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                        |  | ४३, वाड्डी 
                        कैंडोलिम बारडेज, गोवा।
 सोमवार, २१ अक्तूबर, १९८५
 |  अनुरीति,
 प्रिय नहीं लिख रहा हूँ, अभी संशय में हूँ।
 जिस दिन आप दिल्ली पहुँचेंगी, उसी दिन या शायद अगले दिन ये 
                    पत्र आपके हाथों में होगा। आप घर पहुँचेगी, सामान रखकर दरवाजा 
                    बन्द करेंगी और अभी पलट भी न पायीं होंगी कि दरवाजे पर दस्तक 
                    होगी। आप चौंककर दरवाजा खोलेंगी और मेरा प्रतिरुप आपके सामने 
                    होगा, मेरा ये पत्र। मेरी अधीरता का अनुमान आपको इसी से ही लग 
                    जायेगा कि आपको बम्बई की बस में बिठाने के बाद जो पहला काम मैं 
                    कर रहा हूँ वह यह पत्र लिखना है। मुझसे कहीं अधिक सौभाग्यशाली 
                    होगा यह पत्र जो हमेशा के लिए आपके पास आने वाला है। आपको 
                    बम्बई के लिए विदा करने के बाद मैं 
                    यों ही खाली-खाली सा भटकता रहा। 
                    बस टर्मिनस के पीछे मंडोवी नदी का पानी भी मुझे कोई सुकून नहीं 
                    दे रहा था।
 
 पता है, पूरे रास्ते मैं अजीब सी बैचेनी से घिरा रहा। कुछ भी 
                    याद नहीं, सिर्फ एक सफेद कबूतरी याद है, जो मेरी कल्पनाओं में 
                    निरन्तर मेरे साथ है, जिसके फैले हुए पंख मेरी छत हैं, जिसका 
                    नर्म स्पर्श मेरा बिस्तर है, जिसकी प्यारी गुटरगूँ मेरी 
                    प्रार्थना है, जिसका फड़फड़ाना मेरे जज्बात हैं, जिसका उड़ना 
                    मेरा विस्तार है। पर घर आया तो खाली हाथ था, सफेद कबूतरी उड़ 
                    चुकी थी, कल्पनाऐं बिखर चुकी थीं, आप जा चुकी थीं। कितनी अजीब 
                    बात है कि पन्द्रह दिन हम एक साथ रहे, घूमे-फिरे, खाया-पिया, 
                    हँसी-मजाक किया, कहा-सुना पर वह न कह सका जो मुझे अवश्य कह 
                    देना चाहिए था और अब, आपके जाते ही वह बात कहने के लिए बेचैन 
                    हो रहा हूँ।
 मैं जानता 
                    हूँ गोवा बहुत हसीन है लेकिन पिछले पन्द्रह दिनों में वह बहुत 
                    ही हसीन लगा क्योंकि आप मेरे साथ थीं। फोर्ट अग्वादा, अन्जुना 
                    बीच, चापोरा फोर्ट, डोना पॉला, आवर लेडी चर्च, ओल्ड गोवा चर्च, 
                    शांता दुर्गा मन्दिर हमेशा साधारण से लगते रहे पर दो सप्ताह के 
                    लिए सभी कुछ असाधारण हो गया........सभी कुछ, मैं भी। क्योंकि 
                    इस बार आप साथ थीं, क्या ये साथ हमेशा के लिए हो सकता है? आपके 
                    आँखों से ओझल होते ही मुझे सिर्फ आप ही दिखाई दे रही हैं। 
                    नटखट, शोख, चंचल। फटी हुई किताब में, किसी के 'ओहो यूपी के 
                    गौड़ ब्राह्मण` कहने में, किसी के लम्बे बालों में, किसी की 
                    चमकती हुई पीठ में। मैं नहीं जानता कि मैं क्या कर रहा हूँ, 
                    क्या कह रहा हूँ। मैं ये भी नहीं जानता कि आपके दिल में मेरे 
                    लिए कैसी भावना है, शायद जानने की आवश्यकता भी नहीं क्योंकि 
                    मैं अपने दिल की बात तो जानता ही हूँ, जो शब्दों के रूप में इस 
                    कागज पर बिखर कर आप तक पहुँचने वाली है, पता नहीं आप इसे 
                    समेटेंगी या छितरा देंगी। अगर मेरी भावनाओं का आदर न कर सको तो 
                    विनती है कि निरादर भी न करना, उत्तर अवश्य देना। स्वीकृति या अस्वीकृति।
 इस दुस्साहस की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में।
 
