| 
                    
					 ‘क्या 
					समझते हो मुझे तुम? खिलौना हूँ या तुम्हारे इशारों पर नाचने 
					वाली गुड़िया?’ ‘टेक इट ईजी बेबी’, उसने कहा था, ‘चार दिन की जिन्दगी है, खाओ 
					पियो, मौज मेला करो। टैन्शन लेने की क्या बात है। तुम भी कोई 
					ऑप्शन देख लो। या..... देखा हुआ है। वैसे भी तुम्हारे पास क्या 
					कमी है। ओके हनी, ब्रेक के बाद मिलते हैं। और 
					प्लीज....प्लीज....प्लीज...... तीन बार कह रहा हूँ, फोन करके 
					मुझे डिस्टर्ब मत करना।
 ओके? .......मेरी तरफ से ओके, बाय।’
 
 मोबाइल के कटने के बाद भी बहुत देर तक उसके कानों में उसकी बात 
					‘तुम्हारे पास क्या कमी है’ गूँजती 
					रही। साढ़े सात बज चुके थे और वह 
					रेलिंग पर उदास बैठी थी। रेलिंग के लोहे का ठण्डापन उसके भीतर 
					नहीं उतर रहा था क्योंकि उसके भीतर 
					की उथल-पुथल की गर्माहट बहुत तीव्र थी। यह बात तो सच थी बल्कि 
					बहुत सच थी कि उसके पास लड़कों की 
					कोई कमी नहीं थी। पर जिस तरीके से उसने कहा था, जैसे किसी 
					बाजारू औरत को कहते हैं, वो उसे चुभ 
					गया था। क्या समझते है लोग उसे? उसके भीतर से उसके प्रश्न का 
					उत्तर नहीं निकला। या वह खुद 
					निकालना नहीं चाहती।
 
 रैस्टोरेंट के सामने एक नौ-दस साल की गन्दी सी लड़की एक विदेशी 
					को सान्ता क्लॉज की कैप बेचने की 
					कोशिश कर रही थी। विदेशी बार-बार इन्कार में गर्दन हिला रहा था 
					मगर लड़की भी बेशर्मी से उसके पीछे पड़ी थी। विदेशी किसी तरह 
					पीछा छुड़ाकर चला गया। वह उस लड़की पर गुस्सा भी हो गया था। लड़की 
					के चेहरे पर क्रोध और विवशता के मिले-जुले भाव आये। अचानक उसे 
					लगा, लड़की में उसका अपना चेहरा लटक गया है, बिल्कुल अभी, पाँच 
					मिनट पहले वाला। लेकिन यह भ्रम अधिक देर तक नहीं रहा, लड़की ने 
					फिर नये सम्भावित ग्राहक पकड़ लिये थे। क्रोध और विवशता वाला 
					चेहरा वह फैंक चुकी थी, उसकी जगह उसके चेहरे पर नयी उत्सुकता 
					और जोश झलक रहा था। अपनी टोपियों को बेचने के लिए वह नये सिरे 
					से तैयार हो गयी थी। रेलिंग पर बैठी लड़की के अलावा कोई नहीं 
					जान पायेगा कि एक क्षण पहले उसके भीतर-बाहर क्या चल रहा था।
 
