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आत्मकथा (दूसरा भाग)

   — कृष्ण बिहारी

हाथों की अबूझ लकीरें 


सिक्किम की नौकरी मैंने एक झटके में छोड़ दी थी। बिना आगा–पीछा सोचे। इससे पहले भी मैंने ऐसा कई बार किया था। लेकिन तब मैं अविवाहित था और ऐसे खतरे उठा सकता था। मगर एक बच्चे का बाप अचानक ऐसा निर्णय ले उठे यह बात निहायत अव्यावहारिक थी। खैर— जो मुझे करना था वह हो चुका था और मैं अब यह भी कह सकता हूँ कि एक बच्चे का या कई बच्चों का बाप होना व्यक्ति के चरित्र को नहीं बदल सकता। निर्णय लेने के क्षण कुछ ही होते हैं। 

इस्तीफा देने के बाद ही मेरे निकटतम मित्र जान सके थे कि मैंने नौकरी छोड़ दी। वे सब भी सकते की हालत में थे। ऐसा होना स्वाभाविक भी था क्योंकि बीस मिनट पहले जब मैंने उन सबके साथ ही स्कूल के अटेण्डेंस रजिस्टर पर इनकमिंग के कॉलम में हस्ताक्षर किए थे तो इस्तीफा देने की बात तक मन में नहीं थी। जाहिर है कि जो कुछ हुआ वह तत्कालीन प्रधानाचार्य की बदतमीजी को न सह पाने की प्रतिक्रिया में हुआ था। मैंने उनकी मेज से ही कागज लेकर इस्तीफा लिखा और उनके मुँह पर दे मारा था जबकि उन्हें भी इसकी उम्मीद नहीं थी। उन्होंने तो मुझे टॉर्चर करने के लिये एक नुस्खे को आजमाना चाहा था जो उनके ही गले पड़ गया। मैंने अपना इस्तीफा देते हुए उनसे कहा—" अब मैं आपके आधीन काम नहीं करूँगा।" और उनके चेम्बर से बाहर निकल आया। 

वह मेरे पीछे थे कि इस तरह बिना एक महीने की नोटिस दिये मैं नौकरी नहीं छोड़ सकता। उनकी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं था। मैं अपनी सेलरी सरेण्डर करने को तैयार था मगर उनके साथ काम करने के लिये कतई राजी नहीं था। स्टॉफ सक्रेटरी के माध्यम से उन्होंने मुझसे इस्तीफा वापस लेने के लिये बड़ा जोर लगाया। यहाँ तक कि रात के एक बजे बरसते पानी में स्टॉफ सेक्रेटरी के साथ अपनी बीवी और एकमात्र बेटी को लेकर मेरे फ्लैट पर पहुँचे। असल में मैंने इस्तीफा देने के बाद ही उनसे भी कह दिया था कि गैंगटोक छोड़ने के पहले मैं एक प्रेस कान्फ्रेंस करूँगा और शहर को बताकर जाऊँगा कि कितने घटिया प्रिंसिपल के साथ मैंने काम किया और क्यों नौकरी छोड़ दी। 

इस बात ने उन्हें दहला दिया था और वे मुझे प्रेस कान्फ्रेंस न करने के लिये तरह–तरह के प्रलोभन और हथकण्डे अपना रहे थे। मैं तो वहाँ चार साल दस महीनों से था मगर उन्हें आए हुए तो मात्र तीन महीने ही हुए थे। नौकरी छोड़ने का निर्णय मेरा अपना था। मैं कानपुर लौट आया। हाँ— प्रेस कान्फ्रेंस मैंने नहीं की। मैं स्टाफ सेक्रेटरी की चिरौरी विनती पर मजबूर हो गया और बहुत सोचने पर लगा कि साहित्य अथवा अखबार चरित्रहत्या के प्लेटफॉर्म नहीं हैं। एक नीच व्यक्ति की नीचता को उजागर करने में उसका तो कुछ नहीं बिगड़ेगा मगर उसके नजदीकी लोगों का बिना किसी गलती के सामाजिक अपमान तो होगा ही —जो कि उचित नहीं है।