 - आभास
 पत्र पढ़ने 
                    के बाद दिल अजीब से रोमांच से धड़कने लगा। किसी का इतना निजी 
                    और प्रेम से भरा पत्र मैंने आज तक नहीं पढ़ा था, पत्र क्या, 
                    वैसा कुछ भी लिखा मैंने नहीं पढ़ा था। आज पच्चीस सितम्बर दो 
                    हजार आठ है। तेईस बरस........। मैं भी तो तेईस बरस का हूँ। 
                    मेरे जन्म के बाद लिखा गया था ये पत्र। तेईस बरस में किसी का 
                    प्रेम पत्र पहुँचा है। एक जीवन बीत जाता है इतने बरसों में। 
                    क्या ये सम्भव है? सम्भव तो है तभी तो ये पहुँचा है। यह प्रेम 
                    पत्र पढ़कर मैं आभास की कल्पना करने लगा। आकृति तो बन गयी पर 
                    चेहरा नहीं बन पाया...। चेहरा बनने लगा...बन गया...। पर...वह मेरा चेहरा था। 
                    मैं? मैं 'आभास` हो गया। मेरा पत्र मुझे वापस मिल गया। मुझे 
                    लगा मैंने ही ये पत्र लिखा था। इतने वर्षों बाद जो मुझे मिला 
                    है वह मैं सही पते पर पहुँचाऊँगा। शायद इस पत्र को प्राप्त 
                    करने वाली अभी भी इसकी प्रतीक्षा कर रही हो?
 अनुरीति इस 
                    फ्लैट में रहती थी। वह कैसी होगी? कौन से कमरे में रहती होगी? 
                    क्या करती होगी? क्या पढ़ती होगी? मैं अपनी कल्पना में अनुरीति 
                    को देखने लगा। मुझे अपने फ्लैट के प्रत्येक स्थान पर अनुरीति 
                    दिखाई देने लगी। एक प्यारी सी सफेद कबूतरी जैसी लड़की। लेकिन 
                    अब तो वह अनुरीति अम्मा होगी। फिर भी, मैंने उसी समय निश्चय कर 
                    लिया कि मैं उसकी अमानत उस तक पहुँचा कर रहूँगा, कैसे भी।
                     'कैसे 
                    भी` की शुरुआत मैंने अपने पिता से की। पिताजी से उनके आफिस में 
                    राधा रमण वर्मा के बारे में मालूम करवाया। पता चला कि राधा रमण 
                    वर्मा सीनियर एकाउन्टेट थे जो सन १९८९ में रिटायर हो गये थे। 
                    रिटायर होने के बाद सरकारी आवास छोड़ गये, जो कि छोड़ना था। 
                    कहाँ गये? सिविल लाइन्स में। वहाँ का पता एक कागज के टुकड़े पर 
                    लिखा हुआ मुझे मिला। पिताजी ने पूछा था कि वर्मा से क्या काम 
                    होगा जो शायद अब तक मर खप भी गया होगा। मेरा जवाब था कि काम हो 
                    जाने के बाद बताऊँगा। 
 यहाँ से मेरी यात्रा आरम्भ हुई जो तेईस बरस लम्बी थी, जहाँ 
                    किसी की अभिलाषा थी जो मन के किसी कोने में मोटी पर्तों के 
                    नीचे कहीं दबी होगी, जहाँ किसी की प्रतीक्षा थी जो इतनी लम्बी 
                    हो गयी थी कि प्रतीक्षा करने वाले को ही मालूम नहीं हुआ होगा।
 
                    ७ फ्लैग स्टाफ रोड, सिविल लाइंस, 
                    दिल्ली। यही पता था और मैं इस पते की इमारत के सामने खड़ा था। इमारत के 
                    गेट के बायीं ओर जो पत्थर जड़ा था उस पर तीन नाम लिखे थे मगर 
                    उनमें वर्मा कोई नहीं था। मैं हिचक रहा था कि भीतर जाऊँ या 
                    नहीं। पत्र मेरी कमीज की जेब में सुरक्षित रखा था फिर भी मैंने 
                    उसे टटोला। पत्र का स्पर्श होते ही हिचकिचाहट ने दम तोड़ दिया। 
                    मैं आगे बढ़ा और गेट के किनारे लगी कॉलबेल बजा दी।
 
 कुछ ही क्षण बाद एक लड़का बाहर आया जो शायद नौकर था। उससे राधा 
                    रमण वर्मा के बारे में पूछा। उसने साफ मना कर दिया कि यहाँ कोई 
                    राधा रमण वर्मा नहीं रहता। मैंने घर के मालिक से बात करने की 
                    इच्छा जताई। पहले वह हिचकिचाया, फिर मुझे वहीं रुकने को कहा और 
                    भीतर चला गया। थोड़ी देर बाद एक बुजुर्ग बाहर आये। मैंने उनसे 
                    भी वही प्रश्न किया।
 
