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लट्टू ने कार में से आख़िरी प्लास्टिक के थैले उठाए और जल्दी से घर की ओर बढ़ता हुआ बोला, ''पापा जल्दी अंदर आ जाइए, ठंड लग जाएगी।'' वह थके कदमों से गैराज की ओर से घर के अंदर दाखिल हुए। बायीं ओर मुड़ कर हाथ जोड़ दिए। उस कमरे में मंदिर जो था। फिर दायीं ओर बढ़े। हाथ का बैग खाने की मेज़ कर रख दिया। कोट वहीं कुर्सी की पीठ पर डाल कर वह बैठ गए। उन्हें लगा कि जैसे चुप्पी के इस अंधेरे-उजाले में वह बरसों से अकेले रह रहे हैं। यह घर लौटने की घड़ी, यह संध्या का वक़्त, रोशनी को जब दिन नहीं कहा जा सकता और अँधेरे को रात नहीं कहा जा सकता, यह वक़्त उन्हें हिला गया। सूनेपन का अँधेरा उनके अंदर एक अंधे कुएँ की तरह उतरने लगा। वह यों ही निश्चल बैठे रहे।

किसी को भी किसी की प्रतीक्षा नहीं थी। उनके आस-पास सब कुछ वैसे था जैसे सफ़ेद और काले रंगों से बनाई गई कोई जड़ तस्वीर हो। इस तस्वीर में चीज़ें ही चीज़ें थीं, ढेर सारी चीज़ें। सिंक में ढेर सारे जूठे बर्तन, काउंटर पर जल्दी-जल्दी खोला गया बिस्कुट का पैकेट, पीज़ा का पुराना डिब्बा, आधी पी गई सोडे की बोतल। एक स्टोव पर कड़ाही थी और दूसरे पर खुला प्रेशर कुकर। कोने में मिक्सी और टोस्टर पड़े थे पर उनकी रेखाएँ धूमिल-सी थीं। उन्होंने सोचा कि अगर कोई दूसरा उनको देखे तो शायद कुर्सी पर बैठी उनकी आकृति भी इस जड़ तस्वीर का ही एक हिस्सा लगेगी।

उन्होंने दायीं तरफ़ से बड़े से फैमिली रूम की ओर नज़र घुमाई। ज़िंदगी की तस्वीर सिर्फ़ रुकी हुई ही नहीं बोझिल भी थी। भारी-सा कालीन, उस पर उससे भी भारी सोफा, उस पर रंगीन गद्दियों का ढेर जिन्हें वह ठीक से देख नहीं सकते थे बस हल्के अँधेरे में अंदाज़ा लगा सकते थे। सभी कुछ ठहरा हुआ था, उनकी भीतरी ज़िंदगी की तरह। उन्होंने ज़ोर से साँस ली जैसे कि इस रुकी हुई ज़िंदगी में जान डालने की कोशिश कर रहे हों।

लगा, गद्दियों के भीतर से जैसे कुछ हलचल हुई। उन्होंने अंदाज़े से ही पहचाना लक्ष्मी की आँख लग गई होगी। अगर घर में कुछ पकने की ही खुशबू आ रही होती तो शायद यह तस्वीर थोड़ी सजीन हो जाती। पर अब लक्ष्मी बहुत अरसे से खाना नहीं पकाती। बहुत पकाया है बेचारी ने। सत्तर से ऊपर की हो गई है वह। भारी शरीर को बीमारियों ने भी दबोच रखा है। वह धीरे से उठी। चलते-चलते उसका शरीर थोड़ा-सा बायीं ओर झूल जाता था। उठ कर उसने बिजली का बटन दबाया। रोशनी में सब कुछ साफ़ हो गया। आप कब आए? मुझे तो आपके आने का पता ही नहीं चला। वह चुप रहे।

