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शायद मेरे पिता को, जो कि सामाजिक सुरक्षा केंद्र के प्रधान हैं, अपनी इज़्ज़त प्यारी थी, इसलिए मेरी माँ द्वारा लगाए आरोप को बेबुनियाद मानते हुए भी उन्होंने शर्त मान ली थी और कह ही डाला था कि सोफिया वाला नाटक समाप्त! मैंने पड़ोस वालों में भी एकाध बार इस बात की चर्चा सुनी थी, पर जब मेरे पिता उसे लांछन मात्र कह कर अपनी सफाई दे डालते, उस समय मैं भी उसे बेबुनियाद ही समझ बैठता।

उस दिन माँ को अपनी पुरानी बीमारी का दौरा पड़ा और उसे चारपाई लेनी पड़ गयी थी। मेरे पिता ने उसी क्षण कह दिया था कि घर पर बीमारी के अधिक बढ़ जाने की संभावना हैं इसलिए अस्पताल बेहतर होगा। मेरी माँ को यह बात जरा भी पसंद नहीं थी। कहने लगी थी कि अगर मरना है, तो अपने ही घर की चारदीवारी में मरेगी। कुछ मिनट बाद डाक्टर ने भी मेरे पिता की बात का समर्थन करते हुए कहा था कि मेरी माँ के लिए अस्पताल ही एकमात्र स्थान था। जाते-जाते माँ मेरे पिता को कह गयी थी कि वे बिल्ली की अनुपस्थिति में चुहिया केा घर की रानी न बना लें।

माँ की यही बात इस समय मेरे कानों में गूँज रही थी। मुझे लगा कि सोफिया इस घर में नौकरानी के रूप में नहीं बल्कि रानी के रूप में पहुँच रही थी।

अपनी माँ का खयाल मुझे अपने पिता से कुछ अधिक था। इसलिए जब सोफिया के आने की बात हुई, तो मैंने चाहा कि अपने पिता से यह कह सोफिया के आगमन को रोक दूँ कि घर के सभी कामों को मैं संभाल सकता हूँ। लेकिन मेरे पिता मेरे पिता मेरे भीतर इस भावना को ताड़ गए थे, तभी तो मेरे कुछ कहने से पहले ही वे कह उठे थे कि मैं अपना समय नाहक बरबाद न करूँ। सचमुच मेरी परीक्षा सामने थी और मैंने ऐसा अहसास किया कि इस बात की चिंता मुझसे अधिक मेरे पिता को थी।

सुबह को मेरे पिता सिंपोजियम में जाने को तैयार हो रहे थे कि तभी मैं उनके सामने पहुँचा। उस समय मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उनके सामने मैं अपने आप नहीं पहुँचा था, बल्कि मेरी माँ ने मुझे वहां पहुँचने को विवश किया था। सिगरेट को टुकड़े को राखदान में अँगुलियों से कुचल कर मेरे पिता ने अपनी टाई की गांठ को ठीक करते हुए मेरी ओर देखा। उनकी उस निगाह में यही प्रश्न था, जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी। अपने में आत्मविश्वास लाते हुए सबसे पहले मैंने आपसे कहा कि मैं अब बच्चा थोड़े ही हूँ। मैं बीस पार कर चुका था। पूरा साहस बटोर कर मैंने कहा - सोफिया के बिना भी घर के सभी काम हो सकते हैं।

मेरे इस प्रश्न के समाप्त होने से पहले ही मेरे पिता ने कड़कते स्वर में पूछा - करेगा कौन?
मैं कर सकता था और कौन? पर यह कहने की हिम्मत जाती रही। मुझे सहमा-सा पा कर मेरे पिता ने अपनी आवाज़ में कुछ नरमी लाते हुए धीरे से कहा - तुम सुबह आठ बजे उठते हो और साढ़े सात बजे मुझे काम पर जाने के लिए घर से निकल जाना पड़ता है।

