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                     सिर्फ़ 
                    स्मृति-पटल पर जितना कुछ बचा है, उतना ही। आज विधानबाबू के घर 
                    में फ़ोटो खींचने का फ़ैशन दिन-प्रतिदिन इस क़दर बढ़ता जा रहा 
                    है कि खाना खा कर हाथ धोते समय की भी फोटो खींची जाती है। 
                    विधानबाबू को इस बात का अफ़सोस था कि माँ, बाप, चाचा, चाची की 
                    कोई फ़ोटो वे नहीं रख पाए। लेकिन सिर्फ़ चाचा की चमड़े की दो 
                    चप्पलें पूजा की चौकी पर रख कर पूजने की वजह क्या है? विधानबाबू के 
                    घर का पादुका पूजन बंधु-बांधवों के बीच चर्चा का विषय बन गया 
                    था। इस का मतलब यह नहीं कि विधानबाबू चाचा के प्रति अपनी भक्ति 
                    का प्रचार कर रहे थे। बल्कि विधानबाबू ने अपने शयन कक्ष के एक 
                    कोने में रखी चौकी पर मखमल का एक लाल कपड़ा बिछा कर उस पर 
                    चमड़े की दो पुरानी चप्पलें रखी हुई है। उन पर चंदन के छींटे 
                    सूख चुके हैं। हर साल चाचा का श्रीबदन चंदन और धूप से पूजते 
                    हैं।  जो लोग 
                    विधानबाबू के निकटतम बंधु-बांधव हैं, उन्होंने विधानबाबू में 
                    महज़ पितृपुरुष के प्रति अगाध भक्ति का ही नमूना पादुका पूजन 
                    में नहीं देखा- करुणा का एक विचित्र रूप भी देखा है। कोई कुछ 
                    मदद माँगने आता तो पहले वह उसके पेट-पीठ की ओर न देख उसके 
                    पैरों को देखते हैं। एक लंबी साँस छोड़ते हैं। कुछ मदद करें या 
                    न करें पूछते हैं- ''तुम्हें एक जोड़ी चप्पल चाहिए क्या? मेरी 
                    चप्पल लोगे? या फिर, रुपए देता हूँ, एक जोड़ी चप्पल ख़रीद कर 
                    पहन लेना। देखो तुम्हारे पैर कितने चलते हैं। बहुत तकलीफ़ होती 
                    होगी गर्मियों में- गर्म रेत पर, पक्की सड़कों पर। रोगी, 
                    भिखारी, गरीब छात्र और मदद माँगने के लिए आने वालों तथा वयस्क 
                    अभावग्रस्त रिश्तेदारों को उन्होंने नई चप्पलें ख़रीद कर दी 
                    हैं। पूछन पर कहते, ''सिर्फ़ अन्नदान या वस्त्रदान ही पुण्य 
                    कार्य नहीं है, गर्मियों में, जाड़ों में पादुका दान करना महान 
                    पुण्य है। मेरे बचपन में चाचा ने एक बार कहा था...।'' चाचा पिताजी 
                    की तरह बुद्धिमान और कॅमेरे नहीं थे। जिस काम में भी हाथ डालते 
                    वह डूब जाता। पिताजी का काफ़ी पैसा डूब गया चाचा के हाथों। 
                    क्रमशः चाचा निकम्मे साबित हुए। चाचा का काम था खेती-बाड़ी 
                    सँभालना। संयुक्त परिवार था। कोई एक निकम्मा हो भी जाए तो भूखा 
                    नहीं रहता था। किंतु विधान ने चाचा को कभी निकम्मा नहीं समझा। 
                    चाचा जितना काम करते हैं, संभवतः घर में उतना काम और कोई नहीं 
                    करता। चाची के ज़िम्मे चूल्हा-चौका है। उनके जीवन का सारा समय 
                    बीत गया रसोई घर में। खा-पी कर चौका-बर्तन समेटते-समेटते आधी 
                    रात हो जाती है। चाची की कमर जकड़ जाती। सुबह उठ नहीं पातीं। 
                    विधान ने कितनी बार देखा है चाचा को चाची के पैर दबाते, घुटनों 
