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                       खलासीटोला
    से बंदूक गली तक का सफर
                       
                      अलख
    नारायण जी 
                      
                       
                    अलख
    नारायण जी की याद का आना एक ऐसे शख्स की याद आना है जो दो
    दुनियाओं में एक साथ जीता था और वह जो अब तीसरी दुनिया में
    चला गया। पता नहीं उसने वहां भी एक साथ कितनी दुनियाएं अपने
    लिए इजाद की होंगी। हमें तो सहसा यकीन ही नहीं हुआ था इस खबर पर
    जब विश्वजीत चौबे ने यह खबर मौचाक में दी। वहां अक्सरहा की
    भांति चौकड़ी जमी हुई थी। लगता तो है कि अभी कल ही की बात हैं
    मगर धीरेधीरे नौदस साल गुजर गए उस हादसे को। उन दिनों
    यूं नहीं था संवादहीनता का आलम जो अब है कोलकाता में।
                     
                    विश्वविद्यालय के पास मौचाक(एक रेरूआं) में शंभुनाथ जी
    डॉक्टर सुब्रत लाहिड़ी इंदिरा सिंह रीता मेहरोत्रा मधुलता
    गुप्त शशि पोद्दार विमलेश्वर विश्वजीत चौबे राजनंदन
    मिश्र् का जमावड़ा हुआ करता था। जहां इंदिरा की कविता का प्रथम पाठ होता
    था। रीता की कविताओं के प्रतीकों की व्याख्या होती थी। सुब्रत लाहिड़ी
    के साथ विचारों पर विवाद हुआ करता था। विमलेश्वर की कहानियों के
    पात्रों के वास्तविक चरित्रों की शिनाख्त हुआ करती थी। उनमें से कई
    विश्वविद्यालय की सीढ़ियों पर बैठ कर अपनी कविताओं का पाठ कर
    सकते थे। विश्वविद्यालय की सेन्ट्रल लाइब्रेरी में न सिर्फ हममें
    से कुछ मित्रों के शोध का संजीदा कार्य चलता रहता था बल्कि नई
    रचनात्मकता की विकलता भी अपनी दिशा तलाशा करती थी। कुछ तो जमे
    जमाए लेखक थे और कालेज अथवा विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे।
    हममें से कुछ ने उन्हीं अड्डों से अपनी मंजिलों के पुल भी तैयार
    कर लिए।
                    
                     
                    अलख
    की मौत की सूचना पा डॉ़ शंभुनाथ ने उनकी मौत का समाचार
    बनवाया था जिसे मैंने व प्रो़ विमलेश्वर ने 'सन्मार्ग
    जाकर पहुंचाया। रमाकांत उपाध्याय थे उस समय समाचार संपादक। मौत
    के दो दिन पहले ही अलख जी से मेरी मुलाकात हुई थी। राजेन्द्र छात्र
    निवास में मैं उनसे मिला था, उन्हीं की चौकी पर। वे उस दिन
    अत्यधिक मद्यपान के कारण होश में नहीं थे। उन्होंने वादा किया था
    कि शलभश्रीराम सिंह पर लेख देंगे। उन दिनों मैं 'समकालीन
    संचेतना नामके साप्ताहिक पत्र के सम्पादक मंडल में था। यह तगादा
    उसी के लिए था। उन्होंने मेरे लिए कुछेक लेख लिखे भी थे। यूं भी
    जब कुछ वे नया लिखते तो (तीसचालीस सफों का) पूरे इत्मीनान
    से मुझे पढ़कर सुनाते। कई बार हैरत होती जब वे मेरे सुझावों
    पर अमल करते हुए लेख में परिवर्तन भी कर देते। अपने लिखे पर मेरी
    टिप्पणियों से उन्हें कभी नाराजगी हुई हो ऐसा मैंने नहीं पाया।
    उल्टे वे यह समझने की कोशिश करते दिखते कि नई पीढ़ी क्या सोच रही
    हैं। 
                     
                     कई बार कुछ विवादास्पद पढ़ते तो उस पर प्रतिक्रिया भी चाहते।
    मैंने जैसा कि पहले ही इंगित किया कि वे दो दुनिया में एक साथ
    रहा करते थे। उसमें से आधी दुनिया उनकी नशे की वह दुनिया थी जिसमें
    किसी और का साझा कम से कम ही रहता था। धीरेधीरे वे उस दुनिया
    में प्रवेश करते लेकिन उस दुनिया से लौटने की उनकी तैयारी
    नहीं दीखती थी . . . और नशा और नशा
। सारी हदों को तोड़ कर। सस्ती
    शराब से उन्हें कोई गुरेज न था। उन्हें देखा था . . .नशे में धुत्त
    . . . थोड़ा सा उतरा नहीं कि फिर सामने केला बगान की गली में घुस
    जाते। दोदो तीनतीन हफ्तों तक उनका यह दौर चलता रहता। इस दौरान
    कई दिन तो उनकी नौकरी में भी नागा होता चलता था। 
                     
