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                      दीदी़ आप अपने शुरूआती लेखन के
        विषय में कुछ बताइए।जो शुरूआत की बात है तो मेरे पिताजी
        हिन्दी़, संस्कृत और अंग्रेज़ी में एम.ए. थे और बहुत विद्वान थे।
        वे पढ़ने में रूचि रखते थे। टेलेन्टेड इतने कि पिताजी पढ़ते तो
        अंग्रेजी थे और हम बच्चों को हिन्दी में बताते जाते थे। हमारे
        पिताजी आशु कवि थे। पढ़ने और लिखने के वातावरण का मुझ पर
        असर पड़ा। वे पत्र भी कविता के रूप में लिखते थे। मुझे स्कूली
        जीवन से ही पढ़नेलिखने की आदत पड़ गई। बचपन की
        गतिविधियां ही आगे चलकर उन्नत हुई। इसी के साथसाथ प्रथम
        श्रेणी में पस भी होती गई। भारती जी के साथ मुंबई आने पर
        लेखन की दिशा बदल गई। धर्मयुग में रोमांचक सत्य कथाओं
        की शुरूआत मैने की। मेरा नाम मुक्ता राजे रखा गया। मैने सत्य
        कथा, पुटपथ़ पुराने पेपर आदि से कटिंग करके लिखना शुरू किया।
        धर्मयुग में इन सत्य कथाओं की प्रसिद्धि का आलम यह था कि
        बड़ेबड़े लोगों के पत्र आते थे और कॉमन आदमी भी पढ़ता
        था। इन सत्य कथाओं को बंगला में, कन्नड़ में और दक्षिण में
        खूब प्रसिद्धि मिली तथा मेरा लेखन यहीं तक सिमट कर रह गया।
        इसी क्रम में मुझे चेखव की एक किताब मिली और वहीं से पढ़ने
        का चस्का लगा। भारती जी मेरी रूचि का बहुत ध्यान रखते थे और
        किताबों का ढेर लगा देते थे।
 स्वामीनारायण संप्रदाय के लोग मुझे
    लंदन ले गए। इस तरह यात्राविवरण लिखना शुरू किया। मैने
    सोनिया गांधी का इंटरव्यू लिया और वह बहुत बड़ा स्कूप हो गया
    था। भारत सरकार के अनुरोध पर राजीव गांधी के साथ विश्व यात्रा की
    और टीवी पर मुझे इंगित करके बताया जाता था कि इस महिला ने
    सोनिया गांधी का इंटरव्यू लिया था। इस तरह लेखन बढ़ता गया।
    मैने श्रम, प्रयास या प्लान नहीं किया। बस, सब होता गया।
    मैने वेंकटरमणन जी (राष्ट्रपति) का इंटरव्यू लिया। वे इतना खुश
    हुए कि अपने पर्सनल प्रयोग के लिए इस इंटरव्यू का अंग्रेजी अनुवाद
    करवाया और अपने मित्रों को बंटवाया। मैने बच्चों के लिये
    एनिमेशन फिल्म तक लिखी जिसे इंटरनेशनल पुरस्कार मिला और
    राष्ट्रपति ने पुरस्कृत किया। इस तरह जीवन में लोग मिलते चले गए
    और जर्नलिस्ट की दिशा को भारती जी ने चेनलाइज कर दिया और वह
    होता ही चला गया। "ज्ञानोदय" में शरद देवड़ा ने
    समीक्षाएं बहुत करवाईं। बहुत मज़ा आता था। सच कहूं तो मैने खुद
    के लेखन को बहुत महत्व नहीं दिया। मैं सितार बहुत अच्छा बजाती
    थी पर सब छूट गया। हां, अच्छी किताबें पढ़ने का बहुत शौक है।
 
                        आपके लेखन को आपके परिवार में किस रूप में देखा गया?मेरे पिताजी का नाम पं रघुनंदन प्रसाद शर्मा था। उन्होंने
    मुझे बहुत सिर चढ़ाया था। वे एकएक शब्द पढ़ते थे और
    टीकाटिप्पणी करते थे। मेरे लेखन को सराहते भी थे। मेरे भाई
    विष्णु ब्रह्मचारी बहुत बड़े सन्त हैं। वे बहुत पढ़ते हैं। उन्होंने
    और पिताजी ने मुझे बहुत मान दिया। मुझे पढ़ने में नई दिशा
    और सूझ मिलती थी। मां ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी लेकिन भाई
    उन्हें साइकिल पर परीक्षा दिलाने के लिए ले जाता था। वे रामचरित
    मानस की बहुत शौकीन थी। खाना बनातेबनाते चौपइयां बोलती
