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महक से मौत का अभिषेक किया जा रहा था। उन फूलों की जीवंतता देखते-देखते सहसा मौत से ध्यान हट जाता था। पर फिर महज उन फूलों की उपस्थिति मात्र ही उसका बरबस ध्यान दिला डालती थी। एक बड़े से लकड़ी के बक्से में रखा फूलों से ही सजा ढका दिवाकर का जीवन रिक्त शरीर मृत्यु के घट जाने को भुलावा कैसे दे सकता था?

पादरी बाइबल के सफों से डेविड का स्लाम पढ़ रहा था, ''प्रभु मेरा चरवाहा है तो मुझे क्या कमी है, वह मुझे हरियाले मैदानों में लेटाता है, शांत जल की ओर ले जाता है वही मेरी आत्मा की रक्षा करता है और मुझे सही रास्ता दिखाता है।''
पादरी की आवाज़ में शांति है स्थिर जल की ही तरह।
आवाज़ में दिलासा है कयामत का दिन स्वर्ग की कामना : मुक्त के लिए इतरलोक के श्रेयस्कर की कामना जीवितों के लिए एक लचर-सी तसल्ली।
लोग मौत की अवश्यंभाविता से डरे, ख़ामोश, अपनी अपनी कुर्सियों पर अवस्थित।

शंकर को अजीब लग रहा था कि एक केवल वही हिन्दुस्तानी था। बाकी सब दिवाकर के डाक्टरी पेशे से जुड़े लोग थे - अस्पताल के साथी, कर्मचारी, डाक्टर, नर्सें, मरीज़ इसमें काले, हिस्पैनिक और गोरे सभी किस्म के लोग मौजूद थे। पिछले तीस बरसों से तो वह यहाँ काम कर रहा था। इसी शहर के सबसे बड़े अस्पताल का प्रमुख डाक्टर था। कितने ही मरीज़ों ने इससे जीवन पाया था जो हमेशा के लिए उसके शुक्रगुज़ार थे।
उसकी तीनों पत्नियों के परिवार भी मौजूद थे।

दर असल पहले की दोनों पत्नियों के परिवारों और उनसे जन्मे अपने बच्चों के साथ अब भी उसका रिश्ता बना हुआ था। अभी भी वह उन बच्चों के कालेजों की फीस दे रहा था। उनके जन्मदिनों पर उपहार भेजता था और उन्हें खाने पर बाहर रेस्ट्राँ ले जाता था पर बच्चे फिर भी उसके न थे। वह उनके जीवन में एक बाहरी तत्व था। जो किसी देनदार रिश्तेदार की तरह अपनी भलमनसाहत की वजह से मदद किए जा रहा था। इसके एवज में उसे उन बच्चों से प्यार नहीं मिलता था। हाँ वक्त पर पैसा न पहुँचने की शिकायत ज़रूर मिल जाती थी पर बेशक वे उससे उपकृत ज़रूर महसूस करते होंगे तभी उसके जन्मदिन या क्रिसमस पर वे उसे शुभकामनाओं का कार्ड ज़रूर भेज देते थे। आज भी वे सभी बच्चे अपनी माओं के परिवारों के साथ अंत्येष्टि में आए हुए थे।

पर उसके अपने परिवार का कोई भी उसके मृत्यु संस्कार पर मौजूद नहीं था। रिश्तेदार भारत में ही थे। यों उनमें अब उसकी माँ और बहन ही बची थीं। यहीं पर कुछ मित्र थे जिनसे मिलना जुलना चलता रहता था।

वह ज़्यादा हिन्दोस्तानियों से नहीं मिलता था। पत्नी अमरीकी थी तो दोस्तों का समूह भी वैसा ही था। शंकर ही उसका करीबी हिन्दोस्तानी मूल का दोस्त था। दोनों मौलाना आज़ाद मेडिकल स्कूल के दिनों से ही एक दूसरे को जानते थे। उनकी आजतक दोस्ती बने रहने की शायद यह वजह भी थी कि शंकर की अमरीकी पत्नी के साथ उसकी पत्नी की निकटता थी। गोरों में आना जाना भी था और बच्चों का भी आपस में मिलना-मिलाना था।

