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					 साईकल 
					सवार जॉगिंग करनेवाले, पैदल सैर करने वाले, पिकनिक करने वाले 
					या कबूतर, गिलहरियाँ, पिल्ले या चोर-उचक्के, करोड़पति, भिखमंगे 
					या बेकार हर किसी को यहाँ एक रस हक है। यूँ जहाँ सबको एक सा हक 
					होता है वहाँ कहीं जंगल का हक या कहिये जंगल का कानून भी हो 
					जाता है। इसीलिये शामों को यहाँ आने से वह घबराता है क्योंकि 
					अँधेरा पड़ते ही वह पार्क जंगल बन जाता है। फिर भी कुछ सिरफिरे 
					जॉगर्स या नौजवान लड़के-लड़कियाँ अपनी निडरता आजमाने यहाँ पहुँच 
					ही जाते हैं जो कभी- कभी बलात्कार, हत्या या मारपिटाई की खबरें 
					बनकर अगली सुबह अखबारों की सुर्खियों में या टेलीविजन के परदे 
					पर कुछ पल के लिये दहला देने वाली तस्वीरें बनकर फिर से 
					याद्दाश्त के अँधेरों में खो जाते हैं। अपनी बेटी को अकेले 
					यहाँ कतई नहीं आने देता। यूँ जब से वह कालेज पहुँची, जॉगिंग का 
					शौक उसे भी खूब चर्राया था ....पर शाम को तो उसे आने की एकदम 
					मनाही है। अभी महीना भर पहले ही तो इस पार्क में जॉगिंग करती 
					हुई लड़की का सामूहिक बलात्कार हुआ था। चौबीस बरस की, मेडिकल की 
					छात्रा। अभी तक अस्पताल में पड़ी हुई है। सोचकर मनु का 
					रोयाँ-रोयाँ काँप उठता है। 
 गिलहरी के गायब होते ही पलों में कबूतर फिर से घास पर उतर आये 
					थे, पर उनका शांति-विलास ज्यादा देर नहीं चला। उल्टे इस बार 
					गिलहरियाँ भी पाँच-छः की संख्या में जहाँ-कहाँ से निकल कर 
					अपना-अपना मोर्चा संभालने लगीं। मनु सहसा उठकर खड़ा हो गया और 
					झील की तरफ कदम बढ़ाने लगा। गिलहरी और कबूतरों के इस युद्ध में 
					उसकी हरकत ऐसी थी मानों 
					कबूतरों के हालात पर वह भी विद्रोह करता उठ खड़ा हुआ हो।
 
 लेकिन विद्रोह वह अब करता नहीं। यहाँ आकर, यहाँ के माहौल से 
					इतना अपनापन ही नहीं हुआ कि उसके खिलाफ कुछ बोल सके। पराये 
					बच्चे को डांटने के लिये पहले हक हासिल करना पड़ता है ना। बस 
					यही नहीं हुआ। माहौल पर, हालात पर या आसपास पर उसे कभी हक 
					महसूस नहीं होता। जब हक ही नही तो किस बूते पर विद्रोह करेगा 
					और क्यों कोई उसकी आवाज सुनेगा। ....लेकिन क्या उसे सच में हक 
					नहीं है। सत्ताईस बरस यहाँ रहने के बावजूद भी हक बना नहीं ? या 
					कि उसी के भीतर कोई छेद है जहाँ से हक रेत की धार सा बह निकलता 
					है। या फिर बेसरोकारी का भी एक सुख है...एक राजसी सुख...जिसे 
					भोगने के लिये वह अपने मध्यवर्गीय माहौल से हजारों कोस दूर चला 
					आया है और यहाँ खुद को 
					कर्मवीर मानता हुआ भी वह इस नवाबी विलासिता में डुबो सकता है।
 