मेरा बेटा अनुभव एक महीने का था जब मैं नौकरी छोड़कर कानपुर पहुँचा। उसके जन्म के समय भी मैं कानपुर में ही था। पाँचवें दिन जब पत्नी उसके साथ घर लौटी तो उसी रात मैं गैंगटोक वापस चला गया था और अब एक महीने में हमेशा के लिये गैंगटोक को छोड़कर कानपुर में उसे दूसरी बार देख रहा था। उसे देखने के बाद नौकरी छोड़ने का अफसोस जाता रहा। शारीरिक रूप से वह बहुत स्वस्थ था। गैंगटोक के सबसे अच्छे स्कूल टी.एन.एकेडमी में मैंने चार वर्ष दस माह हिन्दी पी.जी.टी. के पद पर काम किया था। यदि दो माह और काम कर लिया होता तो सी.पी.एफ. का पैसा लगभग दस हजार रूपये मुझे मिला होता जो मेरे संघर्ष को छह महीने तो चलाने में सहायक जरूर होता। मगर जिद में नौकरी छोड़ने का परिणाम यह हुआ कि मैं लगभग खाली हाथ था। परिवार में सबसे बड़ा लड़का मैं ही था। पिता आर्डनेंस फैक्ट्री में चार्जमैन थे और मुझसे छोटा भाई भी उसी फैक्ट्री में जूनियर एग्जामिनर के पद पर पिछले चार वर्षों से काम कर रहा था। उसकी शादी तबतक नहीं हुई थी। घर की आर्थिक स्थिति बुरी नहीं थी। मैंने भी अपनी नौकरियों के दौरान परिवार में प्रायः सभी अवसरों पर अपनी सीमाओं से आगे जाकर आर्थिक योगदान दिया है लेकिन "यश अपयश विधि हाथ" वाली कहावत ही मेरे हिस्से आई है। मेरा योगदान कभी सराहा नहीं गया। आज जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तो नौकरियाँ करते छोड़ते मुझे लगभग सत्ताईस वर्ष तो हो ही गए जिस दौरान मैंने घर से दूर रहते हुए कुछ लिया नहीं बल्कि दिया ही है। मगर बात आज भी वही है। कोई श्रेय नहीं। मैं भी सोचता हूँ कि ज्यादा क्या किया है, और—जो किया है वह श्रेय लेने के लिये तो किया नहीं। फिर अमरख या मलाल कैसा?

मैंने कानपुर पहुँचते ही सबसे पहला काम क़रीब पचास पब्लिक स्कूलों में हिन्दी शिक्षक के पद पर आवेदन करने का किया वह भी बिना यह जाने कि उन स्कूलों में जगह है भी या नहीं। यह मई १९८४ की बात है। पिता के साथ मेरा संवाद लगभग पंद्रह वर्षों से न के बराबर था। मेरे नौकरी छोड़ने का ऊपर से तो उन्होंने कोई विरोध नहीं किया मगर उनके मित्र मुझे राह चलते मिल जाते और जो कुछ कहते उसका भाव यह होता कि अपने बच्चे के मुँह से दूध छीनकर मैंने बहुत बुरा किया है। जिम्मेदारियाँ होने के बाद तो लोग हर तरह के समझौते करते हुए नौकरी बचाते हैं और एक मैं हूँ कि अपनी जिम्मेदारी को कभी समझता ही नहीं। मैंने पिता के उन सभी तथाकथित शुभचिंतकों को जवाब देते हुए कहा कि इस नौकरी से पहले क्या कभी उनमें से किसी ने मुझे कोई नौकरी दिलवाई है? क्या किसी नौकरी को लगवाने में पिता का भी कोई हाथ रहा है? जब पहले भी अपने बल बूते और अपने संबंधों के बल पर नौकरियाँ पाई हैं तो इसबार भी पा लूँगा। मेरी कही बातें पिता के पास पहुँचती थीं। असल में उनके मित्र ही हमारे बीच संवाद के सेतु थे। 

मुझे नौकरी छोड़ने का कोई गम नहीं था लेकिन रोज रोज इस एहसास को कराए जाने का तल्ख एहसास जरूर होने लगा था। दो छोटी बहनें थीं। पढ़ रही थीं। एक भाई भी पढ़ रहा था। ये सब चुप ही रहते थे। अभी एक महीना भी नहीं हुआ था कि पंजाब पब्लिक स्कूल —नाभा— वाई.पी. एस.पटियाला और दून स्कूल, देहरादून से साक्षात्कार के लिये पत्र आ गए। उन पत्रों में लेफ्टिनेंट ग्रेवाल का पत्र तो लगभग नियुक्ति पत्र था। मगर यही वह वक्त था जब पंजाब में खालिस्तान को लेकर कूढ़मगज लोग आतंकवादी गतिविधियों पर उतर आए थे और आए दिन हत्याएँ हो रही थीं। मैंने दून स्कूल, देहरादून को प्राथमिकता दी और देहरादून ज्वॉयन करने का मन बनाया। इतना आत्मविश्वास तो था ही कि यदि साक्षात्कार का मौका मिला तो असफल नहीं होऊँगा। हुआ भी ऐसा ही। 

