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छठा दृश्य

(राजसभा का दृश्य। महाराज सत्यकेतु राज-सिंहासन पर विराजमान हैं। रानी लावण्यमती राजा के वामांगस्थित अपेक्षाकृत छोटे सिंहासन पर आसीन हैं। महाराज सत्यकेतु के दाहिने पार्श्व में राजगुरु का आसन रिक्त है। वाम पार्श्व में महामात्य सहित समस्त पार्षद सभासीन हैं।)

(द्वारपाल का प्रवेश)
द्वारपाल :- अन्नदाता की जय हो! राज-ज्योतिषी जी के पट्ट-शिष्य कुमार वररुचि महाराज के दर्शन करना चाहते हैं।
सत्यकेतु :- उन्हें सादर लिवा लाओ।

(द्वारपाल सहित कुमार वररुचि का राजसभा में प्रवेश। कुमार वररुचि महाराज सत्यकेतु के समक्ष उपस्थित होकर उन्हें सादर अभिवादन करते हैं।)
वररुचि :- प्रणाम स्वीकार करें, राजन!
सत्यकेतु :- प्रणाम। आसन ग्रहण करें, ब्रह्मचारी। कहिए, कुशल-क्षेम तो है? आचार्य कैसे हैं?
वररुचि :- (आसन ग्रहण करता है।)
आचार्य कुशलक्षेम से हैं, राजन। तथापि, एक विशेष प्रयोजन से आचार्य ने मुझे आपके पास भेजा है। (आचार्य का लेख निकालता है।) आचार्य का निर्देश है कि उनका यह लेख केवल आपको हस्तगत कराया जाए।

(आसन से उठकर पत्र महाराज के हाथों में दे देता है। पुनश्च, वापस लौटकर आसन ग्रहण कर लेता है। महाराज सत्यकेतु आचार्य के लेख का ध्यान से अवलोकन कर रहे हैं।)

(द्वारपाल का प्रवेश)

द्वारपाल :- अन्नदाता की जय हो!. . .नगर-रक्षक प्रतीक्षा कर रहे हैं।
सत्यकेतु :- उन्हें मार्ग दो।

(नगर-रक्षक का वणिक् सहित प्रवेश। वणिक् के मुखमंडल पर कुटिल मुस्कान खेल रही है।)
नगर-रक्षक :- महाराज की जय हो!
सत्यकेतु :- नगर-रक्षक, कहो क्या बात है? कौन है यह व्यक्ति?
नगर-रक्षक :- महाराज की जय हो! अत्यंत असमंजस की स्थिति है। यह वणिक् विक्षिप्त-सा प्रतीत होता है। बार-बार भूखे ही सो जाने की बात करता है। विक्रय के नाम पर इसके पास मात्र कुछ टूटे-फूटे बर्तन हैं, जिनका मूल्य भी यह दो सौ स्वर्ण मुद्रायें बता रहा है।
सत्यकेतु :- आज रात्रि के लिए इसके भोजन का प्रबंध राज-कोष से कर दिया जाए।
वणिक् :- (गठरी भूमि पर रखते हुए) रहने दीजिए, महाराज ! मुझे भूखे ही सो जाना स्वीकार है, किंतु, अपने धर्म से च्युत होने की कल्पना तो मैं सपने में भी नहीं कर सकता।
सत्यकेतु :- सो तो ठीक है, वणिक्! किंतु, जो मूल्य तुमने निर्धारित किया है, वह युक्तिसंगत नहीं।
वणिक् :- हो सकता है, किंतु, अपनी वस्तु का मूल्य मैंने यही निर्धारित किया है। प्रत्येक वणिक् अपनी वस्तु का विक्रय-मूल्य निर्धारित करने में स्वतंत्र है। उसे कम मूल्य पर अपना सामान बेच देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। आप वाणिज्य-नियमों के विरुद्ध चेष्टा कर रहे हैं, महाराज! मेरे भरण-पोषण की आपको क्यों चिंता हो?. . .मुझे मेरे भाग्य पर छोड़ दीजिए। कभी तो किसी पारखी व्यक्ति की दृष्टि मेरी वस्तु पर पड़ेगी। और जब वह मुझे उचित मूल्य देकर मेरी वस्तुएँ क्रय करेगा तब क्या मेरे लिए भरण-पोषण की समस्या रह जाएगी? . . .बिना उचित मूल्य प्राप्त किए मैं अपनी वस्तुओं का विक्रय किसी भी स्थिति में नहीं करूँगा।