 झील के इर्दगिर्द अगस्त की अलसायी- उमसायी धूप में लोग भी जैसे 
					सुस्ताये से खर्रामा-खर्रामा चल रहे थे। झील के एक सिरे पर 
					लड़कों-बच्चों का एक झुंड पानी में कुत्तों को उतार कर शायद 
					उन्हें तैरना सिखा रहा था। गर्मी इतनी थी कि मनु का भी मन हो 
					आया कि पानी में डुबकी लगा ले- पर वह झील नहाने या तैराकी के 
					लिये नहीं थी- सिर्फ सजावट या खिलवाड़ के लिये। बच्चे इसमें 
					रिमोट कंट्रोल से बिजली की खिलौना नावें तैराया करते। फिर भी 
					उसे कुत्तों को पानी में तैरते देख मजा आ रहा था, वह रुककर 
					उन्हीं का खेल देखने लगा। सहसा एक कुत्ता, जिसके गले की पट्टी 
					का सिरा मालिक के हाथ में ही था, दूसरे कुत्तों की देखा देखी, 
					अपने मालिक के आदेश दिये बिना ही छलांग लगाकर पानी में कूद पड़ा 
					और तैरने लगा। उसकी वह हरकत अहसासते ही मालिक गुर्राया और पूरे 
					जोर के साथ चेन के सिरे से खींच कर कुत्ते को पानी के बाहर 
					निकाल दिया। किनारे लाते ही उसने उसे आबड़-ताबड़ मारना शुरू कर 
					दिया। मनु को कुत्ते की हरकत बड़ी भोली लगी थी। खास तौर से जबकि 
					दूसरे कुत्तों के मालिक उन्हें जानबूझकर पानी में उतार रहे 
					थे....ऊपर से गर्मी भी तो बला की थी... तब दूसरे कुत्तों की 
					देखादेखी उसका ऐसा करना क्या कुदरती नहीं था। लेकिन मालिक जैसे 
					किसी बौखलाये हैवान सा कुत्ते के पेट में लगातार अपने काले, 
					भारी बूटों से हुड्डे जमाये जा रहा था और चीख रहा था ’’ 
					यू स्टे (तुम रुको) यू फॉलो मी 
					(मेरी बात समझ आयी)? यू हॉट मूव (तुमने हिलना नहीं)’’।
 
 धूप का काला चश्मा, काली ही शर्ट, काली चमड़े की टाँगों से सटी 
					जीन और काली ही चमड़े की जैकट में वह आदमी किसी खूँखार जानवर सा 
					दीख रहा था। उसका बेतहाशा बेरहम पीटना रुक ही नहीं रहा था और 
					उधर कुत्ता कूँ कूँ करता अधमरा सा हो रहा था। अनुशासन-भंग की 
					इतनी कड़ी सजा। मनु का जी मितलने लगा। उसका मन हुआ वह उस आदमी 
					को रोके। उसे हैरानी हो रही थी कि उसके आसपास खड़े दूसरे लोग उस 
					मारने वाले से क्यों नहीं कुछ कह रहे थे। मनु डर गया। शायद 
					उसका मना करना ठीक नहीं। आखिर उस आदमी का ही तो कुत्ता 
					है...लेकिन वह उसे मारने से रुकता क्यों नहीं...मनु की बेचैनी 
					इतनी बढ़ रही थी कि उसे लगा उसे जरूर अपना गुस्सा जाहिर कर देना 
					चाहिए....पर फिर भी वह पूरी हिम्मत जुटा नहीं पा रहा था...।
 एक अमरीकी औरत झील के दूसरे किनारे से भागती-चिल्लाती आ रही 
					थी। उसकी हाँफती आवाज अब काफी साफ सुनाई देने लगी थी-’’एक बार 
					और तुमने इस कुत्ते को हाथ लगाया तो मैं पुलिस में रिपोर्ट 
					लिखवा दूँगी’’
 काले चमड़े के पीछे से उस समूची पोशाक वाले आदमी ने खूँखारती 
					आवाज में कहा-’’लेडी ! माईन्ड योअर ओन विजनेस। यह मेरा कुत्ता 
					है’’
 ’’तुम्हारा कुत्ता होगा। पर उसकी जान पर तुम्हारा कोई हक 
					नहीं।’’ फिर वह चैलेंज देती हुई दुबारा बोली-’’लगाकर दिखाओ 
					हाथ, अभी पुलिस बुलाती हूँ’’,
 दूसरे लोग और मनु जो अब तक सुन्न और खामोश से, अब खुले आम 
					हिकारत की नजर से उस काली पोशाक बाले को घूरने लगे। उसने बहुमत 
					बदलता देखा तो सहसा डरकर लेकिन यूँ ऊपर से गरदन ऊँची किये 
					अवहेलना का रुख दिखाता 
					कुत्ते को लिये मिनटों में वहाँ से गायब हो गया।
 