दून स्कूल के प्रिंसिपल चंदानी से जब मेरी भेंट हुई तो उन्होंने पूछा कि आप कबसे ज्वॉयन कर सकते हैं। मैंने उनसे कहा कि जुलाई से या फिर आप जबसे कहें। बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे समझा दिया कि स्कूल में क्या और कैसे करना है। जुलाई में मुझे दून स्कूल ज्वॉयन करना था। एशिया के सबसे अच्छे स्कूल में। यह एक उपलब्धि थी। इसे पाकर मैं सचमुच बहुत खुश था। हालाँकि–मुझे कोई अप्वाइंटमेण्ट लेटर नहीं मिला था मगर प्रिंसिपल के कहे शब्द मेरे लिये भरोसे के शब्द थे। उन्होंने मुझसे किसी मिस्टर भट्ट से मिल लेने को कहा जो वहाँ हिन्दी विभाग में सबसे वरिष्ठ थे। मैं श्री भट्ट के बँगले पर गया। वहाँ उनकी बेटी ने दरवाजा खोलते हुए अपना नाम जब बताया तो मुझे वह नाम जाना हुआ लगा। याद आया कि उसकी कहानी "सारिका" में पढ़ी थी। मैं भी धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छप रहा था। मुझे लगा कि रचनाकार होने का रिश्ता भी नौकरी मिलने में सहायक ही होगा। बहुत खुशी के साथ मैं कानपुर जब लौटा तो प्लेटफॉर्म पर तिनसुखिया एक्सप्रेस खड़ी थी जो न्यू जलपाई गुड़ी से आई थी। उसी ट्रेन से टी.एन. एकेडमी में काम करने वाले कुछ टीचर भी सवार थे जो उत्तर प्रदेश–दिल्ली और पंजाब के रहने वाले थे और पन्द्रह दिन के ग्रीष्मावकाश में अपने घर जा रहे थे। उनकी यात्रा की तारीख मुझे मालूम थी मगर प्लेटफॉर्म पर मैं भी उसी समय पहुँचूँगा यह कहाँ पता था। 

कई शिक्षकों से मुलाकात हुई और सबको यह जानकर बहुत खुशी हुई कि मेरा सिक्किम छूटना हर तरह से फायदेमंद रहा। दून स्कूल में अध्यापक होना अपने आप में उपलब्धि है। जिन शिक्षकों से मेरी मुलाकात हुई उनमें स्टॉफ सेक्रेटरी टी.एस. विर्क भी थे जिन्होंने इस्तीफे को वापस लेने के लिये मुझपर बहुत दबाव बनाया था। किसी समय वे मेरे फ्लैट के एक कमरे में रह भी चुके थे। वे पंजाब के रहने वाले थे। अध्यापक की नौकरी से पहले सेना में काम कर चुके थे। सेना से निकलने के बाद उन्होंने गणित के अध्यापक के रूप में पब्लिक स्कूलों में काम किया। उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। बहुत धीरे–धीरे बोलते थे। अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखकों को उन्होंने पढ़ रखा था। स्कूल में लोग उन्हें रहस्यमय मानते थे। उनकी बातों में कुछ बातें बार बार उभरकर आतीं। कुछ लोग उन्हें दार्शनिक का दर्जा भी देते। शराब किसी समय भी पी सकते थे और उसके बाद अपनी दार्शनिक बातें बहुत रहस्यमयी अंदाज में समझाते। मेरे साथ तो प्रायः हर शाम पीते और कहते कि मैं फालतू में अपने टैलेण्ट को नष्ट कर रहा हूँ। मुझे तो मिडिल ईस्ट चले जाना चाहिए। उनके कहने पर ही मैंने बलवंत गार्गी की आत्मकथा "द नेकेड ट्रेंगल" पढ़ी थी। उन्होंने एक और किताब "माइ गॉड डाइड यंग" भी पढ़ने को कहा था जिसे मैं अबतक नहीं पढ़ पाया। उसे शायद शास्त्री बरता ने लिखा है। 

