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जून माह अपने आरंभिक दौर में है। हमारे शहर सेनफोर्ड की गर्मी और सर्दी अमेरिका के अन्य शहरों से भिन्न होती है। हर ऋतु में ऐसा लगता है कि भारत में बैठे हैं सिर्फ पतझड़ को छोड़ कर। पतझड़ से कुछ सप्ताह पहले वृक्षों के पत्ते कई तरह के रंग बदलते हैं। यहाँ गर्मियों में वातावरण में बहुत नमी होती है। अक्सर रात भर तड़पती पवन सुबह भी घुट -घुट कर साँस लेती है। कल रात तापमान कुछ कम हुआ था। आज की सुबह शीतलता ले कर आई है, जान कर अच्छा लगा। मैंने फटा-फट चाय बनाई और बिस्कुट ले कर बाहर आहाते में चली गई। वातावरण में घुटन तो है। पर वह महसूस नहीं हो रही। पड़ोसी कौन है ? कैसा है ? इसका कौतुहल अधिक है।

मेरी तरह मनु भी चाय पीते हुए साथ वाले घर की तरफ अधिक देख रहे हैं। हमारे प्रांगण से हमारी बगल वाले १०४ नम्बर घर का पिछवाड़ा, भीतर के कुछ कमरे, रसोई, उसके साथ लगा सनरूम नज़र आते हैं। हलचल बहुत है। सामान ढोने वाले काम कर रहे हैं। वे कभी सोफा और कभी कुर्सियाँ ला रहे हैं। घर का प्रवेश द्वार छोटा है और पीछे का दरवाज़ा बड़ा। वे सारा सामान पिछले दरवाज़े से भीतर ले जा रहे हैं। हम दोनों जहाँ बैठें हैं, हमारे पास से ही निकल कर जाते हैं। वह घर कुछ इस तरह से तिरछा बना है कि उस घर का पिछला भाग हमारे आहाते की हद तक आता है। पड़ोस के पिछवाड़े में कोई बगीचा नहीं, बस बड़ा बरामदा है । हमारे बाग़ की हरियाली ही साथ वाले घर की खिड़कियों से दिखाई देती है। मज़दूरों को निर्देश देने वाला कोई भी व्यक्ति नज़र नहीं आ रहा। हम दोनों के भीतर उत्सुकता बहुत बढ़ गई है। साथ वाले घर का मालिक कौन है ?

''एक प्याला चाय और पी जाए। माहौल बहुत ही बढ़िया है " मनु ने मेरी ओर देखते हुए कहा। माहौल और मौसम तो बहाना है बाहर बैठ कर चाय पीने का। दरअसल मैं भी नए पड़ोसी को देखे बिना वहाँ से उठना नहीं चाहती थी। मैं चाय के बर्तन उठा कर रसोई में फिर से चाय बनाने चली आई। चाय का पानी केतली में डाल कर गैस पर रख ही रही थी कि मनु की आवाज़ कानों में पड़ी। वे किसी से बातें कर रहे हैं। मैं सब कुछ छोड़ कर बाहर की ओर तेज़ी से चल दी, लगा नए पड़ोसी से बात कर रहे हैं। अरे मनु तो दाईं तरफ १०० नम्बर वाले घर की ज़ीवा के साथ बतिया रहे हैं। वह कॉफ़ी , कुकीज़ और अखबार ले कर अपने आँगन में उसी घर की तरफ मुँह करके बैठ गई है, जिसे कुछ देर पहले हम देख रहे थे। जब से यह घर सेल पर आया था। ज़ीवा बेताब थी। कितने का घर बिक रहा है और कौन -कौन देखने आ रहा है, सारी जानकारी मुझ से लेना चाहती थी। सोचती थी कि मेरा घर बगल में हैं और मुझे सारी ख़बर होगी जैसे हर आने जाने- वाले को मैं देखती रहती हूँ। उसका घर थोड़ी दूर पड़ता है। कई बार उसे कहा भी ---'' ज़ीवा मुझ से क्यों पूछती हो ? विक्रय की तख्ती पर कर्मक का मोबाईल नंबर है, कार्यालय का फ़ोन नंबर है। किसी को भी फ़ोन कर के पता कर लो ।'' ज्योंही ज़ीवा को पता चला कि घर बिक गया है ..... तो कौन आ रहा है उस घर में ? यह जानने की उसकी जिज्ञासा चरमसीमा तक पहुँच गई। मकान मालिक का पता नहीं चला उसे। तब से बेचैन घूम रही है।