(राजा थोड़ी देर के लिए असमंजस मे पड़ जाते हैं, फिर मुस्कुराते हुए)

सत्यकेतु :- वणिक्, तुम्हारी वस्तु राजकोष से क्रय कर ली जाए तब तो प्रसन्न हो जाओगे?
फेरीवाला :- अहा! महाराज, आपका हृदय सचमुच विशाल है। मैं कह रहा था न, कि कोई पारखी व्यक्ति ही. . .
सत्यकेतु :- महामात्य, राजकोष से दो सौ स्वर्ण-मुद्राओं की व्यवस्था करके वणिक् से इसके बर्तन क्रय कर लिए जाएँ।
महामात्य :- जो आज्ञा, महाराज!
सत्यकेतु :- सभा विसर्जित हो!

(राजा एवं रानी नेपथ्य में चले जाते हैं। सभा विसर्जित हो जाती है।)

(पटाक्षेप)

(सातवाँ दृश्य)

(अंत:पुर का दृश्य। महाराज सत्यकेतु पर्यंक पर विश्राम कर रहे हैं। रानी लावण्यमती समीप ही बैठी हुई है।)
सत्यकेतु :- आज राजसभा में वणिक्-पुत्र के व्यवहार से मेरा हृदय अत्यंत उद्विग्न है, प्राणप्रिये।
लावण्यमती :- (शंकित हृदय से) नाथ, राज-ज्योतिषी की बात तो स्मरण है, न!
सत्यकेतु :- भूल भी कैसे सकता हूँ। राज-ज्योतिषी की भविष्यवाणी स्मरण कर मेरा हृदय भी बार-बार शंकित हो उठता है।
लावण्यमती :- फिर उस वणिक् के टूटे-फूटे बर्तनों को राजकोष से क्यों क्रय कर लिया आपने?
सत्यकेतु :- नीति से डिग जाना मेरे स्वभाव में नहीं है, प्रिये!
लावण्यमती :- यह जानते हुए भी कि आपके साथ छल हो रहा है?
सत्यकेतु :- कुछ भी हो। सत्य से च्युत होकर न तो मुझे वैभव का ही कोई मोह है, न ही सत्ता का।
लावण्यमती :- नाथ, ऐसा मत कहिए। मेरे विचार से भविष्य में वस्तुओं के विक्रय-मूल्य पर राज्य का नियंत्रण अब अत्यंत आवश्यक हो गया है।
सत्यकेतु :- प्रिये, मैं वाणिज्य पर अंकुश नहीं लगाना चाहता।
लावण्यमती :- फिर भी, उच्छृंखलता क्या उचित है? क्षमा करें नाथ! आप स्वयं विचारवान हैं।
सत्यकेतु :- प्रिये, मैं एकांतसेवन करना चाहता हूँ।

(रानी लावण्यमती नेपथ्यगमन कर जाती हैं।)
(महाराज सत्यकेतु व्यग्रता में अकेले कक्ष में टहल रहे हैं।)
(थोड़ी देर बाद, आँखें शून्य में टिकी हैं, सम्मोहनग्रस्त-सी मुद्रा।)
(एक आकृति समीप से गुज़रती है।)

सत्यकेतु :- कौन?
आकृति :- मैं लक्ष्मी हूँ।
सत्यकेतु :- कहाँ जा रही हो?
लक्ष्मी :- तुम्हें छोड़कर किसी और के पास।
सत्यकेतु :- क्यों?
लक्ष्मी :- क्यों कि अब मैं तुम्हारे लिए महत्वहीन हो गई हूँ।
सत्यकेतु :- (नि:श्वास लेते हुए) जैसी तुम्हारी इच्छा!