मिस्टर विर्क सरदार थे। सिगरेट पीते थे। मुझे नहीं मालूम कि सेना में काम करते हुए वे शादी शुदा थे या नहीं। लेकिन सेना से निकलने के बाद जब अध्यापक के रूप में उन्होंने दार्जलिंग के किसी स्कूल में ज्वॉयन किया तो वहीं उनकी मुलाकात एक डाइवोर्सी ईसाई महिला से हुई जिसके एक बेटा भी था। उन्होंने उससे शादी कर ली। बाद में दोनों दार्जलिंग छोड़कर टी. एन. ए.आ गए। मगर टी. एन. ए.आने से पूर्व उनकी एक बेटी हो चुकी थी। मैंने मिसेज विर्क को टी. एन. ए. में जब देखा तो उनका बेटा नेवी में शायद ट्रेनिंग में था। स्कूल के एक कार्यक्रम में मैने उन्हें पहली बार एक फिल्मी गीत गाते हुए सुना जो लताजी की आवाज में चर्चित गीत है। मैं उनकी तारीफ़ शब्दों में क्या करूँ। मिसेज विर्क की आवाज में गाए गीत और लताजी के गाए उसी गीत में सामान्य व्यक्ति के लिये फर्क़ कर पाना हमेशा मुश्किल होगा। मिसेज विर्क बहुत अच्छा गाती थीं। यही उनका सौन्दर्य था। शरीर उनका भद्दा और बेडौल था। रंग गहरा साँवला और अवस्था लगभग पचपन की थी। वे मिस्टर विर्क से लगभग दस वर्ष बड़ी थीं। मेरे सामने ही दोनों में मतभेद शुरू हुए। कारण शायद बेटी को क्रिश्चियन बनाने का था जिसपर मिस्टर विर्क को ऐतराज था। लड़की अजमेर के सोफिया कॉलेज में पढ़ रही थी। मिसेज विर्क मिस्टर विर्क को छोड़कर बिजनौर चली गईं। मैंने सुना कि उनके पास अच्छी प्रॉपर्टी थी जिसमें एक मार्केट भी कस्बे में था जो अच्छी आमदनी का जरिया था। 

विर्क साहब अकेले रह गए। और उसी अकेलेपन के दौरान उन्होंने प्रिंसिपल को फाँस-फूँसकर इस बात के लिये राजी कर लिया कि उन्हें मेरे साथ फ्लैट में शेयर करने दें। ऐसा उन्होंने सिर्फ़ इसलिये किया क्योंकि कैम्पस में मैं अकेला था जिसके पास नौकर था और जिसे मैं नौकर नहीं बल्कि अपना संरक्षक मानता था। प्रिंसिपल ने जब मेरे फ्लैट में एक कमरा उन्हें अलॉट कर दिया तो मेरे पास कोई चारा नहीं था कि उन्हें रोक सकूँ। वे मेरे फ्लैट में जम गए और कई वर्ष रहे। उसी दौरान एक बार मिसेज विर्क भी उनसे मिलने आईं। वे शायद रात में पहुँची थीं। मुझे उनके आने का पता नहीं था। सुबह चाय पीने के बाद जब मैं बाथरूम जाने के लिये बढ़ा तो उनके कमरे को अन्दर से खुला देखकर मैंने आवाज दी –"विर्क साहब... जग गए क्या?" उन्होंने भीतर से ही कहा –"आ जाओ...।" जब मैं कमरे में पहुँचा तो दोनों बिस्तर पर नंग धड़ंग अलग अलग बैठे चाय पी रहे थे। उन्हें उस हालत में देखकर मैं बेतरह चौंका मगर मिस्टर विर्क ने कहा –"मिसेज विर्क... रात को आई हैं... बैठो... कोई फर्क नहीं पड़ता..." वे अपनी पत्नी को हमेशा मिसेज विर्क कहा करते थे। मुझे याद नहीं कि मिसेज विर्क क्यों आई थीं और कितने दिन रहीं। मगर उनसे मिलते हुए मैंने कभी उनके चेहरों पर शर्मसारी का कोई भाव कभी नहीं देखा कि मैं उनके साथ तब बैठ चुका हूँ जब वे पूरी तरह नंगे थे। बाद में पता चला कि मिसेज विर्क बेटी के मामले को सुलझाने ही आई थीं। पता नहीं कि उनका मामला सुलझा या नहीं। वे चली गईं।

