ‘वानप्रस्थ’, और ‘सफेद चादर’ भी उल्लेखनीय कहानियाँ हैं।

अनिलप्रभा कुमार की कहानियों से गुजरते हुए एक महत्वपूर्ण बात यह भी उभरकर आती है कि उनमें एक उपन्यासकार विद्यमान है। ‘बेटे हैं न!’ में एक अच्छे और बड़े औपन्यासिक कथानक की संभावना अंतर्निहित है। यह एक व्यापक फलक की कहानी है।

अंत में, यह कहना अप्रसांगिक न होगा कि अनिल प्रभा कुमार की कहानियाँ ही नहीं, कविताओं की भी मौलिकता, भाषा की प्रांजलता और शिल्प वैशिष्ट्य अनूठा है।

-रूपसिंह चन्देल
९ जुलाई २०१२

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