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पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


वह कभी हाँ नहीं करेंगे, और मैं उनकी ना सुनकर फिर हमेशा के लिये बँध जाऊँगी...ना, माँ जी, उनकी आज्ञा लेने की बात न कहिये। बस आप आज्ञा दे दीजिये। मेरे लिये वही बहुत है।

माँ जी की आँखो में आँसू भर आए। आँखे पोछतें-पोछते वह बोली-जा, तू अपनी जिद की पक्की है। मैं क्या कह सकती हूँ? कुछ कहने को रहा ही कहाँ है? अब तो यह घर-गृहस्थी सब तुम दोनो के सहारे है। और पाँव छूती बहू के सिर पर हाथ फेरती माँ जी के ह्रदय से जाने कितने आशीष फूट रहे थे।
और छोटी बहू....उल्लास से भरी छोटी बहू... दो-दो तीन-तीन सीढियाँ कूदती चली गयी, जैसे छोटी बच्ची हो।
छोटी बहू के बजाय माँ जी को खाना परोसते देख, अनायास ही बाबू जी पूछ बैठे- आज छोटी बहू कहाँ है?

कितनी बातें आईं मन में-कह दें तबियत ख़राब है, या कि सहेली के घर गई है, याकि मायके गई है, पर उनके मुँह से निकला...‘छोटी बहू को कॉलेज में नौकरी मिल गई है उसने तो कई बार कहा कि तुमसे आज्ञा ले लूँ, पर मुझे ही याद न
हीं रहा...और फिर जैसे कुछ भूल गयी हो, ऐसे ही तेजी से उठकर चली गईं।

बाबूजी ने किसी तरह दो-चार कौर निगले और उठ गए।
खाना माँ जी से भी कहाँ खाया गया जिस छोटी बहू को उन्होंने कभी इज्ज़त की नजर से नहीं देखा, वही आज घर की टूटी नौका की खिवैया बनी है। जिस छोटे लड़के राजकिशोर को घर में सदा उपेक्षा मिली, वही आज घर का सबसे बड़ा सहारा बना है। कितना तिरस्कार करते थे बाबू जी- पढ़ेगा...हज़ारों रुपया बर्बाद करेगा....दिमाग खाली करना, समय बरबाद करना, बस...! इतनी मेहनत अपनी दुकान पर करता, तो आदमी बन जाता। लल्लू जी, तुम जितना पढ़-लिखकर, इतना समय और रुपया बरबाद करके, कमा रहे हो, उतना तो हमारा मुनीम कमा लेता है! पर राजकिशोर के मन में आदमी की परिभाषा कुछ और थी। एक मानसिक भूख थी, जो जितना निगलती उतना बढ़ती ही जाती थी। ज्ञान-पिपासु की प्यास
क्या रुपये से मिटती है?

यूनिविर्सिटी का रीडर राजकिशोर अपने विद्यार्थियों के साथ कितना परिश्रम करता, अपनी स्वंय की भूख मिटाने को कितना अध्ययन करता, इसका कोई अन्त न था। रुपये कितने मिलते? कुल ....दोनो दुकानों से खिंच कर आती अथाह संपदा के मुकाबले सागर में बूँद समान! वे रुपये माँ जी अपनी सेफ़ में ऐसे डाल देती जैसे दो-चार नये पैसे डाल दिये हो। फिर राजकिशोर सबका विरोध करके केवल पढ़ा ही नहीं था वरन अपनी पसंद से एम.ए. पास लडकी से शादी भी की ....न रुपया, न दहेज। जो आज तक खानदान में कभी नहीं हुआ था, वह राजकिशोर ने किया।

शाम को बाबू जी ने छोटी बहू को बुलाया। घबड़ाती...सहमती करुणा सामने पहुँची तो बाबू जी का गला भर्रा रहा था। लगा, जो कुछ बोलना चाहते है कह नहीं पायेगे।कुछ ठहर कर बोले... बेटी, जिसको हीरा समझा था वह पत्थर निकली और जो टूटे कांच की तरह करकती थी, सो तू हीरा निकली !बड़ी बहू, जो इतने मान-सम्मान से घर में आई थी, इस दुख के समय हमें छोड़कर मायके चली गई, क्योंकि यहाँ ऐशोआराम की कमी हो गयी थी। और तू...तू अगर मुझ से पू
छती भी, तो मै मना नहीं करता, मना कर ही नहीं पाता...भगवान तुम्हें सुखी रखे...इससे आगे उनसे कुछ भी कहते न बना।

