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सिंगापुर में हिंदी
- डॉ. संध्या सिंह


भारतीय डायस्पोरा का फैलाव विश्व के कई देशों में काफी बड़े स्तर पर है। यह सिर्फ फैलाव ही नहीं है बल्कि उस देश के लगभग सभी क्षेत्रों में उनके हस्तक्षेप की परिधि का विस्तार भी है। किसी भी देश को समग्र रूप से जानने के लिए उस देश की सामाजिक, भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक गतिविधियों को जानना आवश्यक होता है। जब बात भाषाई स्वरूप की हो तो यह देखना आवश्यक हो जाता है कि उस तथाकथित देश में वह भाषा किस रूप में पुष्पित और पल्लवित हो रही है। क्या उसकी सभी शाखाएँ उसके विस्तार की सूचना दे रही हैं? सिंगापुर में हिंदी की स्थिति, विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे कार्य, संभावनाएँ और भविष्य आदि के विषय में संक्षेप रूप में इस आलेख में चर्चा की गई है। यहाँ पर करीब ९% भारतीय मूल के लोग निवास करते हैं, जो समाज, राजनीति, व्यापार, संस्कृति, और शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप रखते हैं। हिंदी सिंगापुर में एक महत्वपूर्ण भाषा है, जिसे दैनिक जीवन, व्यापार, सामाजिक संगठनों, और मीडिया में देखा जा सकता है।

भारत से दूर एक छोटे से टापू से हिंदी के स्वर मुखरित हों तो यह कहना गलत न होगा कि भारत से बाहर भी हिंदी की बिंदी अपनी चमक फैला रही है। भारत से बाहर हिंदी सिर्फ एक भाषा नहीं है बल्कि अपने साथ पूरी संस्कृति को समेटे हुए है। यह ऐसी संस्कृति है जिसने भारत से बाहर भी भारत को जीवित रखा है। संस्कृत भाषा के ‘सिंह’ और ‘पुर’ शब्दों के मेल से बना सिंगापुर हिंदी से दूर भला कैसे रह सकता है! भाषा का विस्तार उसके भिन्न रूपों में प्रयोग के कारण होता है। सिंगापुर में हिंदी के कई रूप दिखाई देते हैं। कहीं हिंदी बोलचाल और परिवारों या समारोहों तक सीमित रह गई है तो कहीं हिंदी अधिक बड़े रूप को साकार कर रही है। शिक्षण संस्थाओं में अपनी पकड़ के साथ हिंदी ने सिंगापुर के भारतीय समाज को एक नया अवसर दिया है जिससे हम न सिर्फ शैक्षणिक बल्कि सांस्कृतिक धरोहर भी अधिक सहेजकर रख सकें। सिंगापुर को स्वतन्त्र राष्ट्र की संज्ञा वर्ष १९६५ में मिली। वर्ष १९५९ में सिंगापुर ब्रितानी साम्राज्य के अधीन एक स्वतंत्र राज्य बन गया था। कुआलालम्पुर सरकार के साथ बढ़ते मतभेद को शान्त करने के लिए सिंगापुर ने सम्पूर्ण स्वराज्य की ओर कदम बढ़ाया और ९ अगस्त १९६५ को पूर्णस्वराज्य हासिल कर लिया।

बहुप्रजातीय विशेषता से भरा हुआ सिंगापुर विश्व के मानचित्र पर एक छोटा सा बिंदु है जिसे अक्सर ‘लिटल रेड डॉट’ कहा जाता है। भारत में इस आकार के या इससे बहुत बड़े कई शहर हैं। वर्ष २०२० के आँकड़े के अनुसार सिंगापुर का कुल क्षेत्र ७२८.६ वर्ग किलोमीटर है जो करीब ६० द्वीपों का मेल है। इस देश की सीमाएँ छोटी और फैलाव का आकाश विस्तृत है। खूबी यही है कि इस देश ने अपने आकार को अपनी पहचान बनाने में कभी आड़े नहीं आने दिया। वर्ष २०२१ में इसकी कुल जनसंख्या ५४.५ लाख दर्ज की गई। यह देश बनाम शहर दक्षिण-पूर्व एशिया में, निकोबार द्वीप समूह से लगभग १५०० कि.मी. दूर है। इसकी जनसंख्या में सबसे बड़ा प्रतिशत चीनी जनसंख्या का है। २०२१ की जनसंख्या गणना के आधार पर चीनी ७४.२%, मलय १३.७%, भारतीय ८.९% और अन्य ३.२% जिसमें यूरेशियन आदि लोग भी इस द्वीप के निवासी हैं। भारतीयों की बात करें तो दक्षिण भारतीयों की संख्या अधिक है। धीरे-धीरे उत्तर भारतीयों की संख्या भी बढ़ रही है और उनके साथ ही हिंदी भी।