हम भी तो उसी तरह बेचैन हैं, सोच कर मुस्करा पड़ी मैं और रसोई में लौट आई। पानी खौल रहा था। इलाइची और दालचीनी पीस कर पानी में डाली। चाय पत्ती, दूध डाल कर चाय बनाई। बाहर जा कर बैठी ही थी कि ज़ीवा को अखबार सामने रख कर फिर वहीं देखते पाया। नए पड़ोसी कहीं नज़र नहीं आ रहे। बस मज़दूर इधर- उधर घूम रहे हैं।
'' लगता है, पुरानी गृहस्थी है , कितना सामान है।'' मनु मेरे इस प्रश्न का उत्तर नहीं देते और ख़ामोशी से चाय पीते हुए कनखियों से उस घर की ओर देखते रहते हैं।

शनिवार का दिन है यानि छुट्टी। बाकि दिनों की अपेक्षा इस दिन दिनचर्या बहुत धीमी गति से चलती है। सिर्फ चाय की गति तेज़ है, तीन प्याले पी चुके हैं हम। जिनको देखने के लिए पी रहे हैं, वे नज़र नहीं आ रहे। वहाँ से उठने का मन नहीं कर रहा। वृक्षों की ओट से निकल कर सूर्य अब हमारे सामने आ खड़ा हुआ है। उठना मजबूरी हो गई है। तापमान बढ़ना शुरू हो गया है। ज़ीवा भी अपना सामान उठा कर अपने घर के भीतर चली गई।

सारे घरों के अग्रिम भाग और पिछवाड़ों के आहातों की हदें आपस में मिलीं हुई हैं। एक तरफ के ड्राईवे कुछ दूरी तक घरों को अलग करते हैं बाद में सब के आहाते आपस में मिल जाते हैं। कहीं कोई बाड़ नहीं।

भारत में चारदीवारी बनाना आम बात है। घरों के इर्द- गिर्द ऊँचीं दीवारें और लोहे के बड़े -बड़े गेट बनवाने का चलन है। इससे लोगों की निजता की रक्षा होती है और बाहरी ख़तरों, चोरों आदि से भी सुरक्षा मिलती है। अमेरिका में चालीस -पचास वर्ष पहले लोग लकड़ी या लोहे की बाड़ घरों के पिछवाड़ों में बनाते थे। चारदीवारी बनाने का कोई रिवाज़ नहीं था। घर के आगे अहाता खुला ही होता था, वहाँ किसी तरह की कोई बाड़ नहीं बनाई जाती थी। जब से परिवार और समुदाय की भावना अमेरिका के लोगों में बढ़ी है, पिछवाड़े से बाड़ भी परगनों से समाप्त हो गई है। अब बाड़ के बिना घरों वाले एरिया को प्रमुखता दी जाती है। अमेरिकेंज़ सोचते हैं कि इस तरह के परगना में रहने से बच्चों में समुदाय की भावना आती है। पड़ोसियों के महत्त्व को समझा और महसूस किया जा सकता है। हमारे घरों के प्रतिवेश की भी यही विशेषता है।

इसी भावना के अंतर्गत हमने यहाँ ज़मीन ले कर घर बनवाया था। १०२ नंबर का हमारा घर बन चुका था और हम तक़रीबन घर में स्थापित हो गए थे, जब साथ वाला १०४ नम्बर का घर बन कर पूरा होते -होते बिक गया था।