अस्पताल से ही लाश सीधे फ्यूनेरल गृह में लाई गई थी और आज गिरिजाघर में सर्विस थी।
वह नास्तिक था। इसलिए उसकी इसाई पत्नी को ऐसा करने में कुछ गलत नहीं लगा। दोनों की शादी भी कोर्ट में ही हुई थी। यों भी वह कहाँ किसी मंदिर के पुजारी को खोज कर क्रियाकर्म करवाती। शंकर ने कहा तो था कि वह पंडित का इंतज़ाम कर देगा। अब तो यहाँ काफी लोग बस गए हैं। अच्छा पंडित भी ढूँढ़ा जा सकता है।

पर हेलन एकदम नर्वस होकर बोली थी, ''प्लीज़ शंकर उस बखेड़े में मत डालो मुझे। जो ज़िन्दा होते हुए कभी हिन्दू नहीं बना अब उस पर यह सब यों लादना ज़रूरी है?''

''लेकिन...'' और शंकर कुछ कह नहीं पाया था। विवाद का मौका नहीं था। वह दोस्त की पत्नी के लिए चीज़ों को आसान बनाना चाहता था। पहले ही शोक से सतायी हुई महिला को और कष्ट में नहीं डालना चाहता था। मुश्किल से सात साल तो हुए थे उसकी शादी को। दोनों का प्रेम विवाह था। हेलन दिवाकर से करीब बीस साल छोटी रही होगी। क्या पता था कि इतनी कम देर जीना था उसे? अचानक उसकी ज़िन्दगी में तो तूफा़न आ गया था।

पर शंकर को मन में लगा था कि ब्राह्मण परिवार में पैदा होने वाला उसका दोस्त दिवाकर क्या इस इंतज़ाम से संतुष्ट होगा। शंकर खुद भी नास्तिक ही था पर फिर भी यह मानता था कि जो हिन्दू पैदा हुआ है वह हिन्दू ही रहता है सो देह संस्कार किसी भी दूसरे तरीके से क्यों?

लेकिन उसकी पत्नी ने भी हेलन की हाँ में हाँ मिलाते हुए कह डाला था कि यह तो ख़ाली सुविधा की बात है। चर्च का सारा इंतज़ाम साफ़ सुथरा था। वहाँ तो आए दिन फ्यूनेरल सर्विस होती ही हैं। आनेवालों को भी सुविधा रहेगी। पहचानी जगह है और फिर मंदिर कौन से इस तरह के कामों में अनुभवी हैं फालतू में ही घचपच होगी। हवन वगैरह की किसी को समझ भी नहीं। फिर उसके मित्र भी ज़्यादातर तो अमरीकी ही हैं। किसको समझ में आएँगे संस्कृत के श्लोक।

मन ही मन शंकर को दिवाकर पर गुस्सा भी आ रहा था। यों ही अचानक बिना बताए चल दिया यह सब तो उसके साथ डिस्कस करके जाना था। अब शंकर न तो उसकी पत्नी पर किसी तरह का ज़ोर डालना चाहता था न ही दोस्त से दग़ाबाज़ी।
यों नास्तिक होते भी दोनों ने गीता महाभारत रामायण सब पढ़ रखे थे। गीता के तो कई श्लोक दोनों को ज़बानी रटे थे।

