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                       विजय 
						का परिवार बड़ा था। दो बड़े भाई और दो बड़ी ननदें तथा एक छोटा 
						भाई और एक छोटी बहन। यों विजय की स्थिति बड़ी अनिश्चित सी 
						थी उसके माँ बाप के घर में। उम्र में छोटा होते हुए भी 
						बाहर आ जाने की वजह से विजय की समझ और अनुभव बढ़ा हुआ था। 
						साथ ही उसका नजरिया भी घरवालों से एकदम फ़र्क था पर उसके 
						पुलिस और आर्मी अफ़सर बड़े भाई जहाँ एक ओर उसकी सफलता से कुछ 
						प्रभावित थे वहीं उनमें शायद एक ईर्ष्या से उपजा अस्वीकार 
						भी था। वे छोटे भाई विजय से महँगे–महँगे उपहार स्वीकार 
						करते हुए कहीं ओछा भी महसूस करते क्योंकि रुपयों में वे 
						कभी उतना चुका नहीं सकते थे और तब उनका वह हीनपन कई-कई तरह 
						से मीरा पर खुल जाता था। एक बार जब मीरा ने स्नेहपूर्वक 
						बड़े भाई कर्नल सरीन से कहा था, "भाई साहब, आप आइए न हमारे 
						पास न्यूयार्क।" तो जवाब मिला था- 
 "न भई, हमको क्यों सजा देती हो? अब इस उम्र में हमसे भाँडे 
						मँजवाओगी!, हमसे नहीं होने ऐसे काम ...सफ़ाई करो, खाने 
						बनाओ, अपनी आराम की जिंदगी है, अर्दली आगे-पीछे घूमते हैं, 
						बाहर क्या रखा है?" तब अपने कटे बालों को झटके से गिराती 
						इठलाती उनकी पत्नी कहती, "मीरा, बस तुम अपने हर विजिट पर 
						मुझे अमरीकी शिफ़ान की साड़ियाँ और रेवलॉन का मेकअप लाकर 
						देती रहो तो मुझे भी कोई जरूरत ही नहीं है वहाँ जाने की।" 
						सास ने जोड़ दिया था, "बुलाना है तो रेखा और अंजन को बुलाओ 
						न ...अगले साल अंजन दा मैडिकल खतम हो रह्या वै, सारे 
						डाक्टर आजकल अमरीका ई जांदे हैं, बड़ा पैसा कमांदे ने, तुसी 
						बुलाणा ऐ ते ओनूँ बुलाओ ...अंजन मैंनु कैंदा बी सी कि 
						तुआड़े नाल गल कराँ..."
 मीरा विजय से अकेले में बात किए बिना कोई फ़ैसला नहीं करना 
						चाहती थी। उसने कहा, "भाई साहब से तो मैं घूमने आने की बात 
						कर रही थी, अंजन की बात फ़र्क है, उसके लिए लंबा चक्कर 
						होगा, स्पांसर करना होगा, उसे कहीं रेजिडेंसी भी मिलनी 
						चाहिए। आजकल बाहर से आने वाले मेडिकल छात्रों को बड़े धक्के 
						खाने पड़ते हैं।
 सास ने उसे ऐसे देखा था जैसे वह बहाने बना रही हो, "वो तो 
						अब तू जाण ते विजे जाणे, आख़र विजे दा भरा वे, ओदा वी हक 
						बणदा ए। असी वी अपणे देवराँ, ननदाँ दा पूरा कीता ए, अजकल 
						बार जा के सारे अपणे फरज नूँ भुल जांदे ने।"
 
 मीरा को चोट लगी। उसने तो ना नहीं की थी, एक सच्चाई बताई 
						थी पर सास उसकी बात को हमेशा इसी ढंग से समझा करती थीं। 
						कुछ 'बिटवीन द लाइन्स' पढ़ने की कोशिश हमेशा रहती थी उनकी। 
						जब ढेरों महँगे अमरीकी उपहार और सोने की चेन उसने सास के 
						आगे फैला दी थी तो सास ने ऐसे उनकी तरफ़ देखा था कि 'तो 
						क्या हुआ, तू आख़िर मुझे क्या दे रही है, है तो मेरे बेटे 
						की ही कमाई' और फिर जैसे किसी अहसान का बदला चुकाने के भाव 
						से कहतीं, "अपणी माँ दे वास्ते वी ते ल्याई होएँगी, की 
						ल्याई सैं?"
 
