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                          महाकवि 
                          माघ का प्रभात वर्णन महावीर 
                          प्रसाद द्विवेदी
 
                          (आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी 
                          ने प्रस्तुत निबंध के द्वारा संस्कृत के प्रसिद्ध कवि
                          माफ के 
                          जीवंत प्रकृति चित्रण की एक झलक प्रस्तुत करते हुए उनके 
                          प्रभात-वर्णन सम्बन्धी हृदयस्पर्शी स्थलों को अत्यन्त 
                          कुशलता से हमारे समक्ष रखा है।) 
  रात अब बहुत ही 
                      थोड़ी रह गयी है। सुबह होने में कुछ ही कसर 
                      है। जरा सप्तर्षि नाम के तारों को तो देखिए। वे आसमान में 
                      लंबे पड़े हुए हैं। उनका पिछला भाग तो नीचे को झुका सा है और 
                      अगला ऊपर को। वही उनके अधोभाग में, छोटा-सा ध्रुवतारा 
                      कुछ-कुछ चमक रहा है। सप्तर्षियों का आकार गाड़ी के सदृश जिसका 
                      धुआँ ऊपर को उठ गया है; इसी से उनके और ध्रुवतारा के दृश्य 
                      को देखकर श्रीकृष्ण के बालपन की एक घटना याद आ जाती है। शिशु 
                      श्रीकृष्ण को मारने के लिए एक बार गाड़ी का रूप बनाकर शकटासुर 
                      नाम का एक दानव उनके पास आया। श्रीकृष्ण ने पालने में पड़े ही 
                      पड़े, खेलते-खेलते, उसे एक लात मार दी। उसके आघात से उसका 
                      अग्रभाग ऊपर को उठ गया, और पश्चाद्भाग खड़ा ही रह गया। 
                      श्रीकृष्ण उसके तले आ गये। वही दृश्य इस समय सप्तर्षियों की 
                      अवस्थिति का है। वे तो कुछ उठे हुए से लंबे पड़े हैं, 
                      छोटा-सा ध्रुव उनके नीचे चमक रहा है। 
 पूर्व दिशारूपिणी स्त्री की प्रभा इस समय बहुत ही भली मालूम 
                      होती है। वह हँस सी रही है। वह यह सोचती-सी है कि इस 
                      चन्द्रमा ने जब तक मेरा साथ दिया - जब तक यह मेरी संगति में 
                      रहा तब तक उदित ही नहीं रहा, इसकी दीप्ति भी खूब बढ़ी। 
                      परन्तु, देखो, वही अब पश्चिम दिशारूपिणी स्त्री की तरफ जाते 
                      ही (हीन-दीप्ति होकर) पतित हो रहा है। इसी से पूर्व दिशा, 
                      चन्द्रमा को देख-देख प्रभा के बहाने,  ईर्ष्या से मुस्करा सी 
                      रही है। परन्तु चन्द्रमा को उसके हँसी-मजाक की कुछ भी परवाह 
                      नहीं।
  वह अपने ही रंग में मस्त मालूम होता है। अस्त समय होने के 
                      कारण उसका बिंब तो लाल है; पर किरणें उसकी पुराने कमल की नाल 
                      के कटे हुए टुकड़ों के समान सफेद है। स्वयं सफेद होकर भी, 
                      बिंब की अरूणता के कारण, वे कुछ-कुछ लाल भी है। कुंकुम 
                      मिश्रित सफेद चन्दन के सदृश उन्हीं लालिमा मिली हुई सफेद 
                      किरणों से चन्द्रमा पश्चिम दिग्वधू का शृंगार सा कर रहा है 
                      - उसे प्रसन्न करने के लिए उसके मुख पर चन्दन का लेप-सा समा 
                      रहा है - पूर्व दिग्वधू के द्वारा किये गये उपहास की तरह 
                      उसका ध्यान ही नहीं।  जब कमल शोभित होते हैं, तब कुमुद नहीं, और जब कुमुद शोभित 
                      होते हैं तब कमल नहीं। दोनों की दशा बहुधा एक सी नहीं रहती। 