                    वह राजेन्द्र नगर में पेइंग 
					गैस्ट के रूप में एक अन्य लड़की के साथ रह रही थी और वहीं के एक 
					एक्सपोर्ट हाउस में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी कर रही थी। उससे 
					पहले गोल मार्किट में दो लड़कियों के साथ किराया शेयर करके रहती 
					थी और उससे बहुत पहले वह अपने एक रिश्तेदार के यहाँ यमुना पार 
					में रहती थी लेकिन जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी के कारण उसने 
					वहाँ रहना छोड़ दिया था। दिल्ली के तीन साल के अनुभव ने उसे 
					बहुत कुछ सिखा दिया था। महानगर में एक अकेली लड़की का क्या 
					अस्तित्व है, क्या पहचान है, क्या औकात है, इन तीन सालों में 
					उसे सब समझ आ गया था। 
					पहले साल वह इस्तेमाल होती रही थी लेकिन अब उसे इस्तेमाल करना 
					आ गया था।
 टोपियाँ बेचने वाली लड़की उसके बहुत पास खड़ी थी। वह दो छोटे 
					बच्चों को टोपी दिखाकर उनकी माँ की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से 
					देख रही थी। दोनों बच्चे सान्ता क्लॉज की लाल सफेद फुँदने वाली 
					टोपी को देखकर खुश हो रहे थे।
 ‘कितने की है?’, बच्चों की माँ ने पूछा।
 ‘तीस रुपया।’, लड़की ने तुरन्त जवाब दिया।
 ‘क्या?’, वह औरत जोर से बोली, ‘पागल हो गयी लड़की। इतनी महँगी।’
 ‘तीस रुपया, फिक्स पराइस।’
 ओ हो, फिक्स प्राइस। जल्दी बता कितने की है। दस में देगी?’
 बताया न, सिर्फ तीस रुपया।’ लड़की अपने रेट पर अड़ी थी। उसकी नजर 
					औरत के हाथों में पकड़े शोरूम के बैगों की तरफ थी शायद उसे 
					मालूम था कि शोरूमों में कोई मोल भाव नहीं होता।
 अरे, बड़ी तेज छोकरी है। दस में देनी है तो दे वर्ना नहीं 
					चाहिए।
 ‘तीस रुपया मैडम।’, लड़की 
					के रिकार्ड की सूई तीस रुपये पर अटक गयी थी, ‘बिलकुल कमती 
					नहीं। महँगी नहीं है मैडम, ठर्टी रुपीज ओनली।’, कॅनाट प्लेट 
					में रहने के कारण वह कुछ अंग्रेजी के शब्द भी सीख गयी थी, 
					जिन्हें वह अपने धन्धे में बखूबी प्रयोग कर रही थी।
 
 महानगर के चाल चलन के हिसाब से वह भी कुछ ऐसे शब्द सीख गयी थी 
					जिन्हें वह अपना मतलब हल करने में बखूबी प्रयोग करती थी।
 ‘थर्टी रुपीज! नैवर।’, 
					औरत भी अड़ गयी।, ‘बेटा, गिव हर बैक।’
 
 बच्चों के चेहरे निराशा से भर गये पर उन्होंने जिद नहीं की, 
					टोपी चुपचाप वापस कर दी।
 वे चले गये। लड़की के पास भी दुखी होने का समय नहीं था, उसके 
					पास कॅनाट प्लेस की भीड़ में ग्राहकों की लाइन लगी थी। वह आगे 
					वुडलैण्ड के शोरूम की ओर चल दी। यह उसकी अपनी दुनिया थी जहाँ 
					वह टोपियाँ या अन्य सामान बेचकर गुजारा कर रही थी।
 
 उसकी जिन्दगी में ऐसे बहुत क्षण आये थे जब उसके पास भी दुखी 
					होने का समय नहीं था। वह एक बार नहीं, कई बार ठोकरें खाने के 
					बाद समझ पायी थी कि महानगर की जिन्दगी लेन-देन पर आधारित है। 
					कुछ देने के बदले में आपको बहुत कुछ मिल जाता है, कई बार बहुत 
					जल्दी भी। उसकी पहली डिमाण्ड थी नोकिया का कलर और रेडियो वाला 
					मोबाइल फोन। जो आराम से पूरी हो गयी थी, उसके अपने ही साथ काम 
					करने वाले से। तब उसे लगा था कि अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए 
					इससे अच्छा तरीका कोई नहीं है। कोई अतिरिक्त मेहनत नहीं, 
					खाना-पीना, घूमना फ्री।
 
 टोपी बेचने वाली लड़की को देखकर उसे वह क्षण याद हो आया।
 ‘तुझे कलर मोबाइल चाहिए न, ऐसा कर यार, तू अभी मेरा वाला रख 
					ले, बाद में नया दिला दूँगा।’
 ‘नहीं। मुझे न्यू चाहिए सैकेण्ड हैण्ड नहीं।’, उसने कहा था।
 अच्छा! तू कौन सी फर्स्ट हैण्ड है?’
 
 शब्दों का वार बहुत गहरा 
					था, पर उस समय उसे दर्द नहीं हुआ या हुआ तो दिखाया नहीं। शायद 
					उसे मालूम हो गया था कि जिसकी वह कीमत वसूल रही है, वह चीज 
					बहुत खूबसूरत फरेब से उसके बॉस ने यूं ही हासिल कर ली थी। बड़खल 
					लेक के कॉटेज में दोपहर बिताने के बाद अगले दिन की शाम को उसके 
					पास मोबाइल आ गया था। आज की तारीख में उसके पास दो मैगा पिक्सल 
					वाला कैमरा मोबाइल फोन है। तनख्वाह का सारा पैसा वह अपने ऊपर 
					खर्च करती है। उसमें किसी की हिस्सेदारी नहीं है, उत्तर प्रदेश 
					के किसी छोटे शहर में रहने वाले उसके मां-बाप की भी नहीं और न 
					उसके ढेर सारे भाई बहनों की। उसकी भी अपनी दुनिया थी जहाँ वह 
					खुद को कैश करके अपनी इच्छाओं को पूरा कर रही थी क्योंकि उसकी 
					नजर में यही जिन्दगी है।
 