    जाती थीं। हमारा घर दीवानों का घर था। हमारा मायका बहुत ही प्यारा
    था। पिताजी प्रयोगधर्मा व्यक्ति थे। मेरे ताऊजी बच्चों को खूब
    कहानियां सुनाते थे। मैने बच्चों के लिए एक संकलन तैयार किया
    और अपने ताऊजी का आभार प्रकट किया है। कहानी कहने की कला बचपन के
    संस्कारों से मिली।
                           
                          डॉ धर्मवीर भारती से जब आपका परिचय हुआ था तब तक आपका
    लेखन किस मुकाम तक पहुंच चुका था?लेखन हमारा उसी स्तर का होता था, जैसे कॉलेज़ स्कूल की
    प्रतियोगिताओं में लिखना। मुझे कहानी प्रतियोगिता का शौक था।
    एक प्रतियोगिता में मुझे तृतीय पुरस्कार मिला और मुझे थोड़ी
    तकलीफ हुई। कानपुर में आयोजित एक
    प्रतियोगिता में इलाहाबाद का प्रतिनिधित्व किया और प्रथम पुरस्कार
    प्राप्त किया।  मैने
    रिसर्च की "सिद्ध और नाथ का तुलनात्मक अध्ययन।" पहले तो
    भारती जी गाइड करने के लिये तैयार नहीं हुए। ज़ोर देने पर
    उन्होंने मुझसे काम शुरू करने के लिए कहा। जब उन्होंने मेरे
    सिनॉपसिस देखे तो धराशाई। तब उन्होंने पूरी दिलचस्पी से मेरा
    मार्ग दर्शन किया। मै पढ़ने में गंभीर हो सकती हूं तभी उन्होंने
    जाना और वे प्रभावित होते चले गए।
                             
                          आम तौर पर यह माना जाता है कि पतिपत्नी को एक ही व्यवसाय
    में कभी नहीं होना चाहिए। उन दोनों के अहम टकराते हैं। ऐसे में
    पति जब डॉ धर्मवीर भारती जैसा ख्यातिप्राप्त लेखक, कवि, संपदक
    और बेहद अनुशासनबद्ध व्यक्ति हो और पत्नी की भी साहित्य में अपनी
    जगह हो तो ऐसे में पुष्प भारती क्या महसूस करती रहीं?भारती जी मेरे लेखन के विषय में कहते थे कि मेरे पास बेहतर
    भाषा है और मै इसे उनके प्रेम का अतिरेक मानती हूं। एक बार
    धर्मयुग में मॉरीशस का विशेषांक निकला था। उसमें हम दोनों
    के लेख थे। विश्वास मानो मेरे लेख पर एक बोरी भरकर पत्र आए और
    यह प्रमाण उन्होंने मुझे दिखाया। मै साहित्य में उनके पैर के
    नाखून के बराबर भी नहीं हूं। वे मेरा बहुत आदर करते थे। जितना
    हम नहीं थे वे उससे बेहतर बताते थे। वे मेरी रूचि का ख्याल रखते
    थे। मेरी पसन्द की किताबों के ढेर लगा देते थे। मैने उन्हें जिन्दगी
    भर गुरू माना तो टकराव का सवाल ही पैदा नहीं होता।
                             
                          आप आजीवन डॉ भारती की प्रेरणा, हमसाया, हमकदम, संगी,
    साथी, सखी और सब कुछ बनी रहीं, वे आपके लिये क्या थे?तुम कनुप्रिया की कविता याद कर लो। जब मैने उनसे पूछा कि आप
    मेरे कौन है तो भारती जी ने उतर में "तुम मेरे कौन
    हो" कविता लिखी। वे मेरे गुरू, पिता और भाई थे। पति तो बहुत
    बाद में थे। वह तो गौण रिश्ता है। वे मेरे सब कुछ थे। सबसे
    बढ़कर वे मेरे बच्चे थे। मुझमें उन्हें अपनी मां दिखती थी। हम
    दोनों ने एकदूसरे को पा लिया फिर और कहीं नज़र जाने का
    सवाल ही नहीं उठता। यह अपनेआप में संपूर्ण प्यार था।
                             
                          आपने साहित्य की सभी विधाओं में काम किया है, आपने विदेशी
    लेखकों के बहुत सुन्दर और आकर्षक मोनोग्राम लिखे हैं। आपके द्वारा
    लिए गए साक्षात्कार आज भी भुलाए नहीं भूलते तो लेखकों से इतना