मुझे वकील बनाना मेरे पिता के जीवन की सबसे बड़ी तमन्ना थी। मैं और वकील! मैं, जो हर दूसरे प्रश्न पर अपने को निरुत्तर पाता हूँ, जो अपने दिमाग के किसी कोने में भी दलील न पा सके। पिता के चले जाने पर मैं देर तक अपनी माँ के बारे में सोचता रहा, फिर सोफिया के बारे में। ऐसे तो सोफिया के बारे में बहुत कुछ सोच चुका हूँ। सोफिया एक बहुचर्चित किस्म की लड़की थी। यही कारण था कि उसके बारे में सोचने के पहले भी कई अवसर मुझे मिल चुके थे। अपने मित्रों द्वारा भी यह सुन चुका हूँ कि यह लाजवाब हैं।

सोफिया के बारे में मैं अपने उस खयाल को अधिक महत्व देता हूँ, जो मैंने माँ से सुना हैं।
अपने कमरे में बैठा मैं यह सोचता रहा कि सोफिया के इस घर में आ जाने पर मेरा क्या कर्तव्य हो जाता है? सोफिया को यह कहकर घर से निकाल देना दुश्वार था कि वह मेरी माँ को फूटी आँख पसंद नहीं, इसलिए मुझे भी उससे घृणा हैं। उसके साथ हिल-मिल कर अपनी आँखे बंद कर लेना भी उतना ही कठिन था। मैं कुछ भी निर्णय नहीं कर पा रहा था; फिर भी मेरे भीतर एक प्रश्न अवश्य था कि किसी भी हालत में मैं उसे अपनी माँ के अधिकारों को लूटने नहीं दे सकता।
कोने में टेलिविजन सेट था। ऑन होने पर जिसके भूरे पर्दे से स्टेशन के सभी के सभी कार्यक्रम दिखाई पड़ते और ऑफ होने पर उसमें कमरे का पूरा दृश्य झिलमिलाता-सा दिखाई पड़ता। उसमें मैं अपने आपको देख रहा था। वह स्क्रीन हमारे घर के शीशों से अधिक निश्छल था, क्यों कि उसमें चेहरे को सौंदर्यमय बनाने की वह शक्ति नहीं थी। मेरे भीतर असमंजस का जो भाव था, वह पर्दे पर के मेरे चेहरे पर स्पष्ट था। मैं अब भी यही सोच रहा था कि क्या कोई भी ऐसा उपाय नहीं, जिससे मैं अपने पिता को इरादा बदलने के लिए मजबूर कर दूँ। पर मेरे पिता को तो प्रमाण चाहिए। ये दलील चाहते हैं, पर दलील आए तो कहां से? जो प्रमाण मेरी माँ नहीं दे सकी थी, उसे मैं कहाँ से लाता?

मेरे वे दो मित्र जिन्होंने उस दिन यह कहा था कि मेरे पिता सोफिया को अपनी मोटर में लिए समुद्र के किनारों पर घूमा करते हैं, मेरे पिता के सामने गूँगे हो जाएँगे। इस बात का मुझे पूरा यकीन था।

बहुत पहले मैंने यह बात भी अपने आप में पूछी थी कि मेरे पिता, जो हर जगह आते जाते रहते हैं, कभी भूलसे सिलवर होटल की ओर क्यों नहीं भटक जाते! मुझे इस बात का पूरा विश्वास था कि एक बार वहाँ सोफिया को देख कर वे उसे कभी भूल से भी देखने की बात नहीं सोचते। अपने मित्रों के विश्वास के दावे पर मुझे यह विश्वास था।
अपनी कोशिशों के बावजूद जब मुझे यह मालूम हो गया कि सोफिया की छाया इस घर से बाहर रखना उतना ही कठिन था, जितना कि मेरा वकील बनना, तो मैंने जो कुछ होनेवाला था, उसके लिए अपने को तैयार कर लिया। बड़े हो संकल्प के साथ अपने आप से कहा कि उसके आ जाने पर देखा जाएगा।

मैं सोफिया के आने की प्रतीक्षा करता रहा।
उसके हमारे यहाँ पहुँचने से कुछ मिनट पहले मेरे पिता ने अपने डिप्लोमेटिक बैग जैसे बस्ते को मेज़ पर से उठाते हुए कहा - सोफिया आ रही है। खबरदार, उसके साथ किसी तरह की बदतमीज़ी न करना।

