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यों वह तनिक भी काम करने के मूड में नहीं थी। फिर भी उसने अपने गाइड की नज़रों में काम करने की व्यस्तता दिखाने के लाघव से उनकी अलमारी की चाबी माँग ही ली थी। चाबी लेकर जब वह बाहर आई तो उसे लगा कि उस किताब को देखने में तो दस मिनट भी नहीं लगेंगे। और सर ले रहे हैं क्लास। एक घंटा बैठकर क्या करेगी वह। खाली बैठने से वह हमेशा भागती रही है क्योंकि वह जानती है कि खालीपन के कंटीले डैने उसे घेर लेते हैं। तब न जाने किन-किन आततायियों से उसे जूझना पड़ता है। उनको झटकने का हर तरीका इस्तेमाल करने पर भी वे आततायी झटके नहीं जाते। हर बार वह स्वयं ही आहत होकर लौटती रही है।

उस खालीपन से छूटने के तहत वह एक बहुत बड़ा थीसिस खोलकर बैठ गई। उसकी भूमिका, विषय कथन, विषय-परिसीमन और न जाने क्या-क्या ऊलजलूल वह पढ़ती जा रही थी जिसका उसके अपने थीसिस के विषय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं था। थीसिस के काले-काले अक्षर उसकी आँखों में तैर-तैरकर फिसलते जा रहे थे। कोई शब्द अपना वजूद खड़ा नहीं कर पा रहा था। विषय-परिसीमन की जगह उसकी आँखों में वह ग्रे हाऊण्ड टूरि़ज्म की सिलवर ब्लू काले शीशों वाली डिलक्स बस तैर रही थी जो बार-बार थीसिस के पन्नों पर अपना विशाल अजगर-सा वजूद फैलाए बैठ जाती थी। वह बस और उसमें बैठा हुआ राजीव... और इधर-उधर के लोग। नहीं, लोग नहीं बल्कि वे लड़कियाँ और लड़के जो राजीव के साथ टूर पर जा रहे थे। एक वह लड़की भी जिसे जाँचने ही वह विशेष रूप से बस स्टैंड गई थी। जब कभी वह राजीव के
मुँह से उसकी तारीफ़ सुनती है तो उसे अपना भौंडापन कचोटता है। यही नहीं, जलन के मारे उसका अंग-अंग तिलमिलाने लगता है।

लड़कों द्वारा आँखों-आँखों से लड़कियों की नोच-खसोट तो चलती ही रहती है, उस पर भला कौन पहरेदारी कर सकता है पर इस तरह दिन-रात साथ रहना और जाना तो कहीं बहुत कचोट जाता है।

टूर पर जाने की पहली रात दोनों में कुछ न कुछ ऐसा घट जाता है कि जिससे दोनों बचते रहते हैं। दोनों चाहते ऐसा कोई प्रसंग बीच में न आये और रात मनुहारों से भरी-भरी बीत जाए... पर ऐसा कुछ हो ही जाता कि वह रात कड़वी और बोझिल होकर ही कटती। यहाँ तक कि हमेशा साथ सोने की बजाय उस रात अलग-अलग कमरों में सोते और सुबह होने तक एक कटाकटा और औपचारिक माहौल बने बिना नहीं चूकता...।

वह थीसिस देखती रही और अपने अंदर के दैत्यों से लड़ती रही। अब तो जैसे विश्वास-सा होने लगा है कि राजीव बँट रहा है। कहीं दोनों के बीच कोई कटा हुआ हिस्सा है जो दोनों को आपस में जुड़ने नहीं दे रहा है। फिर वही क्यों बँधने की जिद्द पकड़ी है? कहने को नारी आज़ाद हो रही है। कितनी बेमानी है यह आज़ादी की जिहाद। वह आज़ादी शायद नई पीढ़ी के लिए है। उस जैसी विवाहिता औरत के लिए आज़ादी न के बराबर है। उसे अपने अन्दर के संस्कार और रुढ़ियाँ ही जकड़े रहती है। एक विवशता भरी छटपटाहट है जिसे पकड़ पाने की दुविधा में ज़िन्दगी बस ठिल रही है, अपनी धुरी से उखड़ी-
उखड़ी।

अंदर के इस विद्रोह की छटपटाहट में कभी उसका मन करता कि वह विज्ञापन की अर्द्धनग्न औरत बन कर सड़क पर खड़ी हो जाय। अपने शरीर में आये अतिरिक्त उभारों को मुक्का मार-मारकर अन्दर घुसेड़ दे। अपने चेहरे पर उगे उम्र के निशानों को खड़िया से पोत दे और आज की आधुनिका का लिपा-पुता चेहरा टाँग ले। सब सींखचों को तोड़ डाले जो स्वयं ही उसने अपने आस-पास खड़े कर रखे हैं।

