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					 स्वर्ण सदन से बाहर निकलते ही उन्होंने प्रियतम कृष्ण से आग्रह 
					किया, “इस परम मनोहारी वृक्ष को तुम द्वारकापुरी क्यों नहीं ले 
					चलते?” “यह कैसे संभव है, कृष्ण ने उत्तर दिया, “इंद्र मेरे मित्र हैं 
					पारिजात इंद्राणी की व्यक्तिगत संपत्ति है उसे भला मैं कैसे ले 
					सकता हूँ।“
 
 केवल असुरों को ही नहीं देवताओं के घमंड को भी चूर करना आपका 
					कर्म है जगत्पति, सत्यभामा ने कृष्ण को उनके भगवान रूप का 
					स्मरण कराते हुए मानवी के रूप में कहा, यदि आपके ये वचन कि 
					“तुम्हीं मेरी अत्यंत प्रिया हो” सत्य हैं तो मेरा मान रखने के 
					लिये इस पारिजात वृक्ष को अपने साथ ले चलें। यह मेरे ही घर का 
					आभूषण है। शची के लिए सत्य को पहचानना और गर्व को दूर करना 
					आवश्यक है। अब तो मैं अन्नजल भी तभी ग्रहण करूंगी जब यह 
					पारिजात द्वारिकाधीश के उपवन की शोभा बनेगा।
 
 देवराज इंद्र से विदा मिल चुकी थी। लौटते हुए पथ में नंदनवन 
					पहुँचते ही हँसते हँसते उस पारिजात के दिव्य वृक्ष को लीलामय 
					श्रीकृष्ण ने उखाड़कर अपने गरुण पर रख लिया।
 
 नंदनवन के रक्षक घबरा उठे। “देवराज हमें दंडित किये बिना नहीं 
					छोड़ेंगे, नंदन कानन से पारिजात को धरती पर ले जाया गया और हम 
					उन्हें रोक भी न पाए।“ उद्यान के रक्षकों में खलबली मच गई। वे 
					सब श्रीकृष्ण के चरणों में गिरकर निवेदन करने लगे कि पारिजात 
					महारानी शची की संपत्ति है सागर मंथन के समय निकले इस पारिजात 
					को कौतूहल वश इंद्र ने शची को दे दिया था। प्रिया का यह वृक्ष 
					हरण कर के ले जाने पर देवराज इंद्र आपको भी नहीं छोड़ेंगे। शची 
					के रूठने की कल्पना मात्र से वे काँपते हैं पर यह पारिजात तो 
					शची के ही अधिकार में है। आप ऐसा अनर्थ न करें।“ रक्षक एक ओर 
					इंद्र के क्रोध से भयभीत थे तो दूसरी ओर कृष्ण के पराक्रम से।
 सत्यभामा ने गरज कर कहा, “शची या इंद्र इस पारिजात के अकेले 
					अधिकारी कैसे हो सकते है। यदि यह सागर मंथन के समय उत्पन्न हुआ 
					है तो यह सबकी संपत्ति है। अकेली शची इसकी स्वामिनी कैसे हो 
					सकती हैं। अरे वन रक्षकों! मदिरा, अमृत और चंद्रमा का भी तो 
					सभी ने समान उपयोग किया था। इसी प्रकार यह सभी की संपत्ति है 
					केवल इंद्र या शची की नहीं।“ वन रक्षकों को डाँटने के स्वर में 
					धिक्कारा सत्यभामा ने।
 तुम सब इसी समय जाकर शची से कहो कि तू यदि देवी है और तेरे पति 
					इंद्र यदि देवताओं के अधिपति हैं तो मानवी की तरह रूप यौवन 
					समृद्धि के अंधकार का साया तेरी बुद्धि पर कैसे पड़ गया कि 
					अपने पति से भी पराक्रमी विष्णु के रूप को पहचान नहीं सकी। अब 
					हम पृथ्वी के प्राणी तुम्हारे पारिजात को अपने साथ हरण कर के 
					लिये जा रहे हैं। देखूँ तुम्हारे देवत्व का गर्व इसे कैसे रोक 
					सकता है। इंद्राणी को एक मानवी चुनौती दे रही थी। वनरक्षक विवश 
					थे। रोते पीटते शची के चरणों में जा गिरे और अपनी सारी व्यथा 
					सुनाई।
 एक मानवी का इतना दुःसाहस कि वह मुझे और मेरे पति को चुनौती 
					देकर पारिजात ले जाने को उद्धत हो। इंद्राणी के लिये यह सब सहन 
					शक्ति से परे था। फिर क्या था। शची ने वस्त्राभूषण अस्त व्यस्त 
					कर डाले। अंगराग मलिन पड़ गए और देवताओं की महासाम्राज्ञी कोप 
					भवन में जा पहुँची। प्रिय पारिजात का हरण उनके लिये मरणांतक 
					वेदनामय हो उठा। पर अंधकार का आवरण उसकी बुद्धि पर से न हटा।
 महारानी शची कोपभवन में चली गई हैं। देवराज तक यह समाचार पहुँच 
					गया। जब तक दुबारा पारिजात वृक्ष स्वर्ग में स्थापित नहीं होता 
					तब तक वे इसी प्रकार पड़ी रहेंगी। ऐसा विचार कर शची ने अन्नजल 
					भी त्याग दिया।
 प्रिया को ऐसी अवस्था में देख देवराज भी असहज हो उठे और 
					देवसेना से घिरे ऐरावत पर आरूढ़ हो पारिजात लाने चल दिये। 
					इंद्र को इस प्रकार आते देख श्री कृष्ण ने सहस्रों बाणों की 
					वर्षा आरंभ कर दी। सारा आकाश और दिशाएँ बाणों से भर उठे। एक ओर 
					श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र उठा लिया, दूसरी ओर इंद्र ने वज्र 
					उठा लिया था। फिर क्या था, चारों तरफ हाहाकार मच गया।
 देवराज द्वारा छोड़े गए वज्र को कृष्ण ने अपने हाथों से रोक 
					लिया और भय से भागते इंद्र को आवाज़ देकर प्रेम से बुलाया। 
					लेकिन इंद्र इतने भयभीत थे कि पीछे मुड़कर देखने का साहस भी 
					उनमें नहीं बचा था। तब सत्यभामा ने अत्यंत मधुरता से पुकार कर 
					कहा, हे देवों के भी अधिपति त्रैलोकेश्वर, तुम शची के पति हो 
					तुम्हें इस प्रकार युद्ध में पीठ दिखाना उचित नहीं। तुम इस 
					प्रकार भागो मत। पारिजात वृक्ष को अपने साथ ले जाओ। इसे पाते 
					ही पुष्पों से अलंकृत शची यथा शीघ्र तुम्हारे समीप आ पहुँचेगी। 
					पराजित होकर लौटने पर पारिजात पुष्पों से रहित कोपभवन में वास 
					करने वाली शची को देखकर तुम्हारे देवराजत्व का महत्त्व क्या रह 
					जाएगा।
 आश्चर्य से भर उठे थे देवराज, कहाँ तो एक इसी पारिजात के लिये 
					इतना भीषण संग्राम छिड़ गया और कहाँ सत्यभामा ऐसी मधुर बातें 
					कह रही है। जब पारिजात वापस ही करना था तो उसे उठाकर लाने और 
					इतने भयंकर युद्ध करने की आवश्यकता क्या थी?
 नहीं नहीं मैं तो तुम्हारा और तुम्हारे प्रियतम कृष्ण का सखा 
					हूँ मैं मित्रों के साथ वैर नहीं बढ़ाना चाहता। अब पारिजात 
					लेकर मैं क्या करूँगा। देवराज ने मुड़कर कहा।
 नहीं देवराज आप संकोच न करें। यह पारिजात तो स्वर्ग की ही शोभा 
					है। उस दिन आपने और महारानी ने अपने रूप यौवन और समृद्धि पर 
					गर्व करते हुए हमारे मानवी रूप को सम्मान की दृष्टि से नहीं 
					देखा था और देवताओं के लिये खिलनेवाले पारिजात पुष्प भी नहीं 
					दिये थे। इस लिये हमने अपने विष्णु व लक्ष्मी रूप को प्रकट 
					करने के लिये ही आपके साथ इस युद्ध की योजना बनाई। रूप यौवन और 
					समृद्धि के कारण उत्पन्न अंधकार में तुम हमें पहचान न सके। पर 
					अब इस अंधकार को इतना मत बढ़ने दो कि देवताओं को प्रदत्त 
					सत्यरूप पहचानने की क्षमता ही तुमसे दूर चली जाए।
 “नहीं नहीं महालक्ष्मी तुम्हारे और तुम्हारे पति के साक्षात 
					विष्णुरूप से पराजित होने में मुझे कोई संकोच नहीं है।“ देवराज 
					सहज हो चुके थे।
 