फिर पास आकर उसने बड़ी आत्मीयता से पूछा, ''पानी दूँ?''
''नहीं, रहने दे। अब खाना ही खाएँगे।''
''बच्चे अभी नहीं आए?'' उन्होंने आदतन पूछ तो लिया फिर खुद ही लगा कि उनकी आवाज़ में अब ''बच्चे'' कहते वक़्त कितना खोखलापन आ जाता है। किन को बच्चे कहना चाहिए था और किन को बच्चे कर रहे हैं। लक्ष्मी तो समझती हे कि उनका बच्चों से मतलब पैंतालीस साल के कुबेर या बयालीस साल की मौनिका या छत्तीस साल के लट्टू से होता है पर उम्र के इस पड़ाव पर बच्चों से मतलब नातियों और पोतों से होना चाहिए था। कितना चाहते थे वह कि मनी की शादी हो जाए। एक डॉक्टर लड़के को सगाई करके ले भी आए। शुक्र है कि जल्दी ही पता लग गया कि वह ग्रीन-कार्ड लेने के चक्कर में शादी करना चाहता था। बस, वह सगाई तोड़ देने के बाद उनकी हिम्मत ही नहीं पड़ी किसी और लड़के पर विश्वास करने की।

कुबेर ने भी कितनी देर तक अपना विवाह स्थगित किए रखा। बड़ा भाई डॉक्टर है, बहुत बड़ा आकर्षण था लड़के वालों के लिए। लक्ष्मी को भी लगता कि बहू पहले आ गई तो कहीं कुबेर को बहन को शादी का खर्चा करने से रोक न दे। लक्ष्मी के तीनों भाई सपरिवार यहीं थे। बड़ी भाभी तो साफ़ कहती, ''बहन जी, हर चीज़ की कीमत होती है, अमरीका आने की भी एक कीमत है।''
सुन कर दोनों को लगता जैसे किसी ने उनके पके हुए ज़ख्म को छू दिया हो। उनके बच्चों की बड़ी उमर और अभी तक शादी न होने के बारे में कोई न कोई फ़िकरा कस ही देता था।
''अगर आप भारत में होते तो आप के बच्चों की कब की शादियाँ हो चुकी होतीं।''
अब उन्हें भी संदेह होने लगा था कि क्या सचमुच इस बड़े घर, कारों, और मोटी चैक-बुक की कीमत उनके बच्चों ने अपनी जवानी से तो नहीं चुकाई? उम्र सिक्कों में तो नहीं मिलती, पता ही नहीं चला कि क्या पाने के लिए क्या और कितना दे दिया?

लक्ष्मी ने बाद में खुद ही आग्रह करके कुबेर को शादी करने पर तैयार कर लिया। श्री मायादास की सभी शर्तों को पूरा करती थी। वह डॉक्टर भी थी, भारत की ही पढ़ी हुई, मतलब बिगड़ी हुई नहीं, शिकागो में पढ़ाई का दूसरा साल पूरा कर रही थी, मतलब अमरीका आकर यहाँ की परीक्षा में फेल होने का ख़तरा नहीं। देखने में गोरी पर घरेलू लगती थी। भला और क्या चाहिए था और यहीं मात खा गए मायादास। उन्हें डॉक्टर तो मिल गई पर 'बहू' नहीं मिल पाई।

श्री ने दो साल रेज़ीडेन्सी के शिकागो में ही बिताए और कुबेर न्यू-जर्सी में प्रैक्टिस करता रहा। एक तरह से मनी को लेकर जो अजीब-सी असुविधा घर में सबको थी, वह भी काफ़ी कुछ आसान हो गई क्यों कि श्री बस मेहमान की ही तरह घर में आती थी। फिर जब उसे शर्त के मुताबिक दो साल के लिए भारत जाकर रहना पड़ा तो लगा कि संतुलन डगमगा गया। लौटी तो फेलोशिप करने के लिए न्यूयार्क में रहने लगी। सभी लोग आशा लगाए बैठे थे कि अब गृहस्थी बस जाएगी। पढ़ाई पूरी कर शायद श्री माँ बनना चाहे। जब न्यू-जर्सी में अपनी लाईन की नौकरी नहीं मिली तो कुबेर का धैर्य भी जवाब दे गया।
''इतना पढ़-लिख कर अब घर तो नहीं बैठ सकती न।''
श्री के इस उत्तर से वह निरुत्तर हो गया। शादी में समझौते का क्या मतलब होता है, अब उसकी समझ में आ गया था।
इस बार भी दिवाली श्री-विहीन ही थी।