कानपुर रेलवे प्लेटफॉर्म पर रात लगभग एक बजे मैंने उन्हें बताया कि मेरा अप्वाइंटमेण्ट दून स्कूल–देहरादून में हो गया है तो उन्होंने प्रसननता जाहिर की। ट्रेन ने जब आगे बढ़ने के लिये प्लेटफॉर्म छोड़ा तो मैं वापस घर के लिये उससे बाहर निकला। दून स्कूल में नौकरी मिल जाने की बात मैंने घर में ही नहीं दोस्तों को भी बता दी। एक बार फिर थ्रिल सा पैदा हो गया। मैं रोज इंतजार करता कि आज नियुक्ति पत्र मिलेगा... आज नियुक्ति पत्र मिलेगा। इस प्रतीक्षा में न केवल जुलाई आ गया बल्कि आधा बीत भी गया। मिस्टर विर्क और तत्कालीन प्रिंसिपल आपस में करीब थे और प्रिंसिपल पहले दून स्कूल में बॉयो टीचर रह चुका था। मुझे आज भी पता नहीं कि मेरा दून स्कूल से अप्वाइंटमेण्ट लेटर क्यों नहीं आया जबकि दून स्कूल के प्रिंसिपल ने मुझे आश्वस्त कर दिया था। दोस्तों से पता चला कि मिस्टर विर्क ने उसे बता दिया था कि कृष्ण बिहारी को दून स्कूल में जॉब मिल गया है। उसके लिये तो वरदान हो गया। मैं उस प्रिंसिपल पर कही और सुनी हुई बातों पर आरोप लगाना नहीं चाहता। क्या पता उसका कोई रोल मेरे अप्वाइंटमेण्ट लेटर न पाने में न रहा हो लेकिन बहुत से प्रिंसिपलों का रोल ऐसा रहता है कि वे अपने यहाँ से जाने वाले शिक्षकों के बारे में उन स्कूलों के प्रिंसिपलों को उस शिक्षक के विषय में नेगेटिव रिमॉर्क दे देते हैं। ईश्वर जाने कि मेरे मामले में क्या हुआ। जिस प्रिंसिपल की अमानुषिक हरक़तों पर मैंने प्रेस कान्फ्रेंस की घोषणा करने के बाद भी नहीं की वह क्या इतना नीच होगा कि मेरे अप्वाइंटमेण्ट को कटवा दे? दून स्कूल में मैं ज्वॉयन नहीं कर सका। मुझे इसका दुख हमेशा रहेगा। मगर इससे ज्यादा इस बात का कि मैं वह कारण आज तक नहीं जान सका कि मेरा अप्वाइंटमेण्ट कटा कैसे? 
            
