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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से देविंदर कौर की कहानी— 'प्रायश्चित'


मोहन ने कार स्टार्ट की, पान की गिलोरी को मुँह में एक तरफ़ दबाते हुए, उसके मन में कुछ विचार कौंधा और उसके होठों की मुस्कुराहट और अधिक गहरी हो गई। उसने कार का रुख भीड़ भरे बाज़ार की तरफ़ कर दिया।

आज उसकी जेब में नोटों की गड्‍डियाँ भरी थीं व आँखों में सपने तैर रहे थे, कई चीज़ों की लिस्ट उसने मन ही मन दोहराई, जिन्हें आज वह उन रुपयों से ख़रीद लेना चाहता था, कई दिनों से उसका पैसा अटका था, यों तो काम हो जाने के कुछ ही दिन बाद उसे उसका रोकड़ा मिल जाता था, लेकिन इस बार काम तो ठीक-ठाक ही हुआ था, उसने व उसके साथियों ने बम सही रखा था, वह फट भी गया, लेकिन गलती से एक थैला उनके हाथों से फिसलकर वहीं गिर गया, भनक लगते ही उनका मालिक दुबई भाग गया था, अब वह मामला ठंडा पड़ने पर ही वापस आने वाला था। और इधर कुछ महीनों की तंगहाली ने उसकी हालत पतली कर दी थी। हाल ही पेमेंट हुआ था, तभी मोहन की निगाहें खिलौनों की एक बड़ी-सी सजीधजी दुकान पर पड़ी। कुछ ही देर में नाचता बंदर, दुल्हिन गुड़िया, लाल गेंद आदि से भरे बड़े-बड़े बैग उसकी गाड़ी को चार चाँद लगा रहे थे। पास ही सोनू हलवाई की दुकान से उसने समोसे, रसमलाई आदि पैक करवाए और गाड़ी का मुँह अपने घर की तरफ़ मोड़ दिया, उसके मुँह से सीटी बजने लगी, वह सीटी तभी बजाता जब उसकी जेब गर्म होती।

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