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चारों तरफ़ फैले शॉपिंग के थैलों को देख कर लक्ष्मी को थोड़ी खीज-सी हुई फिर पी गई। जब से मनी की सगाई टूटी है तब से उसकी यह शॉपिंग की आदत हद से बाहर हो गई है। लगातार हर वक़्त चीज़ें ख़रादती रहती है। घर को सजाने की, अपनी, भाइयों की, ममी की, पापा की, ज़रूरत की और ज़्यादातर बेज़रूरत की।
''क्यों कूड़ा-कबाड़ इकठ्ठा करती रहती है?'' लक्ष्मी खीजती। पर मनी घर में चीज़ें भरती जाती, भरती जाती जैसे कोई असीमित खालीपन हो, भरता ही न हो।
अब लक्ष्मी उसे कुछ नहीं कहती।
''ज़रा मनी को आवाज़ दो, ऊपर होगी।'' उसने पति से कहा।
पापा की आवाज़ सुन कर मनी दौड़ती हुई नीचे आ गई।
''लट्टू भी ऊपर है क्या? क्या कर रहा है?''
''इंटरनेट पर बैठा है, लड़कियाँ देख रहा होगा।'' मनी ने जैसे शिकायत लगाई।
''क्या बात करती है बेटे? उन्होंने प्यार से बेटे की तरफ़दारी की।'' उसको भी नीचे बुला ले।''
''पापा, श्री साउथ-कैरोलाइना से जो उसके लिए पटाखे लाई थी न वह उन्हें चलाने की सोच रहा है।''
''ना,ना,ना, यह कभी न करने देना उसे, ग़ैर-कानूनी है यहाँ पटाखे चलना।'' मायादास को अपरिपक्व बुद्धि वाले अपने इस छोटे बेटे से हमेशा ही ख़तरा बना रहता था।
''दिवाली वाले दिन पटाखे चलाना ग़ैर-कानूनी है?'' मनी ने त्यौरियाँ चढ़ा कर प्रश्न दाग़ा।

मायादास चुप ही रहे क्या जवाब देते?
फिर उन्होंने बात बदल कर बहुत प्यार से कहा, ''मनी बेटे, आज दिवाली है, कुछ तो पूजा की तैयारी कर लो।''
''पापा, बहुत थकी हुई आई हूँ काम से।'' कह कर मनी ने बाकी के घर की बत्तियाँ भी जला दी। एक उड़ती हुई उम्मीद से उसने अपने पापा के आस-पास नज़र डाली। कहीं कोई रंगीन थैला न देख, मन मसोस कर चुप-सी हो गई। ध्यान आया, अमरीका आने के कुछ साल बाद ही हालात कितने अच्छे हो गए थे। कुबेर की प्रैक्टिस तो अच्छी चल ही पड़ी थी उधर पापा ने ज़िंदगी की दौड़ के इस दूसरे दौर को भी मेहनत करके जीत लिया था। थोक के कपड़ों का व्यापार चला कर, पुरस्कार लट्टू के हाथ में थमा दिया और खुद उसके पीछे हो लिए। वह तो ख़ैर थी ही सबसे पहली बैंक में नौकरी करने वाली। क्लर्क से शुरू होकर मैनेजर बन गई थी अब। चार जनों की कमाई आने लगी थी अब घर में। ईस्ट-पटेल नगर वाले उस छोटे से घर को सभी भूल चुके थे। जब से कुबेर की डॉक्टरी के साथ श्री की भी डॉक्टरी का गठ-बंधन हुआ तभी से सभी और भी बड़ा घर लेने की बातें करने लगे थे।

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