उस दिन डोर बेल झनझना उठी थी। दरवाज़ा खोला तो सामने एक दक्षिण भारतीय दंपत्ति खड़ा था। रमेश एवं चित्रा महालिंगम कह कर उन्होंने अपना परिचय कराया था। हमारे पड़ोसी थे। पहचानने में देर ना लगी। बिल्डर ने उनके बारे में बताया था, उन्होंने ही १०४ नम्बर वाला घर ख़रीदा था। वे हमसे मिलने आए थे। अमेरिका में भारतीय का पड़ोसी होना वरदान लगा था। मनु की नौकरी के सिलसिले में अमेरिका के बहुत से शहर देखे हैं। हर स्थान पर अच्छे पड़ोसी मिले। सब अमेरिकंज़ थे। करीब जा कर भी कहीं ना कहीं उनमें औपचारिकता रहती है। अपनत्व की कमी खलती है हालाँकि दुःख- सुख के वे बहुत भागीदार होते हैं। हमेशा परिकल्पना करती थी कि अगर भारतीय पड़ोसी हो तो पड़ोस का सुख कैसा होगा ? वह सुख लेना चाहती थी, उन अनुभवों को जीना चाहती थी। मुझे उस का मौका मिल गया था। पहले दिन से ही चित्रा और रमेश के स्वभाव ने हमारा दिल जीत लिया था। कुछ दिनों के भीतर ही उनके दो बच्चे, हमारे दो बच्चे और ज़ीवा का बेटा आपस में खेलने लगे। कभी घर के पिछवाड़े में और कभी घरों के सामने सड़क पर। ज़ीवा का घर हमसे कुछ महीने पहले बना था।

हमारे प्रतिवेश का एक ही गेट है। सारे घरों की सड़कें गोल चक्कर खा कर बन्द हो जाती हैं। जिन्हें कल-डी-सैक कहते हैं। हमारे घर भी उसी पर हैं। बच्चों का सड़कों पर खेलना सुरक्षित होता है। तीनों घरों में बच्चे धमाचौकड़ी मचाते। परगना के बच्चे भी हमारे यहाँ पर आकर हमारे बच्चों के साथ खेलने लगे थे। स्कूल के बाद बच्चों के शोर से वातावरण गुंजाएमान रहता। बच्चों के साथ -साथ हम तीनों परिवार भी करीब आ गए थे।

ज़ीवा यहूदी मूल की अमेरिकन है। संयुक्त परिवार में बहुत विश्वास करती है। जीवन मूल्य, परम्पराओं , अनुशासन और उसका बच्चों को पालने का तरीका हमसे बहुत मेल खाता है। हमारा उसके करीब जाना स्वाभाविक था। दस वर्ष हम तीनों परिवारों और बच्चों ने इकट्ठे बिताए। वह हमारी दिवाली और होली पर साड़ी पहन कर आती है और हम उनके रोश हशामः में सज- धज कर जाते हैं। समय की रफ्तार तेज़ है, इसका एहसास हमें तब हुआ जब बच्चे दूसरे शहरों के विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए चले गए। तीनों परिवार ऐसे खाली घोंसलों की तरह हो गए। दुःख- सुख बांटते हम जीवन का आन्नद ले रहे थे कि अचानक एक दिन चित्रा ने बताया, उनकी कम्पनी ने तरक्की देकर उन्हें वर्जिनिया जाने का आदेश दे दिया है। कम्पनी यहाँ का उनका घर बिकवाएगी और वर्जिनिया में घर खरीदवा भी देगी। सुन कर ख़ुशी हुई। अमेरिका की गिरती अर्थव्यवस्था में उन्हें नौकरी में अच्छा सुअवसर मिल रहा था। पर झटका भी लगा। वर्षों का साथ छूट रहा था। दिल को समझा लिया। अमेरिका की जीवन शैली में यह आम बात है। दोस्ती कहीं जाएगी थोड़े ही। हाँ रोज़ का मिलना कम हो जायेगा।

