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                     मुझे 
                    आज भी याद है जब मैं अपने पति और बच्चे के साथ केदारनाथ की 
                    यात्रा पर गई थी। केदारनाथ मन्दिर में पहुँचकर चौदह किलोमीटर 
                    की पैदल चढ़ाई की मेरी सारी थकान, मेरा संताप उनके दर्शन मात्र 
                    से समाप्त हो गया था। उनके दर्शन से ऐसा लगा मानो मुझे सब कुछ 
                    मिल गया हो। मैं सचमुच बहुत सौभाग्यशाली थी। मन्दिर के प्रांगण 
                    में एक साधू ने मेरे माथे पर भभूत का टीका लगाया तो मैं सचमुच 
                    पवित्र हो गई। वहाँ पर मेरे पति के जानकार एक व्यक्ति और उनका 
                    परिवार भी मिले थे। उन जानकार ने कहा था, 'इस टीके से आपके 
                    चेहरे पर एक पवित्र आभा सिमट आई है।' फिर बाकी यात्रा उन्हीं 
                    के परिवार के साथ ही हुई। यात्रा के बाद जब वाराणसी लौटी तो 
                    मेरे पास दो चीजे थीं-ईश्वर के प्रति भक्तिभाव से भरा मन और 
                    'एक पवित्र आभा'। उन्होंने मेरा नाम ही आभा रख दिया था। आज 
                    मेरे साथ न मेरे पति है और न मेरा बच्चा। दोनों का ढाई वर्ष 
                    पहले एक दुर्घटना में देहान्त हो चुका है। मणिकर्णिका घाट पर 
                    पति और बच्चे को जलाते समय मैं भी जल जाना चाहती थी या गंगा 
                    में डूब जाना चाहती थी और मैंने ऐसा करने की कोशिश भी की थी 
                    किन्तु मुझे बचा लिया गया था। ऐसे कठिन समय में, जिन्होंने 
                    मुझे आभा नाम दिया था, उन्होंने ही मुझे संभाला था। लेकिन मैं 
                    उनके साथ भी नहीं रहती। 
 मैं यहाँ वाराणसी में अकेली रहती हूँ और कबीर चौरा अस्पताल में 
                    एकाउन्ट विभाग में कार्य करती हूँ, वहीं जहाँ मेरे पति काम 
                    करते थे। पहले मैं अस्पताल के क्वार्टर में ही रहती थी लेकिन 
                    करीब डेढ़ वर्ष से यहाँ साकेत नगर में रह रही हूँ। यह मकान उनका 
                    है। वे अब अपनी पत्नी और बच्चों के साथ दिल्ली में रहते हैं। 
                    वे मुझे भी दिल्ली ले जाना चाहते थे, अभी भी चाहते हैं लेकिन 
                    मैं अपने ही शहर में जीना चाहती हूँ और इसी में मरना। और फिर 
                    यहाँ गंगा भी तो है। बेशक, आज गंगा बहुत गन्दी हो गई है किन्तु 
                    फिर भी उसका एक अलग ही आकर्षण है, अलग ही गरिमा और अलग ही 
                    रहस्य है। मगर मेरा गंगा जैसा रहस्य नहीं है, न ही ऐसी गरिमा 
                    और न आकर्षण। मैं तो मात्र भौतिक व्यसनों में लिप्त हूँ। जीवन 
                    की विभिन्न विलासिताओं को भोगती हुई मात्र स्त्री देह। महीने 
                    में दो बार दशाश्वमेध घाट पर गंगा में स्नान करने से मैं सोचती 
                    हूँ जितने भी भोग विलास मैं कर रही हूँ वे सब यहाँ धुलकर बह 
                    जाते हैं और मैं पवित्र हो जाती हूँ। इस पवित्र और आध्यात्मिक 
                    शहर में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति यही समझता है कि वह शुद्ध 
                    है। गंगा उसके बगल में से बह रही है तो वह निष्पाप है। कुछ 
                    भ्रम बने रहें तो बहुत अच्छे होते हैं, उनके बने रहने से जीवन 
                    सुखद और सुगम हो जाता है।
 