एक और बात कि अच्छा ही हुआ कि मैंने दून ज्वॉयन नहीं किया। अगर कर भी लेता तो मुझे छोड़ना पड़ता। उन्हीं दिनों मेरी बहन ममता बहुत बीमार हो गई। चार भाइयों के बाद पैदा हुई ममता को मैं सबसे बड़ा भाई होकर किसी तरह भी नेगलेक्ट नहीं कर सकता था। उसकी समस्या मानसिक थी। कानपुर में मेडिकल कॉलेज के डॉ. महेन्द्रू से उसे दिखाना पड़ रहा था। उन दिनों साठ रुपये उनकी फीस थी और कभी–कभी तो उसे दिन में दो बार ले जाना पड़ता। मैंने "आज" अखबार ज्वॉयन कर लिया था लेकिन उन्हें नहीं बताया कि मैं अखबार में हूँ। डर यह था कि अखबार वाला जानकर कहीं फीस लेना बंद कर दें और इलाज में भी ध्यान न दें। मरीज को उनके पास लेकर जाना–शॉक लगवाना और रोज वैसे ही लौटना। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि आप मेरे मरीज से बात क्यों नहीं करते? आप तो उसे एनेस्थेसिया देकर शॉक लगाने के अलावा और कोई काम नहीं करते..." उन्होंने जवाब दिया कि आपका मरीज इस लायक कब रहता है कि उससे बात की जाए.. तब मैंने उन्हें बताया कि उसी "आज" अखबार में काम करता हूँ जिसकी टीम ने उन्हें किडनैपिंग से छुड़वाया। वह चौंक गए कि न जाने कबसे मैं उन्हें फीस दे रहा हूँ। उन्होंने बिना फीस लिये इलाज करने का आश्वासन दिया मगर मुझे लगा कि उनका इलाज बंद करना ही बेहतर होगा।
मुझे लगा कि डॉ. महेन्द्रू स्वयं भी लगभग पागल हैं। रात दिन मनोरोगियों से घिरे रहने वाले का इससे अलग अंजाम हो भी नहीं सकता। पैसा चाहे कितना भी क्यों न उनके पास हो जाए। मैंने उन्हें बिना बताए अपनी बहन का इलाज रवि कुमार से कराना शुरू किया जिससे फायदा भी हुआ। ममता की हालत कुछ सुधर गई थी। घर में थोड़ा चैन आ गया था। वक्त गुजर रहा था। अखबार में काम करना अच्छा लग रहा था। हर दिन किसी न किसी फीचर के नीचे बाइ लाइन जा रही थी। मगर पैसे जो मिल रहे थे वह इतने कम थे कि कभी कभी कोफ़्त होती। दिक्कत यह थी कि मैं और पैसों की डिमाण्ड नहीं कर सकता था क्योंकि दूसरों को मुझसे भी कम मिल रहे थे। 

अखबार की नौकरी और इससे पहले सिक्किम में सरकारी स्कूल में अध्यापक की नौकरी–दोनों के ही मिलने में प्रख्यात लेखक श्री राजेन्द्र राव का बहुत बड़ा हाथ रहा है। एक तरह से कह सकता हूँ कि मेरे निर्माण की प्रक्रिया में राजेन्द्र राव की भूमिका अहम रही है। मैं उनका कृपाभाजन रहा हूँ। आज भी हूँ। ऐसा कैसे होता है कि कोई आपके सही भविष्य के लिये बेचैन रहे। एम.ए. प्रथम श्रेणी में करने के बाद भी मैं बेकार बैठा था। बचपन से ही राजेन्द्र राव के घर जाना और बैठना एक नियम सा बन गया था। वे एच.ए.एल.में ट्रेनिंग सुपरवाइजर थे जो अर्मापुर से लगभग बाईस किलोमीटर था। मगर उनके पिताजी अर्मापुर स्थित स्माल आम्र्स फैक्ट्री में स्टोरहोल्डर थे। राजेन्द्र राव पिता के साथ रहते थे। घर में बड़े थे। भाई–बहनों के प्रति अपने उत्तरदायित्व का उन्होंने बखूबी निर्वाह किया। आज भी उनके माता पिता उन्हीं के साथ रहते हैं। मेरे लिखने के रुझान को वे समझते थे। उनसे नए पुराने लेखन पर बात होती थी मगर मेरी एक या दो रचनाओं को ही उन्होंने मेहनत से ठीक किया जिससे मुझे कई बातें समझ में आईं। 

बेकारी के उन्हीं दिनों की बात है। वे किसी बंगाली लड़की के पास जा रहे थे जो रेडियो पर गाना चाहती थी। उन्होंने मुझे भी साथ ले लिया। रास्ते में उनका पुराना लेम्ब्रेटा खराब हो गया। शायद प्लग में कार्बन आ गया था। वे उसे साफ करने की कोशिश करने लगे। मैं यों ही खड़ा रहा तभी पास से रेशमी कुर्ते और झक साफ धोती में एक दिव्य सा व्यक्तित्व हमारे पास ठिठकते हुए खड़ा हुआ—
"क्या हो गया स्कूटर में...।?" 
"खराब हो गया... " मैंने जवाब दिया। राव साहब प्लग साफ करने में उसी तरह लगे रहे। "क्या करते हैं आप...?"
मैं क्या जवाब देता। मुझसे पहले राव साहब ही बोल पड़े –"लड़का हिन्दी में एम॰ए॰ है, प्रथम श्रेणी में... आप कहीं लगवा सकते हैं?" 
"सिक्किम जाएगा...?" 
"दुनिया में कहीं भी जाएगा, नौकरी तो मिले... " 
"अपना बॉयो डॉटा मुझे दे दो, मेरा नाम के.एस. दीक्षित है। एफ. टी. थर्टी सेवेन में ठहरा हूँ।" कहते हुए वे आगे बढ़ लिये। उस बीच प्लग भी साफ हो चुका था। हम भी आगे चले। रास्ते में मैंने राव साहब से कहा–"भाई सॉब, आप भी राह चलते हर किसी से मेरे लिये नौकरी माँगने लगते हैं... यह भी नहीं देखते कि आदमी कैसा है? विधान सभा का हारा हुआ विधायक लग रहा था, यह कहाँ से नौकरी देगा?" 
"तुम्हें इससे क्या कि वह कहाँ से नौकरी देगा? तुम बताए हुए पते पर अपना बॉयो डाटा पहुँचा दो।" 