 सान्ता क्लॉज की टोपियों वाली लड़की फिर उसकी आँखों के सामने 
					थी। इस बार करीब चार-पाँच साल का एक लड़का भी उसके साथ था। 
					दोनों बहुत व्यस्त दिख रहे थे। लगता था टोपियाँ बेचने की धुन 
					बुरी तरह से उनपर सवार थी। लड़के ने टोपियों वाला झोला पकड़ा हुआ 
					था और लड़की बड़े व्यस्त भाव से उन्हें बेचने में लगी थी। उसका 
					सारा ध्यान, सारी 
					एकाग्रता सिर्फ और सिर्फ टोपियाँ बेचने में थी मगर कोई उसकी 
					टोपियाँ खरीदने में रुचि नहीं ले रहा था।
 
 वह किसी भी मामले में इतना ध्यान, इतनी ईमानदारी कभी नहीं दिखा 
					पाई सिर्फ खुद को छोड़कर। उसने सिर्फ, और सिर्फ अपने बारे में 
					सोचा, अपने लिए सोचा, अपनी आवष्यकताओं और उन्हें हासिल करने की 
					तरकीबों के बारे में सोचा। जैसा वह चाहती रही, करती रही। उसे 
					कभी अपने इस कृत्य से पछतावा या दुख नहीं हुआ। वह सब अपनी 
					मर्जी से कर रही थी। तो फिर आज की, अभी की उदासी का कारण। कारण 
					साफ था, जब तुम किसी को चाहने लगते हो तो कमजोर हो जाते हो। वह 
					उसे चाहने लगी थी क्योंकि वह उसके जैसा ही था। उसी की तरह ही 
					‘सर्वगुण सम्पन्न’। इसी वजह से वह उदास है।
 
 उसने अपनी गर्दन को एक झटका दिया, मानो उदासी को झटक रही हो। 
					वह तो अपने बारे में सोच रही थी। उसे याद आने लगा। उस शाम वह 
					अतिउत्साहित थी। उसे पहली बार पब में जाने का निमंत्रण मिला 
					था। ऑफिस से जब वह गोल मार्किट स्थित घर पहुँची तो........
 ‘क्या हुआ रश्मि?’, जिन 
					दो लड़कियों के साथ वह यहाँ किराये पर रहती थी रश्मि उनमें से 
					एक थी।
 रश्मि से जवाब देते नहीं बना।
 ‘अरे यार, तुझे तो तेज बुखार है। कुछ दवाई ली या नहीं।
 रश्मि ने इन्कार में गर्दन हिलाई।
 उसने समय देखा। साढ़े सात होने वाले थे। ठीक आठ बजे विवेक की 
					कार पेशवा रोड पर होगी। लगभग तीस मिनट का समय उसके पास था। इसे 
					भी आज ही बीमार होना था।
 ‘अलका कहाँ है? अभी आई नहीं न। मैं उसे फोन करती हूँ वह तेरे 
					लिए दवाई वगैरह ले आयेगी।
 रश्मि ने कुछ जवाब नहीं दिया।
 ‘सॉरी यार, मुझे अभी एक जरूरी काम से निकलना है वर्ना मैं ही 
					तेरे लिए सब कर देती।’ वह तो आठ बजे के बाद के क्षणों के बारे 
					में सोच रही थी, किसी की तकलीफ से उसे क्या लेना देना था।
 उस रात, बहुत देर रात बियर के नशे में झूमती जब वह वापिस लौट 
					कर आई थी तो दोनों लड़कियाँ जाग रही थी। दोनों 
					की नजरों ने उसे न जाने 
					क्या-क्या कहा था मगर उसने कुछ नहीं सुना था।
 