 और मीरा के गले में जैसे कोई काँटा गड़ा देता। उसका 
						ससुरालवालों को खुश करने का, अच्छी बहू बने रहने का सारा 
						चाव मटियामेट हो जाता।
 एक औरत की जिंदगी का यह कैसा अनिवार्य पहलू है जो उसके 
						भीतर के सारे उदात्त अंश को राख कर देता है और महज एक औरत, 
						एक ओछी, कूढ़ मगज और तंगदिल की एक औरत मात्र बन जाती है, 
						मीरा भी चोट करना चाहती है, अपनी तिलमिलाहट में वह भी 
						नश्तर चुभोना चाहती है, पर उसके पास वह भाषा नहीं है, वैसी 
						गली में उतरकर जवाबतलबी करने की, जली-कटी सुनाने की, नहले 
						पर दहला रखने की और वह अंदर ही अंदर सारे उफ़ान को पी जाती 
						है। विजय से शादी करते वक्त ससुराल का ऐसे कोई सिनेरियो 
						उसके जेहन में नहीं था। शादी के इरादे के बाद ही दोनों के 
						परिवार आपस में मिले थे। माँ ने संकेत किया था, "भाई-बहन 
						बहुत सारे हैं लड़के के, तू निभा लेगी?"
 
 मीरा ने उलटकर कहा था, "तो अच्छी बात है न! खूब रौनक 
						रहेगी।"
 माँ ने दुहराई थी बात, "रौनक-वौनक सब ठीक है पर शादी के 
						बाद तो निभाना होता है। जितना बड़ा परिवार हो उतनी लेन-देन 
						की मुश्किल बनी रहती है।"
 "माँ, तुम भी कैसी 'मीन' बातें करने लगी हो, मेरे भाई-बहन 
						होते और कोई ऐसा सोचता तो कैसा लगता?"
 "वो तो ठीक है, पर ..."
 मीरा तुरंत माँ की चिंता समझ गई थी।
 "मुझे मालूम है तुम्हें मेरी फिक्र है न, तो मुझे कौन–सा 
						इनके साथ रहना है? मैं तो अमरीका होऊँगी। फिर उसके बड़े 
						भाई-बहन तो शादी-शुदा हैं और घर से अलग ही रहते हैं। खाली 
						छोटे भाई-बहन पंजाबी बाग़ में हैं।"
 
 माँ ने बात आगे नहीं बढ़ाई थी पर मीरा को माँ का तर्क तब 
						कुछ समझ में आया था जब शादी की रस्म के अनुसार सारे 
						भाई-बहनों को सगुन पर और दहेज के माल के साथ उपहार दिए गए 
						थे। तब माँ के साथ वह भी इन ख़रीदारियों में हाथ बँटा रही 
						थी। पर अब मीरा के पास धन की कतई कमी नहीं और उसने विजय के 
						परिवार वालों को बढ़िया उपहारों से इतना लाद दिया है कि 
						उन्हें कोई शिकायत होनी नहीं चाहिए पर उनकी शापिंग की सारी 
						दौड़-धूप के बावजूद कुछ न कुछ सुनने को मिल ही जाता था मीरा 
						को, "मुझे ये रंग पसंद नहीं। जो रंग बड़ी भाभी ने पहना है, 
						वह मेरा रंग है।" या "बस जिससे आपने पहले चॉयस करवा ली 
						उसने बढ़िया-बढ़िया माल छाँट लिया, फिर हमारे लिए तो 'बेस्ट 
						चॉयस' बची ही नहीं।" मीरा ने सोचा था वह सास-बहू के झगड़ों 
						या ससुराल की छोटी-छोटी बेमानी बातों से हमेशा ऊपर रहेगी, 
						न कभी सुनेगी जली-कटी, न सुनाएगी। वह कभी किसी तरह की 
						झिक-झिक की वजह ही पैदा नहीं होने देगी पर सब कुछ अपने हाथ 
						में कहाँ होता है! मीरा ने मन में कहा कि अगली बार पूरे 
						परिवार के लिए डिट्टो एक ही रंग, एक ही डिजाइन का सब कुछ 
						लाना चाहिए। यहाँ तो ले-लवा कर भी लोग-बाग़ नाखुशी जाहिर कर 
						रहे हैं। बड़ी बहन का घर दिल्ली के दूसरे कोने शक्तिनगर में 
						था। विजय के आने पर ही मीरा उन्हें मिलने जा सकी तो वे 
						विजय को सुनाकर कहने लगीं, "तू आया है तो तेरी बहू भी हमें 
						मिलने आई है वर्ना इसके लिए तो जैसे हम हैं ही नहीं।"
 
