| 
                          
                            दिनप्रतिदिन
            कंप्यूटर, टेलीविजन, मोबाइल जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों
            का उपयोग बढ़ता जा रहा है। बाज़ार में रोज ही बेहतर क्षमता
            तथा सुविधा वाले नएनए माडल आ रहे हैं। पुराने एवं
            बेकार हो रहे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से निपटना आज एक बड़ी
            चुनौती बनती जा रही है। इनके निर्माण में प्लास्टिक के
            अतिरिक्त लेड,  ताँबा, अल्युमिनियम, सोना, शीशा
            आदि का उपयोग बहुतायत में होता है। एक टीवी सेट में ही
            लगभग तीन से चार किलोग्राम लेड का उपयोग होता है। सही
            तकनॉलॉजी के अभाव में इस प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक कचरे से
            उपरोक्त अवयवों को अलग कर उनका समुचित पुनर्उपयोग
            नहीं हो पा रहा है। परिणाम स्वरूप ये अवयव पर्यावरण को
            खतरनाक सीमा तक प्रदूषित कर रहे हैं एवं भविष्य में इनसे और
            भी खतरा है। भारत जैसे विकासशील एवं अन्य अविकसित देशों
            में ऐसा कचरा सीधे कबाड़ियों के हाथ लगता है जिनसे वे
            बड़े ही अपरिष्कृत तरीके से कुछ उपयोगी अवयवों को निकाल
            लेते हैं 
            और बाकी को गंदे नाले मे बहा देते हैं, जो अंतत:
            मिट्टी एवं पानी को प्रदूषित करते हैं।
 इस
            समस्या से निपटने की दिशा में जियार्जिया इंस्टिट्यूट ऑफ
            टेक्नॉलॉजी के केमिकल इंजीनियरों द्वारा जेन एमॉस के
            नेतृत्व में किया जा रहा प्रयास उल्लेखनीय है। हाल ही में इन
            लोगों ने विस्तृत अनुसंधान के पश्चात् एक ऐसे रिवर्स
            प्रोडक्सन सिस्टम को विकसित करने में सफलता पाई है
            जिसके द्वारा इलेक्ट्रॉनिक कचरे के सभी अवयवों को न केवल
            आसानी से अलग किया जा सकता है अपितु उनका समुचित उपयोग
            भी फिर से किया जा सकता है।
 
                            
                              प्लास्टिक
            से बने सामानों के दिनोदिन बढ़ते चलन से पर्यावरण
            को कितना खतरा है, इसे सभी जानते हैं और ऐसे सामानों
            के उपयोग में कमी की बातें भी सभी करते है परंतु इनके
            उपयोग में कोई भी पीछे नहीं रहता। प्लास्टिक का अपघटन सूक्ष्म
            जीवाणुओं द्वारा नहीं किया जा सकता है, परिणाम स्वरूप
            पर्यावरण में इस प्रकार के कचरे की मात्रा बढ़ती ही जा रही है, 
            लेकिन चिंता करने की विशेष आवश्यकता नही है। कॉर्नेल
            युनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क में कार्यरत रसायन एवं रासायनिक
            जीव विज्ञान के प्रोफेसर ज्यॉफ्री कोट्स तथा उनके
            सहयोगियों ने एक प्रकार के थर्मोप्लास्टिक के
            निर्माणविधि की खोज में आंशिक सफलता प्राप्त की है। 
            सामान्य प्लास्टिक की तरह इनका उपयोग भी पैकेजिंग मैटिरियल
            से ले कर बायोमेडिकल उपकरणों के निर्माण में किया जा
            सकता है,  साथ ही साथ ये जीवाणुओं द्वारा अपघटित भी
            किए जा सकते हैं। मिल गया न समस्या का समाधान!
            
                               
                              
                              
                                वास्तव
            में पॉली बीटा हाइड्रॉक्सी ब्युटाइरेट नामक उपरोक्त
            थर्मोप्लास्टिक पदार्थ बहुत से जीवों,  विशेषकर
            बैक्टिरिया में प्राकृतिक रूप से निर्मित होता है। पेट्रोलियम
            आधारित पॉली प्रोपाइलिन ( जिसका उपयोग फिलहाल
            प्लास्टिक के निर्माण में हो रहा है) एवं इस थर्मोप्लास्टिक के
            गुण लगभग समान हैं,  सिवाय इसके कि थर्मोप्लास्टिक
            जीवाणुओं द्वारा अपघटित भी किया जा सकता है। प्रयोगशाला
            में इसके निर्माण की विधि का ज्ञान भी पहले से था, परंतु
            इन लोगों द्वारा आविष्कृत विधि काफी सस्ती है एवं इसे थोड़ा
            और परिमार्जित कर व्यापारिक स्तर पर बड़ी मात्रा में इस हरित
            प्लास्टिक के निर्माण हेतु प्रयुक्त की जा सकती है।
            
