|  पोती चली गई। मैं चुपचाप चाय 
                    पीने लगा। चाय पीने के बाद प्याला मेज़ पर रख देता हूँ। थोड़ी देर बात प्याली लेने पोती फिर कमरे में आई। मुझसे बोली, 
                    ''दादी, इस वक्त नहीं आ सकतीं।''
 ''क्यों?''
 ''सब्ज़ी काट रही हैं।''
 ''वह क्यों काट रही है? तेरी माँ कहाँ है?''
 ''रसोई में।''
 ''चाची?''
 ''आटा गूँथ रही हैं।''
 ''बुआ?''
 ''पढ़ रही हैं।''
 ''और तू?''
 ''अब मैं भी पढ़ने बैठूँगी।''
 
                    मैंने और कुछ नहीं पूछा। अब और 
                    कुछ जानने की इच्छा नहीं रही। बस, इतना कहा, ''दादी से कहना, 
                    सब्ज़ी काटने के बाद ज़रा एक बार यहाँ आ जाए।''पोती चाय की प्याली लेकर चली गई। मैं चुपचाप आरामकुर्सी पर 
                    बैठा रहा। मेरे कमरे के सामने छत थी। धूप फैली हुई थी। मैं 
                    बाहर नहीं निकला। मेरे कमरे में तरह-तरह की किताबें थीं। 
                    बीच-बीच में उनमें से कोई कितीब लेकर पढ़ने की कोशिश करता हूँ। 
                    मगर देर तक पढ़ नहीं सकता। पढ़ने की इच्छा नहीं करती।
 दिन चढ़ने लगा। मैं अकेला 
                    बैठा रहा। बुढ़िया अभी तक नहीं आई। उस पर मुझे गुस्सा आया। वह 
                    इन दिनों न जाने कैसी होती जी रही थी। वह पहले ऐसी नहीं थी। 
                    मेरी हर बात वह सुनती थी। अब अपने बेटे-बहुओं, पोते-पोतियों के 
                    बीच व्यस्त रहती थी। मेरी बात अब उसे याद नहीं रहती थी। वह 
                    मुझे भूल ही गई थी। थोड़ी देर बाद मेरा पोता एक 
                    गिलास दूध और आधा प्लेट हलवा ले आया। उन्हें उसने मेज़ पर रख 
                    दिया।मैंने पूछा, ''तू नहीं पढ़ रहा है?''
 ''अभी तक पढ़ रहा था।''
 ''तो फिर पढ़ाई छोड़कर उठा क्यों?''
 ''दादी ने यहाँ भेज दिया।''
 ''दादी खुद नहीं आ पाई?''
 मेरा पोता इस बात का जवाब न 
                    देकर कमरे से बाहर जाने को हुआ। तभी मैंने उससे कहा, ''अपनी 
                    दादी को एक बार यहाँ आने के लिए कहना। ज़रूरी बात है।''''अच्छा।''
 पोता चला गया। मैं चुपचाप हलवा खाने लगा। उसके बाद दूध पिया। 
                    नाश्ता करने के बाद फिर से चुपचाप बैठ गया।
 थोड़ी देर बाद पोता खाली गिलास और प्लेट लेने के लिए आया। उसने 
                    सूचना दी, ''दादी इस वक़्त नहीं आ सकतीं।''
 ''क्यों?''
 ''रोटी सेंक रही हैं।''
 ''कब तक रोटियाँ सिंकेंगी?''
 ''मैं कैसे बता सकता हूँ!''
 मैंने फिर कुछ नहीं पूछा। कुछ जानने की इच्छा भी नहीं रही। 
                    सिर्फ़ इतना कहा, ''रोटियाँ सिंक जाने के बाद एक बार यहाँ आने 
                    के लिए कह देना।''
 पोता चला गया। मैं चुपचाप बैठा रहा।
 दिन चढ़ने लगा। ठीक बारह बजे 
                    मुझे भूख लग गई। मैंने स्नान कर लिया। छोटी बहू भात की थाली और 
                    पानी का गिलास लेकर आ गई। उन्हें मेज़ पर रख दिया। मैंने पूछा, 
                    ''तुम्हारी सास की रोटियाँ सिंक गईं?''छोटी बहू हँसते हुए बोली, ''हाँ।''
 ''इस वक़्त क्या कर रही है?''
 ''नहा रही हैं।''
 इसके बाद छोटी बहू वहाँ से 
                    बाहर जाने को हुई। उससे मैंने कहा, ''नहा लेने पर अपनी सास को 
                    एक बार मेरे पास भेज देना।''''अच्छा''
 छोटी बहू चली गई। मैं भोजन करके हाथ-मुँह धोकर लेट गया।
 दिन बीतता रहा। इस बीच मेरी आँख लग गई। छोटी बहू भात की थाली 
                    और गिलास लेने कमरे में आई थी। मुझसे बोली, ''माँ का इस वक़्त 
                    आना मुश्किल है।''
 ''क्यों?''
 ''वे आराम कर रही हैं।''
 यह सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा। मेरी बुढ़िया अब पहले जैसी नहीं 
                    रही थी। अब वह काफी बदल गई थी। अब मुझे दो वक़्त का खाना देकर 
                    निश्चिंत हो जाती थी। मेरे पास एक बार भी आने की ज़रूरत महसूस 
                    नहीं करती थी।
 छोटी बहू टेबल पोंछकर थाली-गिलास लेकर चली गई। मेरी आँख फिर से 
                    लग गई।
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