 मनु के जी की मितलाहट देर तक बनी रही। कुत्ते की दबी-डरी 
					कराहें और उस आदमी का खूंखारपन मनु के चेहरे के सामने से हटता 
					ही नहीं था। बल्कि धीरे-धीरे वह मितलाहट किसी तिलमिलाहट में 
					बदलने लगी- एक बेचारगी का अहसास, एक घुटा हुआ आक्रोश। आखिर वह 
					क्यों नहीं रोक सका इस बेरहम हरकत कों क्यों बेसरोकार सा 
					किनारे खड़ा तमाशा देखता रहा ? ये हो क्या गया है उसको ? ऐसी 
					बेपरवाही, इतनी संवेदनहीनता।
 
 हमेशा से तो वह ऐसा नहीं था। कालेज के दिनों विद्यार्थी 
					आंदोलनों में वह अगुआ हुआ करता था। यूँ भी अपने आस-पास के 
					प्रति उसकी आँख बंद करके चलने की प्रवृत्ति नहीं थी जो कि अब 
					हो गई है। उसे याद है, कई साल पहले एक बार बम्बई में एक आदमी 
					एक बच्चे को इसलिये बुरी तरह पीट रहा था कि उसने सीढ़ियों पर 
					लावारिस पड़े छाते को उठाकर एक तरह से चोरी की है। मनु झड़प पड़ा 
					उस तगड़े से आदमी से। ऐसा भी नहीं कि मनु को यहाँ के कानून से 
					वाकफियत ना हो... कौन सा कानून जानवर की इस तरह बेरहम पिटाई 
					होने देगा। अमरीका में तो माँ-बाप भी बच्चे से ज्यादती नहीं कर 
					सकते। उसका अपना ही एक जैनी परिवार का दोस्त जब नया-नया 
					न्यूयॉर्क में आया था तो कैसी समस्या खड़ी हो गयी थी। उसका दस 
					साल का बच्चा पुलिस कस्टडी में ले लिया गया और उसके और उसकी 
					पत्नी के सम्मन पहुँच गये थे। अपने घबराये दोस्त के साथ वह भी 
					पुलिस स्टेशन गया तो पता लगा कि उन पर ’चाइल्ड एब्यूज’ का आरोप 
					है और इसीलिये कि वे अपने बच्चे को मीट खाने से रोकते हैं। 
					शिकायत उसकी स्कूल टीचर ने की थी कि बच्चा खाने के घंटे में 
					कुछ खाता नहीं और दुबक कर बैठा रहता है कि मीट खाने से माँ बाप 
					गुस्सा करेंगें। जब माँ-बाप को बच्चे के पास कमरे में ले जाया 
					गया तो वह मजे से बैठा पोर्क चाप खा रहा था। टीचर ने उसे समझा 
					बुझा कर काफी दिलेर बना दिया था कि वह माँ-बाप की मौजूदगी में 
					भी हड्डियाँ चबाता रहा। उस दोस्त की पत्नी तीन दिन तक रोती रही 
					थी कि पता नहीं अब 
					किन-किन जन्मों तक उसका बेटा यह पाप धोता रहेगा।
 
