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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.के. से महेन्द्र देवसरे की कहानी ईबू


२६ दिसम्बर २००४ क्रिसमस की ख़ुशियाँ, बधाइयाँ अभी वातावरण में गूँज रही थीं। सागर में मचले उस दिन के उफान को कौन भूल सकता है? जापानियों ने उसका नाम सुनामी रखा है। डॉक्टर श़ेफाली मित्रा के बस में होता तो वह इस प्रलय का नाम सुनामी नहीं, ‘कुनामी’ रखती। तीस-तीस, चालीस-चालीस फ़ुट ऊँची लहरें आईं और लाखों इन्सानों की लाशों को कंकड़ों की तरह तट पर बिखेर गईं। समुद्र में जो लोग डूब गए, वे अलग! झोंपड़ियाँ तो क्या दोमंज़िला मकानों को वे यों लील गईं जैसे एक हिलोर में घुल जाते हैं बाल-निर्मित रेत के घरौंदे!!

अगली सुबह सुन्दरी- पूरा नाम, सुन्दरी तायफ़- शेफ़ाली के घर आ पहुँची। उसकी आँखों में भी तो सागर जैसा उफ़ान था। आँसू थे कि थम नहीं रहे थे।

“डॉक्टर, मुझे छुट्टी चाहिए। मालूम नहीं, मेरे माता-पिता, मेरा घर सही-सलामत हैं भी या नहीं! मेरा पूरा देश मुसीबत में है। मुझे जाना होगा।”

सुन्दरी शेफ़ाली की सर्जरी में नर्स ही नहीं थी, उसकी सहेली भी थी। पिछले कई वर्षों से वे दोनों शेफ़ाली की प्रैक्टिस में एक साथ काम कर रही थीं। इन्डोनेशिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों की हृदय-विदारक स्थिति के बारे में शेफ़ाली ने भी टी.वी. में, अख़बारों में देख-पढ़ लिया था।

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