इससे पहले कि मैं अपने पिता की बातों का मतलब समझता, वे घर से बाहर हो गए थे। अपनी जगह पर खड़ा मैं मोटर के इंजन को स्टार्ट होते हुए सुनता रहा। वह पुरानी मोटर कराहती हुई गेट से बाहर हुई। मैं खिड़की के पास खड़ा उसे देखता रहा। उसके ओझल हो जाने पर भी कुछ देर तक उसकी दर्दनाक आवाज़ मेरे कानों तक आती रही। जिसके यहाँ आने से मुझे चिढ़ थी, उसी की राह ताकते हुए मैं अपने मे बेसब्री महसूस करने लगा था। मेरी आँखे बार-बार घड़ी की ओर पहुँच जाती थी। और मैं अपने बेताब होने के कारण को खुद नहीं समझ पा रहा था।

मुझे अपनी माँ की याद आई। अस्पताल की चारपाई पर वह हमारी याद कर रही होगी। सबसे अधिक याद उसे मेरे पिता की आती होगी और मेरे पिता को सबसे अधिक याद सोफिया की आती होगी। सोफिया इस समय अपने शृंगार को आखिरी टच दे रही होगी और चंद मिनटों में वह हमारे घर का दरवाज़ा खटखटाएगी। उसके यहाँ पहुँच जाने के एक या दो घंटे बाद मेरे पिता भी सिरदर्द का बहाने से घर लौट आएँगे और मुझे किसी जरूरी काम से घर से बाहर जाना पड़ेगा। ड्राइंगरूम में बैठा मैं दरवाज़े पर दस्तक का इंतज़ार करता रहा।

उसकी उपस्थिति में मैं घर में क्या करूँगा? उसे घर में अकेली छोड़ बाहर चला जाना भी तो ठीक नहीं होगा और उसके सामने बैठे रहना अपने से शायद न हो सके। टेलिविजन पर दिन का कार्यक्रम भी ग्यारह से पहले शुरू नहीं होता। आज टीवी पर श्रीमती इंदिरा गांधी की मॉरिशस यात्रा का प्रोग्राम था। न जाने देखना नसीब होगा या नहीं! खयाल आया, इस समय भारत की प्रधानमंत्री हमारे देश के सबसे रमणीक बाग में वह पौधा लगा रही होंगी जो कोई तीन सौ वर्ष तक हमें उनकी याद दिलाता रहेगा।

मनोरंजन का कोई न कोई साधन ढूँढ़ता रहा। सोचा फोन कर के अपने एक दो मित्रों को भी यहाँ बुला लेना क्या उचित न होगा। परन्तु परिस्थिति से प्रोत्साहित मेरे मित्रों से कुछ अनुचित हो गया, तो उसकी कोई जिम्मेदारी मेरी होगी। और चूँ कि मैं स्थिर नहीं था, इसलिए कोई उपन्यास लेकर बैठ जाने से भी कुछ नहीं बनता। सोचा, बैठा रहूँगा, जब तक मेरे पिता सिर दर्द के बहाने लौट न आयें। फिर तो लाइब्रेरी जाने के बहाने मैं संगम देखने पहुँच सकता हूँ। और फिर जो संगम यहाँ होना हो, वह होता रहेगा।

सामने की मेज़ से अखबार उठा कर, पढ़ने की कोई इच्छा न रखते हुए भी मैंने शीर्षकों और उपशीर्षकों पर दौड़ती नज़र डाली। फलाना मंत्री फलाने मिशन पर फलाने देश को जा रहा था। फलाना देश से फलाने मिशन (असफल) के बाद फलाना प्रधानमंत्री द्वीप को लौट रहा था। ये उबा देनेवाली बातें थी। मैंने अखबार को मेज़ पर रख दिया। कोई पांच मिनट बाद ही घड़ी की टन्-टन् की आवाज के साथ दरवाजे पर खटखटाहट हुई।

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