    अच्छा तादात्म्य कैसे जोड़ लेती हैं?उन लेखकों में स्वयं को पाती थी। इसीलिए वे मार्मिक बन पड़े
    हैं जो मन को छूते हैं। उसके अलावा मै जो चाहती रही हूं और नहीं
    पा सकी उसे इन चरित्रों में पा कर नए सपने बुन जाते थे। इसीलिए
    उन लेखों में जान है। आप रती जिन्ना का लेख देखिए। पहले तो
    वे मुझसे मिलने को तैयार ही नहीं थे। पर बाद में मुझसे
    मिले। उन्होंने जिस चाव से मखमल के लाल कपड़े में सहेजकर रखे
    गए, पत्र दिखाए, उफ! देखकर कलेजा मुंह को आ गया। ये चरित्र
    मुझमें कुछ ऐसा पाते थे कि खुद को खोलकर रख देते थे। मै अपने
    विषय में यही कह सकती हूं कि मुझे जहां सच्चा प्यार मिलता है,
    बिक जाती हूं। 
                          आप लेखऩ लेखकीय दुनिया और लेखक परिवार से न जुड़ी होती
    तो ?मै कल्पना ही नहीं कर सकती। पिता
        सारे बच्चों को पढ़नेपढ़ाने में लगाए रखते थे। मै सोच ही
        नहीं सकती। यदि इतने बड़े लेखक से शादी न भी होती तो आम
        आदमी के साथ रहकर भी पढ़नालिखना न छूटता। विनय कुमार
        अवस्थी ने भूदानआंदोलन में बहुत काम किया। मै लायब्रेरी
        की किताबें पढ़कर दो दिन बाद ही वापस कर लेती थी। विनय जी को
        लगा कि मै खाली इम्प्रेस करने के लिए किताबें जल्दीजल्दी
        लौटाती हूं। एक बार उन्होंने जब मेरे द्वारा पढ़ी गई किताबों के
        विषय में पूछा तो मुझसे उतर पाकर विश्वास हो गया कि मै
        सचमुच पढ़ती हूं। बाद में वे खुद मुझे किताबें सजेस्ट करते
        थे। वे चकित थे कि एक यंग लड़की इतना कैसे पढ़ सकती है। तो
        साहब़ पढ़ना कभी भी नहीं छूटता। 
                          आमतौर पर कहा जाता है कि लेखन औरों का भला करे न करे पर
        हमें खुद को एक बेहतर इन्सान बनाता है। आपका इस बारे में क्या
        मानना है?यह शब्दशः सत्य है। किताब का क्राइटीरिया ही यह है कि जिसे
        पढ़कर मै बेहतर बन सकूं। वह किताब, वह संगीत जो मुझे सुख
        पहुंचाये, वह मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ है, जिस वस्तु में मुझे
        व्यापक क्षितिज मिले, वह मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ है। 
                          आजकल आप भारती जी के रचनासंसार को एकत्र करने, संपदित
        करने और सहेजने की मुहिम में जुटी हैं, ऐसे में आपके
        बच्चों का योगदान और क्या रूख है?बच्चे हमेशा से यह जानते हैं कि हम दोनों एकदूसरे को
        कितना प्यार करते हैं। इसलिए जब मै व्यस्त रहती हूं तो छेड़ते नहीं।
        उन्हें पता है कि मुझे सुख देना है तो मुझे भारती जी में डूबा
        रहने दें। बेटी व्यावहारिक रूप से मेरी मदद करती है़ मुझे मुक्त
        रखती है कि मै काम कर सकूं। बच्चों को पता है कि मेरी बात में
        पिता और पति जरूर आएंगे। पहले भारती जी मुझे सुनते थे, अब
        मेरी बेटी प्रज्ञा है जो मुझे सुनती है। मै यह सोच कर काम
        नहीं कर रही कि भारती जी के लिए कर रही हूं। यह मेरे जीने का
        सबब है। भारती जी को पेड़ों से बहुत लगाव था, उनकी मृत्यु
        के बाद हमारे घर के कदंब के पेड़ों ने फूल देना बन्द कर दिया है।
        हां, अभी रचनासंसार को कोई नहीं देख रहा, पर उनकी
        किताबों का असली मूल्यांकन आगे होगा। अभी तो ईर्ष्याद्वेष
        चल रहा है। मै कौन होती हूं। मै समुद्र में बूंद के बराबर हूं। 