 आप देवराज इंद्र हैं हम भरणधर्मा हैं। हमने आपको जो कष्ट 
					पहुँचाया है। आपके प्रति जो अपराध किया है उसे आप क्षमा करें। 
					अरे सत्यभामा के उकसाने पर ही मैंने यह पारिजात वृक्ष उठा लिया 
					था। इसे यहीं नंदन वन में शोभा पाने दें। इस बार श्रीकृष्ण ने 
					आगे बढ़कर कहा।
 
 नहीं लीलामय आप इस प्रकार के वचन कह कर क्यों मुग्ध कर रहे 
					हैं। आप लोक रक्षा में तत्पर हैं, इस पारिजात को आप 
					द्वारिकापुरी ही ले जाएँ। आपके साथ यह भी मृत्युलोक में शोभा 
					पाएगा। जिस समय आप मृत्युलोक छोड़ देंगे। यह भी मृत्युलोक में 
					नहीं रहेगा हे भगवन् मेरी धृष्टता क्षमा करें कहते हुए इंद्र 
					स्वर्ग को जाने को तत्पर हुए।
 
 जैसी तुम्हारी इच्छा कहकर सहर्ष श्रीकृष्ण पारिजात वृक्ष को 
					लेकर सहर्ष द्वारिका लौटे और सत्यभामा का मान रखते हुए उसे 
					पारिजात महावृक्ष को सत्यभामा के ग्रहोद्यान में सुसज्जित कर 
					दिया। वह दिव्य पारिजात जिसके समीप जाने पर सभी मनुष्यों को 
					अपने पूर्व जन्मों का स्मरण हो आता है जिसकी सुगंधि से तीन 
					योजन तक पृथ्वी सुगंधित रहती है द्वारका के निवासियों के लिये 
					अलौकिक तत्व के रूप में स्वीकारा गया। सर्वत्र दैवी संपदाओं का 
					विस्तार हुआ।
 दूसरी ओर 
					लीलामय कृष्ण की कृपा से स्वर्ग लौटने पर इंद्र ने भी अपने 
					नंदनवन को उसी स्थान पर फूलों से सुसज्जित पाया। शची और इंद्र 
					के मन का अंधकार दूर होगया वे गर्व रहित, देवत्व के गुणों से 
					परिपूर्ण होकर कल्प कल्पांतर तक दिव्य पारिजात की छाया में सुख 
					पूर्वक निवास करते रहे। |