 चलते-चलते पता नहीं कब वह पार्क की बाहरी हद पर पहुँच गया। 
					वहाँ ढेरों कारें, मोटरसाईकल खड़े थे। एक आदमी ने अपनी कार 
					निकालते हुए एक मोटरसाइकल को बेपरवाही से टक्कर लगाकर गिरा 
					दिया। मनु को कारवाले की इस बेपरवाही पर बड़ा गुस्सा आया, लेकिन 
					कारवाला बिना गाड़ी रोके सरपट निकल लिया। उसने झटपट टेलीफोन बूथ 
					से पुलिस को फोन किया और पुलिस की गाड़ी का इंतजार करने लगा। 
					घंटे से ऊपर बीत जाने के बावजूद भी जब पुलिस नहीं आयी तो उसने 
					दुबारा फोन किया। आधे घंटे में पुलिस आ गयी। पुलिस वाले ने 
					पिचके मोटरसाईकल को देख पूछा
 -मोटर साइकल के मालिक आप हैं ?
 -नहीं
 -तो आप जानते हैं कि किसका मोटर साइकल है ?
 -नहीं
 -तो फिर हम क्या कर सकते हैं
 और पुलिस लौट गयी।
 
 पहले उसने सोचा कि वह यहीं मोटर साइकल वाले का इंतजार कर ले। 
					पर अंधेरा पड़ने वाला था और क्या पता मोटर साइकल वाला यहीं 
					आसपास रहता हो और रातभर के लिये साइकल छोड़ गया हो। उसने एक चिट 
					पर मारने वाली कार का 
					नम्बर लिखकर ब्रेक के भीतर खोंस दिया और आगे बढ़ा।
 
 पार्क के दायें ओर वाली सड़क से लोगों का एक हुजूम बढ़ा चला जा 
					रहा था। दूर तक फैला लोगों का यह सैलाब एड्स के मरीजों की मदद 
					के नारे लगाता और इश्तहार चिपकाता धीमे-धीमे सरक रहा था। जुलूस 
					में शामिल लोगों के थके-पसीनाये चेहरों पर भी उत्साह और चमक 
					थी। सहसा उसने अपने चेहरे की त्वचा को छुआ और महसूस किया कि 
					शायद उसका चेहरा इन चेहरों से फर्क है....शायद उसका अपना चेहरा 
					बड़ा सपाट और भावहीन हो चुका है। त्वचा में मुलायमी और रंगत 
					नहीं रही। सहसा उसे ध्यान आया-आज की इस ’एड्सवॉक’ में उसकी 
					बेटी भी शामिल होने की बात कह रही थी। भीड़ पर खोजती हुई आँखे 
					दौड़ायीं तो लड़कियों के एक रंग-बिरंगे झुंड में सफेद जीन्स और 
					लाल टीशर्ट पहने उसकी सुनहरी बालों वाली बेटी उसी की ओर हाथ 
					हिला रही थी। अजीब हुमक सी उठी उसके भीतर। वह भी इस जुलूस में 
					शामिल क्यों नहीं हो जाता। ये तो इंसानियत मे मसले हैं....किसी 
					एक देश की सीमाओं में नहीं बंधे- कोई, कभी भी, कहीं भी इनसे 
					जुड़ सकता है। बरसों बाद जैसे वह अपने घोंघे से निकल दुनिया की 
					खुली हवा में साँस ले रहा था। उसकी बेटी की सहेलियों का झुंड 
					आगे बढ़ चुका था। वह किन्हीं अनजान पर एक मकसद की पहचान लिये उन 
					चेहरों की भीड़ में शामिल हो गया।
 