                          उम्र के इस दौर में भी आपकी सक्रियता देखते बनती है तो इस
        सक्रियता के पीछे कौनसी प्रेरणाशक्ति काम कर रही है?निश्चित रूप से भारती जी का प्यार काम कर रहा है। मैने उन्हें पति
        समझा ही नहीं। दूसरे, मैने कभी किसी का अहित नहीं चाहा,
        जिसने किया उसका भी नहीं। लेकिन अब उम्र थकाने लगी है। जब
        काम ज्यादा था तो थकान भी नहीं होती थी। काम कम होने के साथ
        ही शक्ति भी चुकने लगी है। मै अब भी उनके साथ ही जी रही हूं।
        मै मिस ही नहीं करती उनको। 
                          आप संबंधों को किस तरह परिभाषित करती हैं और
        संवेदनशीलता को ज़न्दिगी में कितना महत्वपूर्ण मानती हैं?मै संबंधों को खून के नाते से नहीं जोड़ती। मुंबई
        परप्रान्त है। आज पूरी दुनिया बदलीबदली नजर आती है। जब
        संबंध बनाने चले तो सारे रिश्तेनाते यहां के समाज में ही
        मिल गए। बनाये गए रिश्तों में देने का सुख मिलता है। खून के
        रिश्ते में अपेक्षाएं होती हैं। इसलिए बनेबनाए रिश्ते अच्छे लगते
        हैं। रिश्तेदार यह देखते हैं कि हमने उनके लिए क्या किया, जब कि
        बनाये गए रिश्तों में मधुरता होती है। मै नातेरिश्तेदारों की
        अवहेलना की बात नहीं कर रही, पर फर्क साफ नज़र आता है। मुझे
        याद आता है राही मासूम रजा का वाक्य  उन्होंने एक बार कहा कि
        आप ही केवल मेरी भाभी हो। मैने कहा कि तुम्हारी और भी तो
        भाभी है। वे बोले कि और सब तो भाभी जी हैं, केवल आप
        मेरी भाभी हो। तो कैसे भूल सकती हूं इस बात को? कितनी बारीक
        बात कह गए वे। मुझे मुंबई में सारे रिश्ते मिल गए।
 रही बात संवेदनशीलता की तो यह इतनी नाजुक होती है कि इस
        पर आसपास के परिवेश की संवेदनशीलता असर डालती है। पर आम
        संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है। हम रिएक्ट भी नहीं करते।
        हमारे समाज का ढांचा इस तरह बनता जा रहा है कि जितना समाज
        बचा ले जाएं तो बहुत है। जहां तक संवेदनशीलता की बात है तो
        याद आता है वह वाक्या जब भारती जी, मैं और बच्चे लोटस से
        फिल्म देख कर आ रहे थे और रास्ते में 34 लोगों द्वारा एक आदमी
        को पिटता देखकर उसे देखने जाने लगे तो मैने उन्हें मना करके
        घर चलने के लिए कहा। खैर  घर आकर उन्होंने खुद को कमरे में
        बन्द कर लिया और थोड़ी देर में फूटफूटकर रोने की आवाज आने
        लगी। मै घबरा कर गई और पूछा तो बोले आज आपने मेरी
        संवेदनशीलता पर अंकुश लगा दिया। मै आदमी से पिटने का कारण
        भी नहीं जान पाया। मुझे बड़ी कोफ्त हुई।
        दूसरे दिन महालक्ष्मी के उस एरिया में बहुत से लोगों से पूछने
        के बाद पता चला कि पिटने वाले आदमी ने पीटने वाले की पत्नी के
        साथ गर्भावस्था में बलात्कार किया था। पीटने वाले लोग उस
        महिला के पिता, पति और भाई 
							थे। मै बहुत खुश हुई। आकर भारती
        जी को बताया तो वे बोले यह तो गलत है। एक अकेले आदमी को
        चार आदमी पीटें। माना गलत हुआ, पर हमारे यहां कानून है,
        पुलिस है, वहां जा सकते थे। तो यह तो मात्र एक उदाहरण है
        संवेदनशीलता का।
 
                          आपकी आवाज में अपनापन, किसी बात पर आपका आक्रामक तेवर,
        आपके बोलने में गज़ब का आत्मविश्वास, यह जज्बा आपने कहां