सिंगापुर में हिंदी की बात करने सबसे अधिक प्रसन्नता इस बात से होती है कि सिंगापुर के विद्यालयों में हिंदी भी मान्यता प्राप्त एक विषय है। सरकार ने विद्यालयों में द्विभाषी नीति की शुरुआत वर्ष १९६६ में की। द्विभाषिकता सिंगापुर की भाषा नीति की आधारशिला रही है। यह नीति अंग्रेजी और मातृभाषा-भाषाओं का उपयोग करने पर जोर देती है। विशेष रूप से तीन मुख्य जातीय समूहों के लिए, जैसे चीनी समुदाय के लिए मंदारिन या यहाँ जिसे चीनी ही कहते हैं, मलय समुदाय के लिए मलय और भारतीयों के लिए तमिल। अंग्रेजी को सिंगापुर की कामकाजी भाषा बनाया गया, जबकि मातृभाषा पर जोर व्यक्ति के मूल्यों और सांस्कृतिक संबंध की भावना को मजबूत करने के लिए दिया गया। द्विभाषावाद नीति मुख्य रूप से शिक्षा प्रणाली के माध्यम से लागू की गई है, जिसमें विद्यार्थियों को अंग्रेजी भाषा और उनकी संबंधित मातृभाषाओं का अध्ययन करने की आवश्यकता होती है। सरकार ने अपने बहुप्रजातीय समाज में यह कदम मातृभाषा को संरक्षित रखने तथा सिंगापुर को अपने पड़ोसी मुल्कों व विश्व की मुख्य भाषाओं से जुड़े रहने के योग्य बनाने के लिए उठाया।

६ अक्तूबर १९८९ का दिन सिंगापुर में हिन्दी भाषियों के लिए अत्यंत खास रहा क्योंकि इसी दिन संसद में शिक्षामंत्री श्री टोनी तान जी ने घोषणा की कि गैर तमिल भाषी भारतीय छात्र माध्यमिक विद्यालय में पाँच (हिन्दी, गुजरती, पंजाबी, बंगाली, उर्दू) में से एक भाषा को द्वितीय भाषा के रूप में वर्ष १९९० से पढ़ सकते हैं अर्थात अब दसवीं यानी “ओ लेवल” की परीक्षा छात्र हिन्दी में लिख सकते थे। इस कार्य में अग्रणी नेताओं का लक्ष्य यही था कि स्थानीय नागरिक हिन्दी को द्वितीय भाषा के रूप में पढ़ सकें और अपने मातृभाषा विषय के गिरते हुए प्रदर्शन को न सिर्फ सुधार सकें बल्कि संस्कृति को भी जीवित रख सकें। और यहीं से सिंगापुर की शिक्षा नीति में हिन्दी को स्थान मिला जो धीरे-धीरे बढ़ता ही गया। आज सिंगापुर के स्थानीय पाठ्यक्रम में हिंदी भाषा को द्वितीय भाषा के रूप में सिखाने की मान्यता प्राप्त है।

स्थानीय विद्यालयों में इस समय लगभग ८००० विद्यार्थी इसे दूसरी भाषा के रूप में सीख रहे हैं और सबसे बड़ी बात इनमें प्रवासियों की दूसरी-तीसरी पीढ़ियों की संख्या काफी बड़ी है। द्वितीय भाषा के रूप में सीखने के कारण हिंदी का स्थायित्व यहाँ अन्य कई देशों से अधिक है। विद्यार्थी दसवीं या ग्यारहवीं कक्षा तक हिंदी सीखते हैं और उनका मातृभाषा परीक्षा में उत्तीर्ण होना आवश्यक है तभी विश्वविद्यालयी शिक्षा में आगे बढ़ सकते हैं। इस एक नीति ने हिंदी को सुदृढ़ता दी है।