 कितनी फर्क है उसकी बेटी 
					की दुनिया। उसके मन में ऐसा कोई द्वंद शायद कभी उठती ही 
					नहीं....दोनों दुनियायें उसकी अपनी ही होती हैं। वह तो यूँ भी 
					आसमान से रिश्ता जोड़ने की बात करती है। कहती है ’’डैडी ये जो 
					नदियों और समुद्रों ने बीच में आकर जमीन के टुकड़े-टुकड़े कर 
					दिये हैं न, इससे सभी कोई अपने को एक टुकड़े भर के साथ ही जोड़ 
					पाते हैं....सच में आसमान तो अबाध है...आसमान से जुड़कर मैं 
					पूरी दुनिया की हो जाती हूँ....और दुनिया मेरी ..... आप और 
					मम्मी तो बेकार में ही झगड़ते हैं।’’
 
 सुनहरी बाल, सुनहरी आँखें और सुनहरी रूपरंग लिये मुलायम त्वचा 
					वाली उसकी बेटी एकदम शक्लसूरत में अपनी माँ पर गयी है। मनु की 
					पत्नी आयरीन की हिन्दुस्तान में जबरदस्त बौद्धिक दिलचस्पी रही 
					है... अंजलि में यह दिलचस्पी और भी गहरे उतर गयी है... उसकी तो 
					जिंदगी का मकसद ही जैसे अपनी पैत्रिक जड़ों की खोज और पहचान है। 
					कॉलेज में अपनी पढ़ाई का मुख्य विषय उसने दक्षिण एशिया ही लिया। 
					इसी सिलसिले में उसे साल भर के लिये शोध करने हिन्दुस्तान जाकर 
					रहना था। आयरीन तो पहले बहुत घबरायी थी
 ’’-तुम उसे पार्क तक तो अकेले जाने नहीं देना चाहते, भारत 
					अकेले कैसे भेज दोगे ?’’
 ’’लेकिन हिन्दुस्तान में भला किस बात का डर है ? वहाँ तो अपना 
					घर है। जब जहाँ चाहे रहे ... कभी दादा-दादी, के कभी बुआ 
					तो कभी चाचा के।’’
 
 लेकिन अंजलि के हिन्दुस्तान के अनुभवों ने जो खौफ और दहशत उसे 
					दी थी... वह उन्हें लेकर एक बड़ी भारी शर्म और ग्लानि महसूस 
					करता था। ऐसी शर्म जो अपने माँ-बाप को चोरी या हत्या करते देख 
					महसूस होती है या ऐसी शर्म जो इंसान की पूरी विरासत, पूरे 
					अर्जित अपने आप पर ही सवाल लगा दे या फिर अपनों के नाम पर जो 
					सिर्फ एक गर्हित हीन भाव का अहसास भर दे जाये। और यह सब उसकी 
					अपनी पहचानी दिल्ली में हुआ। क्या हो गया है उसकी दिल्ली को। 
					डिफेंस कालोनी में जहाँ कि शहर के सभ्य लोग रहते हैं। उस भोली 
					मासूम लड़की को कैसी-कैसी बातें सुनायी गयीं-’’यू वांट ए चोद’’ 
					यू वांट टू फक मी’’ का ऐसा घिनौना इस्तेमाल। एक अमरीकी अगर 
					स्वतंत्र रूप से अपना काम करती हुई 
					घूमती है तो क्या वह सिर्फ 
					मर्दों या सेक्स की ही तलाश में हैं।
 
 और फिर अपनी रिसर्च में आँखों देखी सच्चाई के रंग भरने के मकसद 
					से बुआ के मना करने के बावजूद भी वह किसान रैली में गयी थी। 
					फिर खतरे की बात भी क्या हो सकती थी। वह किसानों के साथ 
					हमदर्दी जताने ही तो जा रही थी.... उनकी लड़ाई में शामिल होने 
					को, उनकी ताकत बढ़ाने को। ... और वहीं उसका पर्स किसी 
					धक्कम-धक्की में नीचे गिरता है, वह झुकती है उसे उठाने को सहसा 
					एक भारी सा हाथ उसकी दोनों जंघाओं के बीच में घुस आता है, एक 
					दूसरा खुरदुरा हाथ उसकी छाातियाँ.. जकड़ लेता है। संतुलन खोकर 
					वह औंधी गिर पड़ती है... फिर पता नहीं कहाँ-कहाँ कितने हाथ पड़ते 
					हैं। नीलों से भरा उसका जिस्म कुछ रहम भरे हाथ भीड़ किनारे तक 
					पहुँचा आते हैं।...मनु की सारी तहजीब, उसका हिन्दुस्तानी होने 
					का सारा बरसों से सहेजा फरज बिटिया के सामने गंदले पानी की तरह 
					बह जाता है।
 