आँसू पोंछती करुणा चुपचाप वहाँ से चली आई।
बड़ी बहू अपने दोनो बडे़ बच्चों को साथ न ले जा पाई। रीता नवीं में पढ़ रही थी और दीपक आठवीं में। बस चार वर्ष की माला उसके साथ गई। बाबू जी सब देखते रह गए। यही रत्ना बिना सास-ससुर की आज्ञा के नीचे से ऊपर भी न जाती थी, वही बिना कहे मायके चली गयी। जब तक दौलत थी, रत्ना ने हर बात को सिर-आँखो रखा। आज बाबू जी को लग रहा था कि वह आज्ञा सास-ससुर की नहीं, धन-दौलत की मानती थी।

माँ जी दूध लेकर आई, तो बाबूजी ने उनकी ओर करवट बदल कर पूछा...‘दीनानाथ जी के यहाँ सवा लाख का समान गया था, रुपये अभी तक नहीं भेजे। श्यामकिशोर से कहा था...लगा दूध का गिलास माँ जी के हाथ से छूट पडेगा। काँपती
सी आवाज में बोली..तुम दूध पियो, मैं श्याम से पूछँगी।

पू
छूँगी क्या, महीना भर तो हो गया तुम्हें पूछते। उसे हो क्या गया है? रुपया लाता क्यों नहीं? क्या वह मना करते है देने को? श्याम से कहो उन्हें बताए कि दुकाने ही जली है, बही खाते नहीं। बहीखाते हम घर में रखते है। और ये लड़का मेरे सामने क्यों नहीं आता।’’
माँजी की आँखों से रोकते-रोकते भी दो-चार आँसू टपक पडे़-‘‘काहे को परेशान होते हो? दुकाने जल गईं, समझो हमारे भाग्य भी जल गए! श्यामू ने तो...
‘‘क्या किया श्यामू ने ? कुछ कहो तो...’’
आखिर कब तक चुप रह सकती हूँ, माँ जी अटकते-अटकते बोली, ‘‘इस घर में आज तक तुम से छिपा कर कभी कुछ नहीं हुआ, अब...’’
बाबू जी उबल पडे़, ‘‘पहेलियाँ क्यो बुझा रही हो? सीधी बात करो न, किया क्या है तुम्हारे लाड़ले ने?’’
‘‘लाड़ला तो तुम्हारा भी था, मेरा ही क्यों? माँ जी ने उन्हे सीधे देखते हुये कहा--जिन-जिनका बकाया था, उन सबसे वसूल करके श्याम ने सट्टा खेल कर सब गवाँ दिया..’ पर उनकी बात पूरी होने से पहले ही बाबू जी उछल कर बैठ गए --क्या?
क्या कह रही हो....श्यामू ने....गुस्से के कारण उनकी आवाज ही नहीं सारा शरीर काँप रहा था।

माँजी यह सब पहले से ही जानतीं थीं, बड़े ही शांत स्वर में बोलीं-‘‘गलती किसी की नहीं, श्यामू पढ़ा लिखा नहीं, दुखी है सटटे में रुपया गवाँ दिया और...चीखो मत...राजू ने रुपया और कमाने के लिये टयूशने भी करनी शुरु कर दी है। अपनी बहू को भी काम पर लगा दिया। अब दोनो मियाँ-बीबी तुम्हारे घर में ढेरों रुपया लाकर देते है... श्यामू कुछ कर नहीं सकता.. न नौकरी न मेहनत-मजूरी। उसने सट्टे से ही धन खींच-खींचकर लाने की सोची। यह तो अपनी अपनी सामर्थ्य की बात है।

फटी
-फटी आखों से चुपचाप बाबू जी माँ जी को देखते ही रह गए। आगे वह ही बोली-- कितना चाहती थी कि श्यामू भी थोड़ा पढ़ जाए, पर तुमने...’’

मेरे चाहने न चाहने से ही कुछ होना था क्या? राजू ने क्या मेरे चाहने से ही पढा इतना ? कितनी गालियाँ देता था मै, फिर तुम्हीं कहाँ खुश थी उन दोनो से... थके हारे से बाबू जी लेट गए और माँ जी खाली गिलास उठाकर चली गईं।