                      परन्तु इस समय, प्रातःकाल, दोनों में तुल्यता देखी जाती है। 
                      कुमुद बन्द होने को है; पर अभी पूरे बन्द नहीं हुए। उधर कमल 
                      खिलने को है, पर अभी पूरे खिले नहीं। एक की शोभा आधी ही रह 
                      गयी है, और दूसरे को आधी ही प्राप्त हुई है। रहे भ्रमर, सो 
                      अभी दोनों ही पर मंडरा रहे हैं और गुंजा रव के बहाने दोनों 
                      ही के प्रशंसा के गीत से गा रहे हैं। इसी से, इस समय कुमुद 
                      और कमल, दोनों ही समता को प्राप्त हो रहे हैं।  सायंकाल जिस समय चन्द्रमा का उदय हुआ था, उस समय वह बहुत ही 
                      लावण्यमय था। क्रम-क्रम से उसकी दीप्ति - उसकी सुन्दरता- और 
                      भी बढ़ गयी। वह ठहरा रसिक। उसने सोचा, यह इतनी बड़ी रात यों ही 
                      कैसे कटेगी, लाओ खिली हुई नवीन कुमुदिनियों (कोकाबेलियों) के 
                      साथ हँसी-मजाक ही करें। अतएव वह उनकी शोभा के साथ हास-परिहास 
                      करके उनका विकास करने लगा। इस तरह खेलते-कूदते सारी रात बीत 
                      गयी। वह थक भी गया; शरीर पीला पड़ गया; कर (किरण-जाल) अस्त 
                      अर्थात शिथिल हो गये। इससे वह दूसरी दिगंगना (पश्चिम दिशा) 
                      की गोद में जा गिरा। यह शायद उसने इसलिए किया कि रात भर के 
                      जगे हैं; लाओ अब उसकी गोद में आराम से सो जाएँ।  अंधकार के विकट वैरी महाराज अंशुमाली अभी तक 
                      दिखाई भी नहीं 
                      दिये। तथापि उसके सारथी अरुण ही ने उनके अवतीर्ण होने के 
                      पहले ही थोड़े ही नहीं, समस्त तिमिर का समूल नाश कर दिया। बात 
                      यह है कि जो प्रतापी पुरूष अपने तेज से अपने शत्रुओं का 
                      पराभव करने की शक्ति रखते हैं, उनके अग्रगामी सेवक भी कम 
                      पराक्रमी नहीं होते। स्वामी को श्रम न देकर वे खुद ही उसके विपक्षियों का उच्छेद कर डालते हैं। इस तरह, 
                      अरुण के द्वारा 
                      अखिल अंधकार का तिरोभाव होते ही बेचारी रात पर आफत आ गयी। इस 
                      दशा में वह कैसे ठहर सकती थी। निरुपाय होकर वह भाग चली। 
                      रह गयी दिन और रात की संधि, अर्थात प्रातःकालीन संध्या। सो 
                      अरुण कमलों ही को आप इस अल्पवयस्क सुता-सदृश संध्या के 
                      लाल-लाल और अतिशय कोमल हाथ-पैर समझिए। मधुप-मालाओं से छाए 
                      हुए नील कमलों ही को काजल लगी हुई उसकी आँखें जानिये। 
                      पक्षियों के कल-कल शब्द ही को उसकी तोतली बोली अनुमान कीजिए। 
                      ऐसी संध्या ने जब देखा कि रात इस लोक से जा रही है, तब 
                      पक्षियों के कोलाहल के बहाने यह कहती हुई कि ''अम्मा, मैं भी 
                      आती हूँ,'' वह भी उसी के पीछे दौड़ ग़ई।
 अंधकार गया, रात गयी, प्रातःकालीन संध्या भी गयी। विपक्षीदल 
                      के एकदम ही पैर उखड़ ग़ये। तब, रास्ता साफ देख, वासर-विधाता 
                      भगवान भास्कर ने निकल आने की तैयारी की। कुलिश-पाणि इन्द्र 
                      की पूर्व दिशा में नये सोने के समान, उनकी पीली-पीली किरणों 
                      का समूह छा गया। उनके इस प्रकार आविर्भाव से एक अजीब ही 
                      दृश्य दिखायी दिया। आपने बड़वानल का नाम सुना ही होगा। वह एक 