 मीरा उनके ऐसे वाक्य सुनकर अवाक रह गई थी। किस तरह से बात 
						करते हैं ये लोग क्या कोई पैदाइशी दुश्मनी का रिश्ता है जो 
						सिर्फ़ चोट पर चोट ही... सामने मेज पर मिठाइयाँ और पकवान और 
						मुँह से जली-कटी। मीरा ने सफ़ाई देने की कोशिश करते हुए 
						कहा, "दीदी, आपके यहाँ फ़ोन नहीं है सो आपसे सीधी बात नहीं 
						हो सकती थी, पर माँ जी के हाथ आपको संदेश तो भिजवाती रही 
						थी।"
 "लो! सारी दुनिया टैक्सियों, कारों में घूमती रहती हो, 
						यहाँ नहीं आ सकती थीं ठीक है, आप लोग बड़े लोग ठहरे, अमरीकी 
						पैसे वाले, पर याद रखना, छोटा भाई छोटा भाई ही रहता है। 
						पैसा बड़ी चीज नहीं।"
 
 मीरा को अपनी सफ़ाई देकर भी अफ़सोस हो रहा था। अब ये भाषण 
						पता नहीं कब तक चलना था। उसके बाद यह कहना शुरू कर दिया कि 
						फ़ोन की हैसियत उनकी भी है पर ससुरा दिल्ली में मिलता नहीं, 
						अप्लाई कर रखा है। और इसी बात को आगे बढ़ाते हुए फिर वे 
						बोली थी, "यही तो मैं कहती हूँ यहाँ हिंदुस्तान में कुछ 
						नहीं रखा है। मिट्टी के तेल के लिए लाइन में लगो, गैस के 
						लिए दिनोंदिन इंतजार करो, काका, तू तो सानूँ वी अमरीका 
						बुला लै ...ऐना नूँ मैडिकल रैप दी नौकरी मिल जावेगी ते मैं 
						वी कुझ-न-कुझ कर ईं लवाँगी, बी.ए.बी.टी.ते मैं कीती होई ऐ, 
						ओथे स्कूलाँ विच सुणयै बड़ी तनख़ा मिल जांदी ए।"
 इतने में जीजा जी बोल उठे, "काके, तू तो सिटिजन बन गया है 
						न"
 
 "नहीं, अब तक ऐसी कोई जरूरत नहीं पड़ी, थोड़ा सा मॉरल सेटबैक 
						भी होता है पर आप लोग अगर वहाँ बसना चाहते हैं तो मैं जाके 
						अप्लाई कर दूँगा सिटीजनशिप के लिए।"
 "हाँ, काके, तू कर ही दे। तेरी बहन तो कहती हे कि जब अपना 
						भाई वहाँ है तो क्यों न फ़ायदा उठाया जाए? यहाँ दिल्ली में 
						बड़ी हार्ड होती जा रही है डे-टु-डे लिविंग। बच्चों के लिए 
						भी स्कूल–कॉलेजों में दाखिले बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। 
						वहाँ वे भी फॉरन एजुकेशन लेकर अच्छे सेटल हो जाएँगे।
 