अभी तक घर में रीति-सी चली आई थी कि जब भी रीता-दीपक की तथा राजू के पुत्रों...शिवम् और देवम् की मासिक परीक्षाएँ होतीं, वे अपनी रिपोर्टो पर बाबू जी से चुपचाप हस्ताक्षर करवा लेते और बाबू जी ने कभी निगाह उठाकर देखने का भी कष्ट नहीं किया कि वे पास हुये हैं या फे़ल। वे तो राजू को गालियाँ देते कि नन्हें-नन्हें बच्चों को, जिनकी खेलने-खाने की उम्र है, पढ़ाई जैसे नीरस काम में लगा दिया। लिख पढ़ भी लेंगे जब थोड़े बड़े हो जाएँगे। अरे, यह पढ़ाई-लिखाई उनके लिये है जो बिना इसके जिंदा न रहे सकें। हमारे लिये क्या है? घर में इतना धन है कि घर बैठे खाए, तो भी
सात पुश्तों तक न चुके।

पर अबकी बार जब नवीं कक्षा में पढ़ने वाली रीता ने अपनी मासिक रिपोर्ट बाबू जी के सामने रखी, तो वे तमककर उठ बैठे। रीता आठ विषयों में से छह में फेल थी। अंको के नीचे खिची लाल लकींरे जैसी चीख-चीख बता रही थीं कि वह फेल हो गई, ‘‘क्यों री, यह पढ़ाई है तेरी ? छह विषयों में फेल ! ले जाओ इसे मेरे सामने से, मै नहीं करता हस्ताक्षर..’’

रीता सन्न रह गयी। दीपक, शिवम और देवम् बाबू जी की दहाड़ सुनकर गीदड़ों की तरह दुबक गए और हैरान होने लगे। अब कि बाबू जी को हो क्या गया?...चारों की चोर दृष्टि एक दूसरे से जैसे चुप-चाप पूछ रही थी। जवाब किसी के पास नहीं और पास भी चारों में से कोई नहीं हुआ था।

राजकिशोर की ढाई वर्ष की बेटी पूनम ने आकर बाबू जी गले में हाथ डाल दिये...बाबूदी, हमे पहियों पल घूमने वाली लेलदाड़ी मँगा दो न, जैछी अनु के पाछ हैं! पहले की बात होती,तो पूनम के मुँह से निकलने की देर होती और गाड़ी आ जाती, पर अब?

बाबू जी की आँखें में आँसू भर आए और उसे उन्होंने सीने से चिपटा लिया। हाँ हाँ,क्यों नहीं, मेरी लाड़ो के लिये पटरियों पर च
लने वाली लेलदाड़ी आएगी उसमें से धुआँ निकलेगा, वह छुक-छुक बोलेगी।

देवम् हँस पड़ा- नहीं, बाबू जी, उसमे धुआँ नहीं निकलता, वह तो बिजली से चलती है।
आज ही मँगा दो न, बाबू जी, पूनम मचल उठी।
आज, न बाबा अभी तू इतनी छोटी सी है, गाड़ी चलाएगी... कहीं एक्सीडेंट कर बैठी, तो ? ना बाबा, बहुत नुकसान होगा! बाबू जी भी पूनम की तरह मचल कर बोले।
‘नहीं...नहीं होता है एक छी देत!’ पूनम रुआँसी हो रही थी-अनु भी तो चलाती हैं !
उतनी छोटी गाड़ी का क्या करेगी? मै तेरे लिये बड़ी सी मँगाऊगा थोड़ी बड़ी हो जा बस!
‘कब बड़ी होऊँगी बाबू जी मै?’’
ल्दी हो जाएगी, बड़ी, बस पढ़कर--जितना पढ़ेगी उतनी ही बड़ी होती जाएगी।

दीपक, रीता, देवम, शिवम् सभी हँसने लगे बाबू जी एक बार मुस्करा कर बच्चों को देखा और बोले-- क्यों रे, हँसते क्यो हो तुम लोग? पढ़े-लिखे बिना कोई बड़ा आदमी नहीं बनता। अच्छा दीपक अपनी किताब तो ला देखूँ क्या पढ़ता है तू?

दीपक घबड़ा गया। रीता, देवम, शिवम तीनो चुपचाप खिसक गए, दीपक साहब पकड़े गए।
पढ़ना-लिखना तो उनमें से किसी को भी अच्छा नहीं लगता था। पर दीपक बड़ा ही ढीठ हो गया था। कहता मेरी समझ में नहीं आता, बाबू जी को आजकल हो क्या गया है? पहले तो वे ऐसे नहीं थे। पता नहीं क्यो दुनिया में पढ़ने-लिखने का रिवाज चलाया गया है? अगर कोई भी नहीं पढ़ता, तो क्या नुकसान हो जाता?