(आकृति मंच के सामने से होते हुए दूसरी ओर निकल जाती है। थोड़ी देर के लिए मंच सन्नाटे में डूब जाता है। महाराज सत्यकेतु की दृष्टि अपलक मंच के एक कोने पर टिकी हुई है।)
(तभी दूसरी आकृति पास से गुज़रती है।)

सत्यकेतु :- (चौंककर) कौन?
आकृति :- मैं धर्म हूँ।
सत्यकेतु :- महात्मन आप? क्या आप भी?
धर्म :- हाँ, सत्यकेतु! तुमने लक्ष्मी का तिरस्कार किया है। इसलिए चाह कर भी मेरी रक्षा करने में असमर्थ रहोगे। यज्ञ के अभाव में मैं कैसे रह पाऊँगा। धन के बिना धर्म संभव नहीं है, वत्स!
सत्यकेतु :- आपके विछोह से में व्यथित हूँ, महात्मन! किंतु, किस मुँह से मैं आपको रोकूँ।

(दूसरी आकृति भी मंच के सामने से होते हुए दूसरी ओर निकल जाती है। थोड़ी देर के लिए नीरवता!)
(फिर पास से तीसरी आकृति गुज़रती है।)

सत्यकेतु :- (ठिठक कर) तुम कौन हो?
आकृति :- मैं सदाचार हूँ।
सत्यकेतु :- क्यों? तुम्हें क्या हुआ? तुममें ही तो जीवन का अर्थ गर्भित है। तुम्हारे अभाव में अस्तित्व का कोई मूल्य नहीं है, बंधु!
सदाचार :- अब मधुर वार्ता से कोई लाभ नहीं है, राजन! सदाचार धर्म का सार है। आपने तब नहीं सोचा जब महात्मन धर्म की उपेक्षा की। अब मुझे और अपमानित मत कीजिए।
सत्यकेतु :- तुम बहुत उद्विग्न हो, बंधु! मेरी भूल से तुम्हारे हृदय को जो ठेस पहुँची है, उसका मुझे भी पश्चात्ताप है। शायद विधाता ही वाम है। (भर आए कंठ से) . . .या मैं ही विक्षिप्त हो गया हूँ। कुछ समझ में नहीं आता।

(तीसरी आकृति भी सामने से होती हुई दूसरी ओर निकल जाती है। मंच पर नीरवता।)
(फिर चौथी आकृति पास से गुज़रती है।)

आकृति :- राजन!
सत्यकेतु :- तिमिर में किरण की तरह तुम कौन हो, प्रिय!
आकृति :- मैनें तुम्हें चिरकाल तक सुशोभित किया है, राजन! मैं हूँ तुम्हारा यश। सदाचार के अभाव में मेरी स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई है।
सत्यकेतु :- क्यों? क्या हुआ तुम्हें?
यश :- राजन! स्वयं पंगु होने के कारण मुझे देश-देशांतर तक भ्रमण करने के लिए सदाचार के बलिष्ठ कंधों की आवश्यकता पड़ती है। शुभ कर्मों के अभाव में केवल एक ही धक्का पर्याप्त है मुझे धूल-धूसरित करने के लिए। इसलिए मुझे अनुमति दीजिए, राजन!
सत्यकेतु :- अब तुम्हारी कामना भी शेष नहीं रही, प्रिय! जाओ, सुख से रहो।

(चौथी आकृति भी लँगड़ाती हुई मंच के दूसरी ओर निकल जाती है। थोड़ी देर के लिए मंच पर पूर्ण नीरवता व्याप्त!)
(फिर पाँचवी आकृति प्रकट होती है।)

सत्यकेतु :- कौन हैं आप?
आकृति :- सत्य! . . .विराट का प्रतिरूप!
सत्यकेतु :- आपके स्वरूप से साक्षात होकर मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा है, आत्मन!
सत्य :- मैं तुमसे विलग हो रहा हूँ, सत्यकेतु!
सत्यकेतु :- नहीं, . . .नहीं, आत्मन! आप मुझसे विलग नहीं हो सकते।
सत्य :- आख़िर क्यों? तुम्हें तो किसी की कामना नहीं. . .किसी के प्रति संकल्प नहीं।
सत्यकेतु :- नहीं, आत्मन! आप मेरा संकल्प हैं। आपसे विलग होकर मैं संज्ञाशून्य हो जाऊँगा।
सत्य :- तुम्हें तो मोक्ष की ललक है, सत्यकेतु! मुझे लेकर क्या करोगे?
सत्यकेतु :- (मुस्कुराते हुए) आपको नहीं है? वही तड़प तो आप में भी है, महात्मन! अणु से. . .विराट होने की।
सत्य :- आख़िर तुम कहना क्या चाहते हो?
सत्यकेतु :- आप ही माध्यम हैं मोक्ष का। इसीलिए मैंने आपको सदैव धारण किया है।
सत्य :- फिर?
सत्यकेतु :- मैं आपसे और आप मुझसे परे नहीं हो सकते, आत्मन! पुनश्च, अणुवत मुझमें प्रविष्ट हो जाइए।