                                 
                                
                                
                                  वर्तमान
            समय में मनुष्य सबसे अधिक जैविक एवं रसायनिक
            हथियारों से डरा हुआ है। कारण,  दृश्य का मुकाबला तो
            हम कर भी सकते हैं या कम से क़म उनसे बचने का प्रयास कर
            सकते हैं परंतु अदृश्य से हम कैसे लड़ें? इनका उपयोग कौन
            और कब करेगा,  यह पता लगाना भी मुश्किल है। और, 
            जब तक हमें इसकी जानकारी होगी तब तक बहुत देर हो चुकी
            होगी। परंतु घबडाइए मत। जैविक हथियारों का उपयोग किसी क्षेत्र
            में हुआ है या नहीं, इस बात की अग्रिम सूचना संभवत:
            भविष्य में जेनेटिकली इंज्नियड पौधों से मिल सकती
            है। पेन् स्टेट के कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्चरल सांइसेज में
            कार्यरत प्रो .जैक शुल्ज़ एवं एबर्ली कॉलेज ऑफ सांइस में
            बायोलॉजी के सहायक प्रो .रमेश रैना सरसों की एक प्रजाति
            अरैबीडॉप्सिस नामक पौधे की जेनेटिकली इंजीनियर्ड
            किस्में विकासित करने में लगे हुए हैं। ये नई किस्में
            विभिन्न प्रकार के रसायनों एवं जीवाणुओं को प्रति
            संवेदनशील होंगी। एक किस्म केवल एक ही प्रकार के रसायन या
            जीवाणु के प्रति संवेदनशील होंगी एवं उस विशिष्ट रसायन
            अथवा जीवाणु की उपस्थिति में इन पौधों में निश्चित लक्षण
            उत्पन्न होंगे जिनका ज्ञान हमें विशिष्ट उपकरणों की सहायता
            द्वारा आसानी से हो सकता है। तत्पश्चात् ऐसे जैविक अथवा
            रसाय्निक हथियारों के विरूद्ध सुरक्षा के उपाय भी किए जा सकते
            हैं।
            
                                   
                                  
                                  
                                    आज
            कल विभिन्न प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों यथा मोबाइल,
            लैपटॉप आदि में लंबे समय तक चलने वाली अथवा
            बारबार चार्ज की जा सकने वाली लीथियम बैटरीज का
            उपयोग हो रहा है। क्या हम इनकी कार्यावधि बढ़ा सकते हैं
            अथवा नए वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के बारे में सोच सकते हैं? हाँ
            क्यों नहीं। आइए,  कुछ ऐसी ही प्रयासों पर दृष्टि डालें।
            
                                     
                                    
                                    
                                      लीवरमोर,
            कैलिफोर्निया स्थित सैंडिया नेशनल लैबोरेटरी के
            डिपार्टमेंट ऑफ़ इनर्जी ने हाल ही में सिलिकॉन एवं ग्रेफाइट
            को मिला कर एक नए प्रकार का एॅनोड बनाया है जिसे यदि
            रिचार्जेबल लीथियम बैटरी में केवल ग्रेफाइट से बने
            एॅनोड के स्थान पर इस्तेमाल किया जाय तो उसकी आयु न केवल
            दुगनी हो सकती है अपितु उन्हें और छोटा एवं शक्तिशाली
            बनाया जा सकता है।
            
                                       
                                      