                    पर मलहम मलते। कहते हैं वह सब जोरू के गुलाम का काम है। लेकिन 
                    विधान जानता है कि चाचा जोरू के गुलाम नहीं हैं। ऐसा हुआ होता 
                    तो इतने बड़े संयुक्त परिवार की नींव डोल गई होती। चाची की 
                    तबीयत का ध्यान चाचा नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा। चाची सारा काम 
                    निपटा कर माँ के पैर दबा देती। चाची छोटी बहू जो ठहरी। चाची सुबह 
                    जल्दी नहीं उठ पातीं, इसलिए चाचा सुबह से चूल्हे के पास जा कर 
                    एक पतीला चाय चढ़ा लेते हैं। घर के सभी लोगों, यहाँ तक कि 
                    नौकर-चाकर सब को चाय देते। उस के बाद बच्चों का नाश्ता। सूजी, 
                    साबूदाने की खीर तथा औरतों के पखाल (पानी मिला भात) खाने को 
                    सब्ज़ी या भुँजड़ी बनाते हैं। चाची कमर दर्द के कारण देर से 
                    नहाती हैं। बिना नहाए-धोए रसोई में कैसे जाएँगी? चाचा निकम्मे 
                    कहलाने पर भी पुरुष हैं। वे बिना नहाए-धोए रसोई में घुस सकते 
                    हैं, सब्ज़ी-भुँजड़ी बना सकते हैं। शादी-विवाह, पर्व-त्योहार 
                    के समय चाचा दिन-रात बैठे खाजा, मालपुआ, बूँदी बनाते हैं। इस 
                    काम में वे दक्ष हैं। चाची भी चाचा की तरह इतने स्वादिष्ट 
                    व्यंजन नहीं बना पाती। चाचा पूरी 
                    दुपहरी खेती-बाड़ी का काम देखते हैं। शाम के वक़्त बच्चों को 
                    इकट्ठे करके कहानी सुनाते हैं, ताकि खाना बनने से पहले कोई 
                    ऊँघने न लगे। इन सबके अलावा, बंधु-बांधवों की आवभगत, ठाकुर 
                    बाड़ी सँभालना भी चाचा का ही काम है। गाय-बैल को समय पर पानी 
                    पिलाना, सानी करना, गोबाड़ा ठीक से साफ़ हुआ है या नहीं देखना 
                    चाचा का ही काम है। सभी दूध, दही, घी खाते हैं। पर 
                    गोबाड़ा-दुआर कोई नहीं देखता। तलैया साफ़ करवाना, नारियल के 
                    पेड़ झड़वाना, किस से क्या लेन-देन करना है सब आसानी से करते 
                    हैं चाचा। लेकिन ये सब काम पुरुष के लिए काम में नहीं गिने 
                    जाते। जिस काम से दो पैसे न मिले उसे भला काम में कौन गिनता 
                    है। चाचा बच्चों 
                    को खूब चाहते थे। मंदिर पर कबूतर बैठने की तरह बच्चे चाचा के 
                    कंधे, पीठ पर चढ़े रहते। दो कंधों पर दो बच्चों को बिठाए चाचा 
                    को बाहर घूमते देखना रोज़ाना का दृश्य था। पीठ पर चीनी बोरा 
                    बनाए घूमेंगे बड़े बच्चों को, हालाँकि बच्चों में उन दिनों के 
                    विधान और आज के विधानबाबू थे चाचा के सब से प्रिय। विधान बचपन 
                    से ही शांत और शिष्ट है। पढ़ाई में मन लगाता है। मास्टर जी की 
                    बेंत उस पर नहीं पड़ती। हर कक्षा में फर्स्ट। इसलिए विधान है 
                    चाचा के गले का हार। हमेशा विधान-विधान करते रहते हैं। पहले 
                    विधान फिर विराज। यदि पहले विराज को पूछते फिर विधान को तो लोग 
                    कहते चाचा ने पक्षपात किया है। पर विधान पहले विराज पीछे होने 
                    के कारण लोग चाचा को कहते देवता समान। अपने बेटे को पीछे करके 