अगले दिन जब मैं एफ. टी. थर्टी सेवेन में पहुँचा तो उस सरकारी मकान पर डॉ.रश्मि त्रिपाठी के नाम की पट्टिका देख कर चौंका। उनसे मेरा परिचय तो पहले से था मगर मैं कभी उनके घर नहीं गया था। वे सेंट्रल स्कूल में प्रधानाचार्या थीं। चालीस की अवस्था के आसपास की डॉ. त्रिपाठी सुन्दर और सलीकेदार महिला थीं। तीन कमरों के उस सरकारी आवास के बीच वाले कमरे में मिस्टर दीक्षित ठहरे थे। मैंने उन्हें कागजात दिये। पता चला कि दीक्षितजी सिक्किम में किसी हायर सेण्डरी स्कूल में प्रधानाचार्य हैं। उन्हें कागजात देकर मैं उसी तरह भूल गया जैसे कई जगहों पर आवेदन करके भूल चुका था। लेकिन शायद यह मेरी भूल थी। एक सप्ताह के भीतर मुझे टेलीग्राम मिल गया रिपोर्ट ओ एस डी गैंगटोक इमीजिएटली। किसी को अण्डर स्टीमेट किया था मैंने। मुझे पछतावा हुआ। कानपुर से गैंगटोक के लिये चलने से पहले डॉ.त्रिपाठी ने समझा दिया कि वहाँ किन किन लोगों से मिलना है। मेरी सारी व्यवस्था दीक्षितजी ने वहाँ करा दी थी। राजेन्द्र राव के उस प्रयास को कैसे भूल सकता हूँ जो उन्होंने राह चलते किया था और दीक्षितजी को भुला पाना कहाँ संभव है कि एक अनजान युवक की सहायता उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर की थी। मैं नहीं कहता कि ऐसे लोग अब दुनिया में नहीं हैं। हैं–मगर कम।

मैने जब अच्छी नौकरी के लिये आवेदन करके दीक्षितजी को बताया तो उन्होंने न केवल हिम्मत बढ़ाई बल्कि लगवा भी दी। और दूसरीबार राजेन्द्र राव ने मेरी मदद तब की जब मैं नौकरी छोड़कर घर बैठ गया। एक दिन उनसे मिलने गया तो उन्होंने "आज" अखबार के कानपुर संपादक को पत्र लिखा जिसे लेकर मैं उनसे मिला और उसी दिन से फीचर राइटर हो गया। किसी भी विषय पर एक राइट अप लिख लाता और वह नाम के साथ जाता। अखबार की नौकरी में मन लग गया था। मैंने सोचा कि जबतक अच्छे पैसों की नौकरी नहीं मिलती तबतक अखबार में ही बने रहना है। 

बात १९८५ के शुरू के दिनों की है। एक मित्र अशोक कुमार श्रीवास्तव का पत्र अबूधाबी से मिला। हम दोनों टी. एन. ए.में साथ काम कर चुके थे। मेरे नौकरी छोड़कर कानपुर आ जाने के बाद उसे अबूधाबी के इण्डियन स्कूल में हिन्दी पी. जी. टी. के पद पर काम करने का अवसर मिला। वह टी. एन. ए. छोड़ कर कब गया इसकी जानकारी मुझे नहीं थी। खैर–उसके पत्र ने घर के लोगों की मानसिकता बदलकर रख दी। पत्र में स्पष्ट कहा गया था कि आवेदन कर दूँ। नौकरी पक्की है। प्रिंसिपल से बात हो गई है। वह तुम्हें जानता है। आओगे तो जान जाओगे। केवल स्कूल में ही काम करते हुए पाँच हजार रुपये हर माह बच सकते हैं। यदि ट्यूशन वगैरह की जाए तो बचत और भी हो सकती है। बैचलर स्टेटस पर आना होगा। मित्र की सूचना से मुझसे ज्यादा गतिशीलता मेरे परिवार में आ गई और मुझे अच्छी तरह समझ में आ गया कि यदि मैं अबूधाबी न भी जाना चाहूँ तो भी मेरे परिवार के लोग मुझे भेजे बिना मानेंगे नहीं। औपचारिकता का निर्वाह करते हुए मैंने अबूधाबी इण्डियन स्कूल में नौकरी के लिये आवेदन कर दिया। 