 टोपी बेचने वाली लड़की पालिका बाजार की तरफ चली गयी थी। उसके 
					लिए तो जहाँ ग्राहक था, वहीं उसकी दुकान थी। उसे बड़ा अजीब सा 
					लगा कि वह इस लड़की से अपनी तुलना कर रही थी। ये कहाँ और वह 
					कहाँ। पर बाद में उसे लगा, इस लड़की में और उसमें कोई अधिक फर्क 
					नहीं है।
 कॅनाट प्लेट के इर्नर सर्कल में अभी भी काफी रौनक थी और और 
					काफी देर तक रहने वाली थी। ऐन उसके पीछे मैट्रो स्टेशन की 
					सीढ़ियाँ थी, जहाँ से लोगों का आना जाना लगा हुआ था जिसके कारण 
					गहमा गहमी का माहौल बना हुआ था। एक लड़का और लड़की टीजीआई 
					फ्राइडे के गेट के पास लकड़ी के स्टैण्ड मे लगे रेस्टोरेंट के 
					मीनू को देख रहे थे और रेस्टोरेंट के भीतर जाने और न जाने के 
					बीच अटके हुए थे। अन्ततः दोनों ने पाश्चात्य खाना खाने का मन 
					बना ही लिया और दोनों 
					भीतर चले गये।
 
 उसे पता ही नहीं चला कि सर्दी बढ़ गयी है, कोहरा टपकने लगा है 
					और वह वहाँ उस रेलिंग पर अकेली और उदास बैठी है। वह जानती है 
					कि ये उदासी अधिक देर तक नहीं रहेगी क्योंकि कोई भी चीज अधिक 
					समय तक कायम नहीं रहती। फिर ये उदासी या दुख क्या चीज है? और 
					वह दिल्ली में दुखी होने के लिए नहीं आई है। वह ये भी जानती है 
					जिन्दगी चार दिन की है, जो करना है, कर लो। पर फिलहाल क्या 
					करे, उसे समझ नहीं आ रहा था। उसने किसी और से बात करने के बारे 
					में सोचा, मगर जल्द ही विचार झटक दिया। आखिरकार, उसने वापस घर 
					जाने के बारे में सोचा। अभी वह कोई फैसला कर भी नहीं पाई थी कि 
					वह उसके सामने थी.......। सान्ता क्लॉज की
 टोपी उसकी आँखों के आगे लहरा रही थी।
 
 ‘सान्ता कैप चाहिए मैडम?’
 उसे आश्चर्य हुआ। लड़की बहुत सधे हुए ढँग से और किसी पढ़ाई कर 
					रहे बच्चे की तरह बोल रही थी जबकि अपने हुलिए में वह भीख 
					माँगने वाली लग रही थी। इस समय वह फिर से अकेली थी। साथ वाला 
					लड़का न जाने कहाँ चला गया था।
 ‘कितने की है?’, उसे मालूम था वह क्या कीमत बतायेगी, फिर भी 
					उसने पूछा।
 ‘सिर्फ तीस रुपया।’, उसने पेशेवर तरीके से कहा।
 ‘तीस रुपये! क्या तुम्हें नहीं लगता कि इसकी कीमत ज्यादा है।’
 ‘नहीं। तीस रुपया बिल्कुल ठीक है।’, लड़की ने जोर देते हुए कहा।
 ‘कैसे?’
 ‘कैसे क्या? 
					छब्बीस-सत्ताइस की तो घर पर पड़ती है। क्या तीन चार रुपये कमाना 
					भी जुलम है......’,
 लड़की ने जल्दी-जल्दी कहा।
 उसकी आँखों में आश्चर्य की मात्रा और बढ़ गयी।
 ‘........इसका मटैरियल देखो। इससे बढ़िया टोपी आपको पूरी दिल्ली 
					में नहीं मिलेगी। मेरा पापा खुद बनाता है इसलिए अच्छे से अच्छा 
					सामान लगाता है।’, लड़की का बोलना जारी था, ‘आप जरा इसे हाथ में 
					तो लेके देखो, आपको खुद पता चल जायेगा।
 
 उसने टोपी ले ली और उसका 
					निरीक्षण करने लगी। टोपी लाल शनील जैसे कपड़े की थी, उसके नीचे 
					सफेद रंग की पट्टी और फिर फर का घेरा था। सबसे ऊपर पाँच लाल 
					सफेद फुँदने लगे थे। उसे समझ नहीं आया कि उसमें ऐसा क्या 
					मैटेरियल लगा है, जिसे वह पूरी दिल्ली में अच्छा बता रही है।
 
 ‘नहीं फिर भी तीस रुपये ज्यादा है।’, उसने जिदपूर्वक कहा।
 लड़की मायूस सी हो गयी। उसने कुछ नहीं कहा और टोपी वापस लेने के 
					लिए हाथ बढ़ा दिया। उसने टोपी नहीं दी। वह उससे और बात करना चाह 
					रही थी।
 ‘अच्छा, सबसे पहले अपना नाम बताओ।’, उसने पूछा।
 ‘नाम बताऊं तो क्या टोपी खरीद लोगी?’
 वह निरुत्तर हो गयी। उसे तुरन्त नहीं सूझा कि क्या कहना चाहिए।
 ‘हाँ।’, फिर उसने धीरे से कहा।
 ‘सोना।’
 ‘सोना!’
 ‘हाँ, सोना। मेरा नाम सोना है।’
 
 ‘वैरी गुड! बहुत अच्छा नाम है। तो सोना, तुम जानती हो सान्ता 
					क्लॉज कौन है?’
 ‘वो तो सफेद दाढ़ी वाला बुढ्ढा है। वो मैंने उसे जैनसन के पास 
					देखा है। उसकी बहुत लम्बी दाढ़ी है, झक सफेद और वह घण्टी बजाता 
					है। उसके पास लाल रंग का बहुत बड़ा थैला है जिसमें से वह 
					टाफियाँ चाकलेट निकालकर अच्छे-अच्छे बच्चों को देता है। मैं या 
					मेरा भाई माँगते हैं तो हमें भगा देता है या फिर दुकान के भीतर 
					चला जाता है।’, सोना ने अपनी आँखें फैलाकर जल्दी-जल्दी अपना 
					ज्ञान भण्डार खोला। लेकिन उसके चेहरे पर अजीब सी वीरानी भरी 
					मासूमियत छा गयी थी जिसका सम्बन्ध शायद उन अनेक इच्छाओं से था 
					जो रोज जीवित होती हैं और रोज मर जाती हैं।
 
 ‘अच्छे बच्चे कौन होते हैं? क्या तुम अच्छी नहीं?’, उसने पूछा।
 ‘अच्छे बच्चे तो अमीर होते हैं।’ उसने धीरे से उत्तर दिया।
 उसे एक झटका सा लगा। लड़की बहुत बड़ी बातें कर रही थी।
 ‘वो तो नकली सान्ता क्लॉज है, बड़ी दुकान वालों का’, उसने सोना 
					को समझाया, ‘असली सान्ता तो सब बच्चों को गिफ्ट देता है।’
 ‘अच्छा!’, लड़की की आँखों में सपने तैरने लगे।
 ‘हाँ। सचमुच। अगर सान्ता तुम्हारे पास आये तो तुम क्या 
					मांगोंगी?’, उसे लड़की को बहलाने में मजा आ रहा था।
 ‘मैं......... पर वो मेरे पास क्यों आयेगा?’
 ‘आयेगा, क्योंकि वह सब बच्चों के पास आता है।’
 ‘आप झूठ बोल रही हैं, मेरे पास तो वह कभी नहीं आया।’, लड़की ने 
					हल्की नाराजगी से कहा। उसे समझ आने लगा था कि उससे खेल खेला जा 
					रहा है।
 ‘इस बार जरूर आयेगा, शायद आज ही या कल। वह बच्चों को बहुत 
					प्यार करता है।’, उसे खुद नहीं पता था कि सान्ता सचमुच भी होता 
					है या नहीं। वह तो सिर्फ उसे बहला रही थी, कोरा झूठ बोलकर।
 लड़की निर्विकार भाव से उसे देख रही थी, वह समझ गयी उससे झूठ 
					बोला जा रहा है। एक टोपी बेचने के लिए कैसे-कैसे लोगों को सहना 
					पड़ता है।
 ‘क्या आपने उसे देखा है?, फिर भी उसने पूछा, ‘असली सान्ता 
					को......? क्या आपके पास कभी आया है वो?’
 
 वह फिर निरुत्तर हो गयी। उसका झूठ पकड़ा गया था।
 ‘नहीं.......मैंने उसे नहीं देखा।’, उसने धीरे से कहा, 
					‘.........असली सान्ता मेरे पास कभी नहीं आया।’
 बहुत से लोग उसके सम्पर्क में आये हैं लेकिन सब स्वार्थवश जैसे 
					वह खुद उन लोगों के सम्पर्क में आई- स्वार्थवश। सान्ता क्लॉज 
					जैसी भूमिका किसी की नहीं रही, न ही उसने ऐसी कोई इच्छा की। 
					क्या उसे सान्ता क्लॉज चाहिए? लगभग फौरन ही उसके भीतर से 
					निकला......नहीं। नहीं चाहिए। सान्ता क्लॉज कोई नहीं है, सिर्फ 
					अपनी अपूर्ण इच्छाओं को पूरा करने का भ्रम है।
 
 ‘मगर........तुम्हें जरूर मिलेगा।’, उसने धीरे से कहा।
 ‘जब आपको नहीं मिला तो मुझे कैसे मिलेगा?’
 लड़की अपनी तुलना उससे कर रही थी।
 ‘जो बच्चे अच्छे होते हैं, सच्चे होते हैं, मेहनत करते हैं 
					उनके पास सान्ता क्लॉज जरूर आता है।’, वह भी अड़ गयी थी उसे 
					बहलाने में जैसे सोना अपनी टोपी के दाम पर अड़ गयी थी।
 
 लड़की हँसी, उपहासपूर्ण हँसी। ‘वह हमारे जैसे लोगों के लिए नहीं 
					है मैडम। और न ही मुझे कोई सान्ता चाहिए, असली न नकली। यहाँ 
					किसको फिकर है सान्ता की, बस मेरी टोपियाँ बिक जायें। आप मेरी 
					टोपी खरीद रही हैं न? आपने कहा था।’ लड़की ने भी ऐन वही कहा जो 
					उसके भीतर चल रहा था।
 ‘हाँ। हाँ, खरीद रही हूँ।’
 ‘तो जल्दी करो न, मुझे कल तक अपनी सारी टोपियाँ बेचनी है।’
 ‘अच्छा!’
 ‘हाँ। बापू कहता है कल बड़ा दिन है और कल के बाद ये टोपी कोई 
					नहीं खरीदेगा। जो बच जायेंगी, उससे हमारा घाटा हो जायेगा।’, 
					सोना ने कहा, ‘आप खरीद रही हो तो दो न तीस रुपया।’
 ‘तीस ही?’
 ‘हाँ। तीस ही।’, उसने जोर देते हुए कहा।
 उसने फिर टोपी को उलट-पलट कर देखा। उसके लिए व्यर्थ थी, पर 
					उसने ‘हाँ’ कह दिया था। अब तो मजबूरी थी।
 
 ऐसे कितने क्षण आये होंगे जब किसी की मजबूरी रही होगी और वह इस 
					लड़की की तरह ही अड़ी होगी अपनी बात मनवाने के लिए या अपनी इच्छा 
					पूरी करवाने के लिए।
 
 ‘एक बात कहूँ मैडम जी?’, सोना ने उसकी आँखों में झाँका, ‘पता 
					नहीं, सब लोगों को इस टोपी के दाम ज्यादा क्यों लगते हैं? हो 
					सकता है, इसे मैं बेच रही हूँ इसलिए। अगर ये टोपी शीशे वाली 
					बड़ी दुकानों में रखी होती तो कोई इसकी कीमत को ज्यादा नहीं 
					कहता। वहाँ लोग इसे सौ रुपये में भी चुपचाप खरीद लेते। इसलिए 
					मेरा बापू सच कहता है, हमारी किस्मत खोटी है कि हमें अपनी कीमत 
					भी नहीं मिलती.......।’, लड़की अभी भी उसकी आँखों में झाँक रही 
					थी।
 
 वह जड़ रह गयी। लड़की सचमुच बहुत बड़ी बातें बोल रही थी। किसने 
					सिखाया होगा उसे? दिल्ली की क्रूर जिन्दगी ने, या उसकी गरीबी 
					ने या फिर सड़कों पर मिल रहे अनुभवों ने?
 उसे भी तो इसी महानगर ने सिखाया है, उसके अभावों ने, उसकी 
					आकांक्षाओं ने। पर उसे तो हमेशा अपनी कीमत से अधिक ही मिलता 
					रहा।
 
 ‘.......फिर हम कोई भीख तो माँग नहीं रहे, अपनी मेहनत के दाम 
					माँग रहे हैं, जो भी चीज बेच रहे हैं
 उसके दाम।’, लड़की शायद आज ही सब कुछ कह देना चाहती थी, जो उसे 
					सिखाया गया है या जो वह सीख चुकी है।
 वह अभी भी जड़ थी।
 
 जब उसे होश आया तो सान्ता की टोपी पहले की तरह उसके हाथ में 
					थी। लड़की तीस रुपये लेकर वहाँ से जा चुकी थी, कॅनाट प्लेस की 
					भीड़भाड़ में अपने ग्राहकों की खोज में।
 |