 विजय अतिरिक्त उत्साह दिखाता हुआ 'बिलकुल', 'सही बात है' 
						ऐसे जुमले बोलता रहा था। मीरा वहाँ से चली तो मन पर बड़ा 
						बोझ था, ये लोग सच में अमरीका पहुँच गए तो कैसे निबाह होगा 
						इनके साथ? पर उसने विजय से कुछ नहीं कहा, शायद वह भी ओछी 
						बात होती। सोच लिया कि जब सिर पर पड़ ही जाएगी तो किसी न 
						किसी तरह भुगत लेंगे।
 विजय के आने से पहले बीच–बीच में जब भी वक्त होता, मधु से 
						मुलाक़ात जरूर होती रहती थी। शादी के बाद से खूब गोल-मटोल 
						हो गई थी मधु। यों चेहरे की मिठास ज्यों की त्यों बनी थी, 
						सिर्फ़ भोलेपन की जगह वहाँ अब गुलगुलापन था। आँखें फूले हुए 
						गालों के पीछे कुछ धँसी-सी दीखती थीं। कुछ रश्क के साथ 
						उसने मीरा को कहा था, "तूने भला कैसे अपने आपको वैसा का 
						वैसा बचाकर रखा हुआ है, लगता ही नहीं कि शादी हुई है।"
 
 तब मीरा ने हँसते हुए कहा था, "शादी का मतलब मोटा होना 
						होता है क्या?"
 "पर मोटा होने से बचा भी कैसे रहा जा सकता है जब चौबीसों 
						घंटे काम ही खाना बनाना और खिलाना हो? यू आर लकी, मीरा 
						परिवार की किच-किच से बाहर वर्ना जिंदगी एकदम पलट जाती है 
						यहाँ तो। अपने आप का होश ही नहीं रहता मानो जिंदगी गिरवी 
						रख दी गई हो और तुम उसे वापस लौटाने के इंतजार में ही पूरा 
						वक्त काट देते हो। लगता नहीं कि वह कभी वापस मिलेगी और 
						लौटाने की कोशिशें भी फ़जूल हो जाती हैं, पता नहीं कितनी 
						सुरक्षा चाहिए और कितनी जिंदगी।"
 मधु बात कहते-कहते उदास हो गई थी। मीरा ने प्यार से उसका 
						चेहरा थपथपाकर कहा था, "तू मेरे पास आ जा।"
 "घर से निकलना कोई आसान होगा, फिर अभी तो बिलकुल असंभव ही 
						है, मैं एक्स्पेक्ट कर रही हूँ।"
 "ओह, कांग्रेचुलेशन्स तो कॉलेज से छुट्टी लोगी?"
 "हाँ, एक जो कुछ घंटे की राहत कॉलेज में मिल जाती थी तब वह 
						भी नहीं मिलेगी। यों कॉलेज की अपनी टेंशन्स हैं, तुझे तो 
						पता ही है, देयर इज टू मच इंटरफेयरेंस।"
 मीरा जिज्ञासु हो उठी थी ...एक नौस्टेलजिक जिज्ञासा।
 "क्या कुछ फिर नया घटा?"
 "नया क्या ...वही पुरानी बातें, वहीं शिकायतें ...लोग 
						क्लास पहले छोड़ देते हैं, हॉल में शोर होता है, कुछ लोग 
						टयूटोरियल नहीं लेते। होता यह है कि गेहूँ के साथ घुन भी 
						पिसने लगते हैं पर छोड़ दो यार, तू क्यों इन झमेलों में फिर 
						से पड़ रही है? शुक्र मना तू इस सबसे बाहर है।"
 मधु कॉलेज की बात नहीं छेड़ना चाहती थी पर मीरा को सचमुच 
						में अपनी पुरानी दुनिया की ख़बरें सुनने में सुख मिल रहा 
						था। बोली, "झमेलों में जिंदगी का रस भी है बशर्ते कि झमेले 
						अपने रचाए हों।"
 मधु झट से बोली, "जनाब, तब तो एक तरह से शादी भी अपना 
						रचाया हुआ ही झमेला है।"
 "क्या सच में?"
 "नहीं, तू ठीक कह रही है, घर में कौन बैठने देता, पर सच 
						कहूँ तो अब कॉलेज की नौकरी भी मजबूरी बन गई है, वह शादी के 
						लिए एक क्राइटेरिया था जिसे अब बनाए रखना जरूरी हो गया है 
						वर्ना डिस्वालिफ़ाई होने का ख़तरा बना रहता है पर ख़ैर, मेरी 
						सेहत के लिए बेहतर ही है नौकरी करना वर्ना और मोटी होती 
						जाऊँगी, पर तू बता, तूने अपने आप को इतना स्लिम कैसे रखा 
						हुआ है? बिलकुल नहीं बदली।"
 