बल्कि अपनी ज़िन्दगी में संतुलन बनाए रखने के लिए कभी-कभी वे एक दूसरे के व्यवहार पर श्लोकों के ज़रिये टिप्पणी करते थे जैसे कि शंकर उसे कहता था, ''भाई ये सारे बच्चों की कालेज और स्कूल की पढ़ाई का इतना भारी खर्च तुम्हारा सच्चा निष्काम कर्म ही मानना चाहिए। वर्ना बीवी को छोड़ने पर बच्चों को इतना सर चढ़ाने की क्या ज़रूरत है। तुम तो अभी भी पूरी निष्ठा से लगे हो।

दिवाकर हँसा था, ''सबके अपने अपने कर्मों का फल है। वे अपने हक का ले रहे हैं और मैं अपना धर्म निभा रहा हूँ। फिर जब सात समंदर पार आकर मेरा धर्म तो भ्रष्ट हो ही गया है। उसकी एवज़ में इतनी दौलत आ रही है तो वे भी क्यों न उसका सुख भोगें। शायद यहीं कुछ खटकर अपनी योनि सुधार लूँ।''

एक बार किसी बात पर बड़ा गुस्सा था शंकर तो दिवाकर गीता के दूसरे अध्याय का बासठवाँ श्लोक गाने लगा था, ''क्रोध से संमोह होता है और संमोह से स्मृतिनाश, स्मृति न रहने से विचार शक्ति का नाश होता है और बुद्धिनाश से सर्वनाश।'' शंकर का गुस्सा दूर करने के लिए ही इस बाण का प्रयोग किया गया था और इसका असर हुआ भी।

पर यह सब बौद्धिक प्रयास ही था। किसी आस्था का सबूत नहीं। बस अजीब बात यह थी कि खुद को नास्तिक कह कर भी उनकी शब्दावली, संदर्भ, सब हिन्दू शास्त्रों से ही जुड़े थे। और यह सब अनायास होता था।

मूल बात यह थी कि दिवाकर के समूचे व्यक्तित्व में एक उदारता थी। हर तरह के देने में खुलापन था। प्यार पैसा सलाह - यह और बात है कि अमरीकी पत्नियाँ होने के कारण वह अपने हिन्दुस्तान में बसे घरवालों को अपने यहाँ ज़्यादा बुला न पाता था पर वक्त बेवक्त पैसों की खुली मदद ज़रूर देता था। खुद जाकर उन्हें मिल भी आता था।
शंकर से हेलन ने ख़ास इल्तजा की थी, '' क्या तुम उसकी माँ बहन को आने से रोक सकते हो? मुझ पर सबसे बड़ा उपकार यही होगा?''

शंकर को एकदम से धक्का लगा था। शायद यह समझ कर ही हेलन ने कहा था, ''देखो शंकर एक तो यहाँ का ही मुझे सब कुछ अपने से सँभालना होता है ऊपर से माँ बहन के आने से मुझे उनकी भी सेवा परवरिश में लगना होगा। मैं इस वक्त तन और मन हर तरह से बहुत कमज़ोर महसूस कर रही हूँ फिर अब जब कि दिवाकर रहा ही नहीं तो मुझसे उन सबकी देखभाल का बोझ नहीं उठाया जाएगा। यों भी कौन सा ज़्यादा मिलना जुलना था। पाँच पाँच साल बाद तो मुश्किल से वह घर जाता था। और व्यक्तिगत रूप से मेरा तो उनसे कुछ लेना देना था नहीं। मैं तो एक बार से ज़्यादा उनसे कभी मिली ही नहीं।''

शंकर ने कहा, ''वो तो तुम सही कह रही हो हेलन पर वे इसरार तो करेंगे ही। आखिर बेटे या भाई का चला जाना, मौत पर वे आना तो चाहेंगे ही। सगे तो ऐसे मौकों पर आते ही हैं।''
हेलन बोली, ''मेरे पास पैसे नहीं हैं उनकी टिकटें भेजने के।''
''वह मैं दे दूँगा। वे शायद माँगेगे भी नहीं पैसे उनके पास भी काफी हैं। फिर कोई पैसे की परवाह नहीं करता ऐसे मौके पर।''

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