                                      
                                        रिचार्जेबल
            लीथियम बैटरी के जल्दीजल्दी डिस्चार्ज होने की समस्या से
            निपटने की दिशा में एक कदम आगे बढा़ते हुए थॉमस लूथर के
            नेतृत्व में डिपार्टमेंट ऑफ़ इनर्जी के इडाहो नेशनल
            इंजीनियरिंग ऐंड एन्वायरॉनमेंट लैबोरटरी के
            अनुसंधानकर्ताओं ने सन 2000 में
            मेथाक्सीइथॉक्सीइथॉक्सी फॉस्फेज़ीन नामक एक गाढ़े
            तेल जैसे पदार्थ में सिरैमिक पाउडर को मिलकर एक नए प्रकार की
            झिल्ली के निर्माण में सफलता प्राप्त की थी। यह झिल्ली धनात्मक
            लीथियम आयन्स के लिए तो पारगम्य है परंतु ऋणात्मक आयन्स के
            लिए अपारगम्य है। अत: इसका प्रयोग करने पर लीथियम बैटरी
            जल्दी डिस्चार्ज नहीं होती है। परंतु ऐसी बैटरी अधिक शक्तिशाली
            नहीं थी। इस समस्या से उबरने के लिए इन लोगों ने हाल ही
            में उपरोक्त झिल्ली के नए परिवर्धित संस्करण को विकसित करने
            में सफलता पाई है जिसके इस्तेमाल से नए प्रकार की लंबे
            समय तक बिना चार्ज किए एवं काफी शक्तिशाली बैटरी का
            निर्माण संभव है जिसका उपयोग वाह्य अंतरिक्ष के ठंडे तापमान
            में भी किया जा सकेगा क्यों कि इस झिल्ली पर बढ़तेघटते
            तापमान का प्रभाव नहीं के बराबार होता है।
            
                                         
                                        
                                        
                                          सेंट
            लुई युनिवर्सिटी की सहायक प्रो शेली मिन्टीर एवं इनके
            सहयोगियों के सोच तथा अनुसंधान की दिशा कुछ और ही
            है।ये लोग एक प्रकार के बॉयोसेल के विकास में जुटे
            हुए हैं जिसे किसी भी किस्म के शराब की कुछ बूँदों से ही
            लगभग एक महीने तक चलाया जा सकता है।न चार्ज करने का
            झंझट और न ही लीथियम जैसे महँगे धातु की
            आवश्यकता।जैव कोशिकाओं में पाए जाने वाले कुछ विशिष्ट
            एन्ज़ाइम इथेनॉल को ईंधन के रूप में इस्तेमाल कर, 
            ऊर्जा उत्पन्न कर सकने की क्षमता रखते हैं।इन एन्ज़ाइम्स की
            कार्यक्षमता आसपास के तापमान एवं पीएच में परिवर्तन से
            प्रभावित होती है।इसी कारण अब तक इनका उपयोग बैटरी में
            नहीं हो पा रहा था। एन्ज़ाइम्स को बैटरी के इलेक्ट्रोड से संबद्ध
            कर बदलते तापमान तथा पीएच के प्रभाव से कुछ समय के लिए
            बचाया जा सकता है परंतु थोड़ी देर बाद इनका क्षय होने
            लगता है। इन लोगों ने एल्क्ट्रोड्स पर एक विशेष प्रकार के
            पॉलीमर की तह चढाई,  जिसमें मिसेल्स से
            निर्मित छोटेछोटे छिद्र होते हैं। ये एन्ज़ाइम्स इन छिद्रों
            में न केवल बदलते तापमान एवं पीएच के प्रभाव से सुरक्षित
            रहते हैं अपितु आसानी से इनका क्षय भी नहीं होता है। ऐसे
            सेल इथेनॉल जैसे सस्ते जैविकईंधन से लंबे समय तक
            चलाए जा सकते हैं और इन्हें चार्ज करने की 
            आवश्यकता भी नहीं रहे गी। बस समय समय पर शराब
            की कुछ बूँदों के छिड़काव ही पर्याप्त होगा।
            
                                           
                                          
                                          
                                            हृदय
            रोगियों के लिए खुशखबरी  अब तक यह माना जाता था कि
            हृदयाघात के बाद हृदय की क्षतिग्रस्त मांसपेशियों की क्षतिपूर्ति
            नही हो सकती है। परंतु हाल ही में मेयो क्लीनिक के हृदयरोग
            विशेषज्ञ नोएल कैपलिस एवं उनके सहयोगियों ने पता
            लगाया है कि वयस्क लोगों में भी कुछ विशेष परिस्थितियों
            में अस्थिमज्जा की कोशिकाओं से हृदय की माँसपेशियों का
            विकास संभव है। अस्थिमज्जा से उत्पन्न ये प्रोजेनिटर
            कोशिकाएँ रक्त द्वारा हृदय में पहुँच कर हृदय की मांसपेशीय
            कोशिकाओं में परिवर्तित होने लगती है। परंतु इस प्रकार
            परिवर्तित कोशिकाओं की संख्या नगण्य होती है, फलत: इनसे
            क्षतिग्रस्त हृदयमांसपेशियों की क्षतिपूर्ति नही हो सकती।
            कैपलिस का मानना है कि जिस दिन हम इन प्रोजेनिटर
            कोशिकाओं के हृदयमांसपेशी की कोशिकाओं में परिवर्तित
            होने की क्रियाविधि के रहस्य को समझ लेंगे,  उस दिन
            वृद्धि हॉरमोन्स या ऐसे ही अन्य रसायनों की सहायता से इन
            प्रोजेनिटर कोशिकाओं की पर्याप्त संख्या को हृदयमांसपेशी
            की कोशिकाओं में परिवर्तित होने के लिए प्रोत्साहित कर हृदय के
            घावों की मरम्मत करने में सफल हो सकते हैं।
            
