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अंततः जब वह चिमटे या कलछी से कोई चीज़ उतारने को होती उसे लगता कहीं से आ कर दो परिचित हाथ मर्तबान उतार देंगे। रेखा बावली बन इधर उधर कमरों में बच्चे को टोहती पर कमरों की वीरानी में कोई तबदीली न आती। कॉलोनी में कमोबेश सभी की यही हालत थी। इस बुड्ढा बुड्ढी कॉलोनी में सिर्फ़ गर्मी की लंबी छुट्टियों में कुछ रौनक दिखाई देती जब परिवारों के नाती पोते अंदर बाहर दौड़ते खेलते दिखाई देते। वरना यहाँ चहल-पहल के नाम पर सिर्फ़ सब्ज़ी वालों के या रद्दी खरीदने वाले कबाड़ियों के ठेले घूमते नज़र आते। बच्चों को सुरक्षित भविष्य के लिए तैयार कर हर घर परिवार के माँ बाप खुद एकदम असुरक्षित जीवन जी रहे थे।

शायद असुरक्षा के एहसास से लड़ने के लिए ही यहाँ की जनकल्याण समिति प्रति मंगलवार किसी एक घर में सुंदर कांड का पाठ आयोजित करती। उस दिन वहाँ जैसे बुढ़वा मंगल हो जाता। पाठ के नाम पर सुंदर कांड का कैसेट म्यूज़िक सिस्टम में लगा दिया जाता। तब घर के साज ओ सामान पर चर्चाएँ होतीं।
डाइनिंग टेबिल पर माइक्रोवेव ओवन देखकर मिसेज गुप्त मिसेज मजीठिया से पूछतीं, ''यह कब लिया?''
मिसेज मजीठिया कहतीं, ''इस बार देवर आया था, वही दिला गया है।''
''आप क्या पकाती हैं इसमें?''
''कुछ नहीं, बस दलिया खिचड़ी गर्म कर लेते हैं। झट से गर्म हो जाता है।''
''अरे यह इसका उपयोग नहीं है, कुछ केक वेक बना कर खिलाइए।''
''बच्चे पास हों तो केक बनाने का मज़ा है।''

पता चला किसी के घऱ में वैक्यूम क्लीनर पड़ा धूल खा रहा है, किसी के यहाँ के यहाँ फूड प्रोसेसर। लंबे गृहस्थ जीवन में अपनी सारी उमंग खर्च कर चुकी ये सयानी महिलाएँ एकरसता का चलता फिरता कूलता कराहता दस्तावेज़ थीं। रेखा को इन मंगलवारीय बैठकों से दहशत होती। उसे लगता आने वाले वर्षों में उसे इन जैसा हो जाना है।

उसका मन बार-बार बच्चों के बचपन और लड़कपन की यादों में उलझ जाता। घूम फिर कर वही दिन याद आते जब पुन्नू छोटू धोती से लिपट-लिपट जाते थे। कई बार तो इन्हें स्कूल भी ले कर जाना पड़ता क्यों कि वे पल्लू छोड़ते ही नहीं। किसी सभी समिति में उसे आमंत्रित किया जाता तब भी एक न एक बच्चा उसके साथ ज़रूर चिपक जाता। वह मज़ाक करती, ''महारानी लक्ष्मीबाई की पीठ पर बच्चा दिखाया जाता है, मेरा उँगली से बँधा हुआ।''
क्या दिन थे वे! तब इनकी दुनिया की धुरी माँ थी, उसी में था इनका ब्रह्मांड और ब्रह्म। माँ की गोद इनका झूला, पालना और पलंग। माँ की दृष्टि इनका सृष्टि विस्तार। पवन की प्रारंभिक पढ़ाई में रेखा और राकेश दोनों ही बावले रहे थे। वे अपने स्कूटर पर उसकी स्कूल बस के पीछे-पीछे चलते जाते यह देखने कि बस कौन से रास्ते जाती है। स्कूल की झाड़ियों में छुप कर वे पवन को देखते कि कहीं वह रो तो नहीं रहा। वह शाहज़ादे की तरह रोज़ नया फ़रमान सुनाता। वे दौड़-दौड़ कर उसकी इच्छा पूरी करते। परीक्षा के दिनों में वे उसकी नींद सोते जागते।