घर बेचने वाली एजेंसी ने चित्रा-रमेश का घर बिक्री पर लगा दिया। बावजूद अमेरिका की आर्थिक मंदी के दो सप्ताह के भीतर ही उनका घर बिक गया। पर किसने ख़रीदा, बहुत गोपनीय रखा गया। मनु का विचार था कि आर्थिक मंदी के समय में किसी भारतीय ने ख़रीदा होगा और बैंक से लिए गए कर्ज़े की स्वीकृति और उसकी औपचारिकता तक ही इसे गोपनीय रखा गया है। अमेरिका में भारतीय बहुत समृद्ध हैं। इस देश के आर्थिक उतार-चढ़ाव से उन को कोई अन्तर नहीं पड़ता। ज़ीवा सोचती थी, किसी यहूदी ने ख़रीदा होगा। वे भी भारत के पटेल और मारवाड़ियों जैसे व्यापारी होते हैं, सही समय और सही जगह पर तोल-भाव करने वाले। अमेरिका की आर्थिक गिरावट ने घरों की कीमतें बहुत कम कर दी हैं। निवेश करने वाले आज कल रियल एस्टेट में खूब धन लगा रहे हैं। खैर बहुत कुछ सोचते रहे पर हमें साथ वाले घर के गृह-स्वामी का पता नहीं चला।

किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। मैं और मनु दरवाज़े की ओर लपके। सोचा नए पड़ोसी होंगे। ज़ीवा खड़ी थी।
''रुबिन ने बाहर ग्रिल पर खाना बनाया है। आप के रॉक गार्डन में दोपहर के भोजन का सामान रख दिया है। वहाँ वृक्षों की ओट में बहुत छाया है। गर्मीं महसूस नहीं होगी। आ जाओ। छुट्टी का मज़ा लें।''

दरवाज़ा उड़का कर हम रॉक गार्डन की ओर चल दिये। मैं ज़ीवा की मंशा जान गई थी। वहाँ बैठ कर वह साथ वाले घर की हलचल, ड्राईवे और घर के अग्रिम भाग को देखना चाहती है। सामान ढोने वाले आँगन का फर्नीचर ले कर जा रहे है। तभी दो कुत्ते और तीन बिल्लियाँ उनके पीछे भागे। हमें देख कर कुत्ते भौंकने लगे और बिल्लियाँ मियाँऊँ-मियाँऊँ करने लगीं। कुछ देर तक वे हमारा मनोरंजन करते रहे फिर मज़दूरों के पीछे भाग गए।
''पारुल, ये लोग तो बाड़ बनाएँगे। दो कुत्ते और तीन बिल्लियों को कैसे अपनी हद में रखेंगे।'' ज़ीवा ने चिंतित हो कर कहा।
''कहाँ लगाएँगे ? जगह ही कहाँ है ? हमारी सीमा को पार करके ही लगानी पड़ेगी और हमारे प्रतिवेश के कानून उसकी आज्ञा नहीं देंगें। ग्रिल वाली बाड़ अब कोई लगवाता नहीं। अदृश्य लगवायेंगें तो क्या फर्क पड़ता है।'' मैंने लापरवाही में कहा।
''अजीब लोग हैं अभी तक नज़र ही नहीं आए।'' रुबिन ने कहा।

सामने की सड़क के दूसरी तरफ के घरों में मार्गरेट भी अपने घर के आगे बरामदे में कुर्सी डाल कर अधलेटी इधर ही देख रही थी। हाथ हिला कर हमने अभिवादन किया।