                     वे पेशे से
    हिन्दी टीचिंग स्कीम में बड़े अफसर थे। कई बार नशे के चलते बुरी
    तरह बीमार पड़ जाते। मगर जब वे उस नशे की दुनिया से उबरते और
    लौटते तो फिर लेखन की नई ताजगी के साथ। उन दिनों उनसे मिलने
    का म़जा कुछ और होता। कुछ दिन वे इस तरह जीते जैसे नशे का उनकी
    जिन्दगी में कोई मुकाम ही न हो। वे इन दिनों खूब लिखते और पढ़ते। लोगों ने या तो उन्हें सभाओं में नशे में
    लड़खड़ाते हुए
    औरे अपना वक्तव्य देने से इनकार करते सुना है या फिर उनका होशमंद
    वक्तव्य। उनका लेखन उनके होश के दिनों का ही लेखन है। पीते थे तो
    वे फिर पीते ही थे। लिखते नहीं थे। लिखते थे तो फिर लिखते थे। उनके
    लिए नशा और लेखन एक दूसरे का पयार्य लगता था।
                     
                    मैं राजेन्द्र छात्र
    निवास जाता तो पहले यह .जरूर देख लेता था कि वे किस अवस्था में
    हैं। यदि नशे में हुए तो कतरा कर हल्की सी मुलाकात के बाद लौट आता
    था। ठीक रहते तो फिर लंबी बात होती। घंटे निकल जाते थे। नशे को
    हमेशा हमेशा के लिए छोड़ने का प्रण वे अक्सर करते पाए जाते थे और
    इसके लिए वे अपने सामने वाले की कसम तक खाते रहते थे। मगर वे
    अपने प्रण को हमेशा तोड़ते रहे थे। मौत भी नशे की अधिकता से ही हुई।
    अक्सरहा की तरह ही नशे की अधिकता से बेसुध हुए थे। और पिछले कई
    बार की तरह उनका शरीर अकड़ा अकड़ा सा छात्रावास वालों ने देखा था
    जिसके कि वे अभ्यस्त थे। मगर वह हमेशा की अकड़ साबित हुई थी। 
                     
                     वे
    मुझसे अक्सर कहते कि मेरे गुरू नलिनी विलोचन शर्मा पीतेपीते
    मरे थे। मैं भी वैसी ही मौत मरूंगा। और वही हुआ भी। उन्हीं के
    यहां ही मैं पहली बार बाबा नागार्जुन से मिला था। 'आलोचना
    पत्रिका के ताजे अंक उनके यहां सबसे पहले दिखते थे। नामवर सिंह के
    वे मुरीद थे। अलख की आलोचना की भाषा ऐसी समृद्ध कि वैसी फिर कोलकाता
    वालों को नसीब नहीं ही हुई। 'पाषाण उनके दोस्त थे। मार्कण्डेय
    सिंह व 'इरा के संपादक गोपाल प्रसाद को वे बहुत मानते थे।
    नयों में कुलदीप सिंह थिंद उनका हमपियाला था। जो बेहद प्यारी
    कविताएं उन दिनों लिखा करता था मगर उसने भी नशे से ऐसी
    यारी की कि वह अब पहले के कुलदीप का व्यंग्यचित्र ही रह गया है। 
                     
                     कथाकार
    अवध नारायण सिंह तो अलख के ऐसे बड़े भाई थे कि छूटा हुआ प्याला
    उनके स्वागत में फिर हाथ में लौट आता था। मैं अलख भाई का कभी
    ज़िगरी दोस्त नहीं था। न ही मैंने यह कभी जानने की कोशिश भी की
    थी कि उनकी ज़िन्दगी में मेरा कोई स्थान है या नहीं। पर उनका होना
    मेरे लिए एक संवाद का जीवित होना था। अपने खयालों की दुनिया को
    परखने का अवसर था। समय की आंच को दो अलगअलग पीढ़ियां किस
    रूप में महसूस करती हैं उसका आभास होते रहना था। वे कभीकभी
    जरूर कहते थे कि तुममे मैंने जो पाया है वह है डेडीकेशन और अपने
    को 'डिक्लास करने की खूबी। मैं नहीं जानता यदि सचमुच मुझमें
    हों भी तो ये मेरे किस काम की हैं? इन उपाधियों का मैं क्या कर
    सका? ये मेरी प्रशंसा है या एक साधारण स्टेटमेंट।
                    