 मैं सुनयना उर्फ आभा, मेरी व्याख्या अगर सच्चाई और कड़वाहट से 
                    की जाये तो मैं उनकी रखैल हूँ, अगर खुद को तसल्ली देने के 
                    बहाने से कहा जाये तो मेरा अपना भी अस्तित्व है, मैं अपना 
                    जीवनयापन खुद कर रही हूँ और अगर सिर्फ दिल से कहा जाये तो मैं 
                    उनसे प्रेम करती हूँ, अटूट प्रेम। उन्होंने मुझे मेरी देह से 
                    अवगत कराया। मैं तो उसे ढोती हुई जी रही थी। मुझे मालूम ही 
                    नहीं था कि अपनी देह से इस तरह से भी पहचान हो सकती है। हमारे 
                    शरीर के कितने कोने खुदरे अनछुए होते हैं, मरे हुए होते हैं, 
                    हमें पता ही नहीं होता। हम अपने शरीर की खोज खुद नहीं कर सकते। 
                    उन हिस्सों को खुद तलाश कर ठीक नहीं कर सकते। कोई दूसरा ही उन 
                    हिस्सों की गांठे खोल सकता है, अपने स्पर्श से उन्हें जीवित कर 
                    सकता है। ऐसा उन्होंने किया। मैं हमेशा उनकी अहसानमन्द रहूँगी 
                    कि उन्होंने मुझे उस सुख से भर दिया जिसे मैं जानती भी नहीं 
                    थी, न जान सकती थी।
 
 आज हमारे सम्बन्ध को बने दो वर्ष हो गए हैं। आज वे दिल्ली से 
                    हमारी दूसरी वर्षगाँठ मनाने के लिए आ रहे हैं। अपनी विस्तृत 
                    कल्पनाओं को मेरे साथ साकार करने के लिए आ रहे हैं। मैं भी 
                    सुबह से तैयारी और उनकी प्रतीक्षा कर रही हूँ। उन्होंने कहा था 
                    कि वे गुलाब की ढेर सारी पंखुड़ियाँ भिजवायेंगे जिनका क्या-क्या 
                    उपयोग करना है, ये भी पहले से ही बता दिया था मगर अब?
 
 अब मेरे सामने कमल के फूल हैं, हल्के गुलाबी कमल के फूल 
                    जिन्हें देखकर मन में वासना नहीं श्रद्धा उत्पन्न हो रही है। 
                    मेरे भीतर से उनसे मिलन का उत्साह मर रहा है और पूजा में जाने 
                    का उत्साह जन्म ले चुका है। भोग विलास का समय बहुत सीमित और 
                    छोटा होता है जो फिर लौटकर आ सकता है परन्तु ये अवसर नहीं 
                    आयेगा। यह पूजा फिर नहीं दोहराई जायेगी। इसमें तो मुझे 
                    सम्मिलित होना ही पड़ेगा। यह अवसर मुझे ईश्वर ने ही प्रदान किया 
                    है कि मैं इस बहाने फिर से ईश्वर से जुड़ जाऊँ। कैसी विडम्बना 
                    है कि इतनी धार्मिक और आध्यात्मिक नगरी में रहते हुए भी मेरा 
                    घर धार्मिक नहीं है। संकटमोचन और काशी विश्वनाथ जैसे पौराणिक 
                    मान्यताओं से भरे मन्दिरों के होते हुए भी मेरे घर में मन्दिर 
                    नहीं है। आध्यात्म की शिक्षा देने वाले इतने आश्रमों और मठों 
                    के होते हुए भी मेरे घर में आध्यात्म का नामोनिशान तक नहीं है। 
                    लेकिन, सब कुछ हो सकता है। अभी बिगड़ा ही क्या है? मैं अभी भी 
                    सब कुछ कर सकती हूँ।
 
 उनका क्या होगा जो दिल्ली से यहाँ एक उत्सव मनाने के लिए आ रहे 
                    हैं? जरूरी नहीं कि वे सिर्फ मेरे लिए ही आ रहे हों, उनका अपना 
                    काम भी तो है। वे दिल्ली में एक ट्रैवल एजेन्सी चलाते हैं और 
                    विशेषत: विदेशियों को आगरा, वाराणसी और खजुराहो एक पैकेज के 
                    तहत भेजते हैं। अगर आज मैं इस पूजा में चली जाऊँ तो क्या वे 
                    नाराज हो जायेंगे? कहना कठिन है, हो भी सकते हैं और नहीं भी। 
                    अगर हो जाते हैं तो मेरी बला से। मैं अपना सब कुछ खो चुकी हूँ 
                    इसलिए अब मुझे किसी चीज़ को खोने से कोई फर्क पड़ेगा और न ही 
                    किसी चीज़ को पाने या अपना बनाने से। जैसा चल रहा है मैं उसे 
                    वैसा ही स्वीकार कर रही हूँ और आगे भी करती रहूँगी।
 
 मैं इतना जानती हूँ कि कुछ चीजें कभी लौटकर नहीं आतीं जैसे 
                    बीता हुआ समय, छूटे चुके लोग, हाथ से निकले अवसर। बाकी चीजों 
                    को हम दोहराते रहते हैं-आदतवश, मजबूरीवश या फिर उत्सुकतावश।
 मैंने सोच लिया है मैं जाऊँगी इसलिए मैंने 'नन्दन पुष्प 
                    विक्रेता' से मालूम कर लिया है ये कमल के फूल कहाँ जाने थे। ये 
                    फूल आनन्द बाग के श्री सारभूत मठ में जाने हैं, शायद वहीं ये 
                    विशेष पूजा होनी है।
 