                      प्रकार की आग है, जो समुद्र के जल को जलाया करती है। सूर्य 
                      के उस लाल-पीले किरण समूह को देख कर ऐसा मालूम होने लगा जैसे 
                      वही बड़वाग्नि समुद्र की जल-राशि को जलाकर, त्रिभुवन को भस्म 
                      कर डालने के इरादे से, समुद्र के ऊपर उठ आयी हो। धीरे-धीरे दिननाथ का बिंब क्षितिज के ऊपर आ गया। तब एक और ही प्रकार के 
                      दृश्य के दर्शन हुए। ऐसा मालूम हुआ, जैसे सूर्य का वह बिंब 
                      एक बहुत बडा घडा है, और दिग्वधुएँ जोर लगाकर समुद्र के भीतर 
                      से उसे खींच रही हैं। सूर्य की किरणों ही को आप लंबी-लंबी 
                      मोटी रस्सियाँ समझिए। उन्हीं से उन्होंने बिंब को बाँध सा 
                      दिया है, और खींचते वक्त, पक्षियों के कलरव के बहाने, वे यह 
                      कह-कहकर शोर मचा रही है कि खींच लिया है कुछ ही बाकी है, ऊपर 
                      आना ही चाहता है; जरा और जोर लगाना।
  दिगंगनाओं के द्वारा खींच-खींचकर किसी तरह सागर की सलिल राशि 
                      से बाहर निकाले जाने पर सूर्यबिंब चमचमाता हुआ लाल-लाल 
                      दिखायी दिया। अच्छा, बताइए तो सही, यह इस तरह का क्यों है। 
                      हमारी समझ में यो यह आता है कि सारी रात पयोनिधि के पानी के 
                      भीतर जब यह पडा था , तब बड़वाग्नि की ज्वाला ने इसे तपाकर खूब 
                      दहकाया होगा। तभी तो खैर (खदिर) के जले हुद कुंदे के अंगार 
                      के सदृश लालिमा लिए हुए यह इतना शुभ्र दिखायी दे रहा है। 
                      अन्यथा, आप ही कहिए, इसके इतने अंगार गौर होने का और क्या 
                      कारण हो सकता है?  
						सूर्यदेव की उदारता और न्यायशीलता तारीफ के लायक है। तरफदारी 
                      तो उसे छू तक नहीं गयी- पक्षपात की तो गंध तक उसमें नहीं, 
                      देखिए न, उदय तो उसका उदयाचल पर हुआ; पर क्षण ही भर में उसने 
                      अपने नये किरण-कलाप को उसी पर्वत के शिखर पर नहीं, प्रत्युत 
                      सभी पर्वतों के शिखरों पर फैलाकर उन सब की शोभा बढा दी। उसकी 
                      इस उदारता के कारण इस समय ऐसा मालूम हो रहा है, जैसे सभी 
                      भूधरों ने अपने शिखरों-अपने मस्तकों- पर दुपहरिया के लाल-लाल 
                      फूलों के मुकुट धारण कर लिये हो। सच है, उदारशील सज्जन अपने 
                      चारूचरितों से अपने ही उदय-देश को नहीं, अन्य देशों को भी 
                      आप्यायित करते हैं।
 उदयाचल के शिखर रूप आँगन में बाल सूर्य को खेलते हुए 
                      धीरे-धीरे रेंगते देख पद्मिनियों का बडा प्रमोद हुआ। सुन्दर 
                      बालक को आँगन में जानुपाणि चलते देख स्त्रियों का प्रसन्न 
                      होना स्वाभाविक ही है। अतएव उन्होंने अपने कमल-मुख के विकास 
                      के बहाने हँस-हँसकर उसे बडे ही प्रेम से देखा। यह दृश्य 
                      देखकर माँ के सदृश अंतरिक्ष देवता का हृदय भर आया। वह 
                      पक्षियों के कलरव के मिस बोल उठी - आ जा, आ जा; आ बेटा, आ; 
                      फिर क्या था; बालसूर्य बाललीला दिखाता हुआ, झट अपने मृदुल 
                      कर(किरणें) फैलाकर अंतरिक्ष की गोद में कूद गया। उदयाचल पर 
                      उदित होकर जरा ही देर में वह आकाश में आ गया।
 