मैं सिफारिश और इस तरह के रिश्तों में यक़ीन कम रखता हूँ मगर इससे इंकार भी नहीं करता कि सिफारिशों और वास्तों की भूमिका दुनिया से कभी ख़त्म होगी। जब तक समाज है और जहाँ भी है — जान –पहचान –रिश्ते–अनुशंसाएँ तो अपनी भूमिकाएँ किसी न किसी रूप में बनाए ही रहेंगे। तो इस तरह अबूधाबी जाने का अध्याय शुरू हुआ। एक ऐसी जगह जिसके बारे में कभी सपने में भी नहीं सोचा था। हाथों की अबूझ लकीरों को किसी से जानने बूझने की उत्सुकता मुझे कभी नहीं रही। किसी पण्डित या ज्योतिषी से हथेली पढ़वाने में इच्छा जगी ही नहीं। लेकिन कुछ मौके अपने आप जिन्दगी में अचानक आए जब ज्यातिषियों ने जो कहा वह सच हो गया। 

पहली बार मुझे मेरी प्रेमिका एक ज्योतिषी के पास ले गई। उनपर उसकी बहुत आस्था थी। हम दोनों अपनी अपनी मोहब्बत को शादी का अमली जामा पहनाना चाहते थे और हमारे परिवार के लोग हर हाल में हमें दूर करना। लेकिन एक यक़ीन था कि हमें जद्दोजहद से जोड़े हुए था कि दुनिया की कोई ताक़त हमें विवाह करने से रोक नहीं सकती। यह शादी कब होगी–ज्योतिषी से इतना ही वह जानना चाहती थी क्योंकि शादी नहीं होगी ऐसी कोई शंका तो हमें थी ही नहीं। मगर ज्योतिषी ने मेरा हाथ देखते हुए कहा कि यह शादी नहीं होगी और जब मेरी शादी होगी तब मैं उन्तीस वर्ष का होऊँगा। वह निराश हुई। मैं मुस्कराया। ज्योतिषी ने मेरे हिसाब से अनहोनी की भविष्यवाणी की थी मगर उसकी बात सच हुई। 

ऐसे ही जब मैंने दीक्षितजी द्वारा सिक्किम के सरकारी स्कूल में ज्वॉयन किया तो एक इतवार की सुबह मैं जिस शिक्षक ईश्वर चन्द्र शर्मा के साथ फ्लैट शेयर कर रहा था उनसे मिलने कोई आया तो शर्मा ने कहा, "तुम इस जगह से ऊबे हुए हो, इनसे पूछ लो कि जगह कब छूटेगी? ये ज्योतिषी हैं... " "छोड़ो भी..." जिद करके शर्मा ने मेरा हाथ दिखवाया। मुझे उनका नाम तो याद नहीं लेकिन जो एक वाक्य कहा वह अक्सर याद आता है। तीन महीने के अंदर जगह छूट जाएगी। मैं दीक्षितजी द्वारा लगवाई नौकरी पर साउथ सिक्किम के जिले नाम्ची में पोस्ट हुआ था। एक महीना भी नहीं बीता था। न मैंने टी. एन. ए.गैंगटोक में आवेदन किया था। नौकरी छोड़ सकने की हालत ही नहीं थी। ऐसे में जगह छूट जाएगी वाली ज्योतिषी की बात पर हँसने के अलावा और क्या हो सकता था। मगर अप्रत्याशित रूप से दो महीनों में ही जगह छूट गई, और वह भी बिना किसी नौकरी के...ठीक ऐसे ही जैसे मुझे अखबार में काम करते हुए अशोक कुमार श्रीवास्तव का पत्र मिला...। 

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