 फूल वाला माफी माँग रहा था। कह रहा था कि मेरे वाले फूल मठ में 
                    चले गए हैं। वह तो अपना आदमी भेजने भी वाला था लेकिन मैंने मना 
                    कर दिया और कह दिया कि मैं उसी ओर जा रही हूँ तो मैं ही दे 
                    आऊँगी। चार बज चुके हैं। उनका हवाई जहाज सात बजे वाराणसी 
                    पहुँचेगा। अभी मेरे पास काफी समय है। अब मुझे उनके लिए नहीं 
                    बल्कि पूजा में जाने की तैयारी करनी है। मैं हल्के पीले रंग 
                    वाली साड़ी पहनूँगी और माथे पर भभूत का टीका लगाऊँगी जो वे मेरे 
                    लिए दिल्ली के किसी मन्दिर से लाये थे। मैं फिर से पवित्र होना 
                    चाहती हूँ। गंगा ने मुझे पवित्र किया है या नहीं मैं नहीं 
                    जानती पर भभूत मुझे अवश्य पवित्र करती है, ऐसा मेरा विश्वास 
                    है।
 
 साढ़े चार बज चुके हैं। मैं सारभूत मठ जा रही हूँ। अब ये घंटी 
                    किसने बजा दी। देखती हूँ...
 
                    शिवरतन स्वामी 
                    और सुनयना सुनयना ने 
                    मुख्य दरवाजे की मैजिक आई से बाहर झाँका। बाहर उसे एक दाढ़ी 
                    वाला व्यक्ति दिखाई दिया। एक अजनबी को देखते ही वह उलझन में पड़ 
                    गई कि चलते समय कौन आ गया? अभी वह अनिश्चय की स्थिति में ही थी 
                    कि दोबारा घंटी बजी। इस बार घंटी में उसे अधीरता का आभास हुआ।उसने दरवाजा खोला। बाहर गैरिक कुर्ते और धवल धोती में एक साधू 
                    खड़ा था। उसके हाथ में बड़ा सा पैकेट था। उसके कुछ कहने से पहले 
                    ही वह बोल पड़ा।
 
 'प्रणाम देवी। मैं शिवरतन स्वामी हूँ और श्री सारभूत मठ से आया 
                    हूँ। सुनयना जी हैं क्या?'
 'ओह! आप सारभूत मठ से आये हैं। मैं ही सुनयना हूँ।', सुनयना ने 
                    गहरी साँस छोड़ते हुए कहा।
 
 शिवरतन स्वामी ने सुनयना को नये सिरे से देखा। हल्के पीले रंग 
                    की साड़ी में सामने खड़ी स्त्री बहुत सुन्दर लग रही थी। 'बिल्कुल 
                    अमलतास के फूल जैसी।', उसने मन ही मन सोचा, 'तो यही है जो इन 
                    गुलाब की पत्तियों से नहाएगी।'
 
 सुनयना को अजीब सा लगा। साधू की आँखों में उसे लाल डोरे स्पष्ट 
                    दिखाई दिये। उसे खतरे का आभास हुआ। वह सजग हो गई।
 'दरअसल देवी, आपका सामान गलती से हमारे मठ में आ गया था।', 
                    उसने हाथ में पकड़े पैकेट की ओर इशारा करते हुए कहा, 'और हमारा 
                    सामान कदाचित आपके यहाँ आ गया है?'
 'जी, बिल्कुल ऐसा ही हुआ है। मैं क्षमा चाहती हूँ। वैसे मैं 
                    खुद आपके फूल लेकर आपके आश्रम में आ रही थी। आपने क्यों कष्ट 
                    किया?'
 'कष्ट कैसा? मुझे किसी कार्य से इधर ही आना था तो मैंने सोचा 
                    कि क्यों न मैं ही आपसे फूल बदल लूँ। क्या आप स्वयं मठ में 
                    पधार रही थीं?', वह पहली बार किसी स्त्री के इतने निकट था जिसे 
                    वह आँख भरकर देख रहा था। सुनयना की देह से जो गंध आ रही थी वह 
                    उसे मत्त करने के लिए पर्याप्त थी। लेकिन उसके माथे पर लगे 
                    सफेद टीके से वह उलझन में था क्योंकि वह टीका स्त्री के 
                    व्यक्तित्व से और उसकी अपनी कल्पना से मेल नहीं खा रहा था।
 