कभी-कभी उसे लगता है कि क्यों वह इतनी उद्विग्न है, असंतुष्ट है। आम भाषा-परिभाषा तहत राजीव एक अच्छा पति है। शायद उससे प्यार भी करता है। क्या यह साधारण नहीं कि राजीव की भी आम पुरुषों जैसी इतर सम्बन्धों को बढ़ावा देने की प्रकृति है... यह आकर्षण प्राकृतिक है। दूसरे की थाली का घी अधिक भाता है। फिर वह क्यों असंतुष्ट ही रहना चाहती है। जो है उसे ही पाकर खुश क्यों नहीं रह सकती। किन्तु उसे तो हर व्यक्ति के पीछे विशेषत: पति के पीछे के दोहरेपन को सूँघने की आदत सी हो गई है।

आदमी जात अंदर से इतना घटिया क्यों हो जाता है। घर में बरतन साफ करने वाली, जमादारिन, पड़ोसन या किसी भी औरत से आँख मटक्के से लेकर शारीरिक सम्बन्ध की फिसलन तक वह कितनी आसानी से पहुँच जाता है। उसकी
ग़िलाज़त की कोई सीमा नहीं। फिर स्त्री ही क्यों देह-पुराण की पवित्रता के मंत्र जाप किया करती है।

स्त्री विवाह को वह चूड़ी की तरह पहन लेती है। उस चूड़ी की क़ैद में वह हँसते-हँसते अपने आपको आत्मसात् कर लेती है, फिर क्यों उसकी चारदीवारी को लाँघने चोर-चतुर ताक-झाँक किए रहते हैं...। यों वह हमेशा अपने आपको विश्वास दिलाती रहती है कि राजीव ऐसा नहीं है- पर जब कभी वह इस तरह लड़के लडकियों के साथ बाहर जाता है,तो उसकी भावभंगिमा की उच्छृंखलता कहीं उसके विश्वास को सूखे डंठल-सी तोड़ देती है।

उसने विषय-परिसीमन को देख लिया है- अब क्या करे। उठकर कमरे के चक्कर काट रही है। सर की ट्रे में पड़ी डाक को देखा- इधर-उधर के काग़ज़-चिटि्ठयाँ उलटती-पलटती रही। अपने आप में यह ठीक नहीं लगा- फिर भी समय कटते नहीं कट रहा था। अगर चुपचाप बैठी रही तो आस-पास न जाने कितने जंगल उग आयेंगे। जंगलों में भटकती स्वयं को भी खो बैठेगी और सारा दिन बेकार हो जायेगा...।

वह नहीं चाहती है कि आज का दिन बेकार हो जाय... या राजीव के जाने से वह उदास महसूस करे। वह अपने आप में खुश होना चाहती है । अपने आपको आश्वस्त करना चाहती है कि वह राजीव के बिना भी प्रसन्न है- आश्वस्त है और स्वतंत्र रह सकती है। अपनी इस क्षणिक मिली आज़ादी को भोगना चाहती है। खुली हवा में साँस लेना चाहती है। यही नहीं कुछ दिन शरीर की छीना-झपटी से राहत महसूस करना चाहती है। अब वह अकेले घूम सकेगी। कोई सोशल विजिट या अपनी मन पसंद शॉपिंग। उसे लगता है वह अंदर से बोंगी और बौनी होती जा रही है। अपने आप कुछ कर ही नहीं सकती। पूरी तरह से राजीव पर निर्भर हो गई है।

राजीव और उसमें एक मूलभूत अंतर है। राजीव एक ऊपरी आडम्बरी दिखावे वाली ज़िन्दगी जीता है- झूठी तारीफ़, नज़ाकती और नफासती तेवर जो बाहर वालों के समक्ष और, बाकी घरवालों की तरफ और... जैसी दोहरी प्रकृति का नमूना है। दूसरी ओर सुनंदा को ऐसे लोग जैसे काटते हैं जो लखनवी अंदाज़ और अँग्रेज़ियत की नज़ाकत झाड़ते मुँह-गर्दन टेढ़ी-मेढ़ी करके औपचारिक भंगिमाओं से दूसरों को प्रभावित करने का प्रयास करते ह- पर राजीव को यह ही रंग-ढंग पसंद ह- औपचारिकता और ओढ़े हुए झूठे आडम्बर...।

दूसरों के सामने राजीव सुनंदा को एक बड़े ही अनमने और वैराग्य भाव से देखता है। जैसे वह उसे जानता ही न हो। उसके चेहरे पर एकाएक एक भयभीत अचम्भा दौड़ गया, जब उसने देखा कि सुनंदा उसे सी-ऑफ करने बस स्टैण्ड आई है। घर से चलते व़़क्त राजीव ने कभी नहीं कहा कि मुझे सी-ऑफ करने आओगी न ! इस इतने से वाक्य को सुनने की तड़प हर बार उसके अंदर घुटकर रह जाती रही है।

राजीव कभी नहीं चाहता कि सुनंदा उसे इस तरह बाहर वालों के बीच किसी और ही रूप में देखे। दूसरे शब्दों में उसके उससे इतर बाहर के सम्बन्धों को जाने।

बस स्टैण्ड पहुँचकर वह राजीव के पास जाकर खड़ी हो गई। राजीव एकाएक अस्त-व्यस्त हो उठा। हैरानी और परेशानी को अपने में समेटते हुए कहा- तुम यहाँ...? मुझे नहीं मालूम था कि तुम बस-स्टैण्ड आ रही हो।

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