 मीरा के चेहरे पर एक फीकी-सी मुस्कान आई थी। कहा, "वजन 
						नहीं चढ़ा तो इसका मतलब आदमी बदला ही नहीं...क्या अंदर कहीं 
						बदलना नहीं होता है?"
 "तू उतनी खुश नहीं दीखती मुझे, मीरा"
 "खुशी तो यों भी उम्र के साथ-साथ धीरे-धीरे रिसती रहती 
						है।"
 "सच? मैं सोचती थी खुशी का रिश्ता उम्र के साथ नहीं बल्कि 
						हालात के साथ होता है।"
 "दोनों बातें सच हैं। हालात उम्र के साथ-साथ ही बदलते 
						हैं।"
 "नहीं, हालात में आमूल परिवर्तन शादी की वजह से जरूर होता 
						है वर्ना उनका बदलना जरूरी नहीं पर मैं सोचती थी तू लकी 
						है। विजय तो बहुत ठहरा हुआ, बहुत समझदार इंसान है।"
 "तूने बिलकुल ठीक कहा, एकदम ठोस चट्टान की तरह सबको सहारा 
						देने वाला बहुत मजबूत आदमी है पर इतना मजबूत कि मैं ठोकर 
						मार-मारकर खुद ही टूट-बिख़र जाती हूँ, वह वैसा का वैसा 
						निस्पंद बना रहता है। दरअसल विजय को शादी की जरूरत नहीं 
						थी। वह अपने आप में संपूर्ण है। उसे किसी और से कोई 
						अपेक्षा ही नहीं होती। वह और उसका काम उसे पूरी तरह संलग्न 
						रखता है। मैं उसकी जिंदगी में सिर्फ़ एक ऑर्नामेंटेशन हूँ, 
						न होती तो भी चलता। मैं जानती हूँ मैं उसे कभी छोड़ूँगी 
						नहीं पर छोड़ भी दूँ तो फ़र्क नहीं पड़ेगा। मैं हूँ ही कितनी 
						उसकी दिनचर्या में...बस शाम के कुछ घंटे। उनमें भी उसे 
						कंप्यूटर और किताबों में कुछ न कुछ झाँकना होता है। मधु, 
						विजय यहाँ छुट्टी पर होता है तो वह दूसरा व्यक्ति होता है, 
						एकदम रिलैक्स्ड और कला के रंग-रूपों से अपने आपको एँटरटेन 
						करता हुआ।
 
 "वह सब वहाँ भी छुट्टी के वक्त करता है, ऑपेरा, थिएटर, 
						म्यूजियम्स ...पर जब छुट्टी का वक्त बीत जाता है तो वह 
						जैसे एकदम कोई मशीनी पुतला, कोई रोबोट बन जाता है। काम 
						...काम ...काम ...दौड़ ...दौड़ ...दौड़ ...जल्दी ...जल्दी 
						...जल्दी ...जैसे उसकी जिस्मानी मशीन से यही हाँफती हुई 
						साँसें निकलती हैं। तब मैं उसे जरा–सा भी रोकने की कोशिश 
						करूँ तो उसका संतुलन खो जाता है जैसे वह किसी पतली तार के 
						पुल पर भाग रहा हो और जरा-सा भी ध्यान बँटने से गिरने का 
						ख़तरा हो और तब मुझे लगता है कि उसके गिरने में दोष मेरा ही 
						होगा और मैं घबरा जाती हूँ। उसे रोकती नहीं, उलटे वही 
						मुझसे अपेक्षा करता है कि मैं भी ऐसे ही भागूँ उसके 
						साथ-साथ। ऐसा ही किसी हाई प्रेशर नौकरी में लग जाऊँ। इसे 
						वह मेरी आत्मनिर्भरता कहता है। अक्सर मुझे नयी–नयी 
						नौकरियों की संभावनाओं के क्षेत्रों के बारे में बताता है 
						और कहता है कि मुझे भी अपने पाँव पर खड़ी होना चाहिए। मेहनत 
						करके कुछ कर लेना चाहिए वर्ना कुछ सालों में मैं पिछड़ 
						जाऊँगी। फिर अपने आप को फालतू महसूस करने लगूँगी। आई विल 
						बी एक मिसफिट इन दैट सोसाइटी"
 