(आकृति शनै: शनै: विलीन हो जाती है। सत्यकेतु की तेजोमय काया में एक आलोक-रश्मि प्रविष्ट कर जाती है।)
(थोड़ी देर बाद एक आकृति मंच के दूसरे कोने से वापस लौटती है।)

सत्यकेतु :- (आश्चर्यित-सा) अहो, महात्मन आप?
आकृति :- हाँ राजन! धर्म की नींव ही सत्य पर टिकी है। सत्य आधार है धर्म का। तुम श्रेष्ठ हो, राजन! क्यों कि तुमने अपने दृढ़ संकल्प से सत्य को धारण किया है। तुम्हारी छत्रछाया में ही धर्म का चतुर्मुखी विकास संभव है। अब मैं पूर्ण आश्वस्त हूँ।
सत्यकेतु :- आप मेरे प्रति अत्यंत उदार हैं, महात्मन धर्म।
धर्म :- तुम्हारा चरित्र अनुकरणीय है, राजन! मुझे धारण करो।

(धर्म एक प्रकाशपुंज के रूप में सत्यकेतु के शरीर में विलीन हो जाता है।)
(थोड़ी देर बाद दो आकृतियाँ मंच के दूसरे कोने से निकल कर सामने आती हैं। एक आकृति दूसरी को सहारा दिए हुए हैं।)

सत्यकेतु :- (मुदित होकर) अहो सदाचार तुम!. . .और यश तुम!
सदाचार :- राजन!, तुम सत्यनिष्ठ एवं धर्मशील हो। इतना ही नहीं, अत्यंत विवेकी भी हो। वस्तुत: सत्य के निराकृत होकर मेरा कोई अर्थ नहीं। धर्म के अतिरिक्त मेरी कोई परिभाषा नहीं।
यश :- तुम्हारा अंत:करण अत्यंत निर्मल है, राजन! शुद्ध अंत:करण यश के चतुर्दिक प्रसार के लिए परमावश्यक है। अर्जित करो हमें!
सत्यकेतु :- स्वागत है!

(दोनों आकृतियाँ सत्यकेतु की काया में ज्योतिपुंज के रूप में प्रविष्ट हो जाती हैं।)
(चमत्कार! मंच पर बादलों की घड़घड़ाहट के साथ एक तीव्र प्रकाश-पुंज। साक्षात देवराज इंद्र खड़े हुए मुस्करा रहे हैं।)

सत्यकेतु :- देवेंद्र, आप? मेरा प्रणाम स्वीकार करें, स्वर्गाधिपति!
इंद्र :- मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था, सत्यकेतु! सत्य की कसौटी पर तुम खरे उतरे।
सत्यकेतु :- सब विराट की अनुकंपा है, देवेंद्र!
इंद्र :- इच्छित वर माँगो, राजन!
सत्यकेतु :- आप समर्थ हैं, देवेंद्र!
इंद्र :- मैं तुम्हें चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित करता हूँ!

(देवराज इंद्र अंतर्धान हो जाते हैं।)
(एक आकृति मंच के दूसरे कोने से चल कर धीरे-धीरे सामने आ जाती है।)
आकृति :- चक्रवर्ती राजन! मुझे आश्रय दो।. . .मैं लक्ष्मी हूँ।. . .तुम्हारा ऐश्वर्य!. . .तुम असाधारण हो, राजन! मैंने तुम्हें समझने में भूल की।. . .क्षमा कर दो मुझे।. . .मैं स्वयं बहुत लज्जित हूँ!
सत्यकेतु :- नहीं देवि, स्वयं को निरीह मत अनुभव करो। तुम तो साधन हो जगत का।. . .वर्चस्व हो पुरुष का! तुम्हारा अभिनंदन है!

(पटाक्षेप)


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9 अप्रैल 2007

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