जीवा के चेहरे के भाव बता रहे थे कि उसके स्वाभिमान को बहुत चोट लगी है। उसे अभी तक पता नहीं चल पाया कि चित्रा- रमेश के घर में कौन आया है ? उसे वेस्टर्न एस्टेट्स (हमारे परगना का नाम) का मुफ्त का समाचार पत्र कहते हैं। जिसे हर घर की, हर ख़बर होती है।

ज़ीवा किसी को फ़ोन करने लगी और हमारा ध्यान एक दम सड़क की ओर चला गया। दो बड़ी काली वैन आकर रुकीं और उसमें से कुछ मैक्सिकन निकले। कामगार लग रहे थे। वे वैन में से सामान निकाल कर घर के भीतर ले जाने लगे। तभी फ़ोन से हट कर ज़ीवा ने रहस्योदघाटन किया कि किसी माफिया के मुखिया ने घर लिया है।
''सच" हम तीनों के मुँह से निकला।
''हाँ, नहीं तो इतनी गोपनीयता की क्या बात है? नैंसी से बात हो रही थी। वह बता रही थी कि स्वागत मंडल की अध्यक्ष होने के नाते, हमारे प्रतिवेश और पड़ोसी वर्ग की तरफ से नए पड़ोसियों का स्वागत करने फूलों का गुलदस्ता, कुकीज़ और स्वागतीय कार्ड लेकर गई थी पर दरवाज़े पर कोई नहीं आया। बस बाहर से ही काम करने वालों को सब कुछ दे कर चली आई।"
''ज़ीवा हो सकता है कि अभी मकान मालिक आए ना हों।'' मनु बोले। रुबिन ने भी 'हाँ' कह कर साथ दिया।
''काम करने वाले इतने क़रीने से और हर चीज़ स्थान पर कैसे रख रहे हैं ! कोई तो अंदर बैठा उन्हें निर्देश दे रहा है... और इतने ज़्यादा लोग काम करने वाले। हम सब ने एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरण किया है, मूवर्ज़ कभी ऐसा काम करते हैं ?'' ज़ीवा ने अपना तर्क दिया।

सूर्य कहर बरपाने की मुद्रा में आ गया था। हम पसीने से तर- बतर हो रहे थे पर प्रसंग और जिज्ञासा उठने नहीं दे रही थी। गृह सज्जा विशेषज्ञ की चमचमाती मर्सेडीज़ आ कर रुकी। साथ ही खिड़कियों पर पर्दे और ब्लाईंडज़ लगाने वाले की कार। हम चुपचाप वहाँ से उठ गए, ज़ीवा की बात सही लगी।

घर में बाहर से अधिक उमस महसूस हुई। शायद भीतर यह डर बैठ गया था कि अगर पड़ोसी माफिया का मुखिया निकला तो?

मैं बार -बार खिड़की के पास जा कर उस घर को देखती हूँ। चैन उड़ गया है। खिड़कियों- दरवाज़ों पर ब्लाईंड लगने शुरू हो गए हैं।
''मनु इसका मतलब है कि दरवाज़े -खिड़कियों को पहले से ही नाप लिया गया था, तभी तो आज उन पर सब कुछ लगाया जा रहा है। पर इतनी जल्दी यह सब कैसे किया जा सकता है ? दो सप्ताह पहले ही तो घर बेचने के लिए रखा गया था।''
''शायद अथाह पैसा हो। प्राथमिकता पर काम करवा रहे हों। पैसा खर्चो तो क्या नहीं हो सकता। '' मनु ने बात समाप्त करते हुए कहा।

''मनु यह भारत नहीं है, अमेरिका है। नाप पर जो सामान बनता है, उसे समय लगता है।'' समझने की कोशिश में मैं कई बार खिड़की के पास गई। वहाँ से अब कुछ दिखाई नहीं दे रहा। हमारी तरफ की खिड़कियों को ब्लाईंडज़ से बंद कर पर्दों से ढक दिया गया है।

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