र उसमे इतना साहस नहीं था कि बाबू जी को धोखा देकर इधर-उधर खिसक जाए। और वे कोई भी पुस्तक उसके बस्ते मे से खोल बैठते, तो एक-एक शब्द पढ़वाकर, उसके अर्थ पूछ-पूछकर दीपक को रुला ही देते।

अक्सर वह चारों बच्चों को साथ बैठा लेते। लाख उन्हें कुछ न मालूम हो, पर उनकी उपस्थिति में बच्चों को कुछ न कुछ तो पढ़ना ही पड़ता। यह तो हो नहीं सकता कि वे उनके सामने कागजों पर कट्टमकट्टा खेलने लगते।

उस दिन माँ जी किसी काम में लगी थी। छोटी बहू बाबू जी को दूध देने गयी। बाबूजी लेटे-लेटे कुछ पढ रहे थे, बहू को सामने देख एकाएक उठ बैठे,बोले-- बहूरानी एकबात है बेटी.. एक क्षण कुछ जैसे झिझके हो, फिर अपने तकिये ने नीचे से एक कापी खींच कर निकाल ली और बोले, ‘यह...यह थोड़ा सा कुछ लिखा है, देखना ठीक लिखा है या नहीं, बेटी...राजू को कुछ न बताना.. मैं... मैं... आगे वह कुछ कह ही न सके।

करुणा हाथ में कापी ले धीरे से चली गई। अपने कमरे में आकर कापी खोली, तो उसे लगा जैसे कंठ में कुछ अटकने सा लगा है। यहाँ से न हटी, तो शायद अभी ही रो पड़ेगी, राजकिशोर के सामने ही, जो चुपचाप अपने पलंग पर पड़ा कुछ पढ़ रहा था। फिर कैसे छुपाएगी बाबू जी की बात?

करुणा आँखों में आँसू भरे रसोई में आ गई। कापी में टेढ़े मेढ़े अक्षरों में हिन्दी व अंग्रेजी के न जाने कितने शब्द लिखे पडे़ थे। कहीं सही, कहीं ग़लत।

तो बाबू जी आजकल सारे दिन यही किया करते हैं। लिखना सीखते हैं। पढ़ना सीखते हैं। सारे दिन बच्चों को ही नहीं पढा़ते, स्वयं भी पढ़ना-लिखना सीख रहे है।

उसे ऐसा लगा जैसे बाबू जी एकाएक छोटे-से बच्चे बन गए हों, कितने दयनीय, कितने निरीह!
दुकानें जला दी गई थीं। सभी को दुख हुआ था। राजकिशोर व करुणा को भी दुख हआ था। पर अब न जाने क्यों बाबू जी का यह रवैया देख, बच्चों के अध्ययन के प्रति उनको उतना ध्यान देते देख उनका मन संतोष एवं उत्साह से भर उठा था।

करुणा चुपचाप नित्य बाबू जी की कापी ठीक कर दिया करती और आगे का काम लिख दिया करती। और हर शाम को बाबू जी दुगने उत्साह से उस के हाथ में अपनी कापी सरका दिया करते। माँ जी सारे दिन घर की व्यवस्था देखतीं। पहले
जितने नौकर भी तो घर में नहीं रहे थे। खाली समय में वह या तो छालियाँ काटतीं या स्वेटर बुना करतीं।

छमाही परीक्षा पास आ गई थी। उस दिन बाबू जी चारों बच्चों को समेटे बैठे थे, दुपहर से शाम हो गई थी। बाबू जी खुद तो उठे ही नहीं, बच्चों को भी न उठने दिया।
माँ जी झल्ला उठीं--आखिर तुम्हें हो क्या गया है? इन बच्चों को कब तक पढ़ाओगे? कब तक बैठेंगे ये लोग, खेलने नहीं जाएँगे क्या?
खेलेंगे, खेलेंगे... दीपक, तू ये दो सवाल और कर ले, फिर तेरी चाची आए तो यह सारा काम दिखा देना’ बाबू जी हँसते हुए बोले, ‘खुश हो जाएगी वह तेरा इतना सारा काम देखकर और रीता, तूने अंग्रेजी के वह सारे जवाब तो अभी लिखे ही नहीं चाची तेरी क्या कहेगी? दीपक ने इतना काम किया, रीता पिछड़ गई। न बाबा, ना, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। रीता मुस्कराने लगी। कुछ भी हो, बाबू जी की सारे दिन की घेर घार से उसे कुछ तो पढ़ना ही पड़ता था। पढ़ती तो कक्षा में भी धीरे धीरे तेज होने लगी। जो बच्चे रेंगना भी नहीं चाहते थे, वे अब जैसे ओलम्पिक रेस में दौड़ लगाने की इच्छा करने लगे थे।

स दिन माँ जी आई, तो पूछने लगी--राजू कह रहा था कि इंशोरेंस का पैसा मंजूर हो गया है। भला कब तक मिल जायेगा? दोनों नहीं, तो एक दुकान तो खुल ही जाएगी न, क्यों?