 मधु ने देखा मीरा की आँखें भीगी हुई थीं। वह सिर्फ़ 
						भौचक्की–सी उसे देखती रही थी। मीरा ने आँख उठाई तो एक बूँद 
						गाल पर आ गिरी। कहने लगी, "पर विजय को शायद यह नहीं पता कि 
						मैं तो अभी से खुद को फालतू महसूस करने लगी हूँ। उसकी 
						जिंदगी में भी और उसके समाज में भी। वहाँ मेरे लिए कोई जगह 
						ही नहीं।" मीरा कहते-कहते अपने आप ही खामोश होकर अंतर्लीन 
						सी हो गई। मधु चुपचाप उसकी खामोशी महसूसती रही, फिर धीरे 
						से बोली, "तू यहाँ परफ़ॉरमेंस देकर जा रही है?"
 
 "वो तो ख़ैर दे ही रही हूँ एकाध, पर इस तरह से कहीं नृत्य 
						चलता है तीन साल बाद भारत आओ और फिर से नाच शुरू कर दो। 
						फिर महीने दो महीने बाद दुबारा से सालों के लिए ग़ायब, इस 
						तरह से कला थोड़े ही पनपती है और फिर लोगों की स्मृति भी 
						आख़िर कितनी दूर तक जा सकती है। एक बार मंच से परे हो गए तो 
						बहुत जल्दी सब भूल जाते हैं, फिर शो भी नहीं मिलते।"
 "मीरा, क्या कभी नृत्य सिखाने का सोचा है, तुम वहाँ अपना 
						स्कूल नहीं खोल सकती? कुछ तो सीखने वाले मिल ही जाएँगे।"
 "और मैं दिन–रात धा गे किट धा ...बस डांस के क ख ग सिखाती 
						रहूँ। आई हेट दैट, सिखाने में नृत्य कहाँ पनपता है उलटे 
						मीलों नीचे उतरकर पहले तो बस बेसिक स्टेप ही सिखाने होते 
						हैं। मुझे यों भी चीज़ों के सरलीकरण की आदत या चाव नहीं।"
 "मीरा" मधु ने शब्द जमा-जमाकर कहना शुरू किया, "क्या तूने 
						कभी सोचा है ..."
 मीरा बीच ही में उसे टोकते हुए उसके अंदाज पर हँसती हुई 
						बोली, "सोचती ही तो रहती हूँ, और करती क्या हूँ?"
 "नहीं, मीरा, चुप, मैं तुझसे एक बड़ा गंभीर सवाल पूछ रही 
						हूँ।"
 "ठीक है, पूछ।"
 "क्या तूने कभी सोचा है कि तू जिंदगी में क्या चाहती है?"
 "हाँ, सोचा है बहुत बार ...बार-बार सोचा है। यों हर बार 
						जवाब एक ही नहीं होता पर फिर भी होता है जवाब और अकसर वही 
						कि मैं जिंदगी को अपने ढंग से जीना चाहती हूँ। जिंदगी पर 
						अपना हक, अपना कंट्रोल चाहती हूँ पर वही नहीं होता। और मैं 
						ही क्यों, मुझे लगता है किसी का नहीं हो पाता पर कोशिश सब 
						करते हैं। शायद कुछ हद तक कोई सफल भी हो जाते हैं पर 
						परिवार-समाज की अपेक्षाएँ ...और हमारी अपनी ही जाती 
						जरूरतें कहाँ ऐसा होने देती हैं? मैं जुड़ी भी रहना चाहती 
						हूँ और मुक्त भी, यह कैसे हो सकता है"
 "मीरा, मालूम मुझे क्या लगता है, तू यहाँ के संदर्भ से कट 
						गई है। तेरी तो माँग ही कुछ और है, यहाँ तो साँस लेने के 
						लिए थोड़ा–सा स्पेस मिल जाए, इतनी ही बात पूरी नहीं होती। 
						जिंदगी का हक़ कौन माँग सकता है। ऐसी बातें करें भी तो 
						सिर्फ़ मर्द ही कर सकते हैं। मैंने कभी इस तरह से सोचा ही 
						नहीं।"
 "मधु, हमारा सोचना भी तो शुरू से नियमित किया जाता है 
						...उन्हीं चीज़ों के बारे में सोचते हैं जिनकी इजाजत होती 
						है और फिर वही आदत बन जाती है। उससे बाहर सोचना फिर हमें 
						सूझता ही नहीं।"
 मधु को लगा बात ज्यादा ही गंभीर होती जा रही है। थोड़ी देर 
						में मीरा यहाँ कोई नारी-आंदोलन ही न खड़ा कर दे उठती हुई 
						बोली, "चल-चल, बाहर चलें, मैं तो तुझे वेजीटेरियन में डोसे 
						खिलाने ले जाना चाहती थी।"
 मीरा भी अपने से एकदम बाहर आ गई।
 "देटस ए ग्रेट आइडिया।"
 और दक्षिण भारतीय खाने का ध्यान आते ही मीरा के दिल-दिमाग़ 
						में फिर से कृष्णन तरोताजा हो आया। क्या कर रहा होगा वह इस 
						वक्त सुबह के ग्यारह बजे? वहाँ तो अभी पिछली तारीख की रात 
						होगी...
 