हिंदी सोसाइटी सिंगापुर और डी.ए.वी. हिंदी स्कूल नामक दो संस्थाओं के माध्यम से सिंगापुर में स्थानीय छात्रों को हिंदी सीखने का मौका मिलता है। इन दोनों संस्थाओं में कुल मिलाकर लगभग २५०-३०० हिंदी अध्यापिकाएँ हैं जो स्वयंसेवी के रूप में हिंदी शिक्षण का कार्य करती हैं। सैकड़ों साल पहले आए समूह की आज तीसरी-चौथी पीढ़ी अगर हिंदी सीख पा रही है तो हमारे पूर्वजों द्वारा किये गए प्रयास और सिंगापुर सरकार को इसका श्रेय जाता है।

आज स्थानीय विद्यालयों में मातृभाषा के घंटे में ‘हिन्दी सोसाइटी’ व ‘डी ए वी’ द्वारा हिन्दी शिक्षण का कार्य चल रहा है, जिसका निरीक्षण उन दोनों संस्थानों के अलावा ‘बोर्ड फॉर टिचिंग एंड टेस्टिंग साउथ एशियन लैंग्वेजेज’ करता है। स्थानीय विद्यालयों में पढ़ाए जाने के कारण जितने विद्यार्थी हिन्दी भाषा पढ़ रहे हैं, उतने अन्य गैर तमिल भारतीय भाषाओं में नहीं।

स्थानीय विद्यालयों के अलावा सिंगापुर में कई भारतीय अंतरराष्ट्रीय विद्यालय हैं क्योंकि काम के लिए आनेवाले लोगों में भारतीयों की बड़ी संख्या यहाँ रुख करती है। शुरू में ज्यादातर ये ‘प्रोफेशनल्स’ अपने बच्चों को भारतीय अंतरराष्ट्रीय विद्यालयों में ही डालते हैं और दूसरी भाषा के रूप में हिंदी ही पहली पसंद होती है। इन विद्यालयों में ‘एन०पी०एस० अंतरराष्ट्रीय पाठशाला, ग्लोबल इंडियन इंटरनेशनल स्कूल, डी०पी०एस०, युवा भारती आदि हैं। इनके साथ ही यूनाइटेड वर्ल्ड कॉलेज, स्कूल ऑफ द आर्ट्स, ए सी एस इंटरनेशनल, सेंट जोसेफ इंटरनेश्नल आदि कुछ नाम हैं जो भारतीय अंतरराष्ट्रीय विद्यालय न होते हुए भी हिन्दी को द्वितीय भाषा के रूप में पढ़ा रहे हैं। इन विद्यालयों में आई० जी० सी० एस० ई०, आई० बी०, आई० सी० एस० ई०, जी० सी० ई० या सी० बी० एस० ई० पाठ्यक्रम के तहत हिन्दी शिक्षण का कार्य जोरों से चल रहा है। अगर इन विद्यालयों में देखें तो हजारों छात्र यहाँ भी हिंदी सीख रहे हैं और जैसा पहले भी कहा है कि भाषा के साथ संस्कृति से भी जुड़ने के अधिक मौके मिलते हैं। जब ये छात्र हिंदी दिवस पर सिंगापुर संगम संस्था और पत्रिका के मंच से ‘पन्ना धाय’ जैसे नाटकों का हिंदी में मंचन करते हैं तो इतिहास और संस्कृति की तमाम बातें स्वत: उनमें आत्मसात हो जाती हैं।

सिंगापुर के दोनों मुख्य विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा शिक्षण कार्यक्रम संचालित होता है; नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर (एन यू एस) और नान्यांग टेक्नोलाजिकल यूनिवर्सिटी (एन टी यू)। ये दोनों विश्वविद्यालय एशिया ही नहीं विश्व में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर (एन यू एस) में हिंदी भाषा शिक्षण की शुरुआत वर्ष २००८ में हुई। नान्यांग टेक्नोलाजिकल यूनिवर्सिटी (एन टी यू) की बात करें तो हिंदी भाषा शिक्षण वर्ष २०१४ से हो रहा है। एन यू एस में हिंदी कला और सामाजिक विज्ञान संकाय की शाखा ‘सेंटर फॉर लैंग्वेज स्टडीज’ के अंतर्गत ‘माईनर इन हिंदी स्टडीज’ और ‘ऐच्छिक मॉड्यूल’ रूप में सिखाई जाती है। एन टी यू में हिंदी मानविकी, कला और सामाजिक विज्ञान संकाय की शाखा ‘सेंटर फॉर मोर्डन लैंग्वेजेज’ के अंतर्गत ऐच्छिक विषय के रूप में सिखाई जाती है। एन टी यू हिंदी के दो स्तर हैं पर अभी तक सिर्फ पहले स्तर की कक्षाएँ ही चलाई जा सकी हैं जिसका कारण हिंदी के अगले स्तर में विद्यार्थियों की कम रुचि है।