        से पाया?जीवन में सौभाग्य इस तरह का रहा कि हमारे परिवार में
        छलछद्म नहीं चलता था। मैने अपने परिवार में मिलजुलकर
        रहना देखा है। हम भाई बहनों ने झपटा मारकर नहीं, बल्कि
        मिलजुल कर खाया। सारे बच्चे बराबरी के स्तर पर पले गए। हमारे
        घर में भोलापन बहुत था। अपनापन इसीलिए आया कि घर का
        वातावरण वैसा ही था। रही बात आत्मविश्वास की तो मेरे पिताजी
        बहुत अच्छे वक्ता थे। उन्होंने गुर बताया कि डिबेट में विरोध
        में बोला जाए तो बोलने में ज़ोर आता है। यह करतेकरते
        मुझमें आत्मविश्वास आता गया। मेच्योर होने पर यह दृढ
        निश्चय किया कि झूठ नहीं बोलूंगी और दो चेहरे नहीं
        लगाऊंगी। झूठ न बोलने का़ मुखौटा न लगाने का कौल लिया
        था। कुछ भी हो जाए, पर ईमानदार बनी रहूं। बस, यही चीज़
        ज़न्दिगी में आत्मविश्वास दे देती है। हां, याद आया कि पहले एक
        "शनीचरी" पत्रिका निकलती थी और उस समय मन्नू भंडारी
        का बोलबाला था। मेरे लेख भी छप रहे थे और इस पत्रिका में
        लिखा गया कि पुष्प के आने से मन्नू भंडारी का सिंहासन डोल
        गया। तो मेरा खुद पर विश्वास बढ़ना ही था। मै अपने लेखन के
        विषय में कुछ कहती तो कान्ता ने विश्वास दिलाया कि तुम अच्छा
        लिखती हो तभी तो तारीफ पाती हो। उसने कितनी प्यारी बात कही थी
        जो मेरा विश्वास बढ़ाने के लिये काफी था। दूसरे, यदि अपने
        काम के प्रति लगाव है तो आपको प्यार मिलेगा ही। मुझे अपने
        विद्यार्थियों से जो प्यार मिला उसने मेरे जीवन को प्यार में
        लबाबर भर दिया। भला इतना प्यार पाकर किसमें कॉन्फिडेन्स नहीं
        आएगा? 
                          समकालीन लेखन के बारे में कुछ कहना चाहेंगी?हमारे यहाँ प्रतिभा की कोई कमी नहीं है पर कमिटमेंट की कमी
        है आज के लेखन में। प्रतिबद्धताएं जिस तरह बंटती जा रही हैं, गुट
        बनते जा रहे हैं। स्थिति शोचनीय है। अब गुटविशेष का लिखा
        पढ़ा जाता है, उन्हीं पर चर्चा होती है। इसके सिवा कुछ नहीं दीखता।
        आज लेखकों की प्रतिभा का सही उपयोग नहीं हो पा रहा। सौमनस्य
        की भावना ही नहीं है। "परिमल" के समय में भी
        विरोधियों का खेमा था, पर सब एक दूसरे का साहित्य पढ़ते थे,
        सराहते थे, अनादर नहीं करते थे। आज दिशाहीनता की स्थिति है।
        लालच हैं, जिन्होंने उन्हें दिशाहीनता दी है। चारों तरफ
        वातावरण में पुरस्कार, विदेश यात्राओं के लालच है तो ध्यान
        वहां जाता है, लेखन पर उनका ध्यान जा ही नहीं पता। अब हृदय की
        अपेक्षा बुद्धि हावी हो गई है। विवेक और हृदय के सामंजस्य में
        साहित्य बनता है। आजकल लेखक माइन्ड को स्टिम्यूलेट करना चाहता
        है, हृदय को नहीं। अभी जो मधुमिता कांड चल रहा है,
        मिनटमिनट पर बयान बदले जा रहे हैं। सब चुप हैं। मै तो
        कहूंगी कि यह समय साहित्य की कसौटी का समय है। समाज का
        अनाचार जब ऊपर आता है तब लेखक का काम है अपनी कलम से अंकुश
        करना। परन्तु आज ऐसा नहीं है। टेलेन्ट ज्यादा है, पर सब
        अपनेअपने में व्यस्त है। खेमेबाजियां हैं और इनके जो
        मठाधीश है़ उनकी अपनीअपनी सीमाएं हैं। उनके पास कृतित्व के
        नाम पर अपना कुछ नहीं है। हां, मठाधीश बने हुए हैं। |