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प्रकृति और पर्यावरण


ऋतुओं की झाँकी (ग्रीष्म ऋतु)
-महेन्द्र सिंह रंधावा


वसंत ऋतु धीरे धीरे ग्रीष्म ऋतु में बदलने लगती है। अप्रैल के पहले सप्ताह से मौसम गर्म होने लगता है।

अधिकांश वृक्षों में कोंपलें फूटने लगती हैं। छाते की तरह छत्रवाले पाकर की तांबे–से रंग की कोंपलें संध्याकालीन सूर्य की तिरछी किरणों में आग के बादल की तरह दिखाई देती हैं। दलदली क्षेत्रों में हजारों जुगनू चमचम करते तारों की तरह चमकते हुए ऐसे दिखायी देते हैं, मानो, वे झिलमिलाते स्वर्ण की सुकुमार ताल पर हवा में थिरक रहे हों।

पेड़ों की सूखी पत्तियाँ इधर–उधर उड़ती फिरती हैं और महुए के पेड़ों के नीचे सूखे पत्तों की अजीब–सी होली जलती दिखाई देती है। हवा नीम और सिरिस के फूलों की सुगंध से भर जाती है और रात की निस्तब्धता को सिरिस की फलियों की मरमराहट भंग करती है। महुए की गेरूई कोंपलें प्रभातकालीन सूर्य की स्वर्णिम किरणों में अलौकिक आभा बिखेरती हैं।
गुलमोहर गहरे लाल फूलों से सज जाते हैं, मौसम गर्म हो जाता है।

गर्म लू चलने लगती है और पेड़–पौधे झुलसने लगते हैं। जहाँ–तहाँ धूल के बवंडर उठते हुए दिखायी देते हैं, जिनकी चोटियाँ कभी–कभी तो आकाश को छूती हुई–सी मालूम होती हें। ये धूल, मिट्टी, कंकड़, पत्थर, सूखी पत्तियों और तिनकों को अपने अंक में समेट कर बड़ी तेजी से दौड़ते हैं। सूर्य की प्रचंड किरणों से ताँबे–सी धरती तपती है।

चारों ओर धूल ही धूल ही उड़ती रहती है। घर से बाहर निकलने पर दम–सा घुटने लगता है। सारे जीव छाया को ढूँढ़ने लगते हैं। मोर पेड़ों के झुरमुट में घुसकर प्रस्तर–प्रतिमा की तरह शांत बैठे हुए वर्षा के आगमन की प्रार्थना करते हैं। उन्हें
अपने पास बैठी मोरनियों का ध्यान तक नहीं आता, जो उनका पीछा करती हुई पेड़ों की छाया में चली आयी हैं।

सूर्य की प्रखर किरणों की चमक से बालू के टीले दूर से बहती नदी या झील की तरह दिखायी देते हैं और प्यासे हिरन वहाँ सचमुच पानी समझकर मीलों दूर से उनकी ओर बेकार दौड़ते हैं। चीते भी, थके–से अपनी गुफाओं में सुस्त रहते हैं। सूरज के चका–चौंध ताप से समस्त वायुमंडल तपने लगता है। झीलें, जो एक महिने पहले सफेद और गुलाबी फूलों के कमलों से भरी थीं, सूख जाती हैं।

प्यासी भैंसें गर्मी के मारे जीभ बाहर निकाले कीचड़ में लोटा करती हैं। जंगलों में आग लगती है, जिससे वहाँ बसने वाले पशु–पक्षियों का बड़ा नाश होता है। हाथी गर्मी से तंग आकर बुरी तरह चिंघाड़ते हैं। साँप बिलों से बाहर निकल आते हैं। लू और गर्मी से घबराये हुए पथिक अमराइयों की शीतल छाया में शरण लेते हैं और प्याऊ से अपनी प्यास बुझाते हैं।

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(अगले अंक में वर्षा ऋतु की झाँकी)

 
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