दोनों ही विश्वविद्यालयों में हिंदी विदेशी भाषा के रूप में सिखाई जाती है। वर्तमान में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर और नानयांग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी सिंगापुर दोनों विश्वविद्यालयों में ‘एन इंट्रोडक्शन टू हिंदी एलिमेंट्री लेवल’ नामक पुस्तक (डॉ संध्या सिंह व साधना पाठक) स्तर एक और दो के लिए लगाई गई है। चूँकि नानयांग टेक्नोलॉजिकल विश्वविद्यालय में सिर्फ एक ही स्तर की हिंदी कक्षाएँ भी चलती हैं इसलिए वहाँ सिर्फ एक ही पुस्तक का इस्तेमाल किया जाता है। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर में स्तर तीन और चार के लिए ‘एन इंट्रोडक्शन टू हिंदी इंटरमीडिएट लेवल’ (डॉ संध्या सिंह व साधना पाठक) नामक पुस्तक का इस्तेमाल किया जाता है। यहाँ हिन्दी शिक्षण ज्यादा व्यावहारिकता पर आधारित है और मुख्य रूप से कक्षा-गतिविधियों द्वारा व्याकरण सिखाया जाता है।


सन २०१९ में सिंगापुर में पंजीकृत और स्थापित लाभ निरपेक्ष हिंदी संस्था ‘संगम सिंगापुर’ साहित्य, भाषा और लोक-संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए कई अनोखे प्रयास कर रही है। २०१९ से लगातार यह संस्था नए-नए रूपों में हिंदी भाषा, साहित्य आदि को बढ़ाने के प्रयास में अग्रसर है। इस संस्था की अध्यक्ष डॉ संध्या सिंह, उपाध्यक्ष संगीता सिंह और सचिव अरुणा सिंह है। यह संस्था प्रति वर्ष अपने अग्रज साहित्यकारों के रचना-संसार पर एक सार्वजनिक आयोजन ‘साहित्य के खजाने से’ नामक कार्यक्रम के माध्यम से करवाने के साथ ही भिन्न प्रतियोगिताओं द्वारा छात्रों और वयस्कों को हिंदी से जोड़ने का कार्य कर रही है। खासकर छात्रों के लिए अंतरराष्ट्रीय कवि-गोष्ठी के आयोजन और उसकी सफलता ने यह सिद्ध कर दिया कि अगर मौके उपस्थित हों तो भावी पीढ़ी में जोश कम नहीं। संगम सिंगापुर संस्था हिंदी दिवस, विश्व हिंदी दिवस जैसे आयोजन तो करती ही है, समय-समय पर साहित्यिक गोष्ठियाँ, छात्रों के मध्य राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिताओं, अपने पूर्वज साहित्यकारों को याद करने के लिए साहित्य के खजाने से जैसे कार्यक्रमों का भी आयोजन करवाती है। कई महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा और विमर्श के आयोजन भी इस संस्था द्वारा किये जा रहे हैं जिसमें देश-विदेश के कई विशेष व्यक्ति भाग लेते हैं।

‘ग्लोबल हिंदी फाउंडेशन’ नामक संस्था द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर २०१६-१८ तक ‘प्रेरणा अवार्ड्स’ का वार्षिक रूप से आयोजन किया गया जिसमें विद्यालयों के छात्रों के साथ ही वयस्कों के लिए प्रतियोगिताएँ आयोजित की गईं। इसकी संस्थापक ममता मंडल सिंह हैं। ‘हिंदी परिवार सिंगापुर’ नामक टोस्ट मास्टर क्लब भी पिछले तीन वर्षों से टोस्ट मास्टर गतिविधियों के साथ कवि गोष्ठियों और युवाओं के लिए कई कार्यक्रमों का आयोजन कर रहा है। इसके संस्थापक हर्षवर्धन गोयल हैं। संगम सिंगापुर, सिंगापुर संगम, ग्लोबल हिंदी फाउंडेशन, सिंगापुर टोस्ट मास्टर्स क्लब जैसे मंचों के माध्यम से हिंदी को बल मिल रहा है। आज लोगों के पास कई विकल्प हैं जो उन्हें प्रेरित करते हैं कि वे हिंदी से जुड़ें। मीडिया में भी सिंगापुर में हिंदी स्वयं को वैश्विक परिदृश्य से जोड़ रही है। ‘दस्तक’ के नाटक या हिंदी रेडियो ‘रेडियो मस्ती’ के शो सभी आज हिंदी के बहाने अपनी पहचान बना रहे हैं और हिंदी को यहाँ बढ़ा रहे हैं।

सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों के बिना सिंगापुर या किसी भी बाहरी देश में हिंदी इस रूप में नहीं बढ़ पाएगी। सिंगापुर में भी आर्यसमाज सिंगापुर, श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर, भारतीय भवन, भोजपुरी असोशियेशन, बिजहार जैसी संस्थाएँ संस्कृति की जड़ों को और गहरे तक जमाने के प्रयास में लीन हैं।

सिंगापुर में हिंदी का स्वर अब साहित्य समाज द्वारा भी मुखरित हो रहा है। जब बात सिंगापुर में रचे जा रहे प्रवासी साहित्य की आती है तो दायरा कुछ सीमित हो जाता है। शुरूआती रूप में साहित्य की बात करने पर सन १९४०-५० के आसपास हमें अध्यापक वशिष्ठ राय जी के बारे में पता चलता है जो ‘नेताजी हिंदी हाई स्कूल’ में हिंदी अध्यापन करते थे। उनके द्वारा लिखी कई पुस्तकों में दो उपन्यास भी शामिल थे। आज दस्तावेजों के सही रख-रखाव के अभाव में उन तक पहुँच नहीं बन पा रही है पर सिंगापुर में लिखी हिंदी रचनाओं में उन्हीं का नाम सबसे पहले आता है।

सिंगापुर के वर्तमान हिंदी साहित्य समाज के बारे में चर्चा करने पर यह स्पष्ट होता है कि यह देश एक तरह से कई उभरते प्रवासी साहित्य समाज का प्रतिनिधि है जिससे दुनिया को रूबरू होना है। सिंगापुर से कविताएँ काफी लिखी जा रही हैं, कहानियाँ लिखने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है। चित्रा गुप्ता, साक्षी प्रद्युम्न, आराधना झा श्रीवास्तव, श्रद्धा जैन, विनोद दूबे, गौरव उपाध्याय, शान्ति प्रकाश उपाध्याय, शार्दूला नोगजा, शीतल जैन, रीता पाण्डेय, प्रतिभा गर्ग, खुशी मिश्रा, प्रतिमा सिंह, आलोक मिश्रा, डॉ अंकुर गुप्ता, आराधना सदाशिवम, अदिति अरोरा, स्मिता कंवर, डॉ स्मिता सिंह, संजय कुमार, हर्ष वर्धन गोयल, प्रेरणा मित्तल, रीना दयाल, प्रद्युम्न इंगले, अनुसुइया साहू आदि कविताओं के क्षेत्र में तथा कथा व गद्य लेखन में चित्रा गुप्ता, डॉ संध्या सिंह , विनोद दूबे, आराधना झा श्रीवास्तव, गौरव उपाध्याय, शांति प्रकाश उपाध्याय, प्रतिभा गर्ग आदि नाम मुख्य हैं। ऐसे कई युवा हैं जो प्रवासी साहित्य के मानचित्र पर नए हैं, उभरकर सामने आ रहे हैं। ‘लॉक डाउन’ की सबसे बड़ी उपलब्धि हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में हुई है। सिंगापुर से कई कवि-गोष्ठियाँ आयोजित हुईं तथा यहाँ के रचनाकारों ने भिन्न मंचों से अपनी रचनाएँ सुनाईं। सिंगापुर से उपन्यास, कविताएँ, ग़जल, शेर, गीत, कहानियाँ, संस्मरण, आलेख, डायरी आदि हर विधा में रचनाएँ लिखी जा रही हैं। धीरे-धीरे रचनाकारों की सूची लम्बी हो रही है और रचना का स्तर भी बेहतर हो रहा है। हिंदी रचनाएँ लिखने वाले ज्यादातर लोग किसी न किसी व्यावसायिक पेशे से जुड़े हैं जैसे आई टी या बैंकिग। हिंदी भाषा से लगाव पहले से रहा है और अब सुनने-सुनाने का मंच मिलने लगा है तो लोगों की प्रतिभाओं में निखार भी आने लगा है।