 सूरज की कड़ी धूप में भी किन्हीं रातों के साए मीरा के जेहन 
						में उतर आए। टैक्सी में पिछली सीट पर बैठे खिड़की से आते 
						हुए तेज हवा के झोंके मीरा के गेसुओं को लहराने लगे। नवंबर 
						की खनकती हवा ने दिमाग़ की हर खिड़की को जैसे खोल दिया था और 
						उन खुली खिड़कियों से फिसलकर आने लगे कितने ही भूले-पहचाने 
						नाम और चेहरे...इतने सालों में जाने सब कहाँ-कहाँ बिखर गए 
						होंगे... उसने अपनी डायरी भी सँभालकर नहीं रखी, कैसा लगता 
						अगर वह भी दिल्ली में ही किसी से शादी करके बस जाती 
						...उसकी शहर से पहचान और शहर की उससे पहचान तब ख़ासी बढ़ 
						जाती। पर क्या सच में ...क्या वह ऊब नहीं जाती उसी बँधी 
						दिनचर्या से ...अमरीका ने उसे निश्चित रूप से एक नयी 
						दुनिया का अनुभव दिया है। उसके क्षितिज का विस्तार किया 
						है, पर पहले का सारा संचय फ़जूल भी तो हो गया है। क्या अपने 
						सारे अतीत को साथ लेकर जिया जा सकता है? अतीत को अपने से 
						अलग काटकर धर देना उसके लिए इतना पीड़ादायक क्यों है? शायद 
						बड़ी मेहनत से, बड़ी एहतियात से रचा गया था वह अतीत ...अब 
						वैसे प्रयास फिर से क्यों नहीं हो सकते?
 
 उसे सहसा याद हो आया बहुत सुदूर अतीत का एक चेहरा- अजीत 
						...यही नाम था उसका, तब बी.ए. फर्स्ट इयर में ही थी वह। वह 
						शायद एम .ए .फाइनल कर रहा था। यूनिवर्सिटी स्पेशल में वह 
						भी जाया करता था। वह रोज उसे देखता था, मीरा भी देखती। 
						दोनों आँखें कई बार मिलतीं। मीरा जब भी आँख उठाकर देखती, 
						उसे अपनी ही ओर देखता पाती। पर फिर वह भी किताब में चेहरा 
						गड़ा देता और मीरा भी शरमाकर खिड़की के बाहर देखने लगती। साल 
						भर इसी तरह चलता रहा था। दोनों में किसी ने भी बात करने की 
						पहल नहीं की। फिर एक बार बीना ने उसे कहा था, "मीरा, मेरा 
						कजन तेरी बड़ी तारीफ़ करता रहता है।"
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