                                             
                                            
                                            
                                              आदतन,
            शौकिया अथवा अपने व्यवसाय की आश्यकताओं की मजबूरी के
            कारण नियमित रूप से रात में छ: घंटे या उससे भी कम सोने
            वालों सावधान! आप के सोचनेसमझने की शक्ति एवं
            सामान्य सतर्कता के स्तर 
            में शैने: शैने: कमी हो रही है। ऐसा हम नहीं,
            पेन्सिल्वैनिया युनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन के
            मनोचिकित्सक हैंस डॉन्जेन एवं मनोवैज्ञानिक डेविड
            डिंजेज काफी अनुसंधान के बाद कह रहे हैं। नित्य चार घंटे या
            उससे भी कम सोने वालों का सतर्कता स्तर तो लगभग उतना ही
            कम हो जाता है जितना लगातार 88 घंटों तक न सोने वाले
            व्यक्ति का होता है।
            
                                               
                                              
                                              
                                                
												दिवगंत शिवानी जी की किसी रचना 
												में कहीं पढ़ा था कि पुरूष के 
												पसीने की गंध स्त्री के लिए किसी 
												ईथर से कम मादक नहीं होती। कितना 
												सच, कितना गलत, उस समय तो केवल 
												अनुभवी महिलाएँ ही बता सकती थीं। 
												परंतु अब तो वैज्ञानिकों ने
            प्रयोगों द्वारा भी यह प्रमाणित 
            कर दिया है कि पुरूष के पसीने में पाए जाने वाले
            फरॉमोन्स महिलाओं के मनोविज्ञान के साथसाथ उनकी
            शारीरिक कार्यप्रणाली को भी प्रभावित करते हैं। ये उनकी
            मनोदशा को उदासी से प्रसन्नता में बदलते है, चिंताओं को
            कम करते है तथा मानसिक तनाव को दूर करते हैं। यही नहीं,
            इनका प्रभाव मासिक चक्र को नियंत्रित करने वाले
            ल्युटिनाइजिंग हॉरमोन के स्राव पर भी पड़ता है।
            पेन्सुल्वेनिया युनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन के जॉर्ज
            प्रेटी एवं चार्ल्स वाएसोकी के अनुसंधानदल ने चार हफ्ते तक
            बिना साबुन के नहानेवाले तथा किसी भी प्रकार के
            दुर्गंथनाशक स्प्रे का उपयोग न करने वाले पुरूषों की काँख
            से पसीना ले कर महिला स्वयंसेविकाओं के ऊपरी होंठ पर
            लगाया गया। इन महिलाओं को इस बात की जानकारी नहीं थी
            कि उनके होंठ पर पुरूष का पसीना लगाया गया है। तत्पश्चात् उन
            पर तरह तरह के मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिककार्यकी
            संबंधी परीक्षण कर उपरोक्त निष्कर्ष पर पहुँचा गया। पुरूषों
            सावधान! कहीं कोई आप का दिल चुराने की जगह पसीना
            चुराने के चक्कर में न पड़ जाए! 
            
                                                 
                                                
                                                
                                                  चलतेचलाते
            आप को बता दूँ कि कैंसर तथा एड्स के अलावा अब हम एक नए
            खतरे से जूझ रहे हैं,  और वह है, सार्स यानि सीवियर
            एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम यानि साँस की जानलेवा बीमारी।
            यह बीमारी तेजी से फैल रही है और इसके मूल में संभवत:
            कोरोना वाइरस है। हाल ही में कानाडा के जीनोम
            साइंसेज सेंटर ने इस वाइरस के जीनोमिक सीक्वेंस का
            पता लगा लिया है और वे आशा करते हैं कि इसकी सहायता से
            बहुत जल्दी इस बीमारी के बारे में निश्चित रूप से पता लगाने
            के लिए डायग्नोस्टिक किट का विकास कर लिया जाएगा एवं
            निदान का तरीका भी ढूँढ लिया जाएगा।
            
                                                   |