रेखा के कलेजे में हूक-सी उठती, कितनी जल्दी गुज़र गए वे दिन। अब तो दिन महीनों में बदल जाते हैं और महीने साल में, वह अपने बच्चों को भर नज़र देख भी नहीं पाती। वैसे उसी ने तो उन्हें सारे सबक याद कराए थे। इसी प्रक्रिया में बच्चों के अंदर तेज़ी, तेजस्विता और त्वरा विकसित हुई, प्रतिभा, पराक्रम और महत्वाकांक्षा के गुण आए। वही तो सिखाती थी उन्हें 'जीवन में हमेशा आगे ही आगे बढ़ो, कभी पीछे मुड़ कर मत देखो।'' बच्चों को प्रेरित करने के लिए वह एक घटना बताती थी। पवन और सघन को यह किस्सा सुनने में बहुत मज़ा आता था। सघन उसकी धोती में लिपट कर तुतलाता, ''मम्मा जब बैया जंतल मंतल पल चर गया तब का हुआ?'' रेखा के सामने वह क्षण साकार हो उठता। पूरे आवेग से बताने लगती, ''पता है पुन्नू एक बार हम दिल्ली गए। तू ढ़ाई साल का था। अच्छा भला मेरी उँगली पकड़े जंतर मंतर देख रहा था। इधर राकेश मुझे धूप घड़ी दिखाने लगे उधर तू कब हाथ छुड़ा कर भागा, पता ही नहीं चला। जैसे ही मैं देखूँ पवन कहाँ है। हे भगवान तू तो जंतर-मंतर की ऊँची सीढ़ी चढ़ कर सबसे ऊपर खड़ा था। मेरी हालत ऐसी हो गई कि काटो तो खून नहीं। मैंने इनकी तरफ़ देखा। इन्होंने एक बार गुस्से से मुझे घूरा, ''ध्यान नहीं रखती?''
घबरा ये भी रहे थे पर तुझे पता नहीं चलने दिया। सीढ़ी के नीचे खड़े हो कर बोले, ''बेटा बिना नीचे देखे, सीधे उतर आओ, शाबाश, कहीं देखना नहीं।''
फिर मुझसे बोले, ''तुम अपनी हाय तोबा रोक कर रखो, नहीं तो बच्चा गिर जाएगा। तू खम्म-खम्म सारी सीढ़ियाँ उतर आया। हम दोनों ने उस दिन प्रसाद चढ़ाया। भगवान ने ही रक्षा की तेरी।''

बार-बार सुनकर बच्चों को ये किस्से ऐसे याद हो गए थे जैसे कहानियाँ।
पवन कहता, ''माँ जब तुम बीमार पड़ी थीं, छोटू स्कूल से सीधे अस्पताल आ गया था।''
''सच्ची। ऐसा इसने खतरा मोल लिया। के.जी. दो में पढ़ता था। सेंट एंथनी में तीन बजे छूट्टी हुई। आया जब तक उसे ढूँढ़े, बस में बिठाए, ये चल दिया बाहर।''
पवन कहता, ''वैसे माँ अस्पताल स्कूल से दूर नहीं है।''
''अरे क्या? चौराहा देखा है वह बालसन वाला। छह रास्ते फूटते हैं वहाँ। कितनी ट्रकें चलती हैं। अच्छे भले लोग चकरघिन्नी हो जाते हैं सड़क पार करने में और यह एड़ियाँ अचकाता जाने कैसे सारा ट्रैफ़िक पार कर गया कि मम्मा के पास जाना है। सघन कहता, ''हमें पिछले दिन पापा ने कहा था कि तुम्हारी मम्मी मरने वाली है। हम इसलिए गए थे।''
''तुमने यह नहीं सोचा कि तुम कुचल जाओगे।''
''नहीं।'' सघन सिर हिलाता, ''हमें तो मम्मा चाहिए थी।'' अब उसके बिना कितनी दूर रह रहा है सघन। क्या अब याद नहीं आती होगी? कितना काबू रखना पड़ता होगा अपने पर।
भाग्यवान होते हैं व जिनके बेटे बचपन से होस्टल में पलते हैं, दूर रह कर पढ़ाई करते हैं और एक दिन बाहर-बाहर ही बड़े होते जाते हैं। उनकी माँओं के पास यादों के नाम पर सिर्फ़ खत और ख़बर होती है, फ़ोन पर एक आवाज़ और एक्समस के ग्रीटिंग कार्ड। पर रेखा ने तो रच-रच कर पाले हैं अपने बेटे। इनके गू मूत में गीली हुई है, इनके आँसू अपनी चुम्मायों से सुखाये हैं, इनकी हँसी अपने अंतस में उतारी है।

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