 'जी। दरअसल उन कमल के फूलों के साथ एक पत्र भी था जिसमें किसी 
                    विशेष पूजा का उल्लेख था। क्या मैं...अरे, कृपया मुझे क्षमा 
                    करें। आप भीतर आइये न।'
 
 सुनयना दरवाजे से एक ओर हुई ताकि शिवरतन भीतर आ सके। शिवरतन ने 
                    भीतर प्रवेश किया। फूलों का पैकेट उसने सामने मेज पर रख दिया 
                    जहाँ वैसा ही एक पैकेट पहले से रखा था। ड्राइंगरूम में 
                    आधुनिकता की छाप थी। सभी चीजें कीमती और नये चलन की थीं। वह 
                    हतप्रभ सा चारों ओर देख रहा था।
 'बैठिये बाबाजी।', उसने सोफे की ओर इशारा करते हुए कहा।
 बाबाजी हल्का सा हिचके, फिर बैठ गए।
 'क्या लेंगे बाबाजी, चाय या ठंडा?'
 'आप कष्ट न करें। औपचारिकता की कोई आवश्यकता नहीं। हमें हमारे 
                    पुष्प दे दीजिए ताकि हम चलें, हमें विलम्ब हो रहा है।', बाबाजी 
                    ने संयत स्वर में कहा।
 'कष्ट कैसा ये तो मेरा सौभाग्य है। कुछ तो आपको लेना ही 
                    होगा।', वह विनीत स्वर में बोली।
 'अगर आप सचमुच इसे सौभाग्य मानती हैं तो एक प्याली चाय ले 
                    लूँगा।' बाबाजी ने विनम्रता से कहा।
 
 सुनयना हल्का सा मुस्कराई और भीतर चली गई। वह हल्की मुस्कान 
                    शिवरतन स्वामी के दिल में बैठ गई। उसके भीतर मदहोश करने वाली 
                    हिलोरे उठ रही थीं। मन के किसी कोने से उसी प्रेमपत्र के अक्षर 
                    उभर रहे थे और कल्पना में साकार हो रहे थे। उसे लग रहा था 
                    कल्पना आकार ले सती है...ले रही है...परन्तु कुछ तो था जिसने 
                    उसका रास्ता रोका हुआ था, अड़ा हुआ था। उसकी तीव्र इच्छा हो रही 
                    थी कि कल्पना साकार हो उठे और वह सुख की चरम अवस्था का आनंद 
                    प्राप्त कर सके।
 
 कल्पना के पंखों पर सवार होकर वह और आगे बढ़ा ही था कि एकाएक 
                    उसे गुरूजी का ध्यान हुआ और उनका समाधिस्थ चेहरा याद आया। वह 
                    चेहरा याद आते ही शिवरतन स्वामी चिहुँककर उठा। जैसे उसे कोई 
                    भूली बात याद आ गई हो, उसने कमल के फूलों वाला पैकेट उठाया और 
                    तेजी से घर से बाहर निकल गया। मठ के उस कक्ष में बैठकर स्त्री 
                    के प्रति आसक्ति के विचार आना और इस स्त्री के घर में बैठकर 
                    गुरूजी का ध्यान आना कोई शुभ लक्षण नहीं थे। उसे लगा, गुरूजी 
                    ने उसे बिल्कुल सही समय पर उबार लिया। मठ की ओर जाते हुए वह 
                    भूल गया कि वह पत्र अभी भी उसके कुर्ते की जेब में पड़ा था जो 
                    उसने वापस फूलों में नहीं रखा था।
 
 चाय का पानी चढ़ाने के बाद वह बाबाजी के लिए पानी लेकर आई तो 
                    देखा कमरा खाली था और कमल के फूलों वाला पैकेट भी अपने स्थान 
                    पर नहीं था। अचानक बाबाजी क्यों चले गए? क्या उससे कोई गलती 
                    हुई? पानी हाथ में लिए खड़ी वह सोचती रही। उसे अफसोस हुआ कि वह 
                    बाबाजी से पूजा के विषय में भी नहीं पूछ पाई। क्या इस प्रकार 
                    के धार्मिक आयोजन उसके भाग्य में नहीं? क्या वह पूर्वजन्म के 
                    किसी बंधन में जकड़ी हुई जी रही है या इस जन्म के कर्म उसे 
                    आत्मा के सुख से दूर खींच रहे हैं? क्या आत्मा का आनंद और 
                    धार्मिक उत्थान उसकी किस्मत में ही नहीं लिखे हैं? 'शायद मैं 
                    ही इस पूजा के योग्य नहीं।' उसने सोचा। थके हुए हाथों से पानी 
                    का गिलास मेज पर रख वह भारी कदमों से भीतर आईने के सामने गई और 
                    माथे पर लगा सफेद टीका मिटा दिया।
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