                    भाई के बेटे को आगे रखा है। अपनी बदमाशी के लिए विराज को चाचा 
                    से अकसर डाँट पड़ती। विधान को हमेशा वाहवाही और शाबाशी। शायद 
                    इसीलिए विराज अधिक बदमाशी करने लगा। विराज दिन-प्रतिदिन 
                    बिगड़ता चला जा रहा है। उस के चेले बने हुए थे अन्य सभी भाई। 
                    विधान को माइनर कक्षा की छात्रवृत्ति परीक्षा देने के लिए पाँच 
                    मील दूर हरिपुर स्कूल जाना था, पर जाए कैसे? गाड़ी-मोटर नहीं 
                    चलती थी उन दिनों। चाचा को साइकिल चलानी नहीं आती थी। पिताजी 
                    को साइकिल चलानी आती थी पर कचहरी का काम छोड़ कर वे नहीं जा 
                    सकते। चाचा ने कहा, 
                    ''कोई चिंता नहीं,विधान कमज़ोर है, चल नहीं सकता। मैं उसे कंधे 
                    पर बिठा कर ले जाऊँगा।'' केवल परीक्षा के दिनों में ही नहीं, 
                    बल्कि महीना भर पहले हरिपुर स्कूल के एक शिक्षक के पास 
                    छात्रवृत्ति परीक्षा के संभावित प्रश्न हल करने के लिए विधान 
                    को कंधे पर बिठा कर चाचा हरिपुर गए। गर्मियों के दिन, गर्म 
                    रेत, पैर जलते रहते थे। चाचा को ज़रूर कष्ट होता होगा, क्योंकि 
                    नंगे पैर है। चाचा चप्पल नहीं पहनते। पिताजी चप्पल पहनते हैं, 
                    क्योंकि वे कचहरी में काम करते हैं। खेती-बाड़ी का काम करने 
                    वाला भला कौन-सा गाँवली आदमी चप्पल पहनता था उन दिनों। यदि 
                    किसी ने पहनी होती तो लोग कहते फैशन दिखा रहा है। इसलिए 
                    चलते-चलते चाचा के पैरों में छाले पड़ जाने पर भी चाचा ने 
                    चप्पल पहनने की इच्छा नहीं दिखाई। चाचा के लिए एक जोड़ी चप्पल 
                    न ख़रीद पाने जैसी हालत नहीं थी घर की। किंतु किसी के दिमाग़ 
                    में यह बात घुसी ही नहीं। घुसती भी क्यों। चाचा तो कारोबार 
                    करने वाले कमाऊ आदमी नहीं थे। पाँच लोगों के बीच उठना-बैठना तो 
                    होता नहीं। फिर क्यों पहनते चप्पल? विधान चाचा 
                    के कंधे पर बैठा था सिर पर छाता लगाए। दादा उचक-उचक कर चलते 
                    गर्म रेत पर। हरिपुर पहुँचने तक चाचा के पैरों की दुर्गति हो 
                    जाती। विधान की पढ़ाई ख़त्म होने तक चाचा स्कूल के चबूतरे पर 
                    बैठे थकान मिटाते। विधान के आने पर उसे बाज़ार में नाश्ता 
                    करवाते। खुद पीते चाय- कभी-कभार दो सूखे बड़े। विधान को 
                    कंधे पर बिठा कर लौटते समय पूछते, ''कोई परेशानी तो नहीं है 
                    बेटे?''''मुझे क्या परेशानी होगी? चल तो तुम रहे हो दिन में दस-बीस 
                    मील गर्म रेत पर। मैं तो मज़े से बैठा हूँ कंधे पर।''
 ''पर पढ़ाई तो तू ही कर रहा है। दिमाग़ खपाने में बहुत कष्ट 
                    है। भाई भी उसी तरह कचहरी में काम करते हैं दिमाग़ खपा कर। भला 
                    मेरा क्या काम? गया, आया, खाया, पिया, बस। दिमाग़ गर्म होने 
                    जैसा कुछ नहीं। कष्ट क्यों होगा?''
 ''किंतु चाचा! तुम्हारे पैरों को तो कष्ट होता होगा। गर्म रेत 
                    से तुम्हारे पैरों में छाले भी निकल आए हैं।''
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