बाबू जी चारों बच्चों को समेटे बैठें थे, हाँ रे, देवम् तूने इतिहास के सवाल कर लिए, जो तेरी अम्मा ने करने को दिये थे? उन्होंने जैसे माँ जी की बात को सुना ही नहीं। वह झल्ला गयी, ‘मैं पूछती हूँ तुम्हें हो क्या गया है?’ उन्होंने हाथ का स्वेटर एक ओर पटका और बाबू जी के हाथ से पुस्तक छीन ली, ‘कहाँ तो पढ़ाई लिखाई के नाम से छूत के रोग की तरह भागते थे, कहाँ अब चिरचिटे की तरह चिपट गए हो, जैसे दुनिया में दूसरी कोई बात ही न रह गई हो!’
‘हाँ! हाँ! किताब क्यों छीन ली मेरी? अपना स्वेटर बुनो न तुम। हाथ से काम करो, मुह से बात करो, तुम्हारें स्वेटर के फंदे गिर जायेगें।’

गिर जाने दो, फिर उठा लूगीं’ माँ जी खिसिया कर बोलीं, पर मै पूछती हूँ दुकानों का रुपया!
माँ जी की बात सुनकर बाबू जी की आखों में जैसे कोई ज्योति सी जल उठी। उन्होंने एक तेज निगाह से माँ जी को देखा और जैसे बड़े गहरे से बोले, तुम अपने स्वेटर के फंदे उठा लोगी पर मै... मै जो फंदे दिन रात डालने की कोशिश
कर रहा हूँ... इनमें से एक भी गिर गया, तो फिर नहीं डाल सकूँगा।’

आँखें फाडे़ माँ जी देखती ही रह गईं। अरे, इनका कही दिमाग तो नहीं फिर गया ? दिन रात सोच मे डूब डूबे इन अंजानी किताबों में माथा पच्ची करते करते... वह रुवाँसी हो गई और बोली ये दुकाने क्या जल गयी...कि... ‘कि हमारे घर में उजाला कर गई!’ बाबू जी ने बात पूरी कर दी।

माँ जी को जैसे चक्कर आ गया। पागलपन का कोई लक्षण तो दिखे। अच्छे भले बैठे-बैठे यह कैसी बहकी-बहकी बाते करने लगे। उनकी आखों में आँसू छलछला आए। बोली तुम पागल तो नहीं हो गए हो? आज कैसी बाते कर रहें हो? मै दुकानों की बात कर रही हूँ... बीमे का रुपया...

‘देखों, यह रुपया ये दुकाने सब ठीक है पर सब कच्चे धागे है। इनसे बुनी जिंदगी एक झटके में टूटकर टुकड़़े टुकड़े हो सकती है। हम सोचते थे इतना धन है, इतनी साख है कि सात पुश्तें खाएँगी तो भी न चुकेगा...पर क्या रहा? एक हल्के से झटके में सब टूट कर बिखर गया न? पर बीमे का पैसा मिलेगा तो...हाँ मिल जायेगा तो बहुत ही अच्छा होगा। श्यामू दुकान खोल लेगा। पर मुझे तो उस बीमे से बडे़ ये चार बीमों को सहेजना है, श्यामू की माँ। इनकी जिन्दगी के स्वेटर को इतने मज
बूत धागों से बुनना है, इतनी होशियारी से बुनना है कि एक भी फंदा न छूटे!

माँ जी को जैसे कुछ समझ आ रहा था, कुछ न समझ आ रहा था, एक अनबूझ पहेली बूझती सी खड़ी ही रह गई।
पर रीता, दीपक, देवम् और शिवम चारों ने उन बातों को सुनकर जैसी उसी समय अपनी अपनी बुनी जाने वाली जिंदगी में कुछ और फंदे अपने आप भी डाल दिये.... आत्मविश्वास के कठोर परिश्रम के, दृढ़ चरित्र के....
और अपने बाबा की डबडबाई गहरी आँखों में उन्हें अपने भविष्य के वे रुप दिखने लगे, जो वे गढ़ रहे थे, बुन रहे थे, हर क्षण...हर पल...

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१६ जनवरी २०१२

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