तबले पर कहरवा बज रहा था। सुनीता
एक चुस्त-सा फिल्मी गीत गा रही थी। आवाज़ मधुर थी पर मँजाव
नहीं था। सो बीच-बीच में कभी ताल की गलती हो जाती तो कभी सुर
ठीक न लगता।
फिर भी जब गाना ख़त्म हुआ तो
सबने खूब तालियाँ बजाई और अचला ने तो तारीफ़ में कहा कि
बिल्कुल लता की तरह गाती है। अचला सभी गाने वालों को कोई न कोई
नाम ज़रूर दे डालती थी। इससे गानेवाले सचमुच अपने आप को उस
गायक के समान मान कर खुश हो जाते थे। फिर अगली पार्टी के लिए
उसी फिल्मी गायक का कोई और गाना तैयार कर लेते। इस तरह हर
दूसरे हफ्ते होने वाली इस संगीत महफिल में सभी की कोई न कोई
उम्दा पहचान बनाती जा रही थी। समीर किशोर कुमार था, जमीला आशा
भोसले, सुदेशराज मुकेश था, पवनकुमार मुहम्मद रफी, तथा अमृत
सेठी तलत महमूद।
अपने इस दायरे में चूँकि सबकी
कोई न कोई हस्ती बनी हुई थी सो शनिवार की शाम को देर तक होने
वाली इस पार्टी के बूते उनका पूरा हफ्ता मज़े में कट जाता। कुछ
लोग बाकायदा रियाज़ करते। जैसे सब को एक मकसद-सा मिल गया था।
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