सन २०१८ से सिंगापुर की पहली हिंदी पत्रिका सिंगापुर में पंजीकृत ‘सिंगापुर संगम’ ने भी अपने पैर दुनिया तक फैलाए। यह त्रैमासिक पत्रिका सिंगापुर में भारत का संगम तो है ही साथ ही यहाँ के हिंदी भाषियों को दुनिया से जोड़ने का एक माध्यम भी है। सिंगापुर में स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय विद्यालयों में हजारों छात्र हिंदी किसी न किसी रूप में पढ़ रहे हैं और इतने छात्रों को पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या भी सैकड़ों है। ऐसी स्थिति में यहाँ से कोई प्रकाशन न निकलना मलाल की बात थी। कई वर्षों के प्रयास के बाद यह पथ भी तय हो ही गया। इस पत्रिका की खूबी यह भी है कि इसमें छात्रों को हिंदी के वाहक के रूप में प्रस्तुत किया गया है साथ ही जो लोग विदेशी भाषी होते हुए भी हिंदी काफी तन्मयता से सीख रहे हैं उन्हें भी सबके सामने लाने का प्रयास किया जा रहा है। उम्मीद यही है कि यह पत्रिका हिंदी की दशा को नई और बेहतर दिशा देने में कामयाब हो।

विश्व हिंदी पत्रिका (मॉरिशस) के कई अंकों में सिंगापुर में हिंदी के विभिन्न पक्षों पर डॉ संध्या सिंह द्वारा लिखित रिपोर्ट प्रकाशित है। यहाँ समय-समय पर आयोजित कार्यक्रमों की रिपोर्ट विभिन्न समाचार पत्रों में भी प्रकाशित होती रहती है। डॉ संध्या सिंह की केन्द्रीय हिंदी संसथान से प्रकाशित पुस्तक ‘सिंगापुर में भारत (विशेष उत्तर भारत) सिंगापुर में हिंदी और उत्तर भारतीय समुदाय के कार्यों का दस्तावेज है। यहाँ से एकमात्र उपन्यास अभी तक ‘इण्डियापा’ लिखा गया है जिसे विनोद दूबे ने बनारस को केंद्र में रखकर लिखा है। सन २०२३ तक यहाँ से दस कविता-संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं जो गौरव उपाध्याय की ‘हाफ फिल्टर कॉफी’, शान्ति प्रकाश उपाध्याय की ‘मेरी अनुभूतियाँ’, देखो मेरा गाँव, सिंगापुर के नौ कवियों की ‘सिंगापुर नवरस’, विनोद दूबे की ‘वीकेंड वाली कविता’, जहाजी, डॉ अंकुर गुप्ता की ‘माहीमीत’, हर्ष वर्धन गोयल की ‘स्मृति के पदचिह्न’, खुशबू मिश्रा की ‘एहसासों की खुशबू’, ‘सत्य की अस्मिता’ हैं।


सिंगापुर में हिंदी समझने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है और आज सार्वजनिक परिवहन में, बाजार में लगभग हर जगह कहीं न कहीं, किसी न किसी के मुख से हिंदी सुनाई पड़ ही जा रही है। एक समय था जब भारत मतलब तमिल भाषा समझना सिंगापुर में आम था लेकिन आज यहाँ का समाज इस बात से अवगत है कि भारत यानी हिंदी बोलने वाला बड़ा वर्ग।


सिंगापुर में भारतीय दूतावास द्वारा हिंदी से संबंधित विविध आयोजनों में भरपूर समर्थन और सहयोग प्राप्त होता है। हिंदी दिवस, विश्व हिंदी दिवस, कवि गोष्ठियाँ या चर्चा, साहित्यिक आयोजन आदि में दूतावास सक्रिय भागीदारी निभाता है। सिंगापुर के भारतीय दूतावास का विशेष सहयोग सिंगापुर संगम हिंदी संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में भी प्राप्त होता है।

अंतत: हम यह कह सकते हैं कि आज जब हम विश्व में भारतीय डायस्पोरा की तरफ देखते हैं तो हमें समग्र विश्व भारतीयों के किसी न किसी रूप में अस्तित्व से प्रस्फुटित होता हुआ दिखाई देता है। और उनके इस अस्तित्व की एक झलक हिंदी भाषा के प्रचार के रूप में भी दिखाई देती है क्योंकि भारतीय अपने साथ सभ्यता , संस्कृति, भाषा, साहित्य आदि की मंजूषा भी लिए जाते हैं। सिंगापुर में हिंदी के विभिन्न रूपों पर कार्य हो रहा है; कहीं तेजी से तो कहीं थोड़ा ठहरकर।

१ सितंबर २०२३

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