 आकाश में सूर्य के दिखायी देते ही नदियों ने विलक्षण ही रूप 
                      धारण किया। दोनों तटों या कगारों के बीच से बहते हुए जल पर 
                      सूर्य की लाल-लाल प्रातःकालीन धूप जो पडी, तो वह जल परिपक्व 
                      मदिरा के रंग सदृश हो गया। अतएव ऐसा मालूम होने लगा, जैसे 
                      सूर्य ने किरण बाणों से अंधकाररूपी हाथियों की घटा को 
                      सर्वत्र मार गिराया; उन्हीं के घावों से निकला हुआ रूधिर बह 
                      कर नदियों में आ गया हो; और उसी के मिश्रण से उनका जल लाल हो 
                      गया हो। कहिये, यह सूझ कैसी है? बहुत दूर की तो नहीं।
 
 तारों का समुदाय देखने में बहुत भला मालूम होता है यह सत्य 
                      है। यह भी सच है कि भले आदमियों को न कष्ट ही देना चाहिए, और 
                      न उनको उनके स्थान से च्युत ही करना - हटाना ही - चाहिए। 
                      परन्तु सूर्य का उदय अंधकार का नाश करने ही के लिए होता है, 
                      और तारों की श्री वृध्दि अंधकार ही की बदौलत है। इसी से 
                      लाचार होकर सूर्य को अंधकार के साथ ही तारों का भी विनाश 
                      करना पडा - उसे उनको भी जबरदस्ती निकाल बाहर करना पडा। बात 
                      यह है कि शत्रु की बदौलत ही जिन लोगों की संपत्ति और प्रभुता 
                      प्राप्त होती है, उनको भी मार भगाना पड़ता है - शत्रु के साथ 
                      ही उनका भी विनाश-साधन करना ही पड़ता है। न करने से भय का 
                      कारण बना ही रहता है। राजनीति यही कहती है।
 
 सूर्योदय होते ही अंधकार भयभीत होकर भागा। भागकर वह कहीं गुहाओं के भीतर और कहीं घरों के कोनों और कोठरियों के भीतर 
                      जा छिपा। मगर वहाँ भी उसका गुजारा न हुआ। सूर्य यद्यपि बहुत 
                      दूर आकाश में था, तथापि उसके प्रबल तेज प्रताप ने छिपे हुए 
                      अंधकार को उन जगहों से भी निकाल बाहर किया। निकाला ही नहीं, 
                      अपितु उसका सर्वथा नाश भी कर दिया। बात यह है कि तेजस्वियों 
                      का कुछ स्वभाव ही ऐसा होता है कि निश्चित स्थान में रहकर, भी 
                      वे अपने प्रताप की धाक से दूर स्थित शत्रुओं का भी सर्वनाश 
                      कर डालते हैं।
 
 सूर्य और चन्द्रमा, ये दोनों ही आकाश की दो आँखों के समान 
                      हैं। उनमें से सहस्त्रकिरणात्मक - मूर्तिधारी सूर्य ने ऊपर 
                      उठकर जब अशेष लोकों का अंधकार दूर कर दिया, तब वह खूब ही चमक 
                      उठा। उधर बेचारा चन्द्रमा किरण-हीन, हो जाने से बहुत ही धूमिल हो 
                      गया। इस तरह आकाश की एक आँख तो खूब तेजस्क और दूसरी तेजोहीन 
                      हो गयी। अतएव ऐसा मालूम हुआ, जैसे एक आँख, प्रकाशवती और अंधी 
                      बाला आकाश काना हो गया हो।
 
 कुमुदिनियों का समूह शोभाहीन हो गया और सरोरूहों का समूह 
                      शोभा संपन्न। उलूकों को तो शोक ने आ घेरा और चक्रवाकों को 
                      अत्यानन्द ने। इसी तरह सूर्य तो उदय हो गया और चन्द्रमा 
                      अस्त। कैसा आश्चर्यजनक विरोधी दृश्य है। दुष्ट दैव की चेष्टाओं का परिवाक कहते नहीं बनता। वह बडा ही विचित्र है। 
                      किसी को तो वह ह/साता है, किसी को रूलाता है।
 सूर्य को आप दिग्वधुओं का पति समझ लीजिए, और यह भी समझ लीजिए 
                      कि पिछली रात वह कही और किसी जगह, अर्थात् विदेश चला गया था। 
                      मौका पाकर, इसी बीच उसकी जगह पर चन्द्रमा आ विराजा। पर ज्यों 
                      ही सूर्य अपना प्रवास समाप्त करके सबेरे, पूर्व दिशा में फिर 
                      आ धमका, त्यों ही उसे देख चन्द्रमा के होश उड़ ग़ये। अब क्या 
                      हो? और कोई उपाय न देख अपने किरण-समूह को कपडे लत्ते के सदृश 
                      छोड़ उपपति के समान गर्दन झुकाकर वह पश्चिम - दिशारूपी खिड़क़ी 
                      के रास्ते निकल भागा।
 
 महामहिम भगवान मधुसूदन जिस समय कल्पांत में समस्त लोकों का 
                      प्रलय, बात की बात में कर देते हैं, उस समय अपनी समधिक 
                      अनुरागवती श्री (लक्ष्मी) को धारण करके - उन्हें साथ 
                      लेकर-क्षीर-सागर में अकेले ही जा विराजते हैं। दिन चढ अाने 
                      पर महिमामय भगवान भास्कर भी, उसी तरह एक क्षण में, सारे 
                      तारा-लोक का संहार करके, अपनी अतिशायिनी श्री (शोभा) के 
                      सहित, क्षीर-सागर ही के समान आकाश में देखिए, अब यह अकेले ही 
                      मौज कर रहे हैं।
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