                     
                    कोलकाता
    का साहित्यिक माहौल उन दिनों ऐसा था कि अधिकतर लेखकों से
    मिलने के लिए किसी को भी शनिवार का इंतजार करना पड़ता था और
    उनसे शनिवार की शाम खलासी टोला के देसी शराबखाने (प्रचलित
    नाम केटी ) में ही मुलाकात हो सकती थी। यह वही जगह थी जो
    कभी कवि शक्ति चट्टोपाध्याय को बहुत प्रिय थी। जहां ऋतिक घटक जैसे
    फिल्मकार बैठा करते थे और कला की ऊंचाइयां तय करने का मसौदा तैयार
    करते रहते थे। और मैं धीरेधीरे अपने को इन शनिवारीय बैठकों
    का इंतजार करते पाता। वहां अलख भाई के साथ सैकड़ों मुलाकातों की
    यादें जुड़ी हैं। उन्हें देखा था जाम हलक से नीचे उतारने के पहले वे
    राजकमल चौधरी के नाम पर दो बूंद गिरा दिया करते थे। 
                     
                     लेकिन अलख
    भाई की मौत के बाद केटी में हिन्दी साहित्यकारों के लिए रौनक फिर
    नहीं लौटी। अनमना हो जाया करते थे सभी वहां पहुंच। फिर तो यह
    भी हुआ कि अड्डा ही बदल दिया गया। उसकी जगह बंदूकगली के
    शराबखाने ने लेने की कोशिश की मगर वहां भी माहौल जमा
    नहीं। कवि पंचदेव के ग़ुजर जाने के बाद तो वहां भी उनकी यादें
    उदास कर देतीं। क्योंकि न तो केटी लिखनेवालों के लिए शराब खाना
    था न बंदूक गली। ये इस महानगर में एक ऐसा साझा मुकाम था जहां हरेक व्यक्ति हल्के नशे में अपने उन
    सपनों तक बारबार एक साथ पहुंचने की कोशिश करता था जो
    पूरी दुनिया की खुशहाली से संबंध रखते हैं। जहां घरपरिवार की
    सीमाओं के बाहर जाकर एक ऐसे मानव परिवार की खुशहाली का .ख्वाब
    देखा जाता जिसे सुनकर आम लोग तो हंस सकते हैं कहीं और पर।
    यह तो शराबखाना है जहां सुनेगा भी कोई तो नशे की गप भर
    समझेगा। और जहां दूसरे को समझने कोई नहीं आता। अपने को
    समझने की ग़रज से आता है या अपने को समझाने की कोशिश लेकर। 
                     
                    
    अलख भाई उन्हीं स्वप्न देखने वालों में से थे। वे लगातार
    प्रगतिशील मूल्यों के पक्षधर रहे। हरदम चेहरे पर एक मुस्कुराहट स्वर
    में आत्मविश्वास। उनके जीतेजी उनके बारे में कई मजेदार
    कहानियां प्रसारित होती रहती थीं। कुछ तो उनकी लेखनी की मौलिकता पर
    भी सवालिया निशान लगाने वाली रहीं। मगर वे इन्हें अनसुना ही
    करते दिखे। और जिन्होंने इन्हें प्रसारित किया वे उनके दोस्त बने रहे।
    क्षमा का अक्षय भंडार उनके पास था जो कभी खाली नहीं हुआ। 
                    
                     
                    मौत
    के कई साल बाद उन्हें याद करते हुए पाता हूं कि एक समर्थ और प्रतिबद्ध
    आलोचक को कितना याद रखा गया है? मृत्यु के बाद उन पर कुछेक शोकसभाएं
    तो हुई मगर निजी संबंधों और संवेदनात्मक स्तर पर उन्हें याद
    करना अलग बात है जो कि हुआ। मगर एक सर्जक के लिए इसका कोई खास
    माने नहीं रखता कि उसके दोस्ताने को कितना याद रखा गया है। रचनाकार
    तभी जीवित होता है जब उसकी रचना को याद किया जाए। उसकी
    रचनाओं का मूल्यांकन हो। मगर यह नहीं हुआ। अपने साथी कहते हैं
    कि कोलकाता में जीतेजी किसी रचनाकार का मूल्यांकन नहीं होता।
    शायद मर के हो। मगर अलखनारायण अक्षय उपाध्याय और पंचदेव की
    मौत के बाद जो कुछ हुआ उसके बाद तो यह गुंजाइश भी खत्म होती
    ऩजर आई।
                    
                     
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