 बुजुर्ग कुछ देर के लिए विचारमग्न हो गये। फिर वे बोले, 'एक 
                    श्रीचरण वर्मा को तो मैं जानता हूँ। यह मकान हमने उसी से खरीदा 
                    था। हो सकता है राधा रमण वर्मा उसका भाई हो। क्या बात हो गई?`
 'बात कुछ नहीं। उनका कुछ सामान था मेरे पास।`, मैंने हिचकिचाते 
                    हुए कहा।
 'अच्छा।`, उन्होंने कहा, 'नवासी नब्बे में हमने यह मकान खरीदा 
                    था। अब तो मुझे भी नहीं पता वो कहाँ होंगे। हाँ, हो सकता है कि 
                    वे कानपुर में हों। मुझे याद है उन्होंने बताया था कि वे 
                    कानपुर के रहने वाले थे। हो सकता है
 वे वहाँ चले गये हों। हो सकता है........। हो सकता 
                    है.........।`
 'कानपुर का पता तो आपके पास नहीं होगा?`, मेरे प्रश्न में पहले 
                    से ही नाकारात्मकता झलक रही थी।
 बूढ़े ने इन्कार में गर्दन हिलाई।
 'कोई उनका जानकार होगा जो मुझे उनका पता बता दे।`, मेरे शब्दों 
                    में निराशा अधिक थी।
 बुजुर्गवार फिर सोच में गुम हो गये।
 'एक शशिलाल कौशिश है जिनका अशोक निकेतन में आफिस है, उनके पास 
                    हो सकता है उनका पता हो।`,
 आशा की एक किरण उन्होंने मुझपर छोड़ी।
 'उनका पता दे दीजिए।`
 'क्या ज्यादा जरूरी सामान है?`, उन्होंने संशय भरे स्वर में 
                    पूछा।
 जी। बहुत जरूरी।`, मैंने कहा और अपनी कल्पना में उस पत्र को 
                    छुआ।
 'ठीक है बेटा, तू ठहर यहीं। मैं ढूँढ के लाता हूँ।`, उन्होंने 
                    कहा और भीतर चले गये।
 मैं बाहर ही प्रतीक्षा करता रहा। शायद पता ढूँढना, पुराना पता 
                    ढूँढना मुश्किल काम था इसलिए उन्हें बहुत
 देर लग गयी।
 'बहुत पुराने कागज खंगालने पड़े मुझे`, उन्होंने मुझे एक कागज 
                    का पुर्जा देते हुए कहा।
 'सर, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और मेरी वजह से आपको जो परेशानी 
                    उठानी पड़ी उसके लिए माफी
 चाहता हूँ।`, मैंने खेदपूर्ण स्वर में कहा।
 उन्होंने भावहीन नेत्रों से मेरी ओर देखा और बिना कुछ कहे भीतर 
                    चले गये।
 पता अशोक 
                    निकेतन, नारायणा विहार का था और एक टेलिफोन नम्बर भी था। मैंने 
                    अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट की और रिंग रोड की ओर मुड़ लिया। वह 
                    'कौशिक प्रापर्टीज` के नाम से आफिस था। वहाँ पूछताछ पर पता चला 
                    कि शशिलाल कौशिश का देहान्त हुए कई साल हो चुके हैं और उनका 
                    बेटा संजय कौशिश किसी श्रीचरण वर्मा या राधा रमण वर्मा को नहीं 
                    जानता। इसके अलावा उसने और कोई भी बात करने से मना कर दिया। 
                    मैं घर लौट आया। मैं निराश तो 
                    नहीं हुआ था लेकिन आगे के लिए मेरा रास्ता बन्द हो गया था। 
                    मेरे पास सिर्फ एक शहर का नाम था और शहर के नाम से किसी नाम का 
                    पता लगाना असम्भव ही था। लगता था, अनुरीति का पत्र मेरे ही पास 
                    रह जाने वाला था। शायद इस पत्र की यही नियति है कि यह अनुरीति 
                    को कभी नहीं मिलेगा। रात भर मैं सोचता रहा और रात में ही मैं 
                    एक नतीजे पर पहुँच गया। 
 मैंने गोवा जाने का निश्चय किया। मिलने वाले को यह पत्र नहीं 
                    मिला तो क्या हुआ? भेजने वाले को तो वापस मिल ही सकता है। इतना 
                    कीमती और इतनी लम्बी समयावधि की यात्रा करके आया पत्र मैं डाक 
                    से तो वापस भेज नहीं सकता था इसलिए मैंने स्वयं ये पत्र भेजने 
                    वाले को देकर आने का निश्चय किया। मन का पंछी उड़ने के लिए पंख 
                    फड़फड़ाने लगा।
 