 लेकिन अंजलि हिन्दुस्तान 
					को लेकर किसी तरह का अंतिम फैसला नहीं सुनातीं उसके पास तौलने 
					के और भी कई पैमाने हैं-
 -’’डैडी, सभी कुछ बुरा नहीं हुआ मेरे साथ। कुछ अच्छी बातें भी 
					हुईं। ’’
 और वह शर्मीली मुस्कान के साथ अपने पर्स से एक खूबसूरत सिख 
					लड़के की तस्वीर निकालती है-
 -’’डैडी यह है करन बेदी। इससे मैं बैंगलोर में मिली थी। ही इज 
					टेरिफिक। बेहद अच्छा लड़का है। भारतीय सेना में अफसर है।’’
 आयरीन पूँछ डालती है-
 -’’आर यू सीरियस अबाउट हिम ?
 -’’हाँ। हम लोग शादी करने का सोच रहे हैं।’’
 मम्मी दहल जाती है।
 ’’तुम उस देश में जाने का सोच भी कैसे सकती हो.... ऐसे असभ्य 
					गँवार...
 और मनु से नजर टकराते ही आयरीन चुप कर जाती है। इससे पहले मनु 
					कुछ कह सके या कुछ ऐसा बैरग महसूस करे, वह बात बदल देती है।
 -’’क्या करन नौकरी छोड़कर यहाँ आयेगा ?
 -’’नहीं इस मामले में वह बहुत पक्का है। मुझी को जाना होगा। 
					अगले साल वह छुट्टी पर यहाँ आ सकता है। अगर आपको मंजूर हो तो 
					तभी शादी भी .... लेकिन मम्मी आपको मेरी फिक्र करने की कोई 
					जरूरत नहीं.... आप करन को देखेंगे न ... 
					ऐसा लम्बा-तगड़ा है ... पूरा छः 
					फुट आठ इंच। कहता है वह हमेशा मुझे प्रोटेक्ट करेगा.... उसके 
					रहते मुझे कोई छू भी नहीं सकता।’’
 
 लेकिन मम्मी की आँखों में फिर भी कातरता और अविश्वास 
					है....कहीं अपना अतीत तो नहीं जाँच रही आयरीन। साल भर आयरीन भी 
					मनु के साथ हिन्दुस्तान रह चुकी है। शुरू-शुरू में खूब उछाह के 
					साथ नये के प्रति जिज्ञासा का उत्साह नयी नयी शादी और नये-नये 
					प्रेम का उत्साह लेकिन कुछेक महीनों बाद सिर्फ शिकायतें ही 
					शिकायतें ... हर किसी से शिकायत, धूल और धूप की ज्यादती से 
					लेकर प्यार तक की ज्यादती की शिकायत। अंजलि माँ की आँखों की 
					शिकायतें नजर अंदाज कर देना चाहती है। वह सिर्फ डैडी की ही 
					आँखों में झाँकती अपनी बात कहती चली जाती है।
 
 बेटी की आँखों को पढ़ता हुआ मनु फिर से वही महसूस करता है- कोई 
					कभी भी, कहीं भी, किसी से भी जुड़ा हुआ महसूस कर सकता है। पार्क 
					में बैठे अनजानों से भी, गिलहरी और कबूतर से भी। रुकावट बाहर 
					नहीं, सिर्फ भीतर होती है। वह किन्हीं 
					भौगोलिक हदों में बँधी हुई नहीं होती... बरन खोलने की बात है। 
					खोल दो तो खुलती जाती है मन की हदें, बंद कर दो तो घोंघे के 
					खोखे में बस कीड़े की मानिन्द पड़े रह जाते हो।
 
 फिर दौर शुरू हो गया था पर्शियन गल्फ में हलचल का। ईराक का 
					कुवैत को हथियाना और अमरीकी राष्ट्रपति की उसे वहाँ से निकलने 
					की धमकी जिसका परिणाम था युद्ध। मनु ने भी लड़ाई के खिलाफ होने 
					वाले शांति प्रदर्शनों में सक्रिय हिस्सा लिया। लेकिन एक अजीब 
					बात हुई, उसके सारे साथी जो शांति के हक में थे, सोलह जनवरी 
					१९९१ को ईराक पर चढ़ाई के बाद सहसा युद्ध के हक में हो गये। 
					कहने लगे कि इसके बिना और कोई चारा ही नहीं न था। मनु हैरान था 
					पर उसे लगा कि वह रातों-रात अपना रुख नहीं बदल सकता।
 
					हमेशा की तरह लड़ाई शुरू होने 
					वाले वीकैंड पर भी वह पार्क में घूमने आया था। पार्क की एक 
					खासियत यह भी होती है कि आदमी व्यक्तिगत या सामाजिक जो भी होना 
					चाहे, हो सकता है। चाहे तो किसी भी बेंच पर बैठे आदमी से 
					बातचीत शुरू कर दे या फिर आत्मलीन होकर किन्हीं पेड़ों के 
					झुरमुट में छुपा एकांत मनाये। युद्ध की वजह से मनु बड़ा 
					उद्विग्न और परिणामतः बोलने के मूड़ में था। दरअसल उसकी बीबी भी 
					अमरीकी राष्ट्रपति से ही सहमत थी और कहती थी कि सद्दाम की ताकत 
					का सफाया होना ही चाहिये वर्ना मध्य एशिया में लड़ाई का खतरा 
					हमेशा बना रहेगा और ईराक एक के बाद एक छोटे अरब राज्यों को 
					हड़पता जावेगा। लेकिन उसकी बेटी अभी भी इस लड़ाई के खिलाफ थे और 
					उसे इस बात का भी गुस्सा था कि करन के पास भारत जाने का अपना 
					प्रोग्राम उसे लड़ाई के मारे स्थगित करना पड़ रहा है। 
					थोड़ी सैर करने के बाद वह अपने 
					चहेते बैंच पर आकर बैठ गया और गिलहरी-कबूतरों का खेल देखने 
					लगा। तभी उसने अपनी पहचान के एक आदमी को कुत्ता घुमाते उधर से 
					गुजरते देखा। इस आदमी का चेहरा उसे बड़ा रूखा सा लगा करता था, 
					चेहरे की त्वचा के रोम ऐसे बड़े-बड़े थे जैसे कि पूरा चेहरा 
					छेदों से चितरा हो। फिर भी उसे इस आदमी का नाम आता था इसलिये 
					उसने सोचा कि वह इससे बात करेगा। उसे ज्यादातर अमरीकी नाम भूल 
					जाया करते थे पर यह आदमी जब उसके साथ शांति प्रदर्शन में था तो 
					दोनों की खूब लम्बी गपशप भी हुई थी- इससे नाम और चेहरा पहचान 
					के थे।-’’हैलो विल ! मनु से काफी जोर भरी आवाज निकली।
 -’’ओह हाय मनु !
 -’’सो लड़ाई तो शुरू हो गयी विल। हमारा किया कराया...
 -’’हाँ सो तो है। पर वह तो जरूरी ही था। सद्दाम ने जिस तरह से 
					जिद की, उसे सजा तो मिलनी ही चाहिये।’’
 -’’लेकिन इतनी बड़ी लड़ाई 
					शुरू कर देना क्या अकल की बात है ?
 -’’अब इतना मौका दिया उसे समझौता करने का। यू. एन. सेक्रेटरी 
					जनरल ने भी दम लगा लिया... इस अड़ियल ने कोई चारा छोड़ा ही 
					नहीं’’
 -’’फिर भी विल, मुझे तो यह चढ़ाई गलत बात....
 विल ने उसकी बात काट दी।
 -’’तो तुम्हारा मतलब है कि दुनिया में कोई भी ताकतवर होने पर 
					छोटे कमजोर देशों को हड़प ले और उनका न्याय भी न हो।
 -’’यही तो अमरीका कर रहा है। रूस के कमजोर पड़ जाने के बाद अब 
					अमरीका को अपनी सर्वोपरिता का, अपनी ताकत का इतना घमंड हो गया 
					है कि वह दूसरों के मामले में दखलंदाजी...
 वह आदमी एकदम आग का पलीता हो गया।
 -वहाँ कुवैती सरोआम कत्ल किये जा रहे हैं, सताये जा रहे हैं और 
					तुम इसे अमरीकी सुप्रीमेसी, इम्पीरियलिज्म बताते हो... 
					तुम्हारा अपना बेटा लड़ रहा होता तो पूछता...
 -मेरा बेटा ऐसी गलत लड़ाई क्यों कर लड़ता ?
 वह आदमी अब आपे से बाहर 
					होता जा रहा था।
 
 -यही तो स्वार्थी और 
					नीचपन है तुम्हारा। तुम्हारे जैसे गद्दारों ने ही इस देश को 
					कमजोर बना डाला है। चले जाओ यहाँ से... लौट जाओ आने देश को। 
					तुम साले हिन्दुस्तानी बस यहाँ का फायदा ही उठाना जानते हो। 
					क्या किया है तुमने इस देश के लिये ? बस कमा लिया, बच्चे पढ़ा 
					लिये। जिस थाली में खाना, उसी में छेद करना। चले जाओ अपने 
					देश... देश को। हमारा खाते हो, हमीं को गाली देते हो।’’
 
 और उस आदमी ने जोर से एक घूँसा मनु के गाल में मारा। घूँसा जोर 
					से लगा था, उसकी दाढ़ तक हिल आयी थी। पर अभी वह मुँह पर हाथ रख 
					चोट को सहला भी न पाया था कि दो चार घूँसे और उसके मुँह और 
					छाती पर पड़े। मनु को चक्कर सा आने लगा। वह आदमी उसे गालियाँ 
					देता हुआ वहाँ से चल दिया। वह लगातार दुहराता जा रहा 
					था-’’हमारी जमीन पर रहकर हमारी ही आलोचना करते हैं... बेहया 
					... गद्दार कहीं के ... जाओ अपने देश वापिस।
 
 आने जाने वाले लोगों में से किसी ने कोई दखल नहीं दिया जैसे कि 
					सब उसके मत से सहमत हों।
 
 मनु ने कहना चाहा ’’यहाँ प्रजातंत्र है, वह सरकार की आलोचना कर 
					सकता है।’’ पर उसका मुँह दर्द के मारे अकड़ा पड़ा था। वह खुद को 
					सँभाल भी न पाया और जमीन पर औंधे मुँह गिर पड़ा। अकड़े हुए खुले 
					मुँह से लटकती जीभ पार्क की जमीन को छूने लगी। एक बड़ा पुरानी 
					पहचान का मिट्टी का स्वाद उसने मुँह में महसूस किया... वही 
					पहचानी सी ही गंध। सहसा उसे किसान रैली में औंधी गिरती अपनी 
					बेटी का ध्यान हो आया। उस बेहोशी के आलम में भी उसने महसूस 
					किया कि उसे किसी तरह की शर्म या ग्लानि का अहसास नहीं था। पर 
					जो था... वो क्या था ... यह भी साफ नहीं हो रहा था कि क्या यह 
					शर्म और ग्लानि का ही कोई बदला हुआ चेहरा था।
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