 मैंने अपने माता-पिता को अपने निश्चय के बारे में बताया। दोनों 
                    ने एक साथ मना कर दिया।
 'फाड़ के फैंक उसे।`, यह मेरी माता जी उद्गार थे।
 मैं उन्हें कैसे समझाऊँ कि मैं इस पत्र के साथ भावनात्मक रूप 
                    से जुड़ चुका हूँ और दिल से सोचने वाला व्यक्ति दिमाग की बात 
                    नहीं मानता। मैं उन्हें कैसे समझाऊँ कि एक सफेद कबूतरी मेरे 
                    भीतर उड़ रही है और किसी की खामोश प्रतीक्षा मुझे कचोट रही है। 
                    मैंने अपने पिता को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने कुछ भी 
                    सुनने से इन्कार कर दिया लेकिन जाने के लिए सहमति दे दी। 
                    उन्होंने पत्र भी पढ़ा, वे भी पत्र पढ़कर कहीं खो से गये। मेरी 
                    माँ नाराज हुई मगर अन्तत: वे भी मान गईं।
 तो अगले आठ 
                    दिन बाद यूनिवर्सिटी की दशहरे की छुटि्टयों में वापसी की टिकट 
                    लिये मैं गोवा की जमीन पर था। गोवा एक्सप्रेस ने मुझे सुबह 
                    साढ़े छह बजे मडगांव स्टेशन पर उतारा। पहले मैंने सोचा था किसी 
                    दोस्त को साथ लेकर आऊँ लेकिन इस तेईस साल पुराने पत्र से 
                    सम्बन्धित सारे रोमांच, सारे एडवेन्चर मैं किसी के साथ शेयर 
                    नहीं करना चाहता था। उसके सारे सुख-दुख अकेले ही झेलना चाहता 
                    था। 
 स्टेशन से बाहर निकलते ही पीले रंग के किंगफिशर बीयर केन के 
                    बहुत बड़े होर्डिंग ने मेरा स्वागत किया। बीयर केन की फोटो 
                    इतनी सजीव थी कि मन कर रहा था कि इस चिल्ड केन को अभी उठाकर पी 
                    लूँ। मडगांव स्टेशन से बाहर निकलकर मैंने कैंडोलिम जाने के लिए 
                    पूछताछ की। पूछताछ के आधार पर मैं मडगांव बस अड्डे से बस 
                    पकड़कर पहले पणजी पहुँचा और वहाँ से कैंडोलिम। कैंडोलिम इलाका 
                    गोवा के सबसे प्रसिद्ध बीच कैलंगूट बीच के पास स्थित है। 
                    कैंडोलिम खुद भी बीच के किनारे है और इसी नाम से बीच जाना जाता 
                    है। मैंने वाड्डी भी पूछा और मुझे यही समझ आया कि गोवा वासी 
                    वाड्डी या वाड्डो गांव या इलाके को कहते है। तिरतालिस नम्बर कई 
                    स्थानों पर पूछने पर भी पता नहीं लग पाया। और आभास! कौन आभास? 
                    क्या आभास? आभास क्या होता है?
 
 जो काम मैं बहुत आसान समझ रहा था, वही सबसे मुश्किल हो गया था। 
                    अनुरीति को दिल्ली में तलाश करने से भी अधिक मुश्किल। अब सबसे 
                    पहले मैंने अपने रहने का सस्ता ठिकाना खोजा ताकि मैं ताज़ा 
                    होकर नई उम्मीद और नई उमंग से अपनी खोज कर सकूँ।
 
 होटल के कमरे में बैठा मैं नये सिरे से सोच रहा था कि अब कैसे 
                    शुरूआत करूँ? अपने घर पर सकुशल गोवा पहुँचने की सूचना मैं दे 
                    चुका था लेकिन उन्हें प्रारम्भिक खोजबीन की निराशा के बारे में 
                    नहीं बताया था।
 
 अचानक मेरे दिमाग में घंटी बजी।
 और आधे घण्टे बाद मैं कैंडोलिम डाकघर में था। डाकघर से ही मुझे 
                    सही पता मिल सकता था। मैंने धड़कते दिल से वहाँ मौजूद